Raktrekha - 15 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 15

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रक्तरेखा - 15



गाँव की चौपाल पर धूल बैठी ही थी कि अचानक लोहे की खड़खड़ाहट फिर से गूँज उठी।
नवगढ़ की सेना के बीच से, सुनहरे काठी पर सवार, महामंत्री वर्धन त्रिवेशी प्रकट हुआ।
उसके चेहरे पर वही स्थायी ठंडक, होंठों पर हल्की सी मुस्कान — जो मुस्कान कम, घमंड ज़्यादा लगती थी।
उसकी चाल में कोई जल्दी नहीं थी—पर हर कदम में आदेश छिपा था।
सिर ऊँचा, आँखें सीधी, और होंठों पर वैसी मुस्कान, जिसमें अभिवादन से अधिक अपमान होता है।
उसका परिधान राजसभा की रेशमी परंपरा का था, पर उसके चेहरे पर रेगिस्तान की कठोरता।
घोड़े से उतरते हुए उसने ऐसे देखा मानो यह गाँव, यह चौपाल, यह लोग—सब उसी की जागीर हों।


मुखिया सबसे पहले आगे आया।
उसकी आवाज़ में आदर भी था और चिंता भी—
“महामंत्री जी… यह गाँव आपका अतिथि बनकर स्वागत करता है। आप कृपया हमारे लोगों की—”

पर वर्धन की आँखें उस पर नहीं टिकीं।
वह जैसे उसकी आवाज़ को सुन ही न रहा हो।
सामने खड़ी भीड़ में उसकी नज़र सीधी सुधा पर गई।
सुधा का चेहरा अनायास झुक गया, उसके हाथों में पकड़ा हुआ सूत काँप उठा।
उस नज़र में कोई सामान्य जिज्ञासा नहीं थी—वह किसी पुरानी पहचान की चिंगारी थी।

फिर उसकी दृष्टि मुड़ी।
धरम की ओर।

उसके चेहरे पर एक सूक्ष्म-सी मुस्कान उभरी—जिसमें पहचान भी थी और चुनौती भी।
धीरे-धीरे वह भीड़ को चीरता हुआ सीधे धर्म तक पहुँचा।



“तो… यही जगह चुनी है तुमने?”
वर्धन की आवाज़ ठंडी थी, पर शब्द चुभते थे।
“नवगढ़ की हवेली छोड़कर… यहाँ इन कच्ची दीवारों, मिट्टी की गंध और तालाब की काई में?”

गाँववालों ने चौंककर देखा।
धरम—क्या सचमुच वह कभी नवगढ़ का हिस्सा था?

धर्म ने आँखें नहीं झुकाईं।
बस धीमे स्वर में बोला—
“मिट्टी की गंध में घर बसता है, महामंत्री। हवेलियाँ अक्सर दीवारें ही पालती हैं।”

विनय, जो चौपाल के किनारे खड़ा था, तुरंत आगे बढ़ा।
उसकी आवाज़ संयत थी—
“महामंत्री जी, यह गाँव आपका सम्मान करता है। पर आपकी बातें…”
उसने पल भर रुककर कहा—“वे यहाँ के लिए नई नहीं, अनचाही हैं।”

वर्धन ने उसकी ओर एक तिरछी नज़र डाली—
“तुम विनय हो न?
हाँ… शहर की धूल खाकर गाँव में आए।
अच्छा है। हर गाँव को एक कहानीकार चाहिए…
पर याद रखना—कहानियों से राज्य नहीं चलते, राज्य चलते हैं तलवार और कर से।”

विनय चुप हो गया।
उसने धर्म की ओर देखा, मानो कह रहा हो—“उत्तर तुम्हारा है।”



वर्धन फिर धर्म के करीब आया।
“चलो… वापस चलो मेरे साथ।
महाराज सोमित रघुवंशी ने कहा है—तुम्हारी ज़रूरत है।
तुम्हारे बिना कुछ काम अधूरे हैं।”

