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Sudhir Srivastava

Sudhir Srivastava

@sudhirsrivastava1309
(31)

चौपाई
*****
शिव शंकर की महिमा न्यारी।
भक्तों को लगती है प्यारी।।
शिव मन्दिर में भीड़ लगी है।
जल अर्पण की होड़ मची है।

अपने प्रभु पर करो भरोसा।
खुद को भी मत दीजै दोसा।।
जीवन सफल आपका होगा।
मत रोना जो कल था भोगा।।

सरल सहज हमको रहना है।
सच्चे सतगुरु का कहना है।।
वाकयुद्ध पड़ती है भारी।
फिर क्यों हम होते बलिहारी।।

अब रिश्तों की माया भारी।
कैसी है ये दुनिया दारी।।
रिश्तेदारी सबको प्यारी।
दुख देती है बारी- बारी।।

नतमस्तक हो करिए यारी।
हो जायेंगे सब बलिहारी।।
दुनिया ऐसा चाह रही है।
रीति आज की यही सही है।।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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हास्य- यमराज की समस्या
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अभी-अभी मित्र यमराज हाँफते हुए आया
और बिना किसी भूमिका के
उलाहना देते हुए एकदम से फट पड़ा।
बहुत हो चुका यारी दोस्ती का खेल
अब मैं आपसे अपनी मित्रता तोड़ना चाहता हूँ
सूकून की थोड़ी सांँस लेना चाहता हूँ।
आपके चक्रव्यूह से निकलना चाहता हूँ,
आपके यार-दोस्त, दुश्मन, रिश्तेदारों ही नहीं
शुभचिंतकों से भी दूर रहना चाहता हूँ,
आपके किसी लफड़े में फँसना नहीं चाहता हूँ।
मित्र यमराज की बात सुन मैं सदमें में आ गया
समझ नहीं आया कि आखिर ऐसा क्या हो गया?
मैंनें प्यार से पुचकार कर पूछा-
जो मेरा यार हत्थे से उखड़ गया,
ऐसा क्या हो गया मित्र, जो तू इतना परेशान हो गया
और आते ही सीधा मुद्दे पर आ गया।
यमराज भावुक स्वर में कहने लगा-
देखो प्रभु! बहुत हो गया, अब ये सब नहीं चलेगा
आपकी आड़ में अब और कोई खेल नहीं हो सकेगा,
आपका नाम लेकर लोग बहुत तंग करते हैं
जब देखो तब कोई न कोई आकर
मेरे काम में अवरोध पैदा करने लगते हैं
अनावश्यक दबाव बनाने का असमय प्रयास करते हैं,
आपका नाम लेकर हमें गुमराह करते हैं
और खुद को तत्काल यमलोक ले चलने की
बात कर जोर जबरदस्ती करने लगते हैं,
इतना ही नहीं मेरे चेलों को भी परेशान करते है,
तो कोई अपने बैरियों को तत्काल
यमलोक में ढकेल देने की
पुरजोर सिफारिश करने के साथ-साथ
धमकाने भी लगते हैं।
आपका नाम लेकर मेरी व्यवस्था को
अव्यवस्थित करने का षड्यंत्र करते हैं,
पर मुझे तो लगता है कि ये सब मुझे नहीं आपको
नीचा दिखाने की सोची समझी रणनीति के तहत
नित नई बिसात बिछा रहे हैं।
मैं मुस्कराया- बस इतनी सी बात है
जिससे तू इतना घबराया
तनिक भी अपना दिमाग नहीं चलाया।
बस! तू मेरी सलाह पर अभी से अमल करना शुरू कर दे
ऐसे वैसे हर किसी को एक के साथ चार के
मुफ्त प्रस्ताव की उपहार योजना लागू कर दे,
विश्वास कर फिर कोई तेरे पास नहीं आयेगा,
तुझे और यमलोक की बात तो छोड़,
वे सब मुझे भी भूल जायेंगे,
गलती से भी मेरा नाम जुबाँ पर फिर कभी नहीं लाएंगे।
तब तेरी समस्या का समाधान चुटकियों में हो जायेगा
फिर भला किसकी मजाल होगी,
जो फिर तुझसे उलझने आयेगा।
हम दोनों का याराना भी यूँ ही बना रह जायेगा
मित्रता के इतिहास में हम दोनों का नाम
सारी दुनिया में पहले नंबर पर आयेगा।
यमराज खुशी से उछल पड़ा-
वाह प्रभु! आपने तो कमाल कर दिया
मेरी मुश्किल का बड़ी आसानी से समाधान कर दिया,
आप महान हो प्रभु, आपको शत शत प्रणाम है
आज पता चला कि आपके पास
दुनिया की हर समस्या का सरल समाधान है।
अब चलता हूँ प्रभु- मेरे सिर का बोझ हल्का हो गया,
साथ ही मेरे चेले का फोन भी इसी बीच आ गया
लगता है यमलोक में कोई नया बघेड़ा खड़ा हो गया
शायद आपका कोई नया शुभचिंतक
यमलोक के द्वार पर आकर मेरे चेलों से उलझ गया।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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दोहा - योग दिवस

