बेड़ियां पैरों की मैं तोड़ न सका
चाह कर भी उसे मैं छोड़ न सका।

मुश्किलों का दौर जब भी गुलाबी हुआ
आंसुओं को भी मैं पोंछ न सका।

गुनाह - दर - गुनाह मैं बस करता रहा
अदालत-ए-इश्क मैं कभी सोंच न सका।

सुरमयी आंखों का कोई कसूर न था
रुख मयखानों का कभी मोड़ न सका

हथेलियां मोम की पत्थर सी हो गयी
जिम्मेदारियों का तबस्सुम तोड़ न सका

इश्क की तालीम पढ़ेंगे रांझा और हीर भी
सिल-सिले मोहब्बत को कोई रोक न सका।

ऐसा नही की कोशिश कमतर हुई 'दरिया'
पर बिखरे ऋण को कोई जोड़ न सका।
-रामानुज दरिया

Hindi Shayri by रामानुज दरिया : 111759904

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