धरम ने ठहरकर कहा—
“काम वही अधूरा रहता है, जिसका बीज ही अधूरा हो।
मैंने वह भूमि छोड़ दी है, महामंत्री।
अब मेरा काम यहाँ है—इन लोगों के साथ।”

वर्धन हँस पड़ा—एक ठंडी, नुकीली हँसी।
“अगर तुम सोचते हो कि तुम्हारे बिना नवगढ़ रुक जाएगा…
तो तुम गलत हो।
राज्य व्यक्ति पर नहीं, व्यवस्था पर टिकता है।
तुम गए… दूसरे आ गए।
तुम भूले… हम याद रखते हैं।”

इतना कहकर उसकी आँखें  रेखा पर गईं।
एक पल को, जैसे शब्द अधूरे रह गए हों, और केवल दृष्टि ने पूरा वाक्य बोल दिया हो।

धरम समझ गया।
उसकी आँखों में कठोरता उतर आई—
“मुझे धमकाना आसान है, वर्धन।
पर मेरी चुप्पी को कमजोरी मत समझो।
यह गाँव मेरी साँसों का हिस्सा है—और साँस कभी अकेली नहीं होती।”


वर्धन ने ठोड़ी ऊँची की।
“धमकी?
नहीं धरम… यह तो बस एक याद है।
याद दिलाना कि राज्य की पकड़ लंबी होती है।
तुम्हारे नए घर, तुम्हारे नए लोग—इनसे लगाव रखना ठीक है।
पर याद रखना—राजसभा जब बुलाती है, तो कोई इनकार नहीं करता।”

उसके स्वर में घमंड झलक रहा था—जैसे वह केवल बता नहीं रहा हो, बल्कि आदेश दे रहा हो।

धरम ने शांत लेकिन दृढ़ स्वर में कहा—
“राजसभा के लिए मैं एक ‘नाम’ हो सकता था।
पर इनके लिए मैं एक पड़ोसी हूँ, एक साथी।
और मैं चुन चुका हूँ—नाम छोड़कर पड़ोसी बनना।”

भीड़ मौन थी।
सुधा ने धीमे से धरम की ओर देखा—उसके चेहरे पर डर और गर्व एक साथ थे।
विनय की आँखों में सवाल थे—क्या यह इनकार सुरक्षित रहेगा?


वर्धन ने अंतिम बार चारों ओर देखा।
फिर उसने अपनी तलवार के मुँठे पर हाथ रखा—
ना खींचा, पर इतना ज़रूर किया कि चमक दिखे।

इसी बीच, सेनापति ने आदेश समझते हुए, आगे कदम बढ़ाए।
उसकी नज़र सीधे रेखा पर पड़ी—वह चौपाल के किनारे खड़ी थी, लाठी कसकर पकड़े हुए।

सेनापति ने उसका हाथ जब्त किया, तो वह संकुचित हुई—उसके होंठ बमुश्किल हिले: “छोड़ो…!”

पर सेनापति की मर्दानगी का ढोंग भीषण था — उसकी गर्दन पर हाथ जैसे लोहे का फंदा कस गया, रेखा को सेनापति ने आगे खींचा। वह उसे कसाई की तरह भीड़ के बीच घसीटता गया। उसकी नाजुक देह पत्थरों और मिट्टी पर बार-बार टकराती रही। उसके हर रगड़ के साथ त्वचा फट गई, खून की धार रास्ते पर बिखरती चली गई।  

