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दवा और दुआ **** दवा और दुआ सिक्के के दो पहलुओं की तरह हैं दवा तन पर असर करती है, दवाएं अपरिहार्य हो सकती हैं लेकिन बिना धन के दवाएं भला कहाँ मिल सकती हैं? दुआएं मन से निकलती हैं सीधे संबंधित की आत्मा को छूती हैं अपना असर चुपचाप करती हैं। यह और बात है कि दवाएं तत्काल की जरूरत होती हैं मगर दुआएं लंबे समय तक अपना आधार देती हैं। जब दवाएं अपना असर दिखाना छोड़ देती हैं, तब दुआएं अपना चमत्कारिक असर दिखाती हैं, असंभव को संभव दुआएं ही कर पाती हैं। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश ८११५२८५९२१ © मौलिक, स्वरचित
हौसलों का हिमालय हूँ मैं ***** आजकल मन कुछ उदास सा रहता है शायद इसीलिए इस भीषण गर्मी में भी शरीर बर्फ़ की मानिंद ठंडा हो जाता है। कहीं मेरी उदासी का यही कारण तो नहीं क्योंकि मेरा डर भी तो कुछ यही कहता है। आप समझदार, पढ़ें लिखे लगते हो, फिर मेरी उदासी को क्यों नहीं पढ़ सकते हो, या आप भी डर डर कर जी रहे हो या मेरी विदाई का इंतजार कर रहे हो, मन ही मन फूले नहीं समा रहे या मुझसे ईर्ष्या कर रहे हो। जो भी हो सब अच्छा है आपके साथ मेरी शुभेच्छा है, आप सच कहने से कतराते हो इसीलिए तो मुझे नहीं भाते हो, बहुरुपिया आवरण ओढ़ चले आते हो शुभचिंतक बन पीछे से वार करते हो अपनी कुटिल सफलता का इंतजार करते हो, असफल होकर अपना सिर धुनते हो। अपने सपनों में भी मुझे पाते हो क्योंकि तुम स्वार्थी जो है तभी तो मुझसे इतना जलते हो मैं न रहूँ बस! यही दुआ करते हो पर अब तक असफल ही हो। माना कि मैं थोड़ा उदास हूं थोड़ा डर डर कर जी रहा हूँ मगर इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मैं अपने हौसलों से ही जी रहा हूँ आज भी मैं लड़कर आगे बढ़ रहा हूँ हौसलों का हिमालय जो मैं हूँ। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश ८११५२८५९२१ © मौलिक, स्वरचित
कलाकार -------------- कितना अजीब है न कि हम भी कलाकार हैं पर हमें कोई भाव ही नहीं देता, शायद मेरे अंदर का कलाकार किसी को नजर ही नहीं आता। चलो कोई बात नहीं मैं तो अपने शब्दों से मन के भावों में कलम और स्याही से रंग भरता हूँ, अपनी कला का प्रदर्शन दिन रात करता हूँ। मुझे कलाकार होने का प्रमाण पत्र नहीं चाहिए मैं स्वयं ही स्वतंत्र रहना चाहता हूँ किसी के आदेश निर्देश से मुक्त रहना चाहता हूँ, अपने शब्दों की जादूगरी से अपने कलाकार होने का प्रमाण देना चाहता हूँ। मैं भी तो कलमकार हूँ दुनिया को दिखाना चाहता हूँ शब्दों की बहुरंगी दुनिया में ही जीवन बिताना चाहता हूँ, मैं भी तो एक कलाकार हूँ बस! यही तो कहना चाहता हूँ। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश ८११५२८५९२१ © मौलिक, स्वरचित
