Us bathroom me koi tha - 5 in Hindi Horror Stories by Varun books and stories PDF | उस बाथरूम में कोई था - अध्याय 5

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उस बाथरूम में कोई था - अध्याय 5

नदी तक जाने वाला रास्ता गाँव से थोड़ा बाहर निकलकर जंगल की ओर मुड़ता था। सुबह की धूप हल्की-हल्की पेड़ों के बीच से छनकर गिर रही थी, और हवा में देवदार की खुशबू थी। रात की बेचैनी के बाद यह रास्ता कुछ ज़्यादा ही शांत, ज़्यादा ही सुकूनभरा लग रहा था।

निशिका खिड़की से बाहर देख रही थी। “कितना सुन्दर है यहाँ,” उसने कहा। “अगर यह गाँव इतना अजीब न होता तो छुट्टियों में आना अच्छा लगता।”

मैंने मुस्कुराकर कहा, “सुबह का सूरज सबको अच्छा बना देता है। गाँव को भी।”

धीरे-धीरे सड़क खुलकर एक छोटे-से किनारे पर पहुँची जहाँ सामने नीली, साफ़ नदी बह रही थी—एकदम शांत। और आसपास इतना सन्नाटा कि लगता था हमारी साँसें ही सबसे तेज़ आवाज़ कर रही हों।

हम कार से उतरे। हल्की धूप पानी पर चमक रही थी, पेड़ों की परछाइयाँ हिल रही थीं, और नदी का संगीत शांत व स्थिर था।

निशिका ने अपना कोट उतारा और पानी की तरफ़ बढ़ी। “मैं थोड़ा आगे जाकर देखती हूँ,” उसने कहा।

मैंने उसे जाते हुए देखा—वह हल्के कदमों से पत्थरों पर उतरती हुई नदी के बिलकुल पास पहुँच गई। उसने पैर से पानी छुआ और खिलखिलाई, “अरे! इतना ठंडा भी नहीं है।”

नदी शांत थी… किनारे का पानी चिकना और हल्का-सा मटमैला।

निशिका पत्थर पर बैठी पैर पानी में डुबो रही थी, जबकि मैं किनारे थोड़ी दूरी पर ठहर गया। नदी के आस-पास की ठंडी हवा मेरी यादों को छेड़ रही थी।

मैंने हल्की साँस लेकर कहा,

“मौसा जी मुझे बचपन में यहीं लाया करते थे… इसी किनारे। मुझे कंधे पर बैठाकर। तैरना भी उन्होंने ही सिखाया था। मेरे पापा तो पानी से डरते थे… मौसा जी ही थे जो मेरे लिए सब करते थे।”

मेरी आवाज़ धीमी पड़ गई—उसी पल सब कुछ फिर भारी-सा महसूस होने लगा।

निशिका मुझे ध्यान से देख रही थी—पति की इस अचानक उतर आई उदासी को हल्का करने का मन बना चुकी थी। “तुम ऐसे उदास लग रहे हो… मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा,” उसने कहा।

मैंने बस एक आधी मुस्कान दी।

पर निशिका ने सिर हिलाया—“नहीं जी। ऐसे नहीं चलेगा। तुम हमेशा दूसरों की चिंता करते रहते हो… आज तुम्हारी बारी है हल्का होने की। अगर इस बोझ को हल्का करने के लिए मुझे बेवकूफ़ी करनी पड़े… तो मैं करूँगी।”

वह उठी, पानी तक गई, अपनी शर्ट और स्कर्ट उतारकर पास ही एक सूखे पत्थर पर रख दिए—सिर्फ़ इतना कि कपड़े भीग न जाएँ। एक हल्की-सी हँसी के साथ वह पानी में छलाँग लगा गई।

छपाक—लहरें फैल गईं।

निशिका ने सिर पानी से बाहर निकाला, हँसते हुए बोली—“अब तो आओ! वरना मैं यहीं तैरती रहूँगी!”

मैंने सिर झुका लिया… फिर पहली बार उस दिन मेरे चेहरे पर सचमुच मुस्कान आई।

“तुम एकदम पागल हो निश,” मैंने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाते हुए कहा, “कोई कहेगा कि दो बच्चों की माँ ये सब कर रही है।”

निशिका ने आँख मारी और पास आने का इशारा किया। “लिव अ लिट्ल।”

मैं किनारे बैठकर जूते उतार ही रहा था कि मेरी नज़र पानी पर गई। नदी शांत थी… पर एक लहर—एक ही—बाकियों से अलग थी।

पहले लगा—मछली होगी। पर उसकी गति… बहुत धीमी… बहुत अनियमित।

पानी के नीचे कोई काली-सी आकृति सरकी।

बस एक पल की झलक।

मैं झुककर देखने लगा। कुछ क्षण पानी बिलकुल स्थिर रहा—और फिर सतह के नीचे एक हल्की-सी, मानव-जैसी परछाई हिली।

एक पल—एक झटका—और वह गायब।

“रंजीत! क्या हुआ? आ रहे हो कि नहीं?”

निशिका की आवाज़ पानी से उछली।

मैं उसकी ओर मुड़ा, पर मेरी नज़र फिर भी उसी जगह अटक गई जहाँ वह परछाई हिली थी।

फिर एक भारी-सी लहर उठी।

नदी ऐसे नहीं हिलती—जब तक उसके नीचे कुछ बड़ा न हो।

मेरी रीढ़ में हल्की-सी ठंडक उतर गई।

मैंने कहा, “निश… ज़रा किनारे की तरफ़ आओ।”

वह हँसकर बोली, “अरे, तुम भी न—कुछ नहीं है पानी में!”

मैंने दोबारा पानी देखा। कुछ नहीं। एकदम शांत।

जैसे कुछ हुआ ही नहीं।

लेकिन अंदर… बहुत अंदर… मुझे पता था—मैंने कुछ देखा था। कुछ ऐसा, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।

उसी समय मेरी जेब में रखा फ़ोन हल्के-से काँपा। मैंने चौंककर उसे निकाला।

स्क्रीन पर नाम था—तारा (साइफ़र यूनिट)। सेफ़-इनबॉक्स में उसका संदेश आया था।

मैं वह संदेश खोलने ही वाला था कि उसके नीचे एक और नोटिफ़िकेशन चमका—बिना किसी नाम के, बिना किसी संपर्क के—मानो आपातकालीन प्रसारण हो। मैंने स्क्रीन पढ़ी—

“जमालीपुरा अस्पताल पहुँचिए। जल्दी।”

मेरे हाथ एक पल को थम गए।

नदी… हवा… और पल भर पहले हिली वह परछाई—सब अचानक ख़ामोश हो गए।

जैसे किसी अनदेखी चीज़ ने हमारे चारों ओर की हवा को पकड़कर रोक दिया हो।