Brahmchary ki Agnipariksha - 2 in Hindi Short Stories by Bikash parajuli books and stories PDF | ब्रह्मचर्य की अग्निपरीक्षा - 2

Featured Books
Categories
Share

ब्रह्मचर्य की अग्निपरीक्षा - 2

गाँव का मेला साल में एक बार लगता था। ढोल-नगाड़ों की आवाज़, मिठाइयों की दुकानों की ख़ुशबू, रंग-बिरंगे झूले और चारों ओर उमड़ती भीड़ – यह दिन सबके लिए उत्सव जैसा होता। बच्चे उत्साह से खिलखिलाते, औरतें नए कपड़े पहनकर आतीं और पुरुष व्यापार और मेलजोल में लग जाते।

उस साल का मेला भी पूरे जोश से शुरू हुआ। अर्जुन के दोस्त – रघु, सुरेश और माधव – सुबह ही उसके घर पहुँच गए।

“अरे अर्जुन! चल ना, मेला देखने। आज गाँव में नाच-गाना भी है। नई मंडली आई है, खूब मज़ा आएगा।”

अर्जुन ने किताब से सिर उठाया और मुस्कुराकर बोला –
“तुम लोग जाओ। मुझे आज गुरुजी ने ध्यान की विशेष साधना बताई है।”

रघु ने ठहाका लगाया –
“अरे पगले! साधना तो रोज़ होती रहेगी, लेकिन नाचने-गाने वाले रोज़ कहाँ आते हैं? चल, तुझे देखकर ही मज़ा आएगा।”

सुरेश भी बोला –
“इतना गंभीर क्यों बनता है रे? हम सब साथ चलेंगे, थोड़ी देर घूम ले, फिर जो चाहे कर लेना।”

अर्जुन का मन थोड़ी देर के लिए डगमगाया। उसने सोचा, “मेले में जाना तो बुरा नहीं। वहाँ तो मिठाइयाँ, खिलौने और मनोरंजन ही है। लेकिन क्या वहाँ मेरा संकल्प डगमगा सकता है?”

उसने मन ही मन गुरुजी की बात याद की –
“सच्ची शक्ति वही है जो मोह और प्रलोभन में भी स्थिर रहे।”

वह धीरे से बोला –
“ठीक है, मैं चलूँगा। लेकिन ध्यान रहे, मैं किसी गलत जगह नहीं जाऊँगा।”

चारों दोस्त मेले में पहुँचे। वहाँ सचमुच चहल-पहल देखने लायक थी। बच्चों की भीड़ झूलों पर झूल रही थी, मिठाई वालों के ठेले पर भीड़ लगी थी, और दूर से ढोल की थाप कानों में पड़ रही थी।

कुछ देर मिठाई खाने और खिलौने देखने के बाद रघु ने शरारती मुस्कान के साथ कहा –
“चलो अब असली मज़ा लेने चलते हैं।”

“कहाँ?” अर्जुन ने पूछा।

“अरे! उस बड़े तम्बू में। वहाँ नाचने-गाने वाली मंडली आई है। सब कहते हैं, नर्तकी बहुत सुंदर है। तू देखेगा तो दंग रह जाएगा।”

अर्जुन समझ गया कि यह वही जगह है जहाँ उसका संकल्प परखा जाएगा।

उसने कहा –
“मैं वहाँ नहीं जाऊँगा।”

माधव हँस पड़ा –
“क्यों? डरता है क्या? तू तो हमेशा कहता है कि तेरे पास आत्मबल है। तो आज़मा ले ना अपना बल।”

सुरेश ने भी चुटकी ली –
“या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि तेरे मन में छुपकर तू भी यही सब देखना चाहता है?”

