Sisakati Wafa: Ek Adhuri Mohabbat ki Mukmmal Dastan - 1 in Hindi Love Stories by Babul haq ansari books and stories PDF | सिसकती वफ़ा: एक अधूरी मोहब्बत की मुकम्मल दास्तान - 1

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सिसकती वफ़ा: एक अधूरी मोहब्बत की मुकम्मल दास्तान - 1

 Rachna:   Babul Haq ansari

  सिसकती वफ़ा: एक अधूरी मोहब्बत की मुकम्मल दास्तान  

    भाग - 1

कभी-कभी ज़िंदगी वो सवाल पूछ लेती है... जिनका जवाब सिर्फ ख़ामोशी के पास होता है।  
और मोहब्बत... वो अक्सर वहीं से शुरू होती है, जहाँ लोग टूट कर बिखर जाते हैं।

सहर की हल्की सी रौशनी जैसे ही शहर के चेहरे पर बिखरनी शुरू हुई, स्टेशन की घड़ी ने सुबह के पाँच बजाए। प्लेटफार्म पर सिर्फ पंखे की आवाज़ और कुछ इक्का-दुक्का कुलियों की फुसफुसाहट थी।

इसी सन्नाटे में, एक नीली सलवार में सिमटी सी लड़की बेंच पर बैठी थी — आँखें लाल थीं, पर आंसू थमे हुए... नाम था उसका आयशा। और वो किसी का इंतज़ार नहीं कर रही थी — बल्कि किसी से भागकर आई थी।

उसकी गोद में एक पुराना खत था — जिसमें सिर्फ तीन लफ्ज़ लिखे थे:  
"मैं लौट आऊँगा।"

कहने वाले थे आर्यन — वो लड़का जिससे वो पहली बार कॉलेज के लाइब्रेरी में टकराई थी, और जिसे नज़रअंदाज़ करते-करते कब चाहने लगी, खुद भी नहीं जान पाई।

छह सालों की मोहब्बत, चुपके मिलना, किताबों में छुपे खत, टूटे हुए वादे... और आख़िरकार, एक ऐसा मोड़ जहाँ सब कुछ दांव पर लग गया।

उस रात आयशा ने घर छोड़ा था — सिर्फ आर्यन के लिए।  
पर आर्यन नहीं आया।  
बस वो खत आया… जिसमें सिर्फ तीन लफ्ज़ थे —  
"मैं लौट आऊँगा।"

अब आयशा अकेली थी — इस भीड़ में, इस दुनिया में, अपनी मोहब्बत के वजूद को लिए हुए।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती...

क्योंकि मोहब्बत की सिसकियाँ कभी आवाज़ नहीं करतीं,  
पर वो वक़्त के सीने में गहरा सुराख़ ज़रूर छोड़ जाती हैं।
अब आयशा उसी खत को सीने से लगाए प्लेटफार्म की बेंच पर बैठी थी।  
भीड़ बढ़ने लगी थी… लोग अपने अपने सफ़र पर थे…  
लेकिन आयशा का सफ़र वहीं थम गया था — उस लम्हे में, उस ख़त के इंतज़ार में।

अचानक पीछे से एक बूढ़ी आवाज़ आई —  
“बेटी, कब की ट्रेन छूट गई है… अब कहाँ जाना है?”

आयशा ने मुस्कुरा कर देखा — पर उसकी आँखें बिल्कुल ठंडी थीं।  
“कहीं नहीं जाना अब… बस रुके रहना है…”

बुज़ुर्ग औरत चुप हो गई… जैसे समझ गई हो कि कुछ इंतज़ार सिर्फ वक़्त के नहीं, किस्मत के भी होते हैं।

उधर, शहर के दूसरे कोने में, आर्यन एक छोटे से होटल में बैठा, अपनी उंगलियों से वही कागज़ी टुकड़ा मरोड़ रहा था —  
उसने खत दो जगह भेजे थे… एक आयशा को… एक खुद को।

"मैं लौट आऊँगा…"  
पर उसके लौटने की वजह अब खो चुकी थी।

उसकी जेब में एक ट्रेन की टिकट थी — सुबह 6:45 की बनारस जाने वाली ट्रेन।  
पर वो टिकट अब सिर्फ एक कागज़ रह गया था —  
क्योंकि वो खुद भी तय नहीं कर पा रहा था कि उसे लौटना है या मिट जाना है…
सुबह के सात बज चुके थे।  
प्लेटफार्म की भीड़ अब चिल्लाने लगी थी।  
आर्यन ने होटल के पुराने शीशे में खुद को देखा — आँखें सूजी हुई थीं, चेहरा थका हुआ…  
जैसे रात भर नींद नहीं, एक लड़ाई लड़ी हो।

उधर आयशा अब स्टेशन की बेंच पर नहीं थी।  
वो उसी शहर की एक धर्मशाला में पहुँच चुकी थी — सिर ढका हुआ, आँखें अब भी गीली।

"तू पागल है क्या आयशा…? वो नहीं आएगा…"  
उसकी सहेली मीनू फुसफुसाई।

"नहीं मीनू… वो आएगा… उसने लिखा है… 'मैं लौट आऊँगा'… और आर्यन झूठ नहीं बोलता…"

मीनू चुप हो गई।  
क्योंकि उसे मालूम था —  
**कुछ लोग मोहब्बत को इतनी शिद्दत से निभाते हैं, कि फिर हार भी उन्हें मुकम्मल लगती है।**

आर्यन आखिरकार होटल से बाहर निकला।  
सड़क पर चहल-पहल थी।  
पर उसके भीतर सब कुछ थम चुका था।

उसे नहीं पता था कि आयशा कहाँ है…  
पर उसे यक़ीन था — **अगर वो मोहब्बत सच्ची है, तो वक़्त और फासले हार जाएंगे…**

और ठीक उसी पल —  
धर्मशाला के बाहर घंटी बजी…

(…जारी है…)