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साधना की राह
रागिनी का परिवार जैन धर्मावलम्बी था। उसके पिता, प्रकाशचंद, एक आध्यात्मिक पुरुष थे, जो हर सुबह और शाम तत्वार्थ सूत्र का स्वाध्याय करते थे। उनकी मेज पर हमेशा यह ग्रंथ और कुछ अन्य जैन साहित्य की पुस्तकें रखी रहतीं। माँ नियमित रूप से पास के जैन मंदिर में पंच परमेष्ठी की पूजा करने और प्रवचन सुनने जाती थीं। बचपन में रागिनी भी माँ के साथ मंदिर जाती थी, लेकिन उसका मन तब किशोरवय की उड़ानों में खोया रहता था। पिता का स्वाध्याय उसे उबाऊ लगता था, और माँ की भक्ति एक रस्म सी। मगर अब, जब उसका दिल टूट चुका था, उसे अपने परिवार की आध्यात्मिक विरासत में एक नई रोशनी दिखने लगी थी।
एक सुबह, जब सूरज की किरणें रागिनी के कमरे में दाखिल हुईं, वह बिस्तर पर बैठी थी। उसकी नजर पिता की मेज पर पड़े तत्वार्थ सूत्र पर गई। पिता अक्सर कहते थे, रागिनी, जब मन भटके, तो तत्वार्थ सूत्र खोल लेना। इसमें सारी उलझनों का जवाब है। उसने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया था, लेकिन आज उसका मन किसी अनजान शक्ति से खिंचा चला गया। उसने ग्रंथ उठाया और पहला सूत्र पढ़ाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। अर्थात्- सही दृष्टिकोण, ज्ञान और आचरण ही मोक्ष का मार्ग है। ये शब्द उसके मन में भौंरे की तरह गुन्जार करने लगे। उसे लगा, जैसे- कोई बार-बार समझा रहा हो कि जीवन का सत्य न रिश्तों में है, न इच्छाओं में, बल्कि आत्मा की शुद्धता और अहिंसा के पथ में है।
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रागिनी का मन अब संसार से उचट चुका था। वह दिन-रात नताशा के पत्र को याद करती, और हर बार उसका दिल और भारी हो जाता...। एक दिन वह अपनी माँ के साथ पास के मंदिर में गई। माँ वहाँ रोज जाया करती थीं, और रागिनी को लगा कि शायद वहाँ उसे कुछ सुकून मिले...। तब सचमुच मंदिर में जल रहे दीपकों की ज्योति, ध्यान, मंत्रोच्चार, और भक्तों द्वारा तीर्थंकरों की स्तुति ने उसके मन को हल्का कर दिया।
वहाँ एक आचार्य जी प्रवचन कर रहे थे। उनके शब्दों में संसार की नश्वरता और आत्मा की शांति की बातें थीं। रागिनी ने ध्यान से सुना, और पहली बार उसे लगा कि उसका मन कहीं ठहर रहा है।
वह रोज-ब-रोज मंदिर जाने लगी। आचार्य जी और वहाँ आने वाली एक साध्वी के प्रवचन उसे गहरे तक छूने लगे। साध्वी जी कहती थीं, ‘संसार का सुख ही दुख का कारण है। सच्चा सुख तो आत्मा की मुक्ति में है।’
रागिनी को लगने लगा कि वह जिस प्यार, रिश्तों और सपनों के पीछे भाग रही थी, वह सब मिथ्या है। धीरे-धीरे उसके मन में वैराग्य जागने लगा। वह घंटों मंदिर में बैठकर ध्यान करती, जिससे उसका मन शांत होने लगा। अब वह अपनी जिंदगी को जैन धर्म की शिक्षाओं के अनुसार ढालना चाहती थी। मंदिर में उसे पता चला कि शहर के बाहरी इलाके में एक आश्रम है, जहाँ शांति सहज ही सुलभ है।
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रागिनी स्व की प्रेरणा से उस आश्रम में जाने लगी। यह जगह उसके घर से कोई 4-5 किलोमीटर दूर शहर के उत्तरी भाग में थी। यहाँ आकर्षक पहाड़ियाँ थीं, रावी नदी का सुंदर किनारा। यहाँ एक बुजुर्ग जैन साध्वी, आर्यिका विशुद्धमति, स्थाई रूप से रहती थीं। उनके चेहरे पर एक अलौकिक आभा थी, और उनकी बातें रागिनी के मन को छूने लगी थीं।
