Us Paar bhi tu - 9 in Hindi Love Stories by Nirbhay Shukla books and stories PDF | उस पार भी तू - 9

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उस पार भी तू - 9

कॉलेज के बाद, जैसे रोज़ का नियम हो गया था,
दोनों पास की एक चाय की टपरी पर मिले।

प्रकाश ने चाय का घूँट लेते हुए शरारत से कहा —
"वैसे... क्लास से बाहर होने का एक्सपीरियंस कैसा रहा?"

राधिका ने उसे घूरते हुए कहा —
"बहुत मज़ा आ रहा है न तुम्हें? ख़ुश हो गए?"

प्रकाश हँस पड़ा —
"अरे नहीं... बस सीख रहा हूँ कि जब जवाब ना आए, तो चेहरे के भाव कैसे बदलते हैं!"

राधिका ने बनावटी गुस्से में उसकी ओर देखा, फिर मुस्कुराई और बोली —
"एक दिन आएगा जब तुम्हें भी क्लास से बाहर करवा दूँगी..."

दोनों की हँसी चाय की भाप के साथ उस टपरी के कोने में तैरने लगी…


कॉलेज का मौसम उस दिन कुछ और ही था।
हल्की-हल्की धूप घास पर बिछी थी, और आसमान में धीमे बादल तैर रहे थे।

राधिका और प्रकाश कॉलेज की गार्डन में, हरे भरे मैदान पर घास पर लेटे हुए थे।
पेड़ों की छाँव में हवा धीरे-धीरे चल रही थी —
और जैसे समय कुछ पल के लिए ठहर गया था।

राधिका ने करवट बदलते हुए प्रकाश की ओर देखा और मुस्कुरा कर पूछा —
"प्रकाश… तुम्हारे सपने क्या हैं?"

प्रकाश थोड़ी देर चुप रहा।
फिर उसकी आँखें आसमान की ओर टिक गईं।
उसके चेहरे की मुस्कान धीरे-धीरे गहराई में बदलने लगी।

"मेरा सपना?" उसने धीमी आवाज़ में दोहराया।

"मेरे पापा... वो बहुत बड़े इंसान बनना चाहते थे।
लेकिन ज़िंदगी ने उन्हें ज़्यादा वक्त नहीं दिया।
जब मैं छोटा था, तब ही वो चल बसे।
माँ कहती हैं कि उनकी आँखों में मेरे लिए बहुत सपने थे...
और अब, मैं उन्हीं आँखों के सपनों को पूरा करना चाहता हूँ।"

राधिका चुप हो गई।
प्रकाश की आवाज़ में दर्द था, पर वो दर्द भी कितना साफ़, कितना सच्चा था।
उसकी आँखों में पहली बार राधिका ने नमी देखी।
वो नमी जो किसी कमज़ोरी की नहीं,
बल्कि अपनों के लिए बसी श्रद्धा और वचनबद्धता की थी।

प्रकाश ने अपनी नजरें ज़मीन पर टिका लीं,
पर राधिका अब भी उसे एकटक देख रही थी।

"तुम... बहुत अलग हो प्रकाश,"
उसने धीमे से कहा।
"मैंने किसी को इतने प्रेम से, किसी के जाने के बाद भी… इतना समर्पित नहीं देखा।"

वो कुछ पल रुकी, फिर मुस्कराते हुए बोली —
"तुम ज़रूर एक दिन अपना मुकाम पाओगे।
तुम जैसे लोग हार नहीं मानते… वो बस इतिहास बनाते हैं।"

प्रकाश ने उसकी ओर देखा, हल्की मुस्कान के साथ।
राधिका के शब्द जैसे दिल के सबसे गहरे हिस्से में उतर गए हों।
उन शब्दों में अपनापन था, और अनकही प्रार्थना भी।

और उस दिन, उन दोनों के बीच...
सपनों से जुड़ी एक नई डोर बंध गई —
जो सिर्फ लक्ष्य की नहीं, भावनाओं की भी थी।

अब राधिका के लिए प्रकाश किसी आम इंसान की तरह नहीं रहा था।
वो उसके लिए एक सिद्धांत, एक आदर्श, एक रास्ता बन चुका था।

वो उसके जीवन में ऐसा स्थान ले चुका था जहाँ न कोई प्रश्न था, न कोई संदेह।
जो भी प्रकाश कहता, राधिका उसे बिना किसी शंका के मान लेती।
उसकी बातों में जैसे कोई अलग ही सच्चाई होती थी,
जिस पर आँख मूँदकर विश्वास किया जा सकता था।

