RAGHVI SE RAGINI - 3 in Hindi Short Stories by Asfal Ashok books and stories PDF | राघवी से रागनी (भाग 3)

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राघवी से रागनी (भाग 3)

आश्रम में सन्नाटा पसरा था। साध्वी विशुद्धमति, जिनकी उम्र अब पिचासी को पार कर चुकी थी, अपने कक्ष में लकड़ी की चौकी पर बैठी थीं। उनकी आँखें बंद थीं, मगर चेहरा उदास। उनके हाथ में वह पुरानी डायरी थी, जिसमें राघवी ने अपने शुरूआती दिनों में भजन और विचार लिखे थे। विशुद्धमति की साँसें भारी थीं, और शरीर कमजोर। राघवी के आश्रम छोड़ने की बात उनके मन को कचोट रही थी। 

राघवी, जिसे उन्होंने तेईस-चौबीस की उम्र में आश्रम में लिया था, उनके लिए बेटी जैसी थी। वह उसकी मासूमियत, उसकी जिज्ञासा, और उसकी साधना की गहराई को याद कर रही थीं। राघवी की आवाज, जब वह भजन गाती थी, आश्रम के प्रांगण को जैसे स्वर्ग बना देती थी। विशुद्धमति को लगता था कि राघवी उनकी साधना का एक हिस्सा थी, उनकी आत्मा का एक टुकड़ा। मगर अब, जब वह मंजीत के साथ एक नया जीवन शुरू करने चली गई थी, विशुद्धमति के मन में एक अजीब-सा खालीपन आ गया था। 

वह अक्सर सोचतीं, ‘क्या मैंने राघवी को सही रास्ता दिखाया? क्या प्रेम और साधना का मेल वाकई संभव है?’ 

उनकी साधना ने उन्हें राग-द्वेष से मुक्त होने की सीख दी थी, मगर राघवी का जाना उनके लिए एक अनचाहा विरह बन गया था। वह उसकी हँसी, उसकी बातें, और आश्रम में उसकी मौजूदगी को याद करतीं। रात के सन्नाटे में, जब वह ध्यान में बैठने की कोशिश करतीं, उनका मन भटक जाता। उनका मस्तिष्क अब और तनाव नहीं झेल सकता था।

उस सुबह, जब धुंध अभी छँटी भी नहीं थी, विशुद्धमति रावी के किनारे टहलने गईं। उनकी शिष्या, साध्वी निर्मलमति, उन्हें सहारा दे रही थी। रावी का पानी ठंडा और शांत था, जैसे वह भी विशुद्धमति के दर्द को महसूस कर रहा हो। उन्होंने निर्मलमति से कहा, ‘राघवी मेरे लिए बेटी जैसी थी। उसका जाना- जैसे मेरे मन का एक हिस्सा ले गया। क्या मैंने उससे मोह लगा लिया? क्या प्रेम सचमुच मुक्ति की राह में बाधा बनता है?’

निर्मलमति ने शांत स्वर में जवाब दिया, ‘माताजी, राघवी ने जो रास्ता चुना, वह उसकी अपनी साधना का हिस्सा है। जैन धर्म कहता है कि हर आत्मा अपनी राह खुद चुनती है। आपने उसे सत्य और अहिंसा की शिक्षा दी। अब वह उस शिक्षा को अपने तरीके से जी रही है। आपका दुख स्वाभाविक है, मगर यह दुख भी एक बंधन है। इसे छोड़ने की साधना करें।’

विशुद्धमति ने गहरी साँस ली। निर्मलमति की बातें उनके मन को छू गईं, मगर राघवी की यादें अभी भी उनके दिल में थीं। उन्होंने अपनी डायरी खोली और उसमें लिखा: 

‘राघवी, तुम मेरी बेटी थीं। तुम्हारा जाना मेरे लिए विरह का दर्द है, मगर मैं तुम्हारी आत्मा की शांति की प्रार्थना करती हूँ। शायद यही मेरी साधना है- तुम्हें मुक्त करना, और अपने मन को भी।’

...

