दोहे
ज्वाल
गई धधक वह ज्वाल है, जब भी रहे चुनाव।
मरहम को वो छोड़ कर, बढ़ा रहे हैं घाव।।

धधक
जेठ माह में रवि-किरण, बरसाती है आग।
धधक रही है यह धरा, जीव रहे हैं भाग।।

लूक
लूक लिए दिनकर खड़ा, छाया ढूँढें लोग ।
फसल पके है खेत में, मिलता मोहन भोग।।

शीतलता
नित बरगद की छाँव में, तन-मन रहे प्रसन्न।
शीतलता सबको करे, जो थे तृषित-विपन्न।।

नदिया
नदिया रूठी गाँव से, गुमी बाँध में छोर।
परबत खड़े उदास हैं, गली-गली में शोर।।

मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "
🙏🙏🙏🙏🙏

Hindi Poem by Manoj kumar shukla : 111928666

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