14.
प्रेम का स्वरूप और पात्रता
अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ||५१||
मुकास्वादनवत्॥५२||
अर्थ : प्रेम का वह स्वरूप अवर्णनीय, अकल्पनीय, अतुलनीय है।।५१।। गूँगे के स्वाद की तरह।। ५२ ।।
ईश्वरीय भक्ति (प्रेम) तो भाव की बात है, वह भी ऐसा भाव जिसका वर्णन किसी ऐसे इंसान के सामने नहीं कर सकते, जिसने भक्ति को अनुभव न किया हो। और यदि उसके सामने भक्ति की महिमा गाई भी जाए तो वह न इसकी कल्पना कर सकता है, न ही इसे महसूस कर सकता है। इसीलिए नारद जी भक्ति को उस स्वाद की तरह बता रहे हैं, जिसे कोई गूँगा चख रहा हो।
मान लीजिए, आपके सामने एक गूँगा इंसान कोई ऐसा व्यंजन खा रहा है, जिसे आपने न कभी देखा हो, न खाया हो। अब उसकी भावभंगिमा से आपको ये तो समझ में आ रहा है कि वह व्यंजन बहुत ही स्वादिष्ट है मगर कैसा स्वाद है, यह आप नहीं जान पा रहे हैं।
अगर वह व्यंजन आपका देखा-सुना या खाया हुआ होता तो आप फिर भी उसके स्वाद का अंदाज़ा लगा सकते थे। चूँकि वह आपके लिए नया है इसलिए आप उसके स्वाद की कल्पना भी नहीं कर सकते। आप गूँगे इंसान से पूछते हैं मगर वह उसका वर्णन कैसे करे? इशारों में, हावभाव से वह यह तो बता सकता है कि उसे बहुत मज़ा आ रहा है लेकिन निश्चित रूप से कैसा स्वाद है, इसका वर्णन वह नहीं कर सकता...।
जिस तरह उस व्यंजन का असली स्वाद उसे खाकर ही पता चलेगा, वैसे ही भक्ति का स्वाद भक्त बनकर ही चखा जा सकता है।
कबीरदास जी ने भी नारद जी की इस बात को अपने एक दोहे में कुछ इस तरह कहा है—
अकथ कहानी प्रेम की, कुछ कही न जाए।
गूंगे केरी सरकरा, (शर्करा का अपभ्रंश) खाए और मुस्काए।।
जिसका अर्थ है— प्रेम की कहानी ऐसी है जिसे कहा नहीं जा सकता। जैसे कोई गूँगा मीठा खाकर उसका स्वाद लेता हुआ मंद-मंद मुस्कराता है, वैसे ही प्रेमी (भक्त) प्रेम का स्वाद तो ले सकता है मगर उसका वर्णन नहीं कर सकता।
यह बड़े दुःख की बात है कि इस समय संसार में भक्ति के नाम पर इतने पाखंड, इतने कर्मकाण्ड चल रहे हैं, जिस वजह से भक्ति के मूल स्वरूप पर, उसके असली स्वाद पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। लोग सोचते हैं मंदिरों-मस्ज़िदों में जाकर पूजा-प्रार्थना करना, तीर्थ यात्राएँ, व्रत-उपवास आदि करना ही भक्ति की कसौटी है और जो ये सब करता है, वही बड़ा भक्त है। लेकिन ऐसा नहीं है। यदि ये सब करके आपके अंदर विशुद्ध भक्ति जगती है, आपका अहंकार विलीन होता है, मन और भाव पवित्र होते हैं, स्वीकार भाव जगता है और आप व्यक्तिगत के बजाय अव्यक्तिगत जीवन जीना शुरू करते हैं तो उन सबका फायदा है वरना वे मात्र दिखावा और मनोरंजन ही हैं।
बिना भक्ति रस को पीए कोई स्वयं को बड़ा भक्त मान ले तो यह उसका पाखंड ही है। वह सिर्फ किताबी ज्ञान की बातें कर सकता है, धार्मिक कहानियाँ सुना सकता है, ज्ञान और भक्ति की बड़ी-बड़ी बातें कर सकता है किंतु भक्ति के अनुपम, अतुलनीय, अकल्पनीय स्वाद से सदा अछूता ही रहेगा।
प्रकाशते क्वापि पात्रे ॥५३॥
अर्थ– किसी योग्य पात्र में प्रकाशित होता है ।।५३||
प्रस्तुत सूत्र में नारद जी कहते हैं, भक्ति ऐसे ही किसी को नसीब नहीं होती, इसका मिलना कृपा है और यह कृपा तभी होती है, जब किसी इंसान में भक्त बनने की पात्रता हो। योग्य पात्र को ही भक्ति रूपी ईश्वरीय आनंद का खज़ाना मिलता है।
