अध्याय 7
भारतीय संस्कृति की वैश्विक प्रासंगिकता
भारत की संस्कृति केवल भारत की नहीं है, वह सम्पूर्ण मानवता की धरोहर है। यह वह संस्कृति है जिसने सदा कहा—“वसुधैव कुटुम्बकम्”—सारी धरती एक परिवार है। यह वाक्य केवल आदर्श वाक्य नहीं, बल्कि भारत का जीवन-दर्शन है। जब पश्चिम यह कहता रहा कि “मनुष्य अकेला है और संघर्ष ही उसका मार्ग है”, तब भारत यह सिखाता रहा कि “सभी जीवात्माएँ एक ही ब्रह्म के अंश हैं और सहयोग ही जीवन की आत्मा है।” यही दृष्टिकोण आज की दुनिया के लिए उतना ही प्रासंगिक है जितना सहस्त्रों वर्ष पूर्व था।
आज का विश्व युद्ध, हिंसा, आतंकवाद और भोगवाद की आग में झुलस रहा है। मनुष्य के पास विज्ञान की शक्ति तो है, किंतु शांति की दिशा नहीं है। वह अंतरिक्ष में पहुँच गया, पर अपने ही हृदय के भीतर उतरने का मार्ग खो बैठा। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति का संदेश ही जीवन की राह दिखाता है।
भारतीय संस्कृति ने सदैव यह बताया कि मनुष्य केवल शरीर नहीं है, बल्कि आत्मा है। जब पश्चिमी सभ्यता ने जीवन को केवल भौतिक उपलब्धियों से मापा, तब भारतीय दृष्टिकोण ने कहा—“आत्मा अमर है और जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है।” यह विचार आज भी मनुष्य को भीतर की ओर झाँकने के लिए प्रेरित करता है।
योग, जो कभी केवल भारत के आश्रमों तक सीमित था, आज पूरी दुनिया में स्वास्थ्य और शांति का प्रतीक बन चुका है। न्यूयॉर्क से लेकर टोक्यो तक, पेरिस से लेकर लंदन तक लोग योग का अभ्यास कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस इसका प्रमाण है कि भारत की यह धरोहर आज संपूर्ण मानवता को मार्गदर्शन दे रही है। योग केवल व्यायाम नहीं है, यह मन और आत्मा को शुद्ध करने का साधन है। यह तनावग्रस्त और अशांत दुनिया के लिए जीवनदायिनी औषधि है।
आयुर्वेद, जिसे कभी केवल एक परंपरागत चिकित्सा माना जाता था, आज वैज्ञानिक शोधों के आधार पर विश्वभर में स्वीकार किया जा रहा है। औषधियों से लेकर जीवनशैली तक, आयुर्वेद यह सिखाता है कि स्वास्थ्य केवल रोगमुक्ति का नाम नहीं, बल्कि शरीर, मन और आत्मा का संतुलन है। आधुनिक चिकित्सा जहाँ बीमारी को दबाने का प्रयास करती है, वहीं आयुर्वेद बीमारी के मूल कारण को समाप्त करने की राह दिखाता है। आज जब पूरा विश्व जीवनशैली जन्य रोगों से जूझ रहा है, तब आयुर्वेद सबसे बड़ा समाधान प्रस्तुत करता है।
भारतीय दर्शन की वैश्विक प्रासंगिकता भी असंदिग्ध है। उपनिषदों का “अहं ब्रह्मास्मि” और “तत्त्वमसि” का उद्घोष यह बताता है कि मनुष्य और परमात्मा अलग नहीं हैं। भगवद्गीता का संदेश—“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”—आज भी आधुनिक जीवन की जटिलताओं का समाधान है। यह सिखाता है कि सफलता और असफलता से ऊपर उठकर कर्म करते रहो। यही संदेश आज की प्रतियोगी और तनावग्रस्त दुनिया को चाहिए।
भारत की संस्कृति का वैश्विक महत्व केवल अध्यात्म तक सीमित नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी है। यहाँ स्त्री को देवी माना गया और परिवार को समाज की धुरी। “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव” का संदेश आज भी यह बताता है कि यदि परिवार सशक्त होगा तो समाज सशक्त होगा। पश्चिम जहाँ एकाकीपन और टूटे हुए परिवारों की समस्या से जूझ रहा है, वहाँ भारतीय परिवार-व्यवस्था उसकी सबसे बड़ी प्रेरणा बन सकती है।
साहित्य और कला की दृष्टि से भी भारतीय संस्कृति की प्रासंगिकता अद्वितीय है। कालिदास का “अभिज्ञान शाकुंतलम्” हो या तुलसी की “रामचरितमानस”, मीरा के पद हों या कबीर के दोहे—ये केवल भारतीय नहीं, बल्कि वैश्विक धरोहर हैं। आज भी जब कोई विदेशी विद्वान भारत आता है, तो वह इन ग्रंथों को पढ़कर चकित होता है कि इतने गहन सत्य इतने सरल शब्दों में कैसे कहे जा सकते हैं।
भारतीय संस्कृति का वैश्विक महत्व केवल अतीत का गौरव नहीं, वर्तमान की आवश्यकता है। जब दुनिया हिंसा से त्रस्त है, तब अहिंसा और करुणा ही शांति का मार्ग है। जब समाज भोगवाद से थक गया है, तब संयम और संतोष ही जीवन का सुख है। जब राष्ट्र स्वार्थ के कारण आपस में लड़ रहे हैं, तब “वसुधैव कुटुम्बकम्” ही सच्चा समाधान है।
यह सच है कि भारत ने स्वयं भी कई बार अपनी संस्कृति को भुला दिया और पाश्चात्य की नकल में खो गया। किंतु जब भी संकट आया, पूरी दुनिया ने उम्मीद से भारत की ओर देखा। गांधीजी का सत्य और अहिंसा केवल भारत को ही नहीं, बल्कि पूरी मानवता को दिशा देने वाला बना। आज भी यदि विश्व को बचाना है तो उसे भारत के मूल्यों को अपनाना होगा।
स्वामी विवेकानंद ने सही कहा था—“भारत का उत्थान ही संसार का उत्थान है, और भारत का पतन ही संसार का पतन है।” यही कारण है कि भारतीय संस्कृति की प्रासंगिकता केवल भारत तक सीमित नहीं, बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए जीवन का आधार है।