एक दिन साध्वी ने कहा, ‘बेटी, दुख का कारण राग-द्वेष है। जब तक तुम इच्छाओं और क्रोध को पकड़े रहोगी, मन अशांत रहेगा। आत्मा को जानो, अहिंसा को अपनाओ, और सत्य की राह पर चलो।’
रागिनी ने साध्वी के मार्गदर्शन में ध्यान और प्रायश्चित की साधना शुरू कर दी। उसने जैन धर्म के पंचमहाव्रतों- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को समझना शुरू कर दिया। शुरुआत में उसका मन भटकता था। मंजीत की बातें, नताशा का पत्र, और उसके अपने टूटे सपने उसे खींचते थे। लेकिन जब वह ध्यान में बैठती, अपनी साँसों पर ध्यान देती, और णमोकार मंत्र का जाप करती, तो उसे एक गहरी शांति मिलने लगती।
उसे लगता था, जैसे वह अपनी आत्मा से मिल रही हो... वह आत्मा, जो किसी रिश्ते, किसी मोह की मोहताज नहीं थी।
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रागिनी की मुकाकात यहाँ काव्या नामक एक किशोरी से हुई जो अपने जीवन के दुखों से मुक्ति पाने के लिए आश्रम में आकर रहने लगी थी। हालांकि अभी उसने साध्वी दीक्षा न लेकर सामान्य दीक्षा ही ली थी, पर उसे साध्वियों की ही भाँति धर्म का पर्याप्त ज्ञान हो चुका था। उसने रागिनी को बताया कि- कैसे उसने सामाजिक दबावों और एक टूटे रिश्ते के कारण अपनी पहचान खो दी थी मगर यहाँ आकर उसे सामाजिक दबाव से भी मुक्ति मिल गई और उसका भटकता मन भी सच्ची राह पर आ लगा।
इन दोनों में एक समानता थी- माया के बंधनों से मुक्ति की चाह। काव्या ने रागिनी को एक छोटी सी पुस्तक दी, आत्मसिद्धि शास्त्र। इसमें आचार्य कुंदकुंद के शब्द थेः ‘आत्मा ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या। अपने भीतर की यात्रा करो, वही मोक्ष का द्वार है।’
रागिनी ने इस शास्त्र को अपने जीवन का हिस्सा बनाया। वह रोज सुबह आश्रम में णमोकार मंत्र का जाप करती, साध्वी विशुद्धमति के प्रवचन सुनती, और शाम को घर पर पिता के साथ तत्वार्थ सूत्र का स्वाध्याय करती।
आत्म-चिंतन के उन्हीं दिनों में उसने एक कविता लिखी :
देह की देहरी के पुजारी सभी, प्राण का कोई सेवक मिला ही नहीं।
भावनाएँ कुँवारी रहीं आज तक, पर कोई पाणिग्राहक मिला ही नहीं।।
कामनाएँ पुरस्कृत हुईं पाप की, वासनाओं को वरदान मिलता रहा।
प्रार्थनाएँ अभागिन रहीं उम्र भर, वेदनाओं को अपमान मिलता रहा।
चाहती थी कि सिन्दूर मन को मिले, किन्तु कोई समर्थक मिला ही नहीं।
देह की देहरी के पुजारी सभी, प्राण का कोई सेवक मिला ही नहीं।।
प्रेम तो आज चौसर का इक खेल है, द्रौपदी देह की ही पुरस्कार है।
हैं शकुनि जीतते दांव पर दांव भी, पुण्य के पाण्डवों की हुई हार है।
काम पथ के तो साथी हज़ारों मिले,भाव पथ का प्रवर्तक मिला ही नहीं।
देह की देहरी के पुजारी सभी, प्राण का कोई सेवक मिला ही नहीं।।
कामना के दशानन हैं चहुँ ओर ही, हाय कैसे बचे उर की सीता कहो!
पाप के पुण्य के इस छिड़े युद्ध में, कौन हारा कहो, कौन जीता कहो।
त्याग की उर्मिला आस में है मगर, उसको लक्ष्मण सा साधक मिला ही नहीं।
देह की देहरी के पुजारी सभी, प्राण का कोई सेवक मिला ही नहीं।।
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