अब यह कैसे पता चले कि हम भक्ति ग्रहण करने के लिए योग्य पात्र है या नहीं? इसका बिलकुल सीधा और आसान तरीका है। देखें कि जब भी आप किसी पूजा स्थल में जाते हैं तो ईश्वर से क्या माँगते हैं, आपकी प्रार्थनाएँ कैसी हैं? क्या आप ईश्वर से ईश्वर को माँगते हैं, उससे भक्ति माँगते हैं या अपने किसी न किसी सांसारिक स्वार्थ की सिद्धि माँगते हैं? यदि भक्ति पाने के लिए आपके भीतर से सच्ची प्रार्थना और कातर (व्याकुल) याचना उठने लगी है तो समझिए आपमें भक्त होने की पात्रता तैयार हो रही है।
शबरी के भीतर राम दर्शन की याचना उठी थी तो उन्हें राम मिले, भक्त प्रह्लाद के भीतर हरि दर्शन की याचना उठी थी तो उन्हें नारायण मिले। जिसने ईश्वर से जो माँगा उसे वह मिला, जिसने माया माँगी उसे माया ही मिलेगी, भक्ति नहीं।
जैसे एक माँ के दो बच्चे हैं। दोनों रो रहे हैं। माँ उन्हें चुप कराने के लिए खिलौने देती है। एक बच्चा खिलौना लेकर चुप हो जाता है, दूसरा फिर भी रोता रहता है। वह माँ से गोद में लेने के लिए ज़िद करता है तो माँ उसे गोद में ले लेती है। यही बात ईश्वर के संबंध में भी है। जिसे ईश्वर को पाने की प्यास होती है, ईश्वर उसे किसी न किसी माध्यम से भक्ति दे देता है ताकि वह उस तक पहुँच सके।
वेद, शास्त्र, पौराणिक कथाएँ, रामायण, गीता, भागवत, पुराण आदि महान ग्रंथों का एक ही उद्देश्य है कि इनका पठन, श्रवण करने वालों में भक्ति जगे। संत कबीर, गुरुनानक, मीरा, संत रविदास ने भी इसी उद्देश्य से ज्ञान और भक्ति से भरी रचनाएँ लिखीं। चैतन्य महाप्रभु ने इसीलिए नगर-नगर घूमकर संकीर्तन किए ताकि किसी न किसी तरह लोगों में भक्ति की प्यास जगे, उनके भीतर से प्रार्थनाएँ उठे और वे भक्ति के पात्र बनें। नारद भक्ति सूत्र भी ऐसा ही प्रयास है।
लेकिन सिर्फ प्रार्थनाएँ उठना काफी नहीं है, भक्ति ऐसी कृपा है जिसे सँभालने के लिए हमारे मन, बुद्धि और शरीर की भी कुछ तैयारी होनी चाहिए। इसे ऐसे समझें, एक मटका है और आपको उसे पीने योग्य शुद्ध पानी से भरना है तो आप ऐसा कब कर सकते हैं?
अगर वह मटका उलटा रखा है तो आप उसमें पानी नहीं डाल पाएँगे। मटका (मन, बुद्धि युक्त शरीर) उलटा है यानी वह जल (भक्ति) लेने के लिए ग्रहणशील नहीं है, तैयार नहीं है। अब दूसरा मटका है जो पहले से ही ऊपर तक किसी दूसरे द्रव्य से भरा है तो क्या आप उसमें पानी डाल पाएँगे? नहीं! क्योंकि वहाँ कोई जगह ही नहीं है। कुछ लोग अध्यात्म की गलत धारणाओं, कर्मण्काडों, मान्यताओं से इतने भरे रहते हैं कि वे सीधी, सच्ची भक्ति ग्रहण ही नहीं कर पाते। उन्हें लगता है, 'अरे! इतनी आसानी से कैसे भक्ति होगी, इसके लिए तो फलाँ-फलाँ जतन करने पड़ेंगे, नियम मानने पड़ेंगे... तब जाकर कुछ होगा। ऐसे लोग निश्चल भक्ति का स्वाद नहीं चख पाते और बाहरी कर्मकाण्डों में ही उलझकर रह जाते हैं।
अगर मटका दूषित है, उसमें कोई ऐसी ज़हरीली वस्तु या घास आदि पड़ा हुआ है, जिसमें पानी डालने पर वह पानी दूषित हो जाएगा तो भी उस मटके का कोई लाभ नहीं। बहुत से लोगों के बाहरी कार्य भले धार्मिक दिखते हों लेकिन उनकी मनोवृत्ति अत्यंत दूषित होती है। उनकी बुद्धि ज़हरीली होती है। वे दूसरों को कष्ट देकर, दूसरों की बुराइयाँ कर सुख पाते हैं। वे मंदिर में भी जाते हैं तो किसी न किसी के अनिष्ट की प्रार्थना करते हैं। कोई धार्मिक आयोजन भी करते हैं तो सिर्फ अपना बड़प्पन दिखाने के लिए...। ऐसी विकृत मनोवृत्ति वाले इंसान के भीतर भक्ति भी नहीं टिक पाएगी।