उधर, रागिनी और मंजीत उस छोटे से गाँव के कच्चे घर में एक नई शुरुआत कर रहे थे। उनका घर सादगी से भरा था- मिट्टी की दीवारें, खपरैल की छत, छत ऊपर बरसाती और बाहर एक छोटा सा आँगन, जहाँ बच्चे खेलते और पौधे लहलहाते थे। मंजीत स्कूल जाता और राघवी घर पर बच्चों को पढ़ाती। दोनों मिलकर पर्यावरण संरक्षण के लिए काम भी करते, और ग्राम-समाज के उस छोटे से समुदाय को जाग्रत करने की कोशिश भी। 

मगर राघवी अब भी जैन साध्वी वाले सफेद परिधान में ही रहती, उसने आमतौर पर पहने जाने वाले प्रिंटेड साड़ी-ब्लाउज और सलवार-कुर्ते पहनने शुरू नहीं किये थे। शायद इसीलिए लोगों को उसकी आँखों में वही शांति नजर आती, जो साधना से आती है। जबकि न तो अब वह पंच-परमेष्ठी का पूजा विधान करती और न प्रवचन।

...

नए जीवन की शुरुआत के बावजूद रागिनी के मन में भी विशुद्धमति की तरह बिछोह का तीखा दर्द उठता रहता। वह आश्रम-समाज को निरंतर याद करती रहती। उसे एहसास था कि, उसका आश्रम छोड़ना माता जी के लिए कितना कष्टकारी रहा होगा। 

एक रात, जब मंजीत और वह रावी के किनारे बैठे थे, उसने कहा, ‘मंजी, मुझे लगता है कि मैंने माता जी को दुख पहुँचाया है। वह मुझे अपनी बेटी मानती थीं। मेरे जाने से उनका मन टूट गया होगा। यह भी एक तरह की हिंसा है...’

मंजीत को लगा कि वह कहीं लौट न जाये! उसका दिल काँप उठा। उसने उसका हाथ अपने हाथ में ले डबडबायी आंखों, काँपते अधरों से कहा, 'तुमने हमें छोड़ सारी कायनात को चाहा... क्या किसी साध्वी को ऐसा भेदभाव करना चाहिए!'

और तब अगले ही पल रागिनी उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर, अधरों पर एक भावप्रवण चुम्बन दे हँस पड़ी, 'सच है, क्योंकि सारे लोक में तुम्हीं समाये हो तो तुम्हें अलग से चाहने की जरूरत ही क्या!'

मंजीत लाजवाब हो गया। फिर कुछ पल बाद सोच कर बोला, ‘रागिनी, माता जी का दुख स्वाभाविक है, क्योंकि वह तुमसे प्रेम करती हैं। मगर प्रेम का मतलब बंधन नहीं है। तुम्हें उन्हें यह दिखाना होगा कि तुमने जो रास्ता चुना, वह सत्य और अहिंसा पर आधारित है।’

राघवी ने मंजीत की बातों की गहराई समझी। उसने फैसला किया कि वह विशुद्धमति से मिलने जाएगी और अपनी सेवा और प्रेम की सच्चाई उनके सामने रखेगी। 

...

रावी नदी के तट पर बसे जैन आश्रम में उस दिन एक अनोखी चहल-पहल थी। आश्रम का शांत और सौम्य वातावरण, जो हमेशा ध्यान और आत्मचिंतन में डूबा रहता था, आज किसी उत्सव-सा प्रतीत हो रहा था। इसका कारण था रागिनी और मंजीत का आगमन। यद्यपि दोनों सामान्य ध्यानार्थियों के रूप में ही आश्रम आए थे, लेकिन उनकी उपस्थिति ने आश्रमवासियों के बीच एक नई ऊर्जा और उत्साह का संचार कर दिया था। उनकी सादगी भरी मुस्कान, एक-दूसरे के प्रति गहरा स्नेह, और सहज व्यवहार हर किसी के लिए चर्चा का विषय बन गया था। आश्रम के लोग, जो सामान्यतः अपनी दिनचर्या में लीन रहते थे, आज रागिनी और मंजीत को देखने के लिए उत्सुक थे।

काव्या, जो अपने टूटे हुए रिश्ते के दर्द से उबरने के लिए आश्रम की शरण में आई थी, उस दिन अपने कक्ष में अकेली थी। वह अभी भी अपने अतीत के घावों से जूझ रही थी और रागिनी-मंजीत से मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। लेकिन उनके आगमन की खबर ने उसके मन में एक हल्की-सी हलचल पैदा कर दी थी। वह सोच रही थी कि, क्या वाकई कोई ऐसा प्रेम भी हो सकता है जो सच्चा, गहरा और पवित्र हो, जैसा लोग उनके बारे में कह रहे थे!

