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त्रिवेंद्रम रेलवे स्टेशन पहुंचकर शैल ने वत्सर के गाँव तक की यात्रा टेक्सी से पूरी की। गाँव में उसने वत्सर का पता पूछा। एक बालक उसे समुद्र किनारे स्थित एक मंदिर के बाहर छोड़कर चल गया।
शैल मंदिर को देखने लगा।
‘इतने से छोटे गाँव में है किन्तु यह मंदिर कितना सुंदर है। मंदिर मुझे आकर्षित कर रहा है। इस मंदिर में कुछ खास बात है। मुझे..।’ शैल की विचार यात्रा को शंख की ध्वनि ने भंग किया।
‘यह ध्वनि तो मंदिर के भीतर से आ रही है। क्या यह समय आरती का है?’ दूर समुद्र में सूर्य अपनी आज की यात्रा सम्पन्न कर विलीन होने को उत्सुक हो रहा था। शैल ने घड़ी देखि। संध्या आरती का समय था वह।
‘मैं भीतर चलकर आरती के दर्शन करता हूँ।’
शैल भीतर गया। वह कृष्ण का मंदिर था। कृष्ण की मूर्ति को देखते ही शैल स्थिर हो गया। कृष्ण की एक अद्भुत मूर्ति थी उसके सम्मुख।
‘मैंने अनेक मंदिरों में अनेक भव्य मूर्ति के दर्शन किए हैं किन्तु यह मूर्ति कुछ विशेष है। लगभग सात फुट ऊंची, श्याम वर्ण कृष्ण, उसके हाथ में रही बाँसुरी, माथे पर मयूर पंख, पीला पीताम्बर, शंख भी है और चक्र भी है। कृष्ण, तेरे इस रूप को मेरा वंदन।’ शैल ने हाथ जोड़े, शीश झुकाया।
जब शैल ने शीश उठाकर कृष्ण को देखा तो अचंभित रह गया। कृष्ण के मुख पर एक दिव्य स्मित था।
‘यह स्मित पहले देखा तब तो नहीं था। अब कहाँ से आ गया? क्या उसने मेरे लिए ही स्मित किया है?’
‘यदि ऐसा है तो शैल तुम बड़े भाग्यशाली हो। कृष्ण का इस भुवन मोहिनी स्मित तो माता यशोदा जैसे किसी बड़भागी के भाग्य में ही होता है। यह मेरा सौभाग्य है। कृष्ण। तेरे इस अनुग्रह का मैं ऋणी हूँ।’ शैल ने पुन: शीश झुकाया। आँखें बंद कर कृष्ण के उस मनोहर रूप को मन ही मन देखता रहा।
शैल ने जब आँखें खोली और कृष्ण को देखा तो उसके अधरों पर वह स्मित नहीं था।
‘हे कृष्ण। यह तेरी कैसी माया है? मेरी समज से परे है। मैं तेरी शरण में हूँ।’
एक ब्राह्मण युवक ने आरती करना प्रारंभ किया। दो चार युवा ढोल, नगाड़ा, घंट आदि बजाने लगे। ब्राह्मण आरती करने लगा। शैल उस दिव्य क्षणों में खो गया।
आरती सम्पन्न हुई। उस ब्राहमण ने कुछ मंत्रों का पठन किया। कृष्ण को वंदन किया और कृष्ण के हाथ में रही बाँसुरी को अपने हाथों में लेकर कृष्ण के सामने खडा होकर, आँखें बाद कर उसे बजाने लगा। बाँसुरी के उस सुर के उपरांत वहाँ कोई ध्वनि नहीं था, कोई स्वर नहीं था। सब कुछ शांत था। स्थिर था।
शैल भी शांत होकर उस धुन को सुनने लगा।
जब सूर्य की अंतिम किरण कृष्ण की मूर्ति पर पड़ी तब ब्राह्मण ने बाँसुरी को विराम दिया। तब शैल की समाधि भी सम्पन्न हुई। उसने आँखें खोली और धैर्य से उस ब्राह्मण युवक की क्रियाओं को देखने लगा। कुछ समय उपरांत वह अपने नित्य कर्म से निकृत्त हुआ तो शैल उसके पास गया।
“जय श्री कृष्ण।”
युवक ने उत्तर दिया, “श्री कृष्ण सबका कल्याण करे।”
“क्या आपका नाम वत्सर है?”