वो जब कहता —
“ये ठीक नहीं है राधिका…”,
तो राधिका बिना बहस किए मान जाती।

और जब वो कहता —
“तुम ये कर सकती हो…”,
तो राधिका को सच में लगता कि वो कर सकती है।

वो उसके लिए एक ऐसा पथदर्शक बन गया था
जिसके साथ रहकर उसे न सिर्फ आत्मविश्वास मिलता था
बल्कि अपने भीतर के अच्छे इंसान को भी वो पहचानने लगी थी।

वो सोचती —
"क्यों न करूँ इस पर विश्वास...?
जिसने मेरी गलती पर भी पलटकर जवाब नहीं दिया,
बल्कि ज़रूरत पड़ने पर मेरी जान बचा ली।
जो खुद अभाव में रहकर भी मेरी भलाई के लिए खड़ा रहा।
जो हर बात को बिना दिखावे के, पूरी सच्चाई से कहता है…"

राधिका के लिए अब प्रकाश सिर्फ एक दोस्त नहीं,
बल्कि एक ऐसा मूल्य था
जिस पर उसका पूरा यकीन टिक गया था।

और यही वो रिश्ता था,
जिसमें कोई कहे या न कहे,
पर दोनों के दिलों में धीरे-धीरे कुछ पलता जा रहा था…
कुछ जो शायद शब्दों से ज़्यादा ख़ामोशियों में था।

प्रकाश अब धीरे-धीरे राधिका के घर आने जाने लगा था।

शुरुआत में वह थोड़ा संकोच करता था,
पर राधिका के पिता और घर वाले उसकी सच्चाई और ईमानदारी को समझ चुके थे।

राधिका के घर का माहौल भी अब उसके लिए कोई अजनबी नहीं रहा।
वह वहाँ आराम से बैठता, राधिका और उसके परिवार के साथ समय बिताता।

यह रिश्ता सिर्फ दोस्ती का नहीं, बल्कि एक गहरे भरोसे और अपनापन का था।

राधिका भी प्रकाश के आने से खुश रहती थी,
क्योंकि उसे उसकी दोस्ती में अब एक अलग ही सुकून महसूस होने लगा था।

दोनों के बीच की बातों में अब वह मिठास थी,
जो धीरे-धीरे उनकी ज़िंदगी में एक खास जगह बनाने लगी थी।

राधिका एक रोज जब प्रकाश उसके घर आया, तो उसके पिता ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया और बैठाकर बातचीत शुरू की।

राधिका ने कहा, "मैं चाय बनाकर आती हूँ," और वह रसोई की ओर चली गई।

उसके बाद राधिका के पिता ने प्रकाश से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछा।
प्रकाश ने अपनी मेहनत और पढ़ाई के बारे में बताया।

उनके चेहरे पर गर्व झलक रहा था, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि प्रकाश कितना होशियार और समझदार है।

धीरे-धीरे बातचीत में पता चला कि प्रकाश की होशियारी उसी क्षेत्र से संबंधित थी, जहाँ राधिका के पिता का एक बड़ा प्रोजेक्ट चल रहा था।

यह जानकर राधिका के पिता के मन में प्रकाश के लिए सम्मान और भी बढ़ गया, और उन्होंने सोचा कि इस युवा को अपने प्रोजेक्ट में मदद मिल सकती है।


शर्मा जी ने बड़े ध्यान से प्रकाश को प्रोजेक्ट की फाइल दिखाई और विस्तार से समझाया —
“बेटा, ये प्रोजेक्ट मेरे ऑफिस के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसे पूरे दमखम से करना होगा। तुम्हें इसे केवल बीस दिनों के अंदर पूरा करना होगा। क्या तुम अपनी पूरी मेहनत और लगन से इसे पूरा कर पाओगे?”

प्रकाश ने अपने आत्मविश्वास भरे स्वर में जवाब दिया —
“शर्मा जी, मैं पूरी मेहनत और ईमानदारी से इस काम को पूरा करूंगा। आप निश्चिंत रहें।”

इतना कहकर उसने फाइल उठाई और गहराई से देखने लगा। उसके चेहरे पर एक गंभीरता और ज़िम्मेदारी की झलक साफ़ झलक रही थी।

तभी शर्मा जी को अचानक कोई जरूरी काम याद आ गया। उन्होंने उठकर कहा —
“ठीक है बेटा, मैं कुछ काम से बाहर जाता हूँ। तुम्हें अगर किसी मदद की ज़रूरत हो तो मुझे बताना।”

फिर वे कमरे से बाहर चले गए।

कुछ देर बाद, राधिका अपने हाथों में चाय का ट्रे लेकर आई। उसने धीमे से कहा —
“प्रकाश, चाय ले लो, थोड़ा आराम कर लो।”

लेकिन प्रकाश पूरी तरह से फाइल और प्रोजेक्ट की तरफ़ ध्यान दे रहा था, उसने राधिका की आवाज़ नहीं सुनी।