ये शब्द अर्जुन के दिल को चुभे। उसका चेहरा लाल हो गया। मन के भीतर एक तूफ़ान उठने लगा। एक ओर जिज्ञासा थी – “क्या सचमुच वह नर्तकी इतनी सुंदर होगी?” दूसरी ओर संकल्प की आवाज़ – “नहीं अर्जुन, यही तुम्हारी परीक्षा है।”

दोस्तों ने जबरदस्ती उसका हाथ पकड़कर तम्बू की ओर खींचा। अर्जुन कुछ कदम चला भी, लेकिन फिर अचानक रुक गया। उसने हाथ छुड़ाया और दृढ़ स्वर में बोला –

“नहीं! मैं अंदर नहीं जाऊँगा। तुम लोग जाना चाहो तो जाओ।”

तीनों दोस्त ठठाकर हँस पड़े।
“अरे, देखो तो! साधु महाराज डर गए। अभी से तपस्वी बनने चला है।”

अर्जुन शांत खड़ा रहा। उसकी आँखों में क्षणभर के लिए आंसू चमके, लेकिन अगले ही पल उसका चेहरा दृढ़ हो गया।

वह बोला –
“तुम लोग चाहे मुझे मज़ाक बनाओ, लेकिन मैं अपनी राह से नहीं डगमगाऊँगा। मैं अपने संकल्प को तोड़ना नहीं चाहता।”

उसके दोस्त हँसते हुए तम्बू में चले गए। अर्जुन अकेला रह गया। वह मेले से बाहर निकलकर सीधे नदी किनारे चला गया। वहाँ बैठकर उसने आँखें बंद कीं और लंबी साँसें लीं।

मन में आवाज़ आई –
“अर्जुन, यह तुम्हारी पहली परीक्षा थी। लोगों ने हँसाया, प्रलोभन सामने आया, मगर तुम टिके रहे। यही सच्चा ब्रह्मचर्य है – बाहर से नहीं, भीतर से लड़ाई।”

अर्जुन ने आँखें खोलकर आसमान की ओर देखा। सूर्य ढल रहा था और लालिमा पूरे आकाश में फैल रही थी। उसने मन ही मन कहा –
“हे प्रभु, अगर यह सिर्फ़ शुरुआत है तो आगे का मार्ग कितना कठिन होगा? लेकिन मैं पीछे नहीं हटूँगा। मैं अपने व्रत पर अटल रहूँगा।”
रात को जब उसके दोस्त लौटे तो वे उत्साह से बातें कर रहे थे –
“अरे, तूने क्या मिस कर दिया अर्जुन! नाच तो कमाल का था।”

अर्जुन ने शांत स्वर में उत्तर दिया –
“शायद मैंने नाच नहीं देखा, लेकिन मैंने खुद को देख लिया। और वही मेरे लिए सबसे बड़ी जीत है।”

दोस्त थोड़ी देर उसे देखते रहे, फिर हँसकर बोले –
“तू तो सचमुच अलग किस्म का है।”

अर्जुन मुस्कुरा दिया। वह जानता था कि रास्ता अकेलापन भरा होगा, मगर उसने तय कर लिया था – यह अकेलापन ही उसकी शक्ति बनेगा।

उस रात जब वह ध्यान में बैठा तो उसे भीतर से अजीब शांति महसूस हुई। जैसे किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा हो – “शाबाश, तुमने सही कदम उठाया।”

धीरे-धीरे नींद आई और सपनों में उसने देखा – एक ऊँचा पहाड़ है, जिस पर चढ़ने के लिए लंबा रास्ता है। नीचे घाटी में लोग हँस रहे हैं, गा रहे हैं, आनंद मना रहे हैं। मगर अर्जुन का मन पहाड़ की चोटी पर टिका है, जहाँ शांति और प्रकाश है।

सपने में उसने खुद से कहा –
“लोग चाहे घाटी में खुश रहें, लेकिन मेरा लक्ष्य शिखर है। और मैं वहाँ पहुँचकर ही दम लूँगा।”

इस तरह अर्जुन की पहली परीक्षा पूरी हुई। वह समझ गया कि ब्रह्मचर्य का मार्ग केवल किताबों से नहीं सीखा जा सकता – हर दिन, हर प्रलोभन, हर मज़ाक के बीच खुद को संभालना ही असली साधना है।