नही जानती प्रेम को ,
मै केवल वही भाव जानती हूँ,
जिसे जीती हूँ , वह भाव तुमसे
होकर गुजरते है | अगर ऐसा न
होता तो मेरी हर भावना मे तुम्हारा
समावेश न होता , नही देखा जिसे
उसकी नजरो का भय , तुम्हरी नाराराजगी
का भय मुझे अन्तर से संतुलित रखने का प्रयास
था | क्यों हो तुम आखिर मुझमें
मुझे क्या चाहिए यह प्रश्न नही था तब भी
तुम थे |
यह अन्तर उत्पन्न थी या पारिस्थिक
नही समझ पाई | आज प्रश्नों के साथ भी |
महत्वपूर्ण प्रश्न नही है , महत्वपूर्ण
तुम्हारा होना , तुम्हारा प्रश्नों मे होना |
रोज बुद्धि उत्तर उत्पादित करती है मगर!
संतुष्टि नही उन उत्तरो में , अधूरे से लगते है
मन को भ्रमित करने वाले | लेती हूँ आश्रय
उनके शब्दों का जो तुम्हारे पथानुगामी थे ,
तुम बुद्धि से परे हो तो कहाँ फैंक आऊँ इस
बुद्धि को जो मुझे जी रही है | क्या देह त्याग ही
तुम्हारी अनुभूति है | यदि हाँ तो यात्रा के यह
अनुभव किसने लिखे ?आखिर वह देहत्याग
क्या और किस प्रकार है ? वह कौन सी अग्नि
और कैसी चिता है , जिसमे शुद्ध होकर तुम्हारा
स्पर्श हो |