योग दिवस पर क्यों भला, मचा रहे सब शोर।
इससे पहले कब भला, खुली आँख थी भोर।।

सपना है या सत्य में, नींद खुली है आज।
दिवस आज है योग का, इसके पीछे राज।।

वर्षों से देखा नहीं, सूर्योदय का भोर।
आज मुझे ऐसा लगे, योग मचाए शोर।।

लिए चटाई हाथ में, आ पहुँचे यमराज।
योग प्रथम के बाद ही, करने दूजा काज।।

तड़के ही यमराज जी, आये मेरे द्वार।
ज्ञान मुझे देने लगा, करो योग सरकार।।

योग दिवस पर कीजिए, योग मित्र यमराज।
तन मन स्वस्थ निरोग हो, सफल आपका काज।।

गले उतरता है नहीं, दिखता जो बदलाव।
जन मानस को योग से, सचमुच हुआ लगाव।।

योग भगाता रोग है, तन मन में उत्साह।
नित्य करे जो नियम से, पाता खुशी अथाह।।

लाल किले पर नित्य ही, योग करें यमराज।
रामदेव जी सोचते, अब मेरा क्या काज।।

क्या करना है योग का, समय करें बेकार।
सुबह-सुबह बीबी करे, नाहक ही तकरार।।

जो करते नित योग हैं, उन्हें नहीं है ज्ञान।
आलस से अच्छा नहीं, कुछ भी है आसान।।

योग दिवस पर सब करें, देखा-देखी खूब।
मजबूरी में क्या करें, बने योग महबूब।।

आलस छोड़ो मित्र वर, करते रहिए योग।
दिनचर्या में जोड़िए, दूर रहेगा रोग।।

योग मित्र है आपका, इससे करिए प्यार।
नित्य भोर उठ कीजिए, मत करिए तकरार।।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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हास्य - योग दिवस तो बहाना है
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सूर्योदय से पूर्व ही यमराज का फोन आया
न चाहते हुए भी मैंने उठाया और पूछा
कहो मित्र- अलख सुबह फोन क्यों घुमाया?
यमराज बोला-कुछ खास तो नहीं प्रभु!
सोचा कि आपको योग दिवस की बधाई दे दूँ,
घोड़े बेचकर दोपहर तक सोने वाले
अपने यार को आज के दिन तो सूर्योदय पूर्व ही जगा दूँ।
मैं झल्लाया - अब जगा तो दिया ही
आगे बता अब क्या करना है?
आज कौन सा पहाड़ चढ़ना है?
या सिर्फ तेरी बकवास ही सुनना है ?
यमराज भड़क कर कहने लगा -
अरे बेशर्म - कुछ तो शर्म कर, दिमाग की बत्ती जला
और चुपचाप उठकर योग में लग जा।
मैंने प्यार से पूछा - तू मेरा यार है या दुश्मन
जो मुझसे योग के लिए कह रहा है,
अच्छा भला सो रहा था
और तू मुझे जगाकर योग की सलाह दे रहा है।
तुझे तो पता ही है कि योग से मेराछत्तीस का आँकड़ा है,
वैसे भी वो कौन सा मेरे लिए
पलक पांवड़े बिछाए मेरे द्वार पर खड़ा है।
यमराज गुस्से से बोला - मुझे नहीं पता था
कि मेरा यार इतना बेवकूफ है
जो इतनी सीधी सी बात भी नहीं समझता है,
सोशल मीडिया की अहमियत को नजरंदाज करता है।
कौन सा तुझे योग में ओलंपिक पदक लाने जाना है
बस योग करते हुए सिर्फ औपचारिकता ही तो निभाना है
चार छ: फोटो खींच कर सोशल मीडिया पर लगाना है
ज़माने को दिखाना है कि भाइयों - बहनों
आज तो योग का जमाना है।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस तो महज बहाना है
सबको महज प्रचार-प्रसार पाना और पहचान बढ़ाना है,
एक दिन की क्या घंटे दो घंटे की बात है
कौन सा तुम्हें योग से रिश्ता निभाना है,
बस! सोशल मीडिया पर अपने योग मुद्रा की
फोटो डालकर लाइक कमेंट के साथ चर्चा भर पाना है।
अब इतना भी नहीं समझ रहे हो क्या यार?
अगला योग दिवस फिर एक साल बाद ही तो आना है,
तब तक आपके और जमाने के पास
सोने का भरपूर बहाना है।
आखिर कौन सा एक दिन में आप और नींद का
हमेशा के लिए तलाक हो जाना है,
साल भर तो सिर्फ आराम करना,
सोना और समय ही तो गुजारना है।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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दोहा - कहें सुधीर कविराय
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संत कबीर
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जन्म जयंती आज है, जिनका नाम कबीर।
जन मन कहते प्रेम से, पीर संग रघुवीर।।

