Us Paar bhi tu - 6 in Hindi Love Stories by Nirbhay Shukla books and stories PDF | उस पार भी तू - 6

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उस पार भी तू - 6

सुबह की हल्की धूप अभी-अभी बनारस की सड़कों पर पड़ी थी।
रास्ते में रिक्शों की खटर-पटर, मंदिर की घंटियाँ और चाय की दुकानों से उठती भाप की ख़ुशबू हवा में घुली हुई थी।

प्रकाश, अपने कंधे पर वही पुराना झोला डाले, आज फिर तेज़ क़दमों से विश्वविद्यालय की ओर बढ़ रहा था।

वो अपनी ही सोच में डूबा था —
कल की क्लास, किताबें, और हाँ... राधिका की वो मुस्कान जो थप्पड़ के बाद भी किसी चुटकी की तरह मन में चुभ रही थी।

इसी बीच, एक मोड़ पर भीड़ दिखाई दी।
कोई चिल्ला रहा था, कोई देख रहा था,
पर कोई मदद नहीं कर रहा था।

प्रकाश का मन विचलित हुआ —
“कहीं कुछ ग़लत तो नहीं?”

वह तेज़ी से आगे बढ़ा,
और भीड़ को चीरता हुआ जैसे ही भीतर पहुँचा...

ज़मीन पर गिरी एक लड़की…
उसकी कलाई से खून रिसता हुआ…
और चेहरे पर दर्द की लकीरें।

वो लड़की कोई और नहीं बल्कि राधिका थी।

प्रकाश का दिल काँप गया।

कुछ पल के लिए उसकी साँस जैसे रुक गई हो।
जिसने उसे कल थप्पड़ मारा था —
वो आज बेसुध पड़ी थी।

उसने बिना एक पल गंवाए अपना झोला नीचे रखा,
अपनी पानी की बोतल से उसके चेहरे पर छींटे मारे।

“राधिका… सुन रही हो?”

कोई जवाब नहीं।

वो घबरा गया, पर चेहरा शांत रखा।

किसी ऑटो वाले को रोका और ज़ोर से कहा —
“भाई साहब! चलिए अस्पताल — जल्दी!”

लोग अब भी तमाशा देख रहे थे —
पर प्रकाश ने तमाशा नहीं,
अपनी इंसानियत दिखाई।

राधिका को गोद में उठाया,
उसके आँचल को उसकी चोट पर बाँधा,
और ऑटो में बैठकर सीधा अस्पताल की ओर निकल पड़ा।

रास्ते भर उसका एक ही मंत्र था —
“हे भोलेनाथ… अब आप ही संभालिए।”



अस्पताल की इमरजेंसी यूनिट में राधिका को भर्ती करवाया जा चुका था।
प्रकाश भागते हुए आया था, हाँफ रहा था, पर उसकी आँखों में सिर्फ एक चिंता थी — राधिका।

वो ज़्यादा अमीर तो नहीं था,
लेकिन जितने भी पैसे उसकी जेब में थे,
वो एक-एक कर काउंटर पर रखता गया —
बिना सोचे, बिना रुके।

"बस इसे बचा लीजिए..."
इतना ही कहा उसने।

कुछ ही देर में राधिका के पिता भी पहुँच गए —
आँखों में आँसू, दिल में घबराहट, और होंठों पर सिर्फ एक सवाल —

"डॉक्टर... मेरी बेटी... कैसी है?"

डॉक्टर ने एक गहरी साँस ली और मुस्कुराते हुए कहा —

"आपकी बेटी अब सुरक्षित है।
जो समय पर यहाँ पहुँचा, उसी की वजह से।
अगर थोड़ी और देर हो जाती, तो स्थिति गंभीर हो सकती थी।
पर घबराइए नहीं, अब ज़्यादा चोट नहीं है —
बस कुछ दिनों का आराम, और वो पूरी तरह ठीक हो जाएगी।"

राधिका के पापा की आँखों से अब राहत के आँसू बहने लगे।
उन्होंने पलटकर प्रकाश को देखा —
जो अब भी दरवाज़े के पास खड़ा था,
थका हुआ, पर संतुष्ट।

राधिका को जब अस्पताल के कमरे में शिफ्ट किया गया,
तो उसके पिता धीरे-धीरे अंदर पहुँचे।

राधिका की आँखें अब धीरे-धीरे खुल रही थीं,
चेहरे पर हल्की थकान थी, पर आँखों में वो पहचान थी।

"पापा..."
उसने धीमे स्वर में कहा।

राधिका के पापा ने उसका हाथ थामा —
"मैं यहीं हूँ बेटा... बस तू ठीक हो जा।"
उन्होंने उसकी ललाट को चूमा,
और उसकी आँखों से बहते आँसू पोंछ दिए।

कुछ पल वो उसके पास बैठकर उसे सहेजते रहे,
फिर भारी मन और नम आँखों के साथ कमरे से बाहर आए।

जैसे ही उनकी नज़र प्रकाश पर पड़ी,
जो अब भी वहीं बाहर बैठा था,
शांत, चुपचाप, आँखों में थकान लेकिन आत्मा में संतोष...