...

उस दिन अपराह्न में आश्रम में एक विशेष ध्यान सत्र का आयोजन किया गया था। सूरज अपनी किरणों से सब के मुख मंडलों को जगमगा रहा था और स्टेज दीपों की मद्धिम रोशनी से। ऐसा लग रहा था कि दीपों की यह जगमगाहट ही आत्मा की शांति और प्रेम की गहराई की प्रतीक थी...। 

सत्र में शामिल होने काव्या अपने कक्ष से निकल प्रांगण में लगे मडंप में आ तो गई थी पर मन की उथल-पुथल को शांत नहीं कर पा रही थी...। सत्र शुरू होने से पहले उसकी नजर मंडप के कोने में बैठे रागिनी और मंजीत पर पड़ी, जो बड़ी माताजी से मिलने के बाद वहाँ आकर बैठ गए थे।

मंजीत ने रागिनी के कंधे पर धीरे से हाथ रखा और फुसफुसाया, 'बड़ी माता जी सचमुच बड़े हृदय वाली हैं...'

'हां-यार!' उत्फुल्ल रागिनी ने उसकी ओर देख एक हल्की-सी मुस्कान बिखेरते हाथ थाम लिया, 'उन्होंने कितनी सहजता से चोला बदलने को स्वीकृति दे दी!'

इस बतकही के दौरान उनकी आँखों में एक गहरा विश्वास और प्रेम झलक रहा था, जो इतना सहज और स्वाभाविक था कि उसे देखकर काव्या का मन अनायास ही उनकी ओर खिंच गया। 

मंजीत ने अपनी ध्यान की पुस्तिका से एक छोटा-सा कागज का फूल निकाला, जिसे उसने बड़े जतन से बनाया था। उसने वह फूल रागिनी की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘रागिनी, यह फूल मेरे प्रेम की तरह है- सादा, नाजुक, लेकिन हमेशा तेरा साथ देने वाला।’

रागिनी ने उसकी आँखों में देखा, और उसकी मुस्कान और गहरी हो गई। उसने धीरे से कहा, ‘मंजीत, तू मेरा वह बगीचा है, जिसमें यह फूल खिलता है। तेरा साथ ही मेरे जीवन की सुंदरता है।’

यह छोटा-सा पल इतना प्राणवान और सच्चा था कि दूर बैठी काव्या भी उसकी सुगन्ध को महसूस किये बिना न रह सकी। उनके प्रेम में एक ऐसी सादगी और पवित्रता थी, जो काव्या के ठहरे हुए मन को झकझोर गई। उसने अपने अतीत में प्रेम को केवल दुख और विश्वासघात के रूप में ही देखा था, लेकिन रागिनी और मंजीत का यह प्रेम उसे कुछ और ही कह रहा था।

...

सत्र समाप्त होने के बाद, काव्या का मन स्थिर नहीं था। वह अपने सवालों के जवाब ढूँढने के लिए आश्रम की मुख्य आर्यिका विशुद्धमति के कक्ष में गई। विशुद्धमति की शांत मुस्कान और उनकी गहरी आँखें अनुभव और ज्ञान की गहराई को दर्शाती थीं। काव्या को देख वे हल्के से मुस्कुराईं और उसे बैठने का इशारा किया। बातों-बातों में रागिनी और मंजीत की चर्चा छिड़ गई। विशुद्धमति ने कहा, ‘काव्या, क्या तूने रागिनी और मंजीत को देखा? उनका प्रेम देह और आत्मा का संगम है। वे एक-दूसरे को पूर्ण करते हैं। तू अपने मन को क्यों बंद कर रही है? क्या तुझे नहीं लगता कि जीवन में प्रेम और विश्वास की जगह होनी चाहिए?’

