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बदलती जिंदगी
रावी नदी का पानी अब भी उसी मंथर गति से बहता था। दस साल गुजर गए, मगर शिवालिक की तलहटी की शांति और पक्षियों की चहचहाहट में कोई बदलाव नहीं आया। कस्बे की गलियों में अब भी वही पुरानी हवा बहती थी, जो कभी पठानकोट में बहती और रागिनी और मंजीत की कहानी को अपने साथ बहा ले जाती। मगर रागिनी अब साध्वी राघवी बन चुकी थी, और मंजीत एक स्कूल के वार्डन की जिंदगी जी रहा था।
दोनों एक ही नदी के किनारे थे, मगर उनकी राहें नहीं टकरातीं। दस साल की यह दूरी एक अनजानी खामोशी बनकर उनके बीच पसरी हुई थी।
सूरज उगने से पहले, जब कस्बा अभी नींद में डूबा होता, साध्वी राघवी आश्रम के छोटे से मंदिर में बैठी होती। उसकी दिनचर्या एक तपस्विनी की तरह थी, जो जैन धर्म के सिद्धांतों से बंधी थी। सुबह का प्रतिक्रमण उसका पहला कर्म था। वह अपनी आत्मा को राग-द्वेष से मुक्त करने के लिए ध्यान में डूब जाती। फिर पंच परमेष्ठी की वंदना करती, और उसकी आवाज में गूँजते भजन आश्रम के प्रांगण को पवित्र कर देते।
कविताएँ- गीत-गजल नहीं, उसने इन बीते वर्षों में कई भजन रचे थे, जिनमें अहिंसा, सत्य, और मोक्ष का संदेश था। उसकी आवाज सुनकर गाँव वाले मंत्रमुग्ध हो जाते, और बच्चे गोद में सिमटकर आध्यात्मिक कहानियाँ सुनते।
दिन में वह आश्रम के केंद्र में बच्चों को पढ़ाती। उसने इस केंद्र को अब और बड़ा कर लिया था। अब यहाँ सिर्फ बच्चे ही नहीं, गाँव की महिलाएँ भी आती थीं। राघवी उन्हें सिखाती कि अहिंसा सिर्फ शारीरिक नहीं, मन और वचन की भी होती है। वह कहती, ‘जब तुम अपने मन को क्रोध और लोभ से मुक्त कर लेते हो, तभी सच्ची शांति मिलती है।’
दोपहर में वह साध्वी विशुद्धमति के साथ बैठती, उनके प्रवचन सुनती, और तत्वार्थ सूत्र का अध्ययन करती। शाम को ध्यान में डूब जाती, और रात को अपनी डायरी में लिखती- कभी भजन, कभी आत्मा की खोज, और कभी रावी की लहरों की बातें।
गहरी रात में जब आश्रम सन्नाटे में डूब जाता, उसका मन कभी-कभी भटकता भी। मंजीत की यादें, जैसे नदी की हल्की लहरें, उसके मन को छूकर चली जातीं। वह उसकी हँसी, छोटी-छोटी हरकतें, और वह पल याद करती, जब उसने पहली बार अपने दिल की बात कही थी, ‘केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले...’
गीत उसे भी याद था, उस पर भी जैसे रंग चढ़ गया था, बाँहें गले में डाल, स्वर में स्वर मिला उठी थी, ‘रितु बसन्त अपनो कन्त, गोदी गरवा लगाय, झुलना में बैठ आज पी के सँग झूले!’
उस रात, रावी के किनारे टहलते हुए उसने चाँद की रोशनी में नदी को देखा। पानी में चाँद की परछाईं देखकर उसे मंजीत की आँखें याद आ गई। उसने अपनी डायरी खोली और लिखा:
‘चाँद की रोशनी, नदी का प्रवाह, सब कहता है- आत्मा है सत्य का आलम।
मंजी, तुम मेरे लिए अब एक याद के सिवा और कुछ भी नहीं...!
मगर यह याद ही मुझे मोक्ष की ओर ले जा रही है।’
मंजीत की इन यादों को वह राग-द्वेष से मुक्त रखने की कोशिश करती। मगर इंसान थी ना। मंजीत की यादें उसके मन की गहराइयों में बसी रहतीं। वह मन ही मन उसके लिए प्रार्थना करती, ‘तुम्हारी आत्मा को भी शांति मिले, मंजी!’
...
उधर, मंजीत की जिंदगी भी अब एक नई राह पर थी। रावी के किनारे बसे उस प्राइवेट स्कूल में वह अब सिर्फ वार्डन नहीं, बल्कि बच्चों का मार्गदर्शक भी बन चुका था। उसने स्कूल में एक छोटा सा पुस्तकालय बनाया था, जहाँ वह बच्चों को तुलसीदास की चौपाइयाँ, कबीर के दोहे, और इतिहास की कहानियाँ सुनाता। बच्चे उसकी बातों में खो जाते। ये धार्मिक और ऐतिहासिक कहानियाँ वह सुनाता भी ऐसे ढंग से कि वे जीवंत हो उठतीं।
मगर रात के सन्नाटे में, जब बच्चे सो जाते, मंजीत रावी के किनारे आ बैठता। नदी का पानी और उसकी हल्की आवाज उसे कुछ पल का सुकून दे देती।
वह जानता था कि राघवी अब साध्वी बन चुकी है। मगर कई बार आश्रम के पास से गुजरते हुए चाहा कि वह उसे देख ले! पर हर बार उसका दिल डरता भी। लगता कि उसकी मौजूदगी राघवी की साधना में खलल न डाल दे...।
भीतर न जा, बाहर से ही दरो-दीवार छूकर चुपचाप लौट आता वह। डायरी में रागिनी की यादें शब्द बनकर उतर आतीं:
‘रागिनी, तुम अब मेरे लिए एक स्वप्न हो, वो स्वप्न जो कभी हमारी हकीकत था। मैं तुम्हें दूर से देखकर ही संतोष करता हूँ। तुम्हारी शांति मेरे लिए प्रेरणा है, मेरे मन का यह कोना, तुम्हें हमेशा यहाँ बिठाए रखेगा।’
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