राधिका के पिता उसकी ओर बढ़े —
और बिना एक शब्द कहे...

उसे गले से लगा लिया।

एक पिता की पूरी कृतज्ञता उस आलिंगन में समा गई।

फिर वो अलग हुए,
और हाथ जोड़कर बोले —

"बेटा… आज जो तूने किया, वो कोई अपना ही करता है।
तूने मेरी बेटी को... मेरी दुनिया को बचा लिया।
मैं तेरा ये एहसान ज़िंदगी भर नहीं भूलूंगा।"

प्रकाश थोड़ी झिझक से पीछे हटा,
और धीरे से बोला —

"मैंने कुछ ख़ास नहीं किया अंकल... बस जो इंसानियत कहती है, वही किया।"

राधिका के पापा की आँखों से फिर से आँसू बह निकले —
पर इस बार वो आँसू डर के नहीं,
एक गहरे सम्मान और कृतज्ञता के थे।

प्रकाश अस्पताल से चुपचाप अपने घर लौट आया।
थकावट उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी,
पर मन में एक अजीब-सी शांति थी — जैसे उसने कोई फर्ज़ निभाया हो।

जैसे ही वो दरवाज़े से भीतर आया,
उसकी माँ रसोई से बाहर निकलीं।
उनकी नज़र सबसे पहले उसके कपड़ों पर गई —
कमीज़ पर खून के कुछ निशान साफ़ दिख रहे थे।

“प्रकाश… ये खून? ये क्या हुआ बेटा?”
वो घबरा गईं और उसके पास दौड़ती हुई आईं।

प्रकाश ने धीरे से उनका हाथ पकड़ा और बैठाया।
“माँ… मैं ठीक हूँ। ये खून मेरा नहीं है।”

फिर उसने एक-एक कर सारा हाल सुनाया —
कैसे रास्ते में उसे भीड़ दिखी,
कैसे राधिका को घायल देखा,
कैसे उसे अकेले अस्पताल ले गया,
और कैसे उसके पास जितने भी पैसे थे,
वो सब लगा दिए इलाज में।

प्रकाश की माँ सुनती रहीं…
उनकी आँखें भीग गईं।
पर वो रो नहीं रहीं थीं —
वो अपने बेटे पर गर्व कर रही थीं।

“तू सच्चा इंसान है बेटा… तूने मेरी परवरिश को नाम दिया है।”

उन्होंने उसके माथे पर हाथ रखा और फिर उसकी कलाई पकड़ी —
“चल, मैं तेरे लिए हल्दी वाला दूध बना लाती हूँ… और हाँ, कपड़े बदल ले, वरना ठंड लग जाएगी।”

प्रकाश हल्की मुस्कान के साथ उठा और अपने कमरे की ओर चल दिया।

मन में कोई अफसोस नहीं था,
बस एक खामोश उम्मीद थी —

“काश… वो ठीक हो जाए। और फिर… शायद वो एक दिन जान पाए, कि कोई है… जो उसे बिना किसी उम्मीद के, सिर्फ उसकी भलाई के लिए सोचता है।”



कुछ दिन बीत चुके थे।
राधिका अब धीरे-धीरे ठीक हो रही थी,
पर प्रकाश ने फिर कभी न अस्पताल गया, न हाल पूछा।
उसने सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया था — और फिर चुप हो गया।

उसी खामोशी की दोपहर थी।
घर के बाहर एक चमचमाती मोटर आकर रुकी।
प्रकाश दरवाज़े पर खड़ा था, धूप में कपड़े सुखा रहा था।

"प्रकाश जी?"
एक वर्दीधारी ड्राइवर नीचे उतरा और अदब से बोला,
"बाबूजी ने आपको बुलाया है… चलिए, कार में बैठिए।"

प्रकाश थोड़ा हैरान हुआ।
"कौन बाबूजी?"