तीखे उनके बोल थे, भाव बड़े ही गूढ़।
समझ जिसे आया नहीं, वहीं बड़ा है मूढ़।।

काशी में पैदा हुए, आये मगहर धाम।
मिला यहीं पर संत को, मुक्ति का आयाम।।

धर्म जाति से दूर थे, हुआ ब्रह्म का ज्ञान।
जन-मन जिनको पढ़ रहा, दिया शब्द जो दान।।

दुनिया कहती आज भी, जिनको संत महान।
कविवर भी उनको कहें, जिनसे मिलता ज्ञान।।

मुख से निकले शब्द जो, बने ब्रह्म का ज्ञान।
निंदा नफरत से परे, संत कबीर लो जान।।

फक्कड़पन में दे दिया, जिसने जग को ज्ञान।
कुछ बौखल कहते रहे, कबीरा है नादान।।
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पर्यावरण
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जल जंगल पर हो रहा, अब तो रोज प्रहार।
ओढ़ लबादा दंभ का, कुत्सित है व्यवहार।।

जल स्रोतों का हो रहा, दोहन अरु व्यापार।
हर प्राणी बेचैन है, सहता अत्याचार।।

गर्मी से हम जल रहे, इसका हमको ध्यान।
आज मनुज का देखिए, ये कैसा है ज्ञान।।

कहते हैं यमराज जी, वृक्ष लगाओ एक।
देख भाल भी कीजिए, भागें रोग अनेक।।
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माँ गंगा
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गंगा माँ को पूजते, भले आज हम आप।
पर मैली भी कर रहे, करते रहते पाप।।

गंगा निर्मल धाम है, मान रहे हैं लोग।
मैली अब भी कर रहे, कैसा ये संयोग।।

गंगा माँ हमको सदा, करती रहना माफ।
कोशिश में हम हैं लगे, तव धारा हो साफ।।
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आपदा
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बड़ी आपदा आ गई, नहीं किसी को ज्ञान।
जैसे खुद ही काल ने, ले ली इतनी जान।।

उड़ने के ही संग में, किसकी पड़ी कुदृष्टि।
खामी तकनीकी रही, या आपदा निकृष्ट।।

यह कैसी थी आपदा, जिससे विचलित लोग।
महज एक संयोग है, या मानें दुर्योग।।

सुंदर प्यारे भाव थे, सभी रहे खुशहाल।
किसे पता इक आपदा, बन जायेगी काल।।

भले आपदा हम कहें, शंकित मन को नेह।
दुर्घटना के पार्श्व में, लगता है सदेह।।
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विमान दुर्घटना
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दुर्घटना कैसे घटी, बड़ा प्रश्न है आज।
इसके पीछे कौन है, जो इसका सरताज।।

मरने वाले मर गए, देकर गहरे घाव।
दुर्घटना की आड़ में, आँसू संग अभाव।।

टकराया था काल से, नहीं हुआ आभास।
कुछ भी हम इसको कहें, हुआ बड़ा संत्रास।।

भरी उड़ान विमान ने, मंजिल लगती पास।
कुछ पल में ही ढह गया, जैसे पत्ता तास।।

अंतिम यात्रा बन गई, उड़कर चला विमान।
यात्री गण की सोच में, नहीं मौत का ज्ञान।।

भोजन जो थे कर रहे, उन पर गिरा विमान।
कहाँ पता था किसी को, मृत्यु का ये प्रस्ताव।।

मृत्यु को छूकर आ सके, बस रमेश विश्वास।
बाकी जो भी शेष थे, टूटी सबकी आस।।

था विमान का हादसा, या दावानल मौत।
एक सफर अंतिम बना, या जीवन का सौत।।

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व्यवहार
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मिलता सबको है वही, जिसका जैसा व्यवहार।
फिर हम जाते भूल क्यों, सही मान आधार।।

मात-पिता से हो रहा, ये कैसा व्यवहार।
जैसे अपने सिर वही, सबसे ज्यादा भार।।

रखना हमको चाहिए, सबसे उत्तम व्यवहार।
समय संग करते रहें, जन-मन का आभार।।

चाहे जैसा हो समय, करो प्रेम व्यवहार।
इसके पीछे है बड़ा, अनुभव का संसार।।

व्यवहारों से हो रहा, हर मुश्किल आसान।
हर प्राणी को चाहिए, होना इसका ज्ञान।।
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कल किसको मालूम था
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कल किसको मालूम था, इंतजार में मौत।
अंतिम होगा सफर ये, मृत्यु बनेगी सौत।।

कल किसको मालूम था, काल की ऐसी चाल।
जाना था गंतव्य को, मौत बजाती गाल।।

कल किस को मालूम था, होनी का ये लेख।
अब क्या होगा फायदा, व्यर्थ मीन अरु मेख।।

दोष नहीं लेते कभी, ईश्वर अपने शीश।
कल किसको मालूम था, मिट जायेगी खीस।।

कल किसको मालूम था, अगले पल का खेल।
हर प्राणी के साथ ही, चले मृत्यु की रेल।।

माया में फंसकर हुआ, मानव इतना हीन।
समझ नहीं आता उसे, कितना है वो दीन।।

श्रद्धा से करिए सदा, निज-निज ईश प्रणाम।
हर मुश्किल के बाद भी, बने आपका काम।।

जीवन में जो है मिला, वही मूल्य आधार।
इससे ज्यादा और क्या, चाह रहे संसार।।

जो हमने सोचा नहीं, हुआ वही है खेल।
समय पूर्व ही चल पड़ी, अपने मन की रेल।।

पथ बाधा के बीच में, आस यही है एक।
चहुँदिश दिखते हैं जिन्हें, खिलते पुष्प अनेक।।
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पिता
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धरती से भारी पिता, रखिए इसका ध्यान।
सबसे ज्यादा है उसे, जीवन अनुभव ज्ञान।।

