Antarnihit 22 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अन्तर्निहित - 22

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अन्तर्निहित - 22

[22]

“क्या हुआ सारा जी?” 

“ऐसा कभी मत करना। यदि यह मंजूषा बंद कर दी गई तो ..।” सारा आगे बोल न सकी। बलात उसने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण किया, स्वयं को रोने से रोक लिया। 

“लीजिए, पानी पपी लीजिए।” शैल ने पानी धरा, सारा ने पी लिया। 

“यदि मेरी बात से आपको कोई कष्ट हुआ हो तो ...।” 

“नहीं शैल, ऐसी कोई बात नहीं है।”

“तो आप इतनी विचलित क्यों हो गई?”

“मैं तो अपनी ही बात से विचलित हो गई।”

“क्या बात है? आप चाहो तो मुझे कह सकती हो।”

सारा ने क्षण भर विचार किया, ‘मैं लौटकर पाकिस्तान नहीं जाना चाहती हूँ, कभी नहीं। यह बात और इसका कारण शैल को बता दूँगी तो कदाचित वह मुझे शीघ्र ही पाकिस्तान भेजने की चेष्टा करेगा। इसे अभी नहीं बताना ही उचित होगा।’ 

“साराजी, यदि आप नहीं बताना चाहो तो कोई बात नहीं।”

“ऐसी कोई बात नहीं है। मैं तो बस यही चाहती हूँ कि इस मृत्यु का रहस्य प्रकट हो जाए तो अच्छा। किन्तु यह भी चाहती हूँ कि यह रहस्य कभी प्रकट न हो। हमारा अन्वेषण चलता ही रहे, निरंतर, अनंत काल तक।”

“ऐसा क्यों?”

“मैं अब लौटकर पाकिस्तान नहीं जाना चाहती हूँ। इसी देश में मृत्यु तक रहना चाहती हूँ।”

“ऐसा क्या है?”

“चलो छोड़ो उसे। वह बात समय आने पर बताऊँगी।” सारा ने बात टाल दी, शैल ने आगे नहीं पूछा। 

“तो अब क्या करेंगे? कैसे आगे बढ़ेंगे?” सारा ने बात बदल दी। 

“परामर्श अनुसार फोरेंसिक जांच करवा लेते हैं। इसके लिए आवश्यक अनुमति आज ही मांग लेते हैं।”

“कितना समय लग सकता है?”

“दो से तीन दिन लग सकते हैं अनुमति में।”

“नहीं। मैं जानना चाहती हूँ कि फोरेंसिक जांच में कितना समय लग सकता है?”

“सामान्य रूप से बीस से पचीस दिन लग सकते हैं। इस मंजूषा में साक्ष्य और प्रमाण आदि कुछ नहीं है तो कह नहीं सकते कि कितना समय लगेगा। हो सकता है दो से तीन महीना लग जाए।”

“तब तक हमें क्या करना होगा?”

“कोई योजना नहीं हैं।”

“तब तक वत्सर का क्या करेंगे?”

“वह तो मैंने सोचा ही नहीं। आपने कुछ सोचा है क्या?”

“मैंने? सोचा तो मैंने भी नहीं है। किन्तु ...।”

“किन्तु क्या?”

“इतने दिनों तक वत्सर को यहाँ रोके रखना मुझे ऊचित नहीं लगता। आपका क्या विचार है?” 

“तो उसे जाने दें अपने गाँव?”

“करना तो ऐसा ही चाहिए।”

“उसे छोड़ दिया तो वह कुछ उलटा सीधा करके हमें भटका सकता है।”

“वत्सर ऐसा नहीं कर सकता।”

“ऐसा किस आधार पर कह रही हो?”

“यहाँ आकर ही ज्ञात हुआ कि भारत के पुरुषों में भी संवेदनाएं हैं। वह भी मृदु स्वभाव वाले, कोमल व्यवहार वाले होते हैं। वत्सर में सरलता देखि है मैंने। हमारे यहाँ तो ...।” सारा ने स्वयं को रोक लिया। 

“आपके यहाँ क्या?”

“कुछ नहीं, कुछ नहीं।” सारा ने बात पुन: टाल दी। शैल ने प्रश्न से भरी तीव्र दृष्टि से सारा को देखा। क्षणभर सारा भयभीत हो गई। आँखें बाद कर स्वस्थ होने का प्रयास करने लगी। शीघ्र ही स्वस्थ होकर सारा बोली, “तो वत्सर को छोड़ दें?”

“यदि उसने कुछ किया या विदेश भाग गया तो?”

“वत्सर ऐसा कुछ भी नहीं करेगा।”

“इतना विश्वास है वत्सर पर?” शैल की बात में कटाक्ष था। सारा उस कटाक्ष को पी गई। 

“अब मैं पुरुषों पर भी विश्वास करने लगी हूँ। आपके देश के पुरुषों पर मैं विश्वास कर सकती हूँ।”

“अच्छा? तो क्या आप मुझ पपर भी?”

“हाँ, आप पर भी। आप भी भारतीय पुरुष हैं।”

सारा के शब्दों ने शैल को नि:शब्द कर दिया। 

“मैं वत्सर को लेकर आती हूँ।” सारा कक्ष से बाहर चली गई। शैल प्रतीक्षा करने लगा। 

वत्सर के साथ सारा जब लौटी तो शैल ने वत्सर को बैठने का संकेत किया, वह बैठ गया। 

“वत्सर, अभी तो हम आपको मुक्त कर रहे हैं। आप अपने गाँव जा सकते हैं। किन्तु आपको निरंतर हमारे संपर्क में रहना होगा। इस मंजूषा से जुड़े किसी भी तथ्यों के साथ आप कोई छेड़छाड़ नहीं करोगे। न ही देश छोड़कर जाओगे। क्या आपको यह सभी बातें स्वीकार्य है?” शैल ने कहा। 

वत्सर के अधरों पर स्मित था। शैल ने उसे देखा। ‘यह तो वही स्मित है जो मैंने वत्सर के मंदिर में कृष्ण के अधरों पर देखा था। इस स्मित का अर्थ मैं जानता हूँ। अब वत्सर से कोई प्रश्न नहीं करना है, ना ही कोई संशय।’ शैल ने स्वयं से बात की। 

“आपको यह सब स्वीकार्य है यह जानकर प्रसन्नता हुई। आप कुछ समय प्रतिक्षा करें। विजेंदर से कहकर मैं आवश्यक औपचारिकता पूर्ण करवाता हूँ। और सारा जी, आप वत्सर के भोजन का प्रबंध कर देना।” शैल चला गया। पश्चात वत्सर अपने गाँव लौट गया।