धरम और आर्यन ने आगे बढ़ने की कोशिश की पर सैनिकों ने उन्हें दबा दिया।

वह लड़की जो कभी गांव की शान थी, आज मौत से पहले अपमान की राख में बदली जा रही थी।  
सेनापति ने भीड़ की आँखों में डर बोने के लिए जानबूझकर राक्षसी हँसी हँसी। 
उसने बेरहमी से रेखा के वस्त्र फाड़ डाले—
कपड़े हवा में बिखरे जैसे टूटे परिंदों के पंख।  
जनसमूह ने करुण आँखों से देखा—रीढ़ तक सिहरन दौड़ गई।  
वह लड़की अब निर्वस्त्र थी, लोगों के सामने उसका शरीर लज्जा से नहीं, बल्कि यातना से जल रहा था।  

बालों को खींचते हुए वो उसे चौपाल के बीच में घसीटता लाया, जहां जमीन पहले ही खून से गीली हो चुकी थी।  
उसने पूरी ताकत से उसे घुटनों पर बैठा दिया।  रेखा की आँखों में आँसुओं की जगह अब सिर्फ़ प्रतिरोध की ज्वाला थी।  
रेखा दर्द से कराहती रही।
उसका शरीर चोटों से नीला पड़ चुका था, खून की धार उसके पैरों से बह रही थी।  


सेनापति ने, पाशविक आनंद में, उसके चेहरे पर वार किया। गाल फट गए, होंठों से खून बह निकला।  
लोग मुंह फेरकर रोने लगे, पर कोई आगे नहीं बढ़ा।  

धरम और आर्यन अपनी जगह जड़ हो गए।  
धरम चीखा—"बस! बस करो!"  
पर सेनापति ने उसकी चीख को उपहास समझा। 

तलवार बाहर निकली—लोहे की धार ऐसी लग रही थी मानो प्यासे शेर के जबड़े हों।  
काटने से पहले उसने रेखा की गर्दन पर वार करके उसे कई जगह से घायल किया।  
रेखा तड़प उठी, उसका गला फटती चिड़िया की तरह कर्कश चीखों से भर गया।  

धरम और आर्यन बेतहाशा टूट पड़े, पर सिपाहियों ने उन्हें पकड़ रखा।  

फिर उसने हथियार को और भी निर्ममता से रेखा की गर्दन पर टिकाया।  
पलभर रेखा की आँखें धरम और आर्यन की ओर उठीं।  
उन आँखों में वेदना और विदाई एक साथ थी—  
मानो कह रही हों, “मुझे बचा नहीं सके, पर मेरी लहू की कसम खाओ।”

और तभी... सेनापति ने अचानक तलवार उठाई और पूरा प्रहार पूरे जोर से किया।
और फिर...  
एक ही वार।  
गर्दन पूरी तरह अलग हुई—इतनी गहरी कटान कि हड्डियाँ और नसें टूटते हुए सफेद-लाल टुकड़ों में चारों तरफ बिखर गईं।
खून का फव्वारा मानो किसी कुएँ से फूट पड़ा हो।    
रेखा की गर्दन से उठता लाल धुआँ—गांव को रक्त और मृत्यु की गंध से भर गया।  

गांव की स्त्रियाँ चीख पड़ीं, पुरुषों की आँखें नम हो गईं।  

रेखा का शरीर झटके से पीछे गिरा—मृत, ठंडा और बेसहारा।  
और उसका सिर... 
उसका सिर लुढ़कता हुआ मिट्टी से होते हुए सीधे धरम और आर्यन के पैरों के पास आकर ठहर गया।

सिर की खुली आँखें अब भी चौड़ी थीं, उनमें भय और अंतिम प्रश्न जमे रह गये—“आखिर मैं क्यूं?”

धरम वहीं बैठा रह गया, उसकी आत्मा चूर-चूर हो गई।  
आर्यन ने उस सिर को गोद में ले लिया और पागलों की तरह चीख उठा।  


गांव पर मौत और खून की गंध छा गई।  
हर ओर से कराह और चीखें उठीं।  
रेखा का निर्जीव शरीर धूल में तड़पकर शांत हो चुका था, पर उसकी हत्या की भयावहता तलवार से नहीं, आत्माओं को काट रही थी।

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