पिता बिना जग सून है, मन में नहीं उजास।
खुद के ऊपर से उठा, खुद का ही विश्वास।।

ईश्वर सा होता पिता, नभ सम उसका स्थान।
फिर भी पाता है कहाँ, तात उचित सम्मान।।

जब तक जिंदा थे पिता, समझे कब थे मोल।
दुनिया जैसे छोड़ दी, लगे बहुत रस घोल।।
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विविध
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मौन सभा के बीच में, सब कितने असहाय।
चीख रही थी द्रौपदी, ये कैसा अन्याय।।

चीर बढ़ाया श्याम ने, भरी सभा थी दंग।
दुर्योधन की समझ में, नहीं आ रहा रंग।।

पुत्र मोह में था फँसा, अंधा राजा मौन।
चीर हरण होता रहा, आगे बढ़ता कौन।।

कान्हा मेरी लाज अब, आप बचाओ आज।
नहीं किसी की इस सभा, बची शर्म की ताज।।

नीति नियम सिद्धांत के, सभी पुरौधा मौन।
बेबस रोती द्रौपदी, लाज बचाता कौन।।

शीश झुकाकर आपको, देते हम सम्मान।
इसका मतलब तो नहीं, आप करो अभिमान।।

मौसम को क्यों आप हम, नाहक देते दोष।
नहीं समझते क्यों भला, उसके दिल का रोष।।

जितना देते हम रहे, उनको ज्यादा मान।
उतना ही वे फैलकर, दिखा रहे हैं शान।।

नेता जी घर भर रहे, जनता रही कराह।
उसके हिस्से आ रही, सुबह-शाम बस आह।।

राजनीति के खेल का, कहाँ नियम सिद्धांत।
हर कोई खुद को कहे, मैं ज्ञानी वेदांत।।

आशाएं उतनी रखो, जितना हो विश्वास।
टूटे तो भी प्रेम से, बात नहीं कुछ खास।।

मानवता की भावना, तोड़ रही दम आज।
स्वार्थ सिद्ध में सब लगे, एक सूत्रीय काज।

आओ मिलकर हम लिखें, नव उन्नति आयाम।
दुनिया को संदेश दें, कठिन नहीं कुछ काम।।

सुविधा सबको चाहिए, धरे हाथ पर हाथ।
सबका निज अधिकार हो, देना पड़ता साथ।।

ऊंचा होगा लक्ष्य जब, मिले सफलता स्वाद।
भला अरू क्या मार्ग है, हरता दर्द विषाद।।

टूट रहा विश्वास है, मानव मन बेचैन।
अपने देते घाव हैं, सुबह -शाम अरु रैन।।

संबंधों में अब नहीं, अपनेपन का भाव।
पता नहीं कब कौन दे, जीवन भर का घाव।।

मातृशक्ति में आ रहा, ये कैसा बदलाव।
विचलित होती है नहीं, देतीं जमकर घाव।।

डर-डर कर जीने लगा, अब तो पुरुष समाज।
नित्य प्रभावित हो रहा, उनका दैनिक काज।।

कलयुग के इस दौर में, होते कैसे खेल।
नीति नियम सिद्धांत सब, पल-पल होते फेल।।

चेहरा पढ़कर क्या भला, कर पायेंगे आप।
जिसके पीछे हैं छिपे, बड़े घिनौने पाप।।

अभी-अभी घटना घटी, कैसे हो विश्वास।
जाने किसके कोप से, टूट गई सब आस।।

रिश्ते भी देने लगे, रिश्तों को ही दर्द।
काँप रहे सब इन दिनों, जैसे भीषण सर्द।।

करते जो अपराध हैं, उनको इतना ज्ञान।
फिर भी करते जोश में, समझें नहीं विधान।।

कुंठा बढ़ती जा रही, हर प्राणी में आज।
कारण सबसे है बड़ा, दूषित हुआ समाज।।

खुद को माने श्रेष्ठ वे, जिनमें दंभी भाव।
रखते सबके साथ जो, नफ़रत और दुराव।।

शीष झुका मैंने किया, भला कौन सा पाप।
इतने भर से क्यूँ भला, बढ़ा आपका ताप।।

समझ नहीं कुछ आ रहा, लीला तेरी राम।
बतला दो अब आप ही, ये है किसका काम।।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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दोहा मुक्तक
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अवसर
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अवसर आया देखिए, लीला प्रभु की जान।
जिसका जैसा भाव है, वैसा उसका मान।
आज अवध में सज रहा, भव्य राम दरबार।
भक्त सभी हैं कर रहे, प्रभो राम का ध्यान।।

