घने पहाड़ी जंगलों के बीच बसा एक छोटा-सा गाँव था—'रुपगढ़'। यहाँ के लोग प्रकृति से गहराई से जुड़े थे, पर एक कोना ऐसा था जहाँ कोई नहीं जाता था। अब क्यों नहीं जाते थे यह तो उन्हें खुद भी नहीं पता,पुरखों ने मना किया था तो उन्होंने भी मान लिया।
उस कोने में, एक ऊँची चट्टान के किनारे, एक छोटी सी बच्ची रोज़ चुपचाप बैठती थी-नाम था "नैना"। वह बाकी बच्चों से अलग थी, ज्यादा नहीं बोलती, पर उसकी आँखों में एक अलग ही चमक थी। वह घंटों एक ही जगह बैठी रहती, चुपचाप उस चट्टान से नीचे फैली वादियों को निहारती।
लोग सोचते थे, शायद उसे कुछ समझ नहीं आता। लेकिन एक दिन गाँव की शिक्षिका, मिस सारिका, नैना के पीछे-पीछे उस चट्टान तक गईं। उन्होंने देखा, नैना ज़मीन में कुछ खुदाई कर रही थी। जब पास जाकर देखा, तो वहाँ एक सुंदर सा जंगली फूल उग आया था-बैंगनी रंग का, चार पंखुड़ियाँ, और भीनी-सी खुशबू।
सारिका जी ने हैरानी से पूछा, "नैना, ये तुमने लगाया है?"
नैना मुस्कुराई और बोली, "नहीं, ये खुद उग आया। लेकिन मैं इसे रोज़ देखने आती हूँ। कोई इसे कुचल न दे, इसलिए मैं इसके पास बैठती हूँ।"
सारिका जी भावुक हो गईं। उस दिन उन्होंने गाँव में सबको बुलाया और कहा, "नैना हमें सिखा रही है कि जो सुंदरता हमें बिना माँगे मिलती है,जैसे ये जंगली फूल- उसे बचाना हमारा कर्तव्य है।"
धीरे-धीरे वो जगह 'नैना की बगिया' कहलाने लगी। वहाँ और भी जंगली फूल उग आए। गाँववालों ने उस जगह को संरक्षित क्षेत्र बना दिया। अब वहाँ हर साल 'जंगली फूल उत्सव' मनाया जाता है, जहाँ नैना की मुस्कान सबसे बड़ी सजावट होती है।
कभी-कभी सबसे सुंदर चीज़ें हमें बिना प्रयास के मिलती हैं, लेकिन उन्हें बचाना हमारा असली प्रयास होता है।