राधिका वहीं जमीन पर बैठ गई, चुपचाप प्रकाश को ध्यान से देखने लगी। उसके दिल में उसके लिए एक अजीब-सी चिंता और ममता थी।

उसने सोचा, "प्रकाश कितना मेहनती और समर्पित है... मैं चाहती हूँ कि वो हर हाल में सफल हो।"

वह वहीं बैठी रही, उसकी आँखें प्रकाश के चेहरे पर टिकी थीं, जो अब प्रोजेक्ट की गंभीरता में खोया हुआ था।

प्रकाश को प्रोजेक्ट में लगे हुए अब पाँच घंटे बीत चुके थे।
कागज़ों, नक्शों और गिनतियों में उसका दिमाग पूरी तरह डूबा हुआ था। बाहर शाम का झुकता सूरज अपनी आख़िरी किरणें धरती पर फैला रहा था, लेकिन कमरे के अंदर अब भी वही शांति और समर्पण का माहौल था।

वहीं ज़मीन पर, राधिका अपने लंबे खुले बालों को पीछे डालकर, अपने दोनों हाथों को घुटनों में समेटे, चुपचाप प्रकाश को निहारते हुए बैठी थी।
धीरे-धीरे उसकी पलकें भारी होने लगीं।
प्रकाश की लगन और गहराई उसे जैसे एक कहानी-सी लगने लगी थी — और उसी कहानी में खोते-खोते वह वहीं ज़मीन पर बैठे-बैठे सो गई।

अब जब प्रकाश का ध्यान प्रोजेक्ट से कुछ पल के लिए हटा, तो उसकी नज़र राधिका पर पड़ी।
उसे यह देख अचरज हुआ कि राधिका वही पास में बैठी थी — एकदम शांत, मासूम-सी नींद में खोई हुई।
उसके चेहरे पर एक अलग-सी मासूमियत और थकान दोनों का मिलाजुला भाव था।
प्रकाश कुछ पल उसे बस यूँ ही देखता रहा।

फिर मुस्कराते हुए वह उठा, धीरे से पास गया, और वहीं पड़े एक हल्के-से दुपट्टे को उठाकर उसके कंधों पर ओढ़ा दिया ताकि उसे ठंड न लगे।
धीरे से बुदबुदाया —

राधिका की आँखें धीमे-धीमे खुलीं, जैसे कोई फूल भोर की पहली किरण से जाग रहा हो।
उसने देखा कि उसके कंधों पर कोई कपड़ा है — फिर नज़र उठाई, तो सामने प्रकाश खड़ा था।
उसके चेहरे पर हल्की थकान, पर साथ ही एक संतोष भी था।

राधिका ने नींद से भरी पर स्नेहिल मुस्कान के साथ कहा —
"हो गया तुम्हारा काम?"

उसके स्वर में कोई शिकायत नहीं थी।
न कोई उलाहना,
बल्कि एक इंतज़ार में डूबा हुआ अपनापन था,
जो जैसे कह रहा हो — "तुम्हारा होना मेरे लिए काफी है।"

प्रकाश एक पल को ठिठका,
उसकी ओर देखा, और फिर आँखें झुकाकर धीरे से कहा —
"हाँ… हो गया।"

पर उस “हाँ” में केवल प्रोजेक्ट के पूरे होने का उत्तर नहीं था।
उसमें एक पछतावा भी छुपा था —
कि राधिका इतने समय तक उसके पास बैठी रही,
और उसने एक बार भी उसकी ओर ध्यान नहीं दिया।

कुछ क्षण दोनों के बीच ख़ामोशी छाई रही,
फिर प्रकाश ने धीमे से कहा —
“माफ़ करना… तुम इतना इंतज़ार करती रही और मैं… मैं तो बस…”


राधिका ने अपनी आँखों से उतरे सपनों को समेटते हुए,
थोड़ा उठकर बैठते हुए धीरे से मुस्कराया।
उसकी आवाज़ अब थोड़ी और कोमल थी, जैसे किसी सुर में आत्मा घुल गई हो —

“कोई बात नहीं...
तुम्हें देखते रहना ही तो मेरी सबसे बड़ी ख़ुशी है।”

उसने यह ऐसे कहा,
जैसे उसका सारा प्रेम, सारा अपनापन
उस एक वाक्य में उतर आया हो।

प्रकाश कुछ पल के लिए कुछ कह ही नहीं सका।
उसे नहीं पता था कि कोई इंसान इतनी सादगी और इतनी गहराई से
किसी के लिए महसूस कर सकता है।

राधिका ने फिर हल्के से उसका हाथ पकड़ते हुए कहा —
“तुम जब काम में खो जाते हो, तो तुम्हारा चेहरा...
बिलकुल वैसे ही चमकता है जैसे किसी मंदिर में दिया।”