गंगा माँ को आज हम, झुका रहे हैं शीश।
बदले में हम चाहते, बस उनसे आशीष।
मैली नित करते हुए, शोर मचाये नित्य।
अवसर केवल खोजते, और निकालें खीस।।
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रिश्ते
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रिश्ते अब सबको लगें, जैसे कोई रोग।
सभी स्वार्थ में रंग रहे, चाहें सुख का भोग।
कैसी लीला है प्रभो, रंग भए बदरंग।
या हम केवल मान लें, महज एक संयोग।।

रिश्ते देने हैं लगे, अब रिश्तों को घाव।
रिश्तों में अब दीखता, ना मर्यादित भाव।
हर रिश्ते में बन रही, संदेही दीवार।
खोता जाता देखिए, प्रेम प्यार सद्भाव ।।
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कबीर
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वाणी कटु जितनी रही, उतने उत्तम भाव।
कुछ ने कहा प्रसाद है, कुछ ने गहरा घाव।
समय-समय की बात है, या फिर प्रभु का खेल।
आज सभी उनको पढ़ें, वाणी सुनते चाव।।

हिंदू- मुस्लिम में कभी, नहीं कराते भेद।
दिखलाते ये सभी को, मानव मन का छेद।
मंदिर मस्जिद अर्थ का, समझाया था पाठ।
कहते करते जो रहे, नहीं जताया खेद।।
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अवसाद
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सरल सहज हो भावना, मन में नहिं संताप।
वरना ये अवसाद ही, बन जायेगा पाप।
संतोषी जीवन जिएँ, मस्त मगन भरपूर।
धन्यवाद प्रभु का करें, क्या कर लेगा शाप।।

हर प्राणी अवसाद में, जीने को मजबूर।
समय चक्र में उलझकर, खुद से होता दूर।
माया ये अवसाद की, समझ रहे हम-आप।
चाहे अनचाहे फँसे, दंभ में निज हैं चूर।।

