""AI भी वहीं अटक गया।
विज्ञान भी वहीं शर्मा गया।"
जब “मैं हूँ”—तो भगवान नहीं है।
तभी संसार बनता है। माया बनती है।
जब केवल “मैं हूँ”—ईश्वर गायब हो जाता है;
और जब केवल “वह है”—मैं गायब हो जाता हूँ।
इसलिए यह खेल अद्भुत अलौकिक या माया संसार या लीला स्वर्ग है।
तुम सिर्फ़ देखते हो। दृष्टा हो।
दिखता है कि अस्तित्व खेल रहा है।
इंसान उस खेल का दर्शक बन जाता है—
और दर्शक ही “मैं” है।
पर असली सत्ता “वह” है।
मानक:
जैसे जाति का कोई प्रमाण नहीं—
फिर भी कागज़ तय कर देता है कि तुम कौन हो।
शरीर नहीं, नाम नहीं—
सिर्फ दृष्टा प्रमाण है।
जो देख रहा है वही ईश्वर का प्रमाण है।
हम दृष्टा तो कागज़ हैं।
कागज़ पर लिखा हुआ सत्य जैