२.
ड्रॉइंग रूम की खामोशी अचानक मि. अभिमन्यु की कड़कती आवाज़ से टूटी।
"अबीर!"
उनकी आवाज़ इस बार बेहद सख्त थी, जैसे बरसों से दबे हुए शब्द एक झटके में बाहर निकल आए हों।
"तुम कब तक इस तरह बेफिक्री से घूमते रहोगे? ज़िन्दगी कोई मजाक नहीं है, अब वक्त आ गया है जिम्मेदारियां उठाने का। कल से तुम मेरे साथ ऑफिस आओगे, और काम सीखोगे। अब मुझे तुम्हारा कोई बहाना नहीं सुनना!"
अबीर को जैसे किसी ने ठिठका दिया हो।
वह कुछ क्षणों तक चुप खड़ा रहा, फिर धीमे से अपनी आंखें उठाकर पापा की आंखों में देखता है, उन आंखों में सख़्ती थी, पर एक बाप की चिंता भी थी।
"पापा..." उसकी आवाज़ धीमी थी, लगभग फुसफुसाहट जैसी।
"मैं आपकी उम्मीदों को समझता हूं… पर मैं अपनी पहचान खुद बनाना चाहता हूं। अपने रास्ते पर चलकर, अपने तरीके से कुछ करना चाहता हूं। बस… प्लीज़ मुझे थोड़ा और वक्त दीजिए..."
अबीर की आवाज में वो पहली बार झलकती नम्रता थी, जो अक्सर उसकी मस्तीभरी शख्सियत के नीचे छिपी रहती थी। उसका सिर झुका हुआ था, जैसे मानो दिल की बात कहकर वो खुद भी डर रहा हो।
मि. अभिमन्यु कुछ पल तक अबीर को देखते हैं।
उनकी आंखों में कठोरता थी, पर कहीं बहुत भीतर हल्की सी चिंता भी थी। शायद वो भी समझते थे कि अबीर में काबिलियत है, लेकिन रास्ता अलग है।
पर वो पिता थे, और पिता की चिंता अक्सर प्यार के ऊपर हावी हो जाती है।
"सपनों के पीछे भागने में कोई बुराई नहीं अबीर… पर सपने सिर्फ देखने से पूरे नहीं होते, उन्हें जिम्मेदारी के साथ जीना पड़ता है। और ये तुम कब समझोगे... मैं नहीं जानता।"उनकी आवाज़ अब कुछ नरम पड़ी थी,
"अरे! आप बेवजह उस पर गुस्सा कर रहे हैं। जब वो कह रहा है कि उसे थोड़ा वक्त चाहिए, तो दे दीजिए न उसे..." ड्रॉइंग रूम की खामोशी को नीला जी की कोमल, आवाज़ ने तोड़ा।
उनकी आवाज़ में स्नेह था।
मि. अभिमन्यु अख़बार मेज़ पर फेंक उठते हुए कहते हैं कि,
"वक्त? और कितना वक्त दूं मैं इसे, नीला? यही हाल रहा तो एक दिन तुम्हारा ये लाडला किसी गलत संगत में पड़ जाएगा। तब तुम कहोगी, मैंने वक्त क्यों दिया?"
नीला जी अपनी साड़ी के पल्लू को ठीक करते हुए एक गहरी सांस लेकर कहती हैं कि, "मुझे मेरे बेटे पर पूरा विश्वास है। वो कभी कोई गलत काम नहीं करेगा। उसकी परवरिश हमने की है। उसे गलत और सही की समझ है।"
मि. अभिमन्यु पलभर को ठहर गए। उनकी आंखों में चिंता थी एक पिता की चिंता, जो चाहता था कि उसका बेटा सफल हो, सम्मान पाए, और अपने नाम से जाना जाए। मगर नीला जी की बातों ने जैसे उन्हें आईना दिखा दिया हो।
"आपने हमेशा उसकी कमज़ोरियों को देखा, कभी उसके जज़्बातों को समझने की कोशिश नहीं की। कभी सोचा कि वो क्या महसूस करता है? क्या चाहता है?"
उन्होंने गुस्से में नीला जी की ओर देखा, और फिर थरथराती आवाज़ में कहा कि, "तुम दोनों मां-बेटे से बहस करना ही बेकार है। जब भी मैं अबीर को कुछ समझाने की कोशिश करता हूं, तुम बीच में आकर उसे ढाल बना लेती हो।"
"अबीर मेरा भी बेटा है, नीला। उसकी परवाह मुझे भी है। मैं भी चाहता हूं कि वो खुश रहे, लेकिन सही रास्ते पर चले। पर तुम दोनों तो जैसे मुझे दुश्मन समझते हो..." उनका गला भर आया। ये शब्द जैसे उनके दिल के सबसे कोमल हिस्से से निकले थे।
एक लंबा सन्नाटा कमरे में फैल गया था।
मि. अभिमन्यु अपनी नजरें नीला जी से हटाकर धीरे से कहते हैं कि, "करो जो करना है, अब मैं कुछ नहीं कहूंगा।"
और यह कहकर वे धीमे क़दमों से कमरे से बाहर चले जाते हैं।
अभिमन्यु जी के कमरे से जाते ही पूरे हॉल में एक राहत-सी फैल गई। अबीर, जो अब तक थोड़ी दूरी पर खड़ा था, धीमे कदमों से आकर एक झटके में नीला जी के गले लग जाता है।
"थैंक यू मां!" वह बच्चे की तरह लिपट गया था।
"आज तो आपने बचा ही लिया मुझे... नहीं तो ये 'हिटलर' आज मुझे ऑफिस की डेस्क पर बैठाकर ही दम लेतै!"
