शीर्षक : "अधूरी घंटी"
Part 1 : हवेली का रहस्य
शहर से दूर, पुराने गाँव के कोने में एक हवेली थी, जिसे लोग “काली हवेली” कहते थे। वहाँ कभी किसी ज़मींदार का परिवार रहता था, लेकिन दशकों से वह वीरान थी। टूटी खिड़कियाँ, दरकती दीवारें और चारों तरफ़ फैली झाड़ियों ने उसे और भी डरावना बना दिया था।
गाँव वालों का कहना था कि हर रात ठीक बारह बजे हवेली में घंटी बजती है। सबसे अजीब यह था कि हवेली में कहीं कोई मंदिर या घंटा मौजूद ही नहीं था। बच्चों को कड़े शब्दों में मना किया जाता कि वहाँ झाँकने भी न जाएँ।
कई लोगों ने कोशिश की थी इस रहस्य को समझने की। पर या तो वे लौटकर आए ही नहीं, या फिर लौटे तो उनका दिमाग़ी संतुलन बिगड़ चुका था। इसलिए धीरे-धीरे गाँव वालों ने मान लिया कि वह जगह शापित है।
इन्हीं कहानियों से प्रभावित होकर, आरव नाम का एक युवा पत्रकार उस जगह पहुँचा। आरव हमेशा अंधविश्वास के पीछे की सच्चाई खोजने में विश्वास रखता था। उसके पास कैमरा, टॉर्च और रिकॉर्डर था।
रात गहराते ही वह हवेली की ओर बढ़ा। हवा में अजीब-सी ठंडक थी और आसपास के पेड़ों की डालियाँ ऐसे हिल रही थीं मानो कोई अदृश्य ताक़त उन्हें हिला रही हो। घड़ी ने जैसे ही 12 बजाए, माहौल अचानक भारी हो गया। तभी वह आवाज़ गूंजी—
"टन…टन…टन…"
आरव का दिल धक से रह गया। आवाज़ हवेली के अंदर से ही आ रही थी।
उसने दरवाज़ा खोला। अंदर घुप्प अंधेरा था, धूल और मकड़ी के जाले हर तरफ़ फैले थे। सीढ़ियों पर चढ़ते ही उसके कदमों के नीचे लकड़ी चरमराने लगी। मगर अजीब यह था कि उसे महसूस हो रहा था जैसे उसके पीछे कोई और भी चल रहा हो।
वह जैसे-तैसे ऊपर पहुँचा। ऊपर का कमरा आधा टूटा हुआ था। जब उसने दरवाज़ा खोला तो उसकी टॉर्च की रोशनी एक पुरानी टूटी घंटी पर पड़ी। घंटी धीरे-धीरे अपने-आप हिल रही थी।
तभी कमरे का तापमान अचानक गिर गया। आरव की सांसें जम-सी गईं। और फिर… दीवार पर एक काली परछाई उभरी।
वह एक औरत की थी। उसके लंबे बाल हवा में उड़ रहे थे, चेहरा धुंधला था और आँखें लाल अंगारों जैसी। उसकी भारी आवाज़ गूंजी—
"तुम यहाँ क्यों आए हो? यह घंटी मेरी अधूरी प्रार्थना है… जब तक कोई इसे पूरा नहीं करेगा, यह हर रात बजेगी।"
आरव सन्न रह गया। उसने काँपते हुए पूछा—
"आप कौन हैं?"
परछाई बोली—
"मैं इस हवेली की मालकिन थी। मेरी मौत अधूरी पूजा के समय हुई। मेरी आत्मा यहाँ कैद है। मुझे मुक्त करो… वरना यह घंटी हर आत्मा को अपने साथ खींच लेगी।"
आरव के हाथ-पाँव कांपने लगे। पर उसकी पत्रकारिता की जिज्ञासा उसे वहाँ से भागने नहीं दे रही थी। उसने तय किया कि वह इस रहस्य को सुलझाकर ही रहेगा।
लेकिन उसे अंदाज़ा नहीं था कि यह तो बस शुरुआत है…
और आगे आने वाली रातें उसकी ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल देंगी।
…
लेकिन उसे अंदाज़ा नहीं था कि यह तो बस शुरुआत है…
और आगे आने वाली रातें उसकी ज़िंदगी को हमेशा के लिए बदल देंगी।
क्या आरव सचमुच उस आत्मा को मुक्त कर पाएगा, या हवेली का श्राप उसे भी निगल जाएगा?
क्या वह घंटी सिर्फ़ एक अधूरी प्रार्थना का प्रतीक है, या उसके पीछे कोई और बड़ा रहस्य छिपा है?
गाँव वाले क्यों इतने डरे हुए हैं—क्या उन्हें हवेली की असली सच्चाई पहले से पता है?
और सबसे अहम सवाल—क्या आरव अगली रात फिर उस हवेली में जाने की हिम्मत करेगा?