"राधिका जी के पिता।"
ड्राइवर ने मुस्कराकर जवाब दिया।

प्रकाश ने माँ की तरफ देखा।
वो बरामदे में बैठी सब्ज़ियाँ काट रही थीं।

"माँ, मैं थोड़ा बाहर जा रहा हूँ। ज़्यादा देर नहीं होगी।"
माँ ने सिर हिलाकर इजाज़त दी।

प्रकाश ने एक साधारण-सी कमीज़ पहनी,
और कार में जाकर बैठ गया।

गाड़ी धीरे-धीरे बनारस की भीड़भाड़ से निकलती हुई
एक शांत, अमीर मोहल्ले में दाखिल हुई।

जहाँ गेट पर सुरक्षा गार्ड थे,
सड़क के दोनों ओर घास और फूलों की क्यारियाँ थीं।

फिर गाड़ी एक शानदार बंगले के सामने आकर रुकी।
सामने चमचमाते सफेद संगमरमर की सीढ़ियाँ थीं,
दरवाज़े की तरफ जाते हुए ज़मीन पर महँगी टाइल्स जमी हुई थीं,
जिन पर सूरज की किरणें जैसे नाच रही थीं।

प्रकाश गाड़ी से उतरा और घर की ओर बढ़ा —
धीरे, संयम से... पर मन में कई सवालों के साथ।

दरवाज़ा खुला…
और वहाँ खड़े थे राधिका के पिता —
एक साधारण, सादे कुर्ते में, पर चेहरे पर अद्भुत गरिमा लिए।

उन्होंने मुस्कुराकर कहा —

"आ जाइए बेटा… आपका ही इंतज़ार था।”

प्रकाश ने सिर झुकाकर नमस्कार किया।
राधिका के पिता ने बहुत अपनापन भरे स्वर में कहा —
"आओ बेटा, भीतर आओ।"

प्रकाश ने अपने पाँव बाहर लगी चटाई पर रगड़े,
फिर धीरे-धीरे भीतर प्रवेश किया।

वह घर किसी हवेली से कम नहीं था।
ऊँची छतें, लकड़ी की नक्काशी वाले खंभे,
और दीवारों पर सुंदर चित्रों की कतार थी।
हवा में अगरबत्ती की भीनी सुगंध फैली हुई थी।

राधिका के पिता उसे बैठक में ले गए,
जहाँ मुलायम गद्दे और सुंदर गलीचे बिछे थे।

"बैठो बेटा..."
उन्होंने इशारे से कहा।

प्रकाश थोड़े संकोच में था, पर बैठ गया।

"तुमने उस दिन जो किया... वो कोई साधारण बात नहीं थी।"
राधिका के पिता की आँखें भीग उठीं।
"आजकल के समय में, जब लोग किसी अपने को भी नहीं उठाते,
तुमने मेरी बेटी को अपनी बेटी समझकर बचाया।
उस पर धन खर्च किया, और एक पल को भी सोचा नहीं..."

वो कुछ क्षण रुके, फिर बोले —
"मैं सिर्फ धन्यवाद कहने के लिए नहीं बुलाया तुम्हें,
मैं तुम्हें अपना आशीर्वाद देने के लिए बुलाया हूँ।
और ये कहने के लिए कि...
अब से मेरा घर, तुम्हारा भी है।"

प्रकाश चुप था।


प्रकाश अब भी चुपचाप बैठा था।
उसके मन में भावनाओं का एक तूफ़ान चल रहा था,
पर चेहरा शांत था — बिल्कुल गंगा के किनारे की सुबह की तरह।

उसी समय एक नौकर आया और राधिका के पिता के पास धीरे से कुछ कहने लगा।
राधिका के पिता ने उसकी बात ध्यान से सुनी और तुरंत उठ खड़े हुए।

उन्होंने प्रकाश की ओर देखकर कहा —
"बेटा, मुझे तुरंत एक आवश्यक बैठक के लिए निकलना है।
बहुत ज़रूरी है, माफ़ करना।
यदि तुम चाहो तो राधिका से मिल लो, वह अपने कमरे में है —
सीढ़ियाँ चढ़कर दाएँ ओर पहला कमरा।
मैं लौटकर फिर मिलूँगा।"

प्रकाश ने सिर हिलाकर सहमति जताई।
राधिका के पिता ने स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखा,
फिर धीमे क़दमों से बैठक से बाहर निकल गए।
बाहर गाड़ी पहले से तैयार खड़ी थी।