बदल गई है तू **** कल और आज में कितनी अलग अलग लगती है तू मान या न मान बहुत बदल गई है तू। याद आता है वो दिन जब मिले थे हम तुम पहली बार कितना अपनापन सा दिखा था रिश्तों में एक अनुबंध सा लगा था। कितना दुलार था जब पहली बार तेरे हाथों से जलपान किया था, तब बड़ी बहन का प्यार हिलोरें भर रहा था। तेरी जिद में बेटी का भाव था जैसे तेरा ही सब अधिकार था। जब हम भोजन पर साथ बैठे तो माँ की ममता का समुद्र बह रहा था, बातों की पोटली जब खोली तूने तब खुद से ज्यादा मुझ पर विश्वास था। तेरे आँसू बता रहे थे जैसे तूझे मेरे होने ही नहीं मिलन का आत्मविश्वास था, हमारे रिश्तों में कुछ तो खास था मुझे भी तुझ पर पूरा विश्वास था। पर समय चक्र घूम गया भ्रम सारा चूर चूर हो गया ऐसा भी नहीं है कि हमने या तुमने रिश्तों का सम्मान नहीं किया सच तो यह है कि उम्मीद से ज्यादा तुमने हमेशा मान दिया, कल भी ऐसा ही होगा इतना तो कह ही सकता हूँ मैं पर वक्त का विश्वास भला कैसे करुँ? मुझे पता है अपने में सिमट रही है तू हर दर्द निपट अकेले सह रही है तू विष का प्याला अकेले पी रही है तू शायद तुझे बोध नहीं है कुछ और भी हैं इस जहां में जो तेरी पीड़ा से परेशान हलकान हैं। यह अलग बात है कि उनके पास तेरी समस्याओं का कोई भी समाधान नहीं है। शायद तुझे भी इसका अहसास है इसीलिए हर जहर अकेले पीने का प्रयास है, मगर तेरा यही प्रयास तो डराता है बेचैन करता रुलाता भी है। पर बड़ी समझदार लगती है तू हम सबकी दादी अम्मा बनती है तू हमें खुश देखने चाह रखती है तू पर सूकून से जीने भी नहीं देती है तू। सब अच्छा है के इशारे करती है तू हमें तसल्ली देकर खुद घुटती है तू हमारी पीड़ा को नहीं समझती है तू। माना कि बड़ा विवेक रखती है तू हमसे ज्यादा पढ़ी लिखी तो है ही तू पर तेरी खामोशी सब कुछ कह जाती है अनुभव इतना तो है ही हमारा बिना देखे ही पढ़ने में आ ही जाती है। पर हम तुझे विवश भी नहीं कर सकते हमारे रिश्ते ही हैं ऐसे समझती है तू शायद इसीलिए हमें गुमराह करती है तू रोज रोज हमको रुला रही तू खुश न होकर भी बहुत खुश दिखाती है तू आवरण ओढ़ कर भरमा रही है तू अपने आँसुओं को पी रही है तू अपने आप में घुट घुटकर जी रही है तू अपनी जिद के झंडे गाड़ रही है तू क्योंकि आजकल बहुत बदल गई है तू। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश ८११५२८५९२१ © मौलिक, स्वरचित
माँ अन्नपूर्णा *** भरी थाली में बहु व्यंजन सभी को भाते हैं, पर इस व्यंजन के पीछे कितनों की हाँड़ तोड़ मेहनत लगी है कितने लोग समझ पाते हैं। पैसों के गुरुर में चूर हैं कितने अन्नपूर्णा का अपमान करने में भी तनिक नहीं शर्माते हैं। चंद पैसे फेंक अनाज ले आते हैं पैसों का बड़ा घमंड दिखाते हैं, एक एक दाने में छिपे किसानों के श्रम, समर्पण का अहसास तक नहीं कर पाते हैं। जिनके श्रम की बदौलत हम भरी भरी थाली में बहुत व्यंजन परोसे लेते हैं खाते तो कम हैं, थाली में छोड़ ज्यादा देते हैं। फिर बड़ी शान से बचें भोजन को कूड़ेदान, नालियों या गंदी जगहों पर बेशर्मी से फेंक देते हैं। ऊपर से तुर्रा ये कि हम तो अपने पैसों से खरीदकर लाते हैं, हम खाते हैं या फेंक