उसकी मासूम-सी शरारत पर नीला जी पहले तो मुस्कुराई, फिर थोड़ा गुस्से का नाटक करते हुए उसका कान पकड़ कहती हैं कि, "अबे ओ! अपने पापा को भी कोई हिटलर कहता है क्या?" उन्होंने आंखें तरेरीं।
अबीर मुंह बिचकाकर कहता है कि, "पर मां, मानो या न मानो... वो जब डांटते हैं तो लगता है जैसे कोर्ट मार्शल चल रहा हो!"
नीला जी हंस पड़ती है, और उसके सिर पर एक प्यार भरा थप्पा जमाकर कहती हैं कि, "तेरा कुछ नहीं हो सकता, अबीर... बस इसी बात का डर है मुझे कि ये मस्ती कब तक चलेगी?"
अबीर मुस्कराकर थोड़ा गंभीर होकर कहता है कि, "चलेगी मां… जब तक मैं कुछ बनकर न दिखा दूं... तब तक तो बस आपका ये बेशर्म बेटा ही हूं!"
नीला जी के चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान थी। उन्हें अपने बेटे पर भरोसा था। शरारती था, लेकिन दिल का साफ और जिद पर अड़ा रहने वाला। और शायद... यही अबीर की असली पहचान बनने वाली थी।
"हम्ममममम! वो सब जाने दो ना मां… मुझे बहुत भूख लगी है। जबसे आया हूं, डांट ही खा रहा हूं!"
अबीर ने जैसे ही ये कहा, वो सोफे पर धप्प से जा बैठा। हाथों को सीने पर बांधकर वह मुंह फुला लेता है, जैसे किसी छोटे बच्चे ने अपनी मनपसंद टॉफी न मिलने पर गुस्सा किया हो।
नीला जी उसकी ये झूठी नाराज़गी देखती है, जिससे उनके होंठों पर मुस्कान आ जाती है।
"नटखट कहीं का... अब भी बच्चा ही है मेरा बेटा," वह मन ही मन सोचती है।
वे किचन में गईं और कुछ ही पलों में एक प्लेट में गर्मागर्म आलू के परांठे और साथ में ठंडा-मीठा दही लेकर लौट आई।
अबीर के पास आकर प्यार से उसके बालों को सहलाते हुए कहा कि, "ले, चल अब ज्यादा नाटक मत कर। सब जानती हूं मैं कि तू एक नंबर का नौटंकीबाज़ है!"
अबीर ने जैसे ही प्लेट में परांठे देखे, उसके चेहरे पर मुंह फुलाने वाली मासूमियत की जगह खुबसूरत सी मुस्कान आ गई। सुर्ख होंठों पर खिली वो मुस्कान, नीला जी के लिए किसी इनाम से कम नहीं थी।
"मां! तुम तो बेस्ट हो यार... तुम्हारे हाथ के परांठे खाकर ही तो दिल बहलता है," अबीर दही में परांठा डुबोते हुए कहता है।
नीला जी हल्के से उसकी पीठ थपथपाती है और बगल में बैठते हुए कहती हैं कि, "दिल तो तेरा बहुत अच्छा है, अबीर… बस थोड़ा वक्त को पहचानना सीख जा, तो तुझसे बेहतर कोई नहीं होगा।"
अबीर ने कुछ नहीं कहा, बस मां की बातों के स्वाद को परांठों के साथ चुपचाप गले से उतारता रहा। बाहर भले ही दुनिया कुछ भी सोचती हो, लेकिन मां की नज़रों में वो आज भी उसका मासूम अबीर था। जो परांठे में मां का प्यार ढूंढ़ता था।
अबीर कुछ पल चुप रहता है। फिर धीरे से परांठे का एक कौर मुंह में रखते हुए कहता है कि, "मां... मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं।"
नीला जी, जो अभी तक बस उसे बच्चे की तरह ही देखती थीं, थोड़ा चौंक जाती है।
"यह तो बहुत ही अच्छी बात है! मेरे बेटे में ये भी एक गुण है... ये तो मैं जानती ही नहीं थी।" उनके चेहरे पर मां वाला गर्व साफ झलक रहा था।
"चल, अब जल्दी से खाना खा और थोड़ा आराम भी कर। सुबह से देख रही हूं, पता नहीं कहां रहता है तू। एक जगह पैर टिकते ही नहीं तेरे!"
अबीर बस मुस्कुरा देता है। उसकी वो हल्की सी मुस्कान, जैसे मां की हर बात में छुपे प्यार को समझ गई हो।
नीला जी प्लेट समेटती हुई उठीं और किचन की ओर बढ़ते हुए कहती हैं कि, "चल, मैं अपना बाकी काम खत्म करती हूं। तू खाना खा ले, फिर जाकर सो जा।"
अबीर बस बैठा, उन्हें जाते हुए देखता रहा। नीला जी के हाथों की थाली से जाती हुई ममता की खुशबू और उनके लहज़े में छुपा अपनापन उसे हमेशा से सुकून देता था।
धीरे-धीरे उसने अपनी प्लेट का आखिरी परांठा खत्म किया और पानी पीकर उठ खड़ा हुआ। रूम में कदम रखते हुए उसके दिल में एक मीठा सा सुकून था,
"मां को अपने सपनों के बारे में बताकर जो हल्कापन मिला, वो शायद किसी जीत से भी बड़ा था।"
अब उसका मन अपनी कहानी पर लग गया था... वो उपन्यास जिसे लिखते हुए वो शायद खुद को भी खोजने वाला था।
क्रमशः