Writer Nirbhay Shukla
कुछ मौसम लौट आते हैं
सिर्फ यह देखने कि दरवाज़ा अब भी उसी तरफ खुलता है।तेरे चुने फूलों की पंखुड़ियाँ
मेरी डायरी में आज भी तारीख़ें बनकर गिरती हैं।अक्टूबर समझाता है हर साल
कि यादें भी रुतों की तरह अपनी बारी से आती हैं।अधूरा मैं, अधूरा तू—
मिलें तो पूरा, वरना इंतज़ार की ही परिभाषा हैं