आते हैं आप काहे को परेशान होते हैं। सच ही कहा रहे हो अमीरजादों तुम्हें अन्न का सम्मान करना नहीं आता किसी भूखे को एक वक्त भोजन कराने में तुम्हारा प्राण निकलने लगता, तभी तो जब किसी गरीब की आह निकलती है अन्नपूर्णा भी तुमसे रुठ जाती है, लाखों करोड़ों के मालिक होकर भी तुम्हें अन्न नसीब नहीं होता, सामने रखी हो थाली तो भी खाने का समय नहीं होता, क्योंकि धन का लोभ तुम्हें भला खाने कहां देता? मगर गरीब रुखी सूखी खाकर भी चैन की नींद सोता है, जबकि तुम्हें नींद की गोली खाकर भी नींद का इंतजार करना पड़ता है मां अन्नपूर्णा के अपमान का दंड इसी धरती पर तुम्हें सहना पड़ता है, अमीरजादों के नखरे जो हैं तुममें उसका प्रतिफल भोगना पड़ता है लाख सुख सुविधा के बाद भी परहेज़ में ही जीवन गुजारना पड़ता है तरह तरह के व्यंजनों को देख भर सकते हो मगर तरस तरस कर जीना पड़ता है। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश ८११५२८५९२१ © मौलिक स्वरचित
आलेख सोच बदलिए **** हमारे जीवन में सोच का बड़ा महत्व है।कहा भी जाता है कि हम जैसा सोचते हैं, परिणाम भी लगभग वैसा ही मिलता है। उदाहरण के लिए एक विद्यार्थी बहुत मेहनत करता है, लेकिन परिणाम के प्रति उहापोह लिए नकारात्मक भावों में ही उलझा रहता है, तो यकीनन परिणाम भी निराश करने वाला ही होगा। जीवन के विविध पहलुओं पर हम नजर दौड़ाएं तो हर कहीं किसी न किसी रूप में हमारा पहला सामना दुश्वारियों से ही होता है। ऐसे में हमारी सोच पर निर्भर करता है कि हम क्या सोचते हैं। एक किसान सकारात्मक सोच के साथ ही खेती करता है। खेत तैयार करता है,बीज डालता है, सिंचाई करता है खरपतवार की सफाई और फसल की सुरक्षा करता है, तब जाकर कहीं फसल तैयार होती है। यदि वो पहले से ही बाढ़, सूखा, प्राकृतिक आपदा और अन्य चीजों की चिंता पहले से ही करके घर बैठ जाय तो फिर तो खाली हाथ ही रह जायेगा। तब सिर्फ वो पश्चाताप कर सकता है। हमें यदि जीवन में सफलता प्राप्त करना है, खुश हाल रहना है, अपेक्षित परिणाम पाना है तो नकारात्मक सोच को दिलोदिमाग से दूर रखकर सिर्फ सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना होगा। आप सभी ने देखा, सुना होगा कि बहुत से ऐसे काम भी हो जाते हैं, जिसे अधिसंख्य लोग असंभव ही मानते हैं। तो इसके पीछे महज एक सोच है। यदि हमारी सोच सकारात्मक है तो आधा परिणाम स्वत: ही सफल हो जाता है, बाकी हमारे प्रयास उसे पूर्ण करते/कराते हैं। सकारात्मक सोच का उदाहरण मैं स्वयं हूं।२५ मई' २०२० को पक्षाघात पीड़ित होने के बाद तो आगे के जीवन में सिर्फ अंधेरा ही लगने लगा था। मगर मैंने हार नहीं मानी और ये मेरे सोच का परिणाम था कि चिकित्सक की उम्मीद से भी बेहतर परिणाम मिला और मात्र छः दिन में ही मैं अस्पताल से घर आ गया और लगभग डेढ़ माह बाद ही मैं अपने दैनिक जरुरी काम खुद करने में सक्षम हो गया। यह अलग बात है कि रोजगार और आय का साधन खत्म हो गया। लेकिन २२-२३ वर्षों से