समय बड़ा बलवान है, हर प्राणी बेचैन।
भाग दौड़ में सब लगे, नहीं किसी को चैन।
और अधिक के लोभ में, करते भागम-भाग।
हर कोई इसमें फंसा, दिन हो या फिर रैन।
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सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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मानवता की पीड़ा
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अब आप इसे क्या कहेंगे?
बदलाव की बयार या समय की विडंबना।
आप कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र हैं
पर बड़ा प्रश्न मुँह बाये खड़ा है,
अंतर्द्वंद्व में उलझा पड़ा है,
अपने अस्तित्व पर हो रहे हमले के विरुद्ध
लड़ते हुए गिरते-पड़ते खड़ा है।
हमसे आपसे ही नहीं हर किसी से पूछ रहा है
पूछ क्या रहा है? बेचारा गिड़गिड़ा रहा है
अपने मान-सम्मान-स्वाभिमान की खातिर
हाथ जोड़ अनुरोध कर रहा है।
मैं मानवता, आपका बगलगीर हूँ
पूरी ईमानदारी से पूछता हूँ,
कि आज मुझ पर इतना अत्याचार क्यों हो रहा है?
हर कोई मुझसे अपना दामन क्यों छुड़ा रहा है?
बेवजह मुझे बदनाम क्यों किया जा रहा है?
बड़ी ढिठाई से मेरा दामन दागदार करने पर
कौन सा खजाना समेटा जा रहा है?
आखिर कोई तो बताए कि मेरा अपराध क्या है?
मुझसे भला किसको, कैसे, कितना नुक़सान हो रहा है?
मुझे पता है आप मुँह नहीं खोलेंगे
खोलेंगे तो सिर्फ़ जहर ही उगलेंगे
या फिर अपने स्वार्थ, सुविधा का लेप ही घोलेंगे,
इससे अधिक की उम्मीद भी नहीं मुझको
तुम हमको तौलोगे तो हम भी चुपचाप नहीं बैठेंगे?
तुम हम पर वार करोगे
तो क्या हम चुपचाप हमेशा ही सहते रहेंगे?
भ्रम में मत रहिए जऩाब- ऐसा बिल्कुल नहीं होगा,
अपने अस्तित्व को मैं कभी मिटने नहीं दूंगा,
चंद लोगों के सिर चढ़कर भी खूब बोलूँगा
अपने अस्तित्व की चमक को फिर भी जिंदा रखूँगा,
जो मुझसे खेलेगा, उसे पास भी नहीं आने दूँगा।
जो मेरा मान रखेगा, उसे शीर्ष पर पहुँचा दूँगा
उसके नाम का डंका दुनिया में बजवा दूँगा,
अपने नाम 'मानवता' का नया इतिहास लिखूँगा।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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गर्मी की प्रचंडता
***********
चिलचिलाती धूप, असहनीय गर्मी का प्रहार
व्याकुल है हर प्राणी, पशु-पक्षी, पेड़़-पौधे
कीड़े-मकोड़े, कीट पतंगे सब असहाय से हो गये हैं,
किससे कहें अपनी पीड़ा, अपना दर्द
जब धरती का सबसे बुद्धिमान प्राणी
इंसान खुद को भगवान से कम कहाँ समझता है,
अपनी सुख-सुविधा के लिए
अपने ही कुल्हाड़ी मार रहा है,
और कुछ भी समझ नहीं रहा है।
कौन दोषी है, कितना कम या ज्यादा
यह सब उछल- उछल कर खुद कह रहा है।
पर मैं तो खुद को दोषी मानकर
प्रभु से अनुरोध कर रहा हूँ
साथ ही गर्मी के लिए गर्मी को दोष भी नहीं दे रहा हूँ,
गर्मी तो हमारी उदडंता का शिकार हो रहा है
बहुत कोशिश के बाद भी जल रहा है
हमसे मौन निवेदन कर रहा है,
जिसे हम नकारते जा रहे हैं जब
तब वो भी कराह रहा है,
हमें दुखी नहीं करना चाहता है
इसके लिए मन ही मन रो भी रहा है,
प्रभु जी हमें माफ करो न करो
पर बुद्धि- विवेक को थोड़ा और विस्तार दे दो
अपने ही पैरों में खुद ही कुल्हाड़ी मारने की
हमारी सोच को हर लो,
विकास की अंधी दौड़ में दौड़ने से बचा लो,
कम से कम अपने और अपनों के लिए
प्रेम,प्यार, सद्भाव जगा दो,
प्रकृति पर हर प्राणी का समान अधिकार है
हमारे व्यवहार में यह भाव जगा दो
गर्मी जला रही है, जलाने दीजिये,
प्रचंडता का नृत्य कर रही है, तो करने दीजिये
क्योंकि हम ही कौन सा दूध में धुले हुए हैं
अपनी मनमानियाँ खूब करते जा रहे हैं।
वो तो अपने स्वभाव के अनुरूप व्यवहार कर रहा है,
दोहरा मापदंड भी तो नहीं अपना रहा है
फिर भी बेचारा हमारी गालियाँ चुपचाप सहन रहा है
ईमानदारी से सिर्फ अपना काम कर रहा है।
अब यह हम आप क्यों नहीं समझते'
कि गर्मी में गर्मी का प्रचंडता का
नृत्य नहीं होगा तो क्या होगा?
अब जब आज यह बड़ा प्रश्न मुँह बाये खड़ा है
प्रचंड गर्मी में सब कुछ जलने की कगार पर जा रहा है
तो इसमें आखिर दोष किसका है?
सोचना समझना भी हमें आपको है
कि स्वार्थी विकास की आड़ में
प्रकृति से छेड़छाड़ अब से नहीं करना है,
वरना गर्मी के प्रचंड ताप में जलना भुनना है
जीने के लिए जीना है या मरते हुए जीना है
अथवा अपना वैमनस्य वाला कृत्य नहीं छोड़ना है
ईमानदारी से कह रहा हूँ यही सही समय है,
जब फैसला हमको -आपको करना है।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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दोहा - कहें सुधीर कविराय
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धार्मिक
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मंगल को मंगल करो, पवनपुत्र हनुमान।
चाहे ज्ञानी संत हो, या कोई अज्ञान।।

दर पर भारी भीड़ है, हनुमत जी के आज।
रामभक्त रक्षा करें, शीष सजायें ताज।।

शनी देव हैरान हैं, देख पाक के रंग।
कुछ तो करना पड़ेगा, इस पापी के संग।।
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जन्मदिन
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लंबी तेरी उम्र हो, ऊँचा तेरा नाम।
हर बाधा को पार कर,लिखो नया आयाम।।

जीवन में खुशियां मिले, हर पल हर दिन रात।
सारी दुनिया ही करें, तेरे काम की बात।।

खुशियों की बरसात हो, हर पल, हर दिन रात। ईश्वर देवे आपको, इतनी सी सौगात।।

खुशियों की सौगात का, भरा रहे भंडार।
ईश्वर की इतनी कृपा, जाने जग संसार।।
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जीवन साथी/वैवाहिक वर्षगांठ
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मेरी भी शुभकामना, और संग में ज्ञान।
जीवन साथी को सदा, देते रहना मान।।

जीवन भर का साथ है, नहीं भूलना आप।
एक दूजे के नाम का, करते रहना जाप।।

जीवन का उत्कर्ष है, रिश्तों का ये सार।
जिसके बल पर चल रहा, रिश्तों का व्यवहार।।

जीवन साथी शब्द में, छिपा हुआ है सार।
इस रिश्ते की नींव में, खोज रहे हम तार।।

मान-मनौव्वल संग में, खूब करो छलछंद।
सीमा भीतर स्वयं को, रखना तुम पाबंद।।

एक दूजे का आजकल, रखते कितना ध्यान।
हमको लगता हमीं को, सबसे ज्यादा ज्ञान।।
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मजदूर
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मजदूरी वो कर रहा, करता नहीं गुनाह।
जीवन चलता यूं रहें, नहीं अधिक की चाह।।