अब प्रकाश की आँखों में भी एक हल्की नमी सी तैरने लगी।

उसने धीरे से राधिका का हाथ थामा और कहा —
“तुम्हारी ये बातें...
शायद किसी और ने कही होती, तो बस बातें लगतीं,
पर जब तुम कहती हो... तो वो सच्चाई सी लगती हैं।”

कमरे में एक गहरा, शांत अपनापन भर गया था।

अब दोनों वहीं ज़मीन पर बैठे थे —
एक प्रोजेक्ट पूरा हो चुका था,
पर एक रिश्ता...
वो अभी-अभी कुछ और गहराता चला गया था।


 अब एक रोज़, जब बनारस की गलियों में ठंडी-सी पुरवाई चल रही थी,
सूरज हल्की धूप बिखेर रहा था,
और मौसम में एक अजीब-सी ताज़गी थी —
वो ताज़गी जो मन को बिना वजह ही प्रसन्न कर दे।

कॉलेज का अहाता उस दिन कुछ ज़्यादा ही शांत और सुंदर लग रहा था।
पेड़ों से झरते पत्तों की सरसराहट में जैसे कोई पुरानी धुन बज रही हो।

प्रकाश उसी रोज़ अपने नोट्स लिए लाइब्रेरी की ओर बढ़ रहा था,
कि सामने से राधिका आती दिखी —
हल्की नीली साड़ी में, किताबें सीने से लगाए,
हवाओं से खेलते उसके बाल, और आँखों में वही पुरानी शरारत।

प्रकाश ने मुस्कराकर कहा —
"अरे वाह, आज तो मौसम भी तुम्हारे साथ है राधिका,
इतनी प्यारी लग रही हो जैसे बनारस की सुबह हो।"

राधिका हँस दी —
"तो क्या बाकी दिन मैं बनारस की रात लगती हूँ?"

प्रकाश भी हँस पड़ा,
"नहीं, बाकी दिन तुम… तुम बस राधिका लगती हो,
और वो तो हर मौसम से ज़्यादा खूबसूरत होती है।"

अब दोनों साथ-साथ कॉलेज के बागीचे की ओर बढ़े,
जहाँ कुछ पंछी चहचहा रहे थे,
और दूर किसी कोने में स्टूडेंट्स पढ़ाई में लगे थे।

राधिका ने पूछा —
"क्या पढ़ रहे हो आजकल?"

प्रकाश ने किताब दिखाते हुए कहा —
"कल जो शर्मा जी ने प्रोजेक्ट की अगली मीटिंग रखी है, उसी की तैयारी कर रहा हूँ।"

राधिका ने धीरे से उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा —
"तुम्हारे जैसे मेहनती लोग ही तो अपने और दूसरों के सपनों को सच करते हैं…"

फिर दोनों उसी बेंच पर बैठ गए जहाँ अक्सर बैठा करते थे,
और बातों का सिलसिला फिर से चल पड़ा —
मौसम, पढ़ाई, सपने, और हँसी की रेखाओं के बीच...
जैसे समय भी कुछ देर के लिए वहीं रुक गया हो।



प्रकाश हर दिन कॉलेज से लौटने के बाद जब घर आता,
तो सबसे पहले अपने जूते बाहर उतारता,
थोड़ा पानी पीता, और फिर सीधा अपनी माँ के पास जाकर बैठ जाता।

उसकी माँ, जो चौकी पर बैठकर सब्ज़ी काट रही होती या कोई पुराना स्वेटर बुन रही होती,
प्रकाश को देखते ही मुस्कराती —
"आ गया मेरा लाल? कैसे रहा दिन?"

और बस फिर क्या था,
प्रकाश अपनी किताबें किनारे रखता, और अपनी माँ को दिनभर की सारी बातें बताता।

"आज राधिका मिली कॉलेज में...
हम दोनों लाइब्रेरी गए थे,
फिर शर्मा जी ने प्रोजेक्ट के लिए तारीफ की,
फिर चाय पी साथ में, और..."

उसकी माँ बीच में हँसकर बोलती —
"और राधिका की तारीफ कितनी बार की आज?"

प्रकाश थोड़ी झेंपते हुए मुस्कराता,
"अरे माँ, वो तो बस दोस्त है। बहुत समझदार है... बस।"

उसकी माँ मुस्कराकर उसकी आँखों में झाँकती —
जैसे सब समझती हो, पर कुछ कहती नहीं।

प्रकाश की यही आदत थी —
वो अपनी माँ को सब कुछ बताता,
क्योंकि उसके जीवन में माँ ही वो रिश्ता थी,
जिसके सामने उसका दिल खुल जाता था।

घर के उस छोटे से आँगन में,
मिट्टी की खुशबू और माँ के प्यार के बीच
प्रकाश का हर दिन एक नये विश्वास और अपनापन से भर जाता था।