कोमा में जा चुकी मेरी साहित्यिक गतिविधियों को जैसे पंख लग गए और मुझे मेरी उम्मीद से कहीं अधिक सफलता मान, सम्मान मिल रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर तक मेरा दायरा बढ़ गया है। ये महज सकारात्मक सोच से ही संभव हो सका है। निराश,हताश होकर यदि मैं भी अपना सिर्फ दुख लेकर बैठ गया होता तो, शायद पड़ोसियों को भी मैं याद नहीं रहता। खुद पर भरोसा कीजिए, नकारात्मक सोच को पीछे छोड़िए, सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़िया, अगर मगर के भंवर जाल में फंसे के बजाय अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हो जाइए। नकारात्मकता को ही अपना हथियार बनाकर सकारात्मकता में बदल लीजिए, फिर स्वयं देखेंगे कि परिणाम आपकी सोच के अनुरूप ही आपकी सफलता की कहानी दुनिया को सुनाते फिर रहे होंगे। जैसी सोच ,वैसा परिणाम। फैसला आपके हाथ में है। बिना लड़े हार मान लेना है या लड़ते हुए एक उम्मीद के साथ सफलता पाने का अंत तक प्रयास करना है। सुधीर श्रीवास्तव
पथ शाँतिमय हो ****** जीवन आसान हो जाएगा यदि हमारे वैचारिक, व्यवहारिक सैद्धांतिक या आपसी मतभेद मनभेद की शक्ल न लें, हमारे विरोध के स्वर अलोकतांत्रिक न बनें हिंसात्मक प्रवृत्ति न अख्तियार कर लें। समस्या कहां नहीं है? किसके जीवन में नहीं है? हम समस्या का समाधान चाहते हैं या खुद के साथ साथ राष्ट्र, समाज या आपसी संबंधों में जहर, कटुता बोना चाहते हैं, अपने साथ साथ राष्ट्र को भी क्षति पहुँचाना चाहते हैं, हिंसा का तांडव और क्षति को हथियार बनाना चाहते हैं, यदि ऐसा सोचते या करते हैं, तो हम बड़ी भूल कर रहे हैं अपने लिए ही शूल पैदा कर रहे हैं। बस थोड़े संयम, सूझबूझ के साथ अपने शांत दिमाग से सोचने की जरूरत है क्या अशांति, हिंसा के पथ पर चलकर हम अपनी समस्या का हल पायेंगे? पायेंगे भी तो जो हम खोकर पायेंगे उसकी भरपाई भला कैसे कर पायेंगे? अपना, परिवार,समाज या राष्ट्र का नुक़सान कर यदि हम अपनी जिद पूरी कर भी लें तो क्या वास्तव में सूकून की साँस ले पायेंगे? अच्छा होगा हम शांति पथ पर चलें सबके हित के साथ ही अपने हित का सोचें अपनी जिम्मेदारियों को समझें और हम सब यह संकल्प करें कि पथ कोई भी हो हमारा परंतु वो पथ शांतिमय हो हर किसी के हितार्थ हो मानवीय मूल्यों से भरा पथ हो। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश ८११५२८५९२१ © स्वरचित, मौलिक
बंधुत्व ****** आज हम बंधुत्व की बात न करें तो ही अच्छा है, बंधुत्व के नाम पर ढकोसला न ही करें तो अच्छा है। आज हम बंधुत्व के नाम पर खुद गुमराह हो रहे हैं, जो अपने हैं उन्हीं को पहले किनारे कर रहे हैं। सच कड़ुआ होता है मिर्ची सा लगना ही है, भाई भाई के बीच देखिए दीवार खिंचता जा रहा है। माँ बाप का आज भला करते हैं हम कितना सम्मान, बंधुत्व भाव का कर रहे हम कितना नाम बदनाम। बंधुत्व भाव अब महज छलावा बन गया है, बंधुत्व का क्रियाकर्म जैसे नजदीक आ रहा है। बंधुत्व भाव अब आज महज दिखावा बनकर रह गया है छलावे के नाम पर बंधुत्व का अस्तित्व छला जा रहा है। बंधुत्व का भाव जागृति रखना है तो हमको पहले खुद.