दिन भर मजदूरी करे, फिर भी भरे न पेट।
उम्मीदें कब छोड़ता, ईश्वर देगा भेंट।।

बच्चों के अरमान भी, टूट रहे हैं नित्य।
इस जीवन का क्या भला, आखिर है औचित्य।।

जाड़ा, गर्मी एक सा, वारिश का हो वार।
इनकी खातिर नित्य ही, मजदूरी त्योहार।।

सबसे ज्यादा काम भी, करता है मजदूर।
और वही सबसे अधिक, होता है मजबूर।।

मन मसोस कर जा रहा, करने को जो काम।
पाक साफ मन से जपे, अपने प्रभु का नाम।।

दीन हीन मजदूर हैं, कहते हैं कुछ लोग।
जो घमंड में चूर हैं, मान रहे संयोग।।
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आपरेशन सिंदूर
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बिना युद्ध के देश ने, मार लिया मैदान।
दुश्मन की तो छोड़िए, दुनिया है हैरान।।

आभा में सिंदूर के, चुँधियाया है पाक।
घुटनों पर वो आ गया, ये सिंदूरी धाक।।

गीदड़ भभकी का उसे, ऐसा मिला जवाब।
घुटनों पर वो आ गया, ये सिंदूरी ख्वाब।।

गोली अब जो एक भी, आयी सीमा पार।
गोला लेकर जायेंगे, आतंकी के द्वार।।

मोदी जी ने कह दिया, नहीं चाहते युद्ध।
इसका मतलब ये नहीं, बनें रहेंगे बुद्ध।।

आतंकी बेचैन हैं, समझ न आए नीति।
रास उसे आई नहीं, आतंकिस्तानी रीति।।

हमने जड़ पर जब किया, था अपना प्रहार।
पता नहीं था थोक में, मिला मुफ्त उपहार।।

पहलगाम से हिल गया, था जब सारा देश।
मोदी जी ने पढ़ लिया, भारत का संदेश।।

सीने में जलती रही, मोदी जी के आग।
पर संयम छोड़ा नहीं, सुना न कोई राग।।

मोदी के ऐलान से, हुआ पाक में शोक।
किसमें इतना हौसला, मोदी पथ ले रोक।।

मोदी जी ने चल दिया, हिंदुस्तानी दाँव।
पाकिस्तानी कर रहे, जैसे कौआ काँव।।

गीदड़ भभकी दे रहे, बनकर कुत्ते शेर।
जिन्हें नहीं है कुछ पता, बनने वाले ढेर।।

पाक बड़ा नापाक है, दुनिया को है ज्ञात।
कुछ की आँखें बंद हैं, कुछ करते प्रतिघात।।

बिना युद्ध ही हो रहा, दुश्मन अपना पस्त।
जैसे पाकिस्तान का, सूर्य हो रहा अस्त।।
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विविध
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रिश्ते भी देते कहाँ, अब रिश्तों को भाव।
देकर मरहम हाथ में, करते जमकर घाव।।

