सुनिए,
जरा सुनिए न, अभी उठा तो चांद था,
एक झपकी सी आई और वो चांद खो गया?
कहा गया!
कुछ पता है?
या तुम भी उस खोई हुई चांद की खोज में खुद के माथे की
बिंदियों की सितारों की चांदनी खो रही हो,
अरे संभालो न, पल्लू साड़ी का पल्लू,
और हा वो खत, देखो सिरहाने पड़ी है,
माफ करना कल रात नींद नहीं आई तो मैने आधी अधूरी
पढ़ी है,
हा माना मेरे लिए लिखी गई थी,
पर,
पर उसे पढ़ने की इजाजत नहीं दी थी तुमने,
फिर भी पढ़ लिए,
तो माफ करना
पर
पढ़के समझे कि इश्क बेबाक भी होता है, बस उसकी
बेबाकी अकेलेनेपन की मोहताज है,
खैर छोड़िए,
शायद वो चांद जो खो गया था वो दिन के उजालों में
छिपने का आदि है,
हा,
मगर एक चांद ऐसा भी है,जिसे दिन के उजालों में और
चमकना आता है,
शीशे के सामने आके खड़ी होती है तो लगता है कि
शीशे को उसकी बुनियाद की तसल्ली मिल गई,
कमरे के दरवाज़े को उसे
छिपाकर रखने का मकशद,
और, और हा हा, उसी चांद की वजह से मेरे जैसे
लड़कपन के शायर को नज़्म,
उनके सजने की एक एक हरकत की पुष्टि,
शराफत के बदलने का तरीका,
पलकों में बगावत,
इश्क करने का तरीका,
मन की बाते जैसे चाहत, तसल्ली, तलब, तन्हाई,
तस्वीर, दफ्तर, शराब, नज़्म,
गरम चाय, बदन पे तिल, होठों पे मैं
और बेजोर अदाएं,
मुकम्मल मलाल, मुनाफा, सवाल, सबका
ठिकाना ये नाजुक सा दिल,
और दिल में मै, जिनसे चुरा प्रकाशित करी
मैंने कविताएं की टोली,
उस टोली में मेरा घर, नहीं अपना घर,
वो चांद तुम,
और पहले आप, पहले आप जैसा
लखनवी शहर,
कुछ ऐसा ही है मेरा, इश्क, उसकी सूरत,
बिगड़ने की साजिश, सिफारिश और
दूजा शहर जैसे जहर।
मैं सत्यम
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