यदि ऐसा मटका हो, जिसमें पहले से कोई छेद हो तो वह पानी ग्रहण तो कर लेगा लेकिन उसे रोक नहीं पाएगा। पानी छेद से बह जाएगा। जिन लोगों के दिमाग में बहुत से संशय, तर्क-वितर्क रहते हैं, जिनका मन इतना चंचल है कि कभी अध्यात्म के एक मार्ग का अनुसरण करता है, कभी दूसरे पर पहुँच जाता है... कभी इस गुरु तो कभी उस गुरु के पास पहुँच जाता है... ऐसा भक्त भक्ति और ज्ञान को सँभालकर नहीं रख पाता क्योंकि वह एक मार्ग पर निश्चित नहीं हो पाता।
यदि आप चाहते हैं कि आपमें भक्ति पाने की पात्रता आए तो आपको अपना मटका (मन, बुद्धि, शरीर) सीधा रखना होगा ताकि वह भक्ति के प्रति ग्रहणशील हो। साथ ही वह गलत मान्यताओं और पूर्वाग्रहों से खाली होना चाहिए। वह मन और बुद्धि से शुद्ध भी होना चाहिए। उसमें कोई छेद नहीं होना चाहिए। ऐसा मटका ही सुपात्र बन, भक्ति के पानी को आत्मसात कर, उसी रंग में रंग जाएगा।
गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणं वर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् ||५४||
अर्थ : भक्ति गुण रहित है, कामना रहित है, प्रति क्षण बढ़ती रहती है, सूक्ष्मतर है तथा अनुभव रूप है।।५४।।
नारद जी भक्ति में डूबे हुए भक्ति के स्वरूप का अलग-अलग तरह से बखान कर रहे हैं। वे कहते हैं भक्ति 'गुण रहित' है यानी वह तीनों गुणों (रज, सत्, तम) से परे है, गुणातीत है। गुणातीत अवस्था क्या होती है, इसके बारे में आपने पूर्व सूत्रों में पढ़ा है। गुणातीत भक्त ही असली भक्ति को साध सकता है।
वे आगे कहते हैं, भक्ति 'कामना रहित' है। क्योंकि कामना पूर्ति हेतु किया जा रहा कार्य भक्ति नहीं, व्यापार होता है और ईश्वर व्यापार नहीं करता। भक्ति में भक्त की समस्त व्यक्तिगत और सांसारिक कामनाएँ तो सहज ही छूट जाती हैं। लेकिन भक्ति की उच्च अवस्था वह है, जिसमें भक्त यह कामना भी छोड़ देता है कि उसे ईश्वर मिले, वह स्वबोध को प्राप्त हो। वह यह कामना भी ईश्वर के ऊपर छोड़कर पूर्णतः मुक्त हो जाता है और भक्ति में मगन रहता है।
शुरू-शुरू में भक्त की पुरानी जमी वृत्तियाँ, आदतें भक्ति में बाधा खड़ी करती हैं। अध्यात्म के बारे में लोगों की सुनी-सुनाई बातों से संशय भी पैदा होते हैं। लेकिन जब भक्त भक्ति की शक्ति से उन बाधाओं को पार कर लेता है, उसके सारे संशय, सारे भ्रम दूर हो जाते हैं तो भक्ति में कोई बाधा नहीं रहती, वह प्रति क्षण बढ़ती रहती है।
आगे नारद जी कहते हैं, भक्ति कोई ठोस वस्तु नहीं है जिसे किसी को दिखाया जाए... वह भक्त का आंतरिक अनुभव है। वह सूक्ष्म भाव है जिसे भक्त ही महसूस करता है। कोई और उसकी अवस्था को समझ ही नहीं सकता।
तत्प्राप्य तदेवावलकयति, तदेव श्रृणोति, तदेव भाषयति, तदेव चिंतयति ||५५||
अर्थ : उस भक्ति की शक्ति को प्राप्त कर, भक्त उसी (ईश्वर) को देखता, उसी को सुनता, उसी की बात करता तथा उसी का चिंतन करता है।। ५५ ।।
जिस भक्त को भक्ति की शक्ति प्राप्त हो जाती है, उसका जीवन कैसा हो जाता है, यह नारद जी ने प्रस्तुत सूत्र में बताया है। यहाँ जब नारद जी कहते हैं कि 'भक्त सिर्फ उसी ईश्वर को देखता है, उसी को सुनता है और उसी से बात करता है' तो इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई ईश्वरीय अवतार भक्त के साथ साक्षात् रहने लगता है, जिसे भक्त तो देख सकता है किंतु बाकी लोग नहीं देख सकते। सिर्फ वह भक्त ही उस ईश्वरीय स्वरूप से बातचीत करता है।