काव्या ने उदास स्वर में जवाब दिया, ‘माता जी, मैंने प्रेम में केवल दुख और धोखा पाया है। जिसे मैंने अपना सब कुछ माना, उसने मेरे विश्वास को तोड़ दिया। अब मेरे लिए यह आश्रम, यह ध्यान, और यह शांति ही सब कुछ है।’

विशुद्धमति ने एक गहरी साँस ली और अपने अतीत में खो गईं। उनकी आँखों में एक क्षण के लिए उदासी झलकी, फिर वे धीरे से बोलीं, ‘काव्या, मैंने त्याग का रास्ता चुना। यह मेरा सच है, और मैंने इसे स्वीकार किया तो निभाया भी। लेकिन आज मैं तुझे बता रही हूूँ कि मेरे जीवन में एक खालीपन हमेशा रहा। न मुझे मातृत्व का सुख मिला, न अपने जीवनसाथी का पूर्ण साथ। रात के सन्नाटे में यह खालीपन कभी-कभी चुभता है...। किसी का हाथ थामने की चाह, सुख-दुख बाँटने की इच्छा मन से मिटी नहीं। मैं नहीं चाहती कि तू मेरे जैसा बीहड़ रास्ता चुने।’

युवा काव्या, वयोवृद्ध स्त्री माध्वी जैन, (अब साध्वी विशुद्धमति) के मन में छुपा गहरा दुख जान विस्मित रह गई थी...। 

कुछ पलों की नीरवता के बाद उन्होंने काव्या की ओर देखा और आगे कहा, ‘रागिनी और मंजीत का प्रेम देख। उनकी छोटी-छोटी बातें, उनका एक-दूसरे के प्रति विश्वास, उनका साथ- यह सब जीवन की पूर्णता का प्रतीक है। एक फल कड़वा निकल गया तो क्या हरेक को कड़वा समझ लेना बुद्धिमानी है? गृहस्थ जीवन में भी मुक्ति संभव है, बेटी! प्रेम में डर नहीं, विश्वास रख...।’

काव्या की आँखें नम हो गईं। उसने रागिनी और मंजीत के उस पल को याद किया- वह कागज का फूल, उनकी मुस्कान, और वह विश्वास। 

विशुद्धमति ने काव्या के सिर पर हल्के से हाथ रखा और कहा, ‘जा बेटी, जा! जीवन को गले लगा। आत्मा तब मुक्त होती है, जब वह किसी दूसरी आत्मा से मिलती है। आत्म-साक्षात्कार से ही उर में यह आता है कि दूसरा कोई होता ही नहीं। सभी एक हैं! जो दूसरा और पराया है, वह है केवल दैहिक आवरण है। भीतर से तो सब वही हैं। यदि अकेले ही काम चल जाता तो न घर-परिवार-समाज की जरूरत होती, न धर्म-समाज की। अकेले का ध्यान शांति दे सकता है, लेकिन पूर्णता दो आत्माओं के संगम से ही मिलती है।’

ऊपर से चुप रही काव्या, लेकिन उसके मन में एक तूफान-सा उठ रहा था। रागिनी और मंजीत का प्रेम उसे अपने अतीत और भविष्य के बारे में नए सिरे से सोचने को मजबूर कर रहा था। वह नहीं जानती थी कि क्या वह अपने पुराने रिश्ते को माफ कर पाएगी या कभी नया रिश्ता शुरू करने की हिम्मत जुटा पाएगी? लेकिन एक बात उसके मन में स्पष्ट थी... वह रागिनी और मंजीत के प्रेम को और करीब से समझना चाहेगी। उसे जानना होगा, कि उनका प्रेम वाकई इतना सच्चा और गहरा है, या यह भी साधना की भांति एक बाहरी दिखावा! क्योंकि उसके अनुभवों ने तो उसे यही सिखाया था कि लोग बाहर खूब प्रेम प्रदर्शित करेंगे, भक्ति भी, लेकिन उनके भीतर वह आत्मीयता और गहराई होती नहीं...।

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