अधूरी कहानी
बारिश की वो शाम कुछ अलग ही थी। कोहरा धीरे-धीरे शहर को अपनी बाहों में समेट रहा था। स्टेशन के उस पुराने से बेंच पर बैठी थी आस्था, अपने हाथों में एक पुराना खत थामे हुए। आंखों में नमी थी, लेकिन चेहरा शांत था — जैसे किसी तूफान के बाद समंदर ठहर गया हो।
पाँच साल पहले की बात थी। आस्था और राघव की मुलाकात इसी स्टेशन पर हुई थी। दोनों को किताबें पसंद थीं, चाय का स्वाद और बारिश की नमी। धीरे-धीरे मुलाकातें बढ़ीं और दिल के तार जुड़ने लगे। राघव कहता, "तुम्हारे बिना ये ज़िंदगी अधूरी है।" और आस्था मुस्कुरा देती, जैसे उसकी दुनिया पूरी हो गई हो।
फिर एक दिन, राघव ने बड़े सपनों का पीछा करने के लिए शहर छोड़ दिया। जाते वक्त वादा किया था—"मैं लौटूंगा, तुम्हारे लिए। बस थोड़ा वक़्त देना।" आस्था ने उसका इंतज़ार किया, हर दिन उसी स्टेशन पर। लेकिन राघव कभी नहीं लौटा। न कोई खबर, न कोई खत।
आज पाँच साल बाद, उसे राघव का लिखा आखिरी खत मिला — डाक में कहीं खोया हुआ, अब जाकर मिला। उसमें लिखा था:
"आस्था,
मैं लौटना चाहता था, लेकिन किस्मत ने रास्ता बदल दिया। मैं तुमसे दूर नहीं जाना चाहता था, पर ज़िंदगी ने मुझे तुमसे दूर कर दिया। अगर कभी ये खत तुम्हारे हाथ लगे, तो जान लेना — मेरा हर पल तुम्हारे नाम था।
तुम्हारा,
राघव।"
आस्था ने खत को सीने से लगाया, और आसमान की ओर देखा। बारिश फिर से तेज़ हो गई थी। कुछ कहानियाँ पूरी नहीं होतीं, शायद इसलिए कि उनका अधूरा रह जाना ही उन्हें खास बना देता है।