(प्रेम कब था)
हम एक कब थे — प्रेम की परछाईं में
न तेरा था, न मेरा कोई नाम,
फिर भी दिल ने रख लिया इक पैग़ाम।
तेरी नज़रों में जो ख़ामोशी थी,
वो मेरी रूह की आवाज़ थी।
हम एक कब थे — ये सवाल ना कर,
हर धड़कन में था तेरा ही असर।
न छू सके तुझको ये हाथ कभी,
पर दिल ने तुझे हर साँस में जिया अभी।
बिना कहे, बिना सुने,
तेरे प्यार में ही तो हम बने।
तू चाँद था मेरी रातों का,
मैं ख्वाब था तेरे जज़्बातों का।
कोई रिश्ता नहीं, कोई नाम नहीं,
फिर भी तुझसे बेहतर कोई काम नहीं।
हम अगर साथ होकर भी अलग थे,
तो भी प्रेम में पूरे, अधूरे कब थे?
(सत्येंद्र कुमार दूबे)