Kaal Kothri - 1 in Hindi Horror Stories by Neeraj Sharma books and stories PDF | काल कोठरी - 1

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काल कोठरी - 1

काल कोठड़ी ------ये उपन्यास सत्य पर एक ऐसी  प्रेरित कहानी है, जो लिखने  मे मुझे काफ़ी तकलीफ झेलनी पड़ी। कारण था, बस एक ही स्थान वही रहे और पात्र बदले जाये फिर सोचा नहीं सब कुछ ही सच हो।
                    शायद कोई यकीन करता होगा भुत प्रेत मे 
अगोरियो मे.. या तांत्रिक मे ---------- होंगे 100 मे से 40 लोग। ईश्वर मे तो सभी पर विश्वास होना ही चाहिए। बस उसके ही सब पैदा किये भी समझ लो। समझना पड़ेगा।
ये स्क्रिप्ट शरू होती है -------
एक सड़क पार कर रही बूढ़ी औरत की... हांजी पार कर गयी। रात के तकरीबन वजे होंगे समय 2 के आस पास।
फिर वो मुझे दिखी ही नहीं ----- हैरत।
कयोकि मैं कार मे बैठा भगती लहर सुन रहा था। मैंने टार्च वगेरा का भी इस्तेमाल किया पर नहीं...
सोचा भ्र्म होगा आँखो का, हो जाता है कभी कभी। अब मैं दिल्ली के हाई वे पर था। कोई ग्राहक बाहर की शांति लेने निकला था। तब घटना घटी।
नहीं समझे गाहक किसी कमजली से बाहर मौज मस्ती कर रहा था, हमने कया लेना।
उसने मुझे आवाज लगायी ----" दीपक एक पेग डालू... " 
मैंने जोर से कहा " आज मंगलवार है.... " 
फिर दोनों और चुप थी। मैंने हेडलाइट बंद की हुई थी।
तभी जोर का झटका -------
वही सफ़ेद रंग के वस्त्र पहने अब वही ओर सड़क पार कर रही थी...
मैंने हनुमान जी का चलीसा उच्चा कर दिया। वो अभी पहुंची ही थी.. एक दम से फिर छुपन.... अब मुझे पक्का विश्वास हो गया था... " यहां रुकना ठीक नहीं " 
चुप मेरी तो खिसियानी बिल्ली मर ही गयी। मैंने जोर से हारन वजा डाला... " कया हुआ कमबख्त को " उस गाहक ने कहा।
" कया हुआ " वो दारू मे टली था।
साहब इजाजत हो तो तेल पा लू... " गाड़ी किराये की है.. आधा किरायेया ले चुके हो, सच बोला या झूठ। "
"साहब सच " अभी आया, साहब आप मौज मस्ती करे..."
"जाओ... " 
"---स्टार्ट की गाड़ी... छू मंत्र.... " फिर वो दिल्ली के टेक्सी स्टेड पे ही रुका।
किसी को बताना नहीं चाहता था।
वहा से सीधे फ्लेट 255 मे।
डोर बैल ----- " अंदर से आवाज आयी। " 
मैं हूँ दीपक " दरवाजा खुला।
वो थी, दीपक था, बच्चे सौ चुके थे। बचा हुआ डिनर थोड़ा खाया... फिर बस।
रोजा ने सवाल किया " कोई ओर नौकरी कयो नहीं कर लेते। " 
"---रात को " दीपक और रोजा हस पड़े।
गाउन मे रोजा बहुत सुंदर दिख रही थी... दो बच्चों के बाद भी वो फिगर से लड़की ही लगती थी। शरीर भरा हुआ था।
दोनों एक बिस्तर पर लेट गए। किरकिरा नहीं करना चाहता था स्वाद, बात बता कर.. थोड़ा ज़िन्दगी मे जरुरी होता है रोमांच भी। वस्त्र उतर चुके थे दोनों के, कभी वो ऊपर, कभी वो नीचे... पर कंबल ने उनका हर अंग ढक रखा था... बस कब नींद आ गयी दोनों ऐसे ही सौ गए।
4 वजे तक दोनों ने अँधेरे मे वस्त्र पहन लिए थे... फिर उबकाई लेते रोजा सौ गयी थी... अब वही तस्वीर दीपक की आँखो के आगे थी। उसने सिवच ही बंद कर लिया था। कब 6 वज गए कोई पता ही नहीं चला। 
रविवार था ----- इसलिए घर मे शौर गुल था 10 वजे तक।
                            दीपक का आज मन मंदिर जाने का था। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। रोजा संग बच्चा पार्टी मंदिर के लिए पैदल रवाना हो गए।
आते आते अख़बार भी ले ही लीं.... 1990 साल का सितंबर महीना था। 

(चलदा )--------------------------नीरज शर्मा