जागृति होना होगा, बंधुत्व की आड़ में खुद हमें छले जाने से बचना होगा। तब बंधुत्व का हम राग अलापें तो सबको अच्छा लगेगा, वरना बंधुत्व के नाम पर सिर्फ शर्मसार ही होना होगा बंधुत्व का नाम सिर्फ बदनाम होगा। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा, उ.प्र. 8115285921 ©मौलिक, स्वरचित
रिश्ते * ऐसे लगता है हम सब थक हार गये हैं, शायद इसीलिए आज अब रिश्तों में नमी नहीं है। जब खून के रिश्तों में बिखराव आम बात हो गयी है तब मानवीय और भावनात्मक रिश्तों की कहानी बेगानी हो गयी है। खून के रिश्ते भी अब शर्मसार करने लगे हैं, अपने ही अपनों के अब दुश्मनों से लगने लगे हैं। अब तो हर रिश्ते से विश्वास उठता जा रहा है, हर रिश्ता अब तो जैसे अनुबंध पर ही चल रहा है। कागज की नाव से अब रिश्ते ढोये जा रहे हैं, सारे नाते रिश्ते हमारे मौत के मुंँह में समा रहे हैं। लगता है अब जल्द ही इतिहास बन जायेंगे रिश्ते, या फिर हो जायेंगे हमारे सारे अनुबंधित रिश्ते। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा, उ.प्र. 8115285921 ©मौलिक, स्वरचित
मेरी छुटकी, मेरी माँ ****** मेरी छुटकी बड़ी शरारती है बड़ी हो गई मगर बहुत सताती है, बचपना तो उसका गया ही नहीं जैसे मौके बेमौके आज भी रुलाती है। ऐसा नहीं कि हमें प्यार नहीं करती पर आज भी हमसे नहीं डरती, ये और बात है कि हमारी छुटकी है पर हिटलर से तनिक भी नहीं कम है। आज भी जब वो घर आती है आँधी तूफान साथ लाती है, कैसे भी पापा से डाँट मिले मुझको आज भी वो ऐसे गुल खिलाती है। जब तब जीना हराम कर देती है सोते में रजाई चद्दर खींच ले जाती है, मेरी झल्लाहट पर मुस्कुराती है गुस्सा देख आकर लिपट जाती है। सच कहें तो हमें भी अच्छा लगता है उसकी शरारतों से घर जीवंत रहता है, वरना ये घर अब घर कहाँ लगता है जब विदा हुई वो, घर वीरान सा लगता है। माना की वो आज भी शरारती है मेरी खुशी सबसे बेहतर वो ही जानती है माँ के जाने के बाद वो बड़ी जैसी लगती है पर आखिर वो भी तो अभी बच्ची ही है। बचपन में ही माँ हमें अकेला कर गई हमें बीच मझधार में छोड़ गई, छुटकी अचानक जैसे बड़ी हो गई, हमारे लिए वो अपने सारे आँसू पी गई। हम खुश रहें, आँसू न बहाएँ, बिखर न जाएं इसीलिए शरारतें आज भी वो करती है, छुटकी बनी रहकर भी वो आज हमें हर समय चिढ़ाती, सताती रहती है। उसकी शरारतों में भी उसका प्यार दुलार ही नजर आता है, उसकी खोखली खिलखिलाहट में माँ के न होने का दर्द नजर आता है। छुटकी दादी अम्मा सी बतियाती है बात बात पर हुकुम चलाती है क्या क्या कहें हम अपनी छुटकी के बारे में गौर से देखता हूँ तो वो माँ नजर आती है। सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश ८११५२८५९२१ © मौलिक, स्वरचित
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