दरअसल फिल्मों और टी.वी. सीरियलों में जब किसी महान भक्त को दिखाते तो ऐसा ही दृश्य दिखाते हैं, जिसमें उसके आराध्य देव उसके साथ चलते हुए ऐसे बातचीत करते हैं जैसे बाकी लोग...। ऐसे दृश्य देखकर दर्शक सोचते हैं कि जब ईश्वर हमारी भक्ति से प्रसन्न होगा तो वह भी हमें ऐसे ही नज़र आने लगेगा, हमारे साथ रहने लगेगा। वास्तव में इस सूत्र का अर्थ बहुत गहरा है, जिसे किसी फिल्मी पर्दे पर नहीं उतारा जा सकता।
यह आध्यात्मिक सत्य है कि हर जीव में उसी एक ईश्वर का वास है किंतु हम लोग माया के वशीभूत होकर अपनी इंद्रियों से उस शरीर को तो देख लेते हैं किंतु उसके भीतर की चेतना को नहीं देख पाते। इसीलिए हमें सारे शरीर अलग-अलग नज़र आते हैं। लेकिन जब एक भक्त भक्ति की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त कर लेता है तो वह हर शरीर में उसी एक चेतना (ईश्वर) के दर्शन करने लगता है जो सभी शरीरों में समान है।
उस भक्त के लिए प्रत्येक शरीर उसी परमचेतना का आवरण है। इसीलिए जब वह किसी से बात करता है तो वह उस व्यक्ति विशेष से नहीं बल्कि उसके भीतर की चेतना से बात करता है, वह उसी को सुनता है, उसी को देखता है। उसे इस सत्य का बोध रहता है कि यह जो सामनेवाला इंसान बोल रहा है, वास्तव में यह शरीर नहीं, इसके भीतर रहनेवाली चेतना बोल रही है।
इस समझ से उसके सामने मित्र हो या शत्रु, अपना हो या पराया, वह सबसे समभाव रखता हुआ समान व्यवहार करता है। वह सबको समान और प्रेममयी दृष्टि से ही देखता है। उसके मन में किसी के लिए भी दुर्भावना नहीं रहती बल्कि सभी के लिए प्रेम बरसता है। क्योंकि उसके लिए वह जो सामने खड़ा और कोई नहीं उसका प्रिय ईश्वर ही है।
भक्त जब अकेले होता है तो वह ईश्वर का चिंतन करता है और जब किसी के साथ होता है तो उसमें ईश्वर के दर्शन करता है, इस प्रकार वह हर समय अपने ईश्वर की संगती में ही रहता है। इसी अवस्था को चरितार्थ करती परम भक्त संत नामदेव के जीवन से जुड़ी एक बड़ी सुंदर कहानी है। आइए, उसे पढ़कर सूत्र को गहराई से समझते हैं।
एक बार संत नामदेव कहीं यात्रा में जा रहे थे। यात्रा में वे अपने साथ घर से बने हुए भोजन की पोटली लेकर चले थे जिसमें रोटी, अचार, घी आदि रखा था। चलते-चलते जब उन्हें भूख लगने लगी तो वे एक छायादार वृक्ष के नीचे रुक गए और भोजन के लिए पोटली खोलने लगे। उन्होंने पोटली से चपातियाँ निकाल एक तरफ रख दी। इसके बाद वे पोटली में से घी का छोटा डिब्बा निकालने लगे ताकि रोटियों पर घी लगा सकें।
जैसे ही वे घी का डिब्बा उठाने के लिए मुड़े, एक कुत्ता आया और उनकी रोटियाँ उठाकर चलता बना। जब नामदेव ने देखा कि कुत्ता रोटी लेकर भाग रहा है तो वे घी का डब्बा लेकर उसके पीछे-पीछे यह कहते दौड़ने लगे– 'प्रभु, वे रोटियाँ रूखी हैं, उन्हें ऐसे मत खाइए, मुझे उन पर घी तो लगाने दीजिए, फिर ग्रहण कीजिए, ज़रा रुकिए, मैं आपको अपने हाथों से घी में चुपड़ी हुई रोटियाँ खिलाऊँगा।' नामदेव तो उस कुत्ते में उसी एकमेव चेतना के दर्शन कर रहे थे इसलिए उसे घी लगी रोटी खिलाने को लालायित थे। लेकिन कुत्ता भला इस सत्य को कहाँ जानता था... वह तो पकड़े जाने के डर से रोटियाँ लेकर सरपट दौड़ा चला जा रहा था। यह कथा इस बात का प्रमाण है कि सच्चे भक्त को प्रत्येक जीव में ईश्वर ही नज़र आते हैं।