छिपे शेर की खाल में, गीदड़ कितने आज।
लगता उनको चल रहा, केवल उनका राज।।

आँसू देकर आज क्यों, खुश हो इतने यार।
तुमको भी इस दौर से, होना कल दो चार।।

अपनी यारी मृत्यु से, बढ़ा लीजिए आप।
नहीं रहेगा आपके, जीवन में अभिशाप।।

बड़ी शिकायत आपको, हमसे तुमको यार।
नहीं समझते मित्र क्यों, इस जीवन का सार।।

हमने जिन पर किया था, आँख मूँद विश्वास।
उन सबने दिखला दिया, लंबा बाईपास।।

अपनी ग़लती मानना, क्या है मेरा गुनाह।
नहीं जानते मित्रवर, मेरे मन की थाह।।

समझ नहीं आता मुझे, उसकी कैसी सोच।
या फिर बुद्धि विवेक को, आया कोई मोच।।

अपने कृत्यों पर नहीं, जिनको आती शर्म।
और आप हैं पूछते, उनका क्या है धर्म।।

शायद तुम हो भूलते, परिवर्तन की नीति।
मिलना तुमको भी वही, डाल रहे जस रीति।।

हमने जब भी आपको, झुक कर किया प्रणाम।
बैठे ठाले हो गया, नाहक ही बदनाम।।

निंदा नफरत भूलकर, करिए अपना काम।
मिले सफलता आपको, संग मिलेगा नाम।।

अपनी करनी देखना, सबसे पहला काम।
इससे सुंदर कुछ नहीं, जीवन का आयाम।।

लक्ष्मी जी आयीं अभी, बड़े ठाठ से मित्र।
परिजन सारे खींचते, खुशियों के नव चित्र।।

रिश्ते भी खोने लगे, हर दिन अपने भाव।
नित्य नये हैं दे रहे, उल्टे सीधे घाव।।

अपने ही विश्वास का, गला घोंटते आज।
विषय शोध का है बड़ा, क्या है इसका राज।।

हमने जिनको है दिया, बड़े प्रेम से भाव।
वे ही हमको दे रहे, सबसे ज्यादा घाव।।

नीति नियम सिद्धांत को, भूल रहे हैं लोग।
दुख का कारण है यही, जिसे रहे सब भोग।।

बलिबेदी पर स्वार्थ के, चढ़े जा रहे लोग।
बदले में हैं पा रहे, तरह तरह के रोग।।

जीवन में किसको भला, मिलता है सुख चैन।
किसकी बुझती प्यास है, सूखे सबके नैन।।

चलते-चलते थक गये, गंगा तीरे आप। शाँत भाव से बैठकर, करिए माला जाप।।

अधिकारों का अब नहीं, रहा किसी के मोल।
है क्या झूठी ये तुला, या झूठा है तोल।।

कर्तव्यों का आजकल, किसे रहा अब बोध।
सबसे पहले चाहिए, होना इस पर शोध।।

चिंता लेकर चल रही, हमें चिता की ओर।
ज्ञानी-अज्ञानी सभी, पाते अंतिम छोर।।

आप शिकायत कर रहे, ईश्वर से दिन-रात।
चिंतन भी तो कीजिए, उनके कुछ जज़्बात।।

सुख-दुख जीवन खेल है, खेल रहे हम आप।
जो कल कहता पुण्य था, आज कहे वो पाप।।

ईश्वर भी होते दुखी, देख हमारे ढंग।
सोच-सोच हैरान हैं, कैसे बदला रंग।।
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गर्मी
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गर्मी को हैं हम सभी, दोषी मानें मित्र।
खींचा भी तो आपने, कल में इसका चित्र।।

जीवन को हमने किया, जान बूझ बेहाल।
तभी आज हम हो रहे, गर्म तवे सा लाल।।

पशु-पक्षी बेचैन हैं, दें मानव को दोष।
उनके मन भी फूटता, समझो उनका रोष।।

खुद ही अपने कर्म पर, आप कीजिए गौर।
याद करो एक बार तो, बीते कल का दौर।।

गर्मी से क्यों कर रहे, भाई दो- दो हाथ।
सोचो कितना आपने, फोड़ा उसका माथ।।
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विनम्र श्रद्धांजलि
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श्रद्धा के दो शब्द ही, हम दे सकते आज। हाथ छुड़ाकर क्यों गईं, रहा नहीं अरु काज।।
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सुधीर श्रीवास्तव

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संस्मरण - मुस्कान
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04 जनवरी '2025 रात्रि 8 बजे एक मेरी एक आनलाइन गोष्ठी चल रही थी, जिसके मध्य ही एक फोन आया, जिसे मैंने नज़र अंदाज़ कर दिया। पुनः लगभग 9.15 बजे मुँहबोली बहन का फोन आया कि हम, दीदी, अपनी सहेली और बच्चों के साथ अयोध्या धाम से लौट रहे हैं, आप लोगों से मिलने घर आ रहे हैं। रास्ता बताइए।
मेरे लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था, साथ ही विश्वास भी नहीं हो रहा था, क्योंकि भयंकर ठंड के साथ उस समय वो जहाँ थी, वहाँ से घर तक पहुँचने में लगभग एक घंटे लगने थे। फिर 80 किमी. हमारे यहाँ से आगे भी जाना था।
खैर.....! श्रीमती जी को अवगत कराया। तो उन्होंने कहा - आने दीजिए, क्या दिक्कत है?
मैंने कहा - नहीं कोई दिक्कत नहीं। पर मुझे नहीं लगता कि इतनी ठंड में वो आयेगी। फिर पहली बार आ रही है।
श्रीमती जी ने आश्वस्त किया - परेशान मत होइए। सब हो जायेगा।
इंतजार करते करते जब समय सीमा पार होने लगी तब मैंने उसे फोन किया तो उसने बताया कि वो आगे निकल गई थी, फिर लौट रही है, बस पहुँचने वाली है। और अंततः लगभग 10.30 बजे घर पहुँच ही गई। तब थोड़ी निश्चिंतता हुई। क्योंकि उसका आगमन पहली बार हुआ था।
घर पहुंचते ही दीदी ने कहा - कि अयोध्या से चलते समय ही मैंने कह दिया था कि मुझे भैया-भाभी से मिलकर ही जाना है, चाहे जितनी भी देर हो। यह सुनकर मन भावुक हो गया।
आवभगत की औपचारिकता, बातचीत और हालचाल के मध्य ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार ये लोग आये हैं। सब इस तरह से घुल-मिल गये, अपनत्व और अधिकार का जो परिदृश्य दिखा। उसे शब्दों के दायरे में बाँध पाना कठिन है। पूरी तरह पारिवारिक मिलन जैसा था। श्रीमती जी ने भोजन की व्यवस्था कर अधिकारपूर्वक खाना खिलाकर ही उन्हें विदा किया।
इस संक्षिप्त आकस्मिक मुलाकात ने जो आत्मीय बोध कराया, उसकी मधुर स्मृतियाँ बरबस ही मीठी सी मुस्कान दे ही जाती हैं।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)

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