रात्री : तो… आपके पास हैं मेरे सारे सवालों के जवाब…?
सारे तो नहीं… लेकिन हाँ… तुम्हारे सपनों के जवाब… शायद मेरे पास हों।
एक उम्रदराज़ औरत ने मुस्कुराते हुए, लेकिन आँखों में अजीब सी गहराई लिए सामने से कहा…
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दूसरी तरफ़—
अगस्त्य, फोन में लोकेशन ऑन करके, सड़क पर तूफ़ान की तरह दौड़ रहा था।
उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ थीं, जबड़े कसे हुए, उंगलियां स्टीयरिंग पर और भी ज़ोर से दब रहीं थीं।
वो उसे बार-बार कॉल कर रहा था…
पर रात्री… बस स्क्रीन पर देखती… और फिर नजरें फेर लेती।
कुछ पल बाद… उसने कॉल कट कर दी।
अगस्त्य का दिल धक-धक कर रहा था…
उसने मोबाइल निकाला… गूगल पर टाइप किया— Past Life Hypnotherapy Owner Ms. Mehta
नंबर मिला… कॉल किया… लेकिन उधर से बस सन्नाटा।
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इधर—
मिस रेखा मेहता : आप आराम से लेट जाइए… कोई गार्जियन नहीं आपके साथ?
रात्री (हल्की सी हिचकिचाहट के साथ) : नहीं… पर… आप इमरजेंसी में इनको कॉल कर दीजिएगा…
(उसने धीरे से एक पर्ची पकड़ा दी)
कमरे में हल्की रोशनी थी, लैवेंडर की खुशबू फैली हुई…
पीछे धीमा-सा साज़ बज रहा था… जैसे किसी अनकहे किस्से की शुरुआत हो।
रेखा ने धीमे-धीमे गिनती शुरू की…
"दस से एक तक… और हर गिनती के साथ… तुम और गहरे उतरती जाओगी… अपने अंदर… अपने अतीत में…"
रात्री की पलकें भारी होने लगीं… सांसें धीमी…
रेखा : अब… तुम बहुत पीछे जा चुकी हो… तुम्हें क्या दिख रहा है?
रात्री : कुछ नहीं… सब… सब अंधेरा है…
रेखा : क्या तुम सुनकर बता सकती हो… क्या हो रहा है…?
रात्री (थोड़ा सहमी हुई) : कुछ… आवाज़ें हैं… कोई कह रहा है— “राज वद्य को बुलाओ… लियो लाओ…” कोई… मेरे हाथ मसल रहा है…
(उसके माथे पर पसीने की बूंदें… चेहरा सिकुड़ता जा रहा था…)
रेखा : आँखें खोलने की कोशिश करो…
रात्री ने धीरे से पलकें उठाईं… और उसी क्षण,
दूसरी ओर— प्रणाली ने भी आँखें खोल दीं।
सारे चेहरे खुशी से चमक उठे… लेकिन… उसका शरीर अब भी निःसंचल था।
रात्री : सब भारी कपड़ों में हैं… जैसे कोई राजा-महाराजा का दरबार हो…
रेखा : और?
रात्री : मेरा… मेरा शरीर घूम नहीं पा रहा…
रेखा : थोड़ा और पीछे जाओ… कुछ दिन, कुछ महीने…
रात्री : मैं… जंगल के बीच खड़ी हूँ… चारों तरफ़ लोग हैं… मेरे हाथ में खंजर है…
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उधर अगस्त्य का दिल बेचैनी से उबल रहा था।
उसने A.V. को कॉल लगाया—
A.V. : तुमने मुझसे कैसे…?
अगस्त्य (तेज़ आवाज़ में) : तुम्हारा हाल पूछने का वक्त नहीं… अभी उसी वक्त रात्री को कॉल करो… उसे रोकना होगा…
A.V. : क्या…? साफ़-साफ़ बोलो…
अगस्त्य : वो… हाइपनोथेरैपी के लिए गई है… अपने पास्ट में… वो मुझे याद नहीं कर सकती… वरना…
A.V. : अगस्त्य… तुम कब तक उसे बचाते रहोगे…?
अगस्त्य (गुस्से और दर्द में) : अपनी आख़िरी सांस तक! सुना तुमने? जब तक मेरे शरीर में एक-एक कतरा खून है… तब तक!
उसकी आवाज़ कांपते हुए भी तेज़ होती जा रही थी…
A.V. : सॉरी… मैं समझ रहा हूँ…
अगस्त्य : नहीं… तुम नहीं समझ रहे… तुम भी थे वहां… तुम्हें याद है ना… प्रणाली ने खुद को क्या श्राप दिया था…
एक पुरानी, ठंडी, कांपती हुई आवाज़ दोनों के ज़ेहन में गूंजने लगी—
"मैं तुम्हें कभी याद नहीं करना चाहती वर्धान… तुम्हें याद करने से बेहतर है मेरी मृत्यु… मैं चाहती हूँ मैं तुम्हें भूल जाऊँ… सदियों के लिए… हमेशा के लिए…"
दोनों जैसे किसी खाई से बाहर आए…
A.V. : मैं देखता हूँ…
वो भी गाड़ी लेकर निकल पड़ा…
अगस्त्य और तेज़…
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इधर—
रात्री : जंगल में… वो लोग… घेर रहे हैं मुझे… खंजर है मेरे हाथ में… मैं लड़ रही हूँ… पर… एक आवाज़…
"मानना पड़ेगा… तुम कमाल की योद्धा हो… पर समझदारी भी कोई चीज़ होती है…"
रेखा : कौन है ये…? आगे बढ़ो… नाम पूछो…
रात्री : वो नीचे आया… मदद की… मैं… उसकी बाहों में गिर गई…
रेखा : नाम?
रात्री : वैसे… मेरा नाम… वर… वर…
बस इतना कहते ही… रात्री की सांसें टूटने लगीं…
लंबी-लंबी हांफ… चेहरा पीला पड़ता जा रहा था…
रेखा घबराकर उसे उठाने की कोशिश करने लगी…
रात्री आँखें खोलने में विफल रही… उसकी सांसें लगातार धीमी होती जा रही थीं…
वो वापस नहीं आ पा रही थी… बस धीमी, टूटी-फूटी आवाज़ में बड़बड़ा रही थी—
“वर… वर… वर…”
रेखा के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गईं।
उसने तुरंत रात्री की दी हुई पर्ची निकाली… और कांपते हाथों से उस नंबर पर कॉल मिला दी।
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उधर…
अगस्त्य अब उस क्लिनिक के बाहर पहुँच चुका था।
गेट पर खड़े दो गार्ड्स ने उसे रोकने की कोशिश की…
लेकिन उसकी आंखों में जो गुस्सा और बेचैनी थी, उससे उनका दिल दहल गया…
एक-एक मुक्के में ही दोनों ज़मीन पर गिर पड़े।
अगस्त्य ने दरवाज़ा धक्का देकर खोला और अंदर बढ़ गया।
तभी उसके फोन पर कॉल आई…
वो चलते-चलते कॉल पिक करता है—
आवाज़ : हैलो… मिस रात्री ने आपका नंबर दिया था…
इससे पहले कि कॉल करने वाला कुछ और कह पाता…
अगस्त्य उस थेरेपी रूम में दाख़िल हो चुका था।
दरवाज़ा खुलते ही… उसकी नज़र रात्री पर पड़ी—
उसके होठों से बेहोशी में निकला… “वर्धााऽऽन्न…”
जैसे ही ये नाम उसके होंठों से फिसला…
उसने एक लंबी, भारी सांस ली… और फिर… एकदम शांत पड़ गई।
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अगस्त्य भागता हुआ आगे आया—
“रात्री…!!”
उसने उसका हाथ थाम लिया… पर उसके शरीर में ज़रा भी हरकत नहीं थी।
एक ठंडी लहर अगस्त्य के सीने में उतर गई…
उसने झटके से उसे अपनी बाहों में उठा लिया…
उसे सीने से कसकर लगा लिया…
अगस्त्य की आंखों से गिरीं गरम, खारी बूंदें…
जो सीधे रात्री की हथेली पर आकर ठहर गईं।
“पिछली बार तुम्हें बचा नहीं पाया था…”
उसकी आवाज़ कांप रही थी, पर गुस्से की आग भी साथ जल रही थी।
“…इस बार अगर तुम्हें कुछ हुआ… तो तुम्हारी कसम… दोनों लोकों को आग लगा दूंगा…!!!”