अध्याय 6
पुनर्जागरण और सांस्कृतिक चेतना
किसी भी संस्कृति का जीवन केवल उत्थान का नहीं होता, उसमें उतार भी आते हैं। किंतु वही संस्कृति शाश्वत कहलाती है जो हर बार पतन की राख से पुनः उठ खड़ी होती है। भारतीय संस्कृति का इतिहास इसी अद्भुत पुनर्जागरण का इतिहास है। यह संस्कृति आंधियों में झुकी अवश्य, परंतु कभी टूटी नहीं। समय-समय पर इसने स्वयं को नया रूप दिया, नए विचारों को आत्मसात किया और अपनी जड़ों से शक्ति लेकर फिर से पुष्पित-पल्लवित हुई।
मध्यकाल में जब समाज धर्मांधता और अंधविश्वास के बोझ तले दब रहा था, जब जात-पाँत, ऊँच-नीच और कर्मकांड ने जनमानस को तोड़ दिया था, तब भक्ति आंदोलन ने उसे नई दिशा दी। संत कबीर ने जाति-पाँति का बंधन तोड़कर उद्घोष किया—“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।” तुलसीदास ने रामचरितमानस के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम राम को घर-घर तक पहुँचाया और लोकभाषा में अध्यात्म का प्रकाश फैलाया। मीरा ने अपने प्रेम और भक्ति से यह सिद्ध किया कि ईश्वर केवल मंदिरों और मूर्तियों में नहीं, बल्कि श्रद्धा और विश्वास में रहते हैं। सूरदास ने अंधे होकर भी कृष्ण के माधुर्य का ऐसा चित्रण किया कि संसार आज भी उसमें डूबा हुआ है। गुरु नानक ने पूरे समाज को एकेश्वरवाद और समानता का संदेश दिया। ये सब उस समय के दीपक थे जिन्होंने अंधकार को चुनौती दी।
आगे चलकर जब अंग्रेजों ने भारत को शिक्षा और संस्कृति से काटने का प्रयास किया, तब भी पुनर्जागरण की अग्नि प्रज्वलित हुई। राजा राममोहन राय ने समाज में व्याप्त कुरीतियों को हटाने का अभियान चलाया और विधवा-पुनर्विवाह की राह खोली। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने स्त्री शिक्षा का अलख जगाया। महर्षि दयानंद सरस्वती ने वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया और आर्य समाज की स्थापना कर यह बताया कि भारतीयता पिछड़ी नहीं, बल्कि विश्व को दिशा देने वाली है।
यह पुनर्जागरण केवल सामाजिक नहीं था, राजनीतिक भी था। बाल गंगाधर तिलक ने गीता को जनमानस की शक्ति बना दिया और कहा—“गीता मेरा मातृसदृश है, जिसने मुझे संकट के समय सहारा दिया।” गांधीजी ने गीता को अपने जीवन का आधार माना और अहिंसा का जो मार्ग उन्होंने चुना, वह भारतीय संस्कृति की आत्मा से ही निकला था। सुभाषचंद्र बोस ने भी कहा—“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।” इस त्याग और बलिदान की ज्वाला भी उसी संस्कृति की उपज थी, जो पुनः जीवित हो चुकी थी।
बीसवीं सदी का सबसे बड़ा सांस्कृतिक पुनर्जागरण स्वामी विवेकानंद के रूप में सामने आया। उन्होंने पश्चिम की धरती पर खड़े होकर गर्व से घोषणा की—“सभी धर्म सत्य हैं और सभी का लक्ष्य मनुष्य को ईश्वर तक पहुँचाना है।” यह केवल भाषण नहीं था, बल्कि भारतीय संस्कृति का शंखनाद था जिसने सोई हुई आत्मा को जगा दिया। उनके शब्दों ने युवाओं में यह विश्वास भर दिया कि भारत की संस्कृति केवल अतीत नहीं, भविष्य की दिशा भी है।
आज भी जब हम देखते हैं कि पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव युवा पीढ़ी को भटका रहा है, जब हम अनुभव करते हैं कि मूल्य और संस्कार कमजोर पड़ रहे हैं, तब हमें फिर से उसी पुनर्जागरण की आवश्यकता है। पुनर्जागरण का अर्थ केवल पुराने को पुनः दोहराना नहीं है, बल्कि पुराने में निहित सत्य को आधुनिक रूप में पुनर्जीवित करना है। यदि गीता का संदेश आज भी प्रासंगिक है तो वह इसलिए कि उसमें केवल युद्धभूमि की शिक्षा नहीं, बल्कि जीवन की हर परिस्थिति में कर्म और कर्तव्य का मार्गदर्शन है। यदि रामायण आज भी जीवित है तो इसलिए कि उसमें आदर्श, मर्यादा और कर्तव्य की प्रेरणा है। यदि वेद और उपनिषद आज भी महान हैं तो इसलिए कि उनमें विज्ञान और अध्यात्म दोनों की गहराई है।
पुनर्जागरण का अर्थ है—हम अपनी जड़ों को न भूलें और साथ ही नई शाखाओं को भी बढ़ने दें। पश्चिम से विज्ञान और तकनीक लें, किंतु आत्मा अपनी संस्कृति से लें। यही विवेकानंद का संदेश था और यही भारत का भविष्य है।
भारत का इतिहास गवाही देता है कि यहाँ संस्कृति बार-बार मरी और बार-बार जीवित हुई। यही उसकी अमरता का प्रमाण है। जिस संस्कृति ने सहस्त्रों वर्षों तक न केवल भारत को, बल्कि पूरे विश्व को दिशा दी है, वह आज भी जीवित है और आगे भी जीवित रहेगी। यही सांस्कृतिक चेतना है, जो हमें यह विश्वास दिलाती है कि चाहे संकट कितना भी बड़ा क्यों न हो, भारतीय संस्कृति की ज्योति कभी बुझने वाली नहीं।