“जी। मैं ही वत्सर हूँ।”
“आपसे कुछ बातें करने को मन कर रहा है। क्या आप मुझे अपना समय देंगे?”
“अवश्य। आओ मेरे साथ।” वत्सर मंदिर से बाहर निकला। जहां से समुद्र दिखे ऐसी एक शीला पर बैठ गया।
“आइए। बैठिए।” वत्सर के संकेत पर दूसरी शीला पर शैल बैठ गया।
“मैं पंजाब पुलिस इन्स्पेक्टर शैल हूँ। कन्याकुमारी जा रहा था तभी किसी ने मुझे इस मंदिर के विषय में, आपके विषय में बताया तो यहाँ आने को मन उत्सुक हो गया। यहाँ चला आया।”
वत्सर ने स्मित दिया।
“मेरे मन में कुछ प्रश्न जागे हैं। आप कहो तो मैं पूछ लूँ?”
वत्सर ने मौन सम्मति दी।
“यह मंदिर अद्भुत है। मंदिर की ऐसी विशिष्ट रचना मैंने कभी नहीं देखि। इस मंदिर को किसने बनाया? कब बनाया?”
“और कोई प्रश्न?”
“कृष्ण की मूर्ति तो सबसे भिन्न है। कभी मैंने सात फुट की मूर्ति नहीं देखि।”
“और?”
“क्या सूर्य की अंतिम किरण सभी ऋतु में इसी प्रकार मंदिर के भीतर प्रवेश करती है?”
“और?”
“एक अंतिम प्रश्न। आप इस मंदिर के पुजारी हैं, ब्राह्मण हैं। तो इस छोटे से गाँव में मंदिर की पूजा से परिवार का पेट भर जाता है?”
“अपेक्षा है, सभी प्रश्न पूरे हो गए हैं।”
“अभी तो बस इतने ही हैं। आगे कोई प्रश्न होगा तो पूछ सकता हूँ?”
“अवश्य। जब तक आप के सभी प्रश्नों का समाधान नहीं हो जाता, आप प्रश्न पूछ सकते हो”
“आपके अंतिम प्रश्न के उत्तर से प्रारंभ करता हूँ। जन्म से नहीं किन्तु कर्म से मैं ब्राह्मण हूँ।”
“वह कैसे?”
“मेरे पिता कर्म से शूद्र हैं। किन्तु मुझे मेरे गुरु ने दीक्षित किया है और शास्त्रों का अध्ययन कर मैं गुरु कृपा से ब्राह्मणों के सभी कर्म कर रहा हूँ। यही कारण है कि ईश्वर की यह पूजा, आर्चना, आरती आदि कर्म करता हूँ। हाँ, इन कर्मों से पेट नहीं भरता क्यूँ कि मैं इन कर्मों के लिए कोई धन अथवा भेंट स्वीकार नहीं करता।”
“तो?”
“थोड़ी कुछ खेती है, उससे पेट भर जाता है।”
“अर्थात आप अयाचक ब्राह्मण हैं?”
वत्सर ने केवल स्मित किया।
“सूर्य की अंतिम किरण सभी ऋतु में इसी प्रकार ईश्वर को वंदन करती है पश्चात सूर्य अस्त हो जाता है।”
“यह तो बड़ी विशिष्ट बात है।”
“यह हमारी प्राचीन मंदिर रचना की कला के कारण होता है। हमारे मंदिरों की रचना में जो कला एवं विज्ञान का समन्वय है वह अद्वितीय है, अनूठा है।”
“यह तो असंभव सा प्रतीत होता है।”
“यदि आप इसका अनुभव करना चाहो तो आपको पूरा वर्ष यहाँ रुकना पड़ेगा। आप चाहो तो रुक सकते हो।”
“मन तो करता है किन्तु यह नौकरी!”
“सामान्य रूप से मंदिर में भगवान की मूर्तियाँ पाँच फुट के आसपास होती है। यह मूर्ति सात फुट की है उसका कोई विशेष कारण तो नहीं है। किन्तु जिस पत्थर से यह मूर्ति घड़ी गई है वह पत्थर ही इतना विशाल था तो मूर्ति भी स्वत: विशाल बन गई।
और यह मंदिर मैंने स्वयं अपनी मति अनुसार बनाया है। चार वर्ष की तपस्या के पश्चात यह संभव हो सका।” वत्सर क्षणभर रुका । आँख बंद कर समुद्र की ध्वनि को सुनने लगा। शैल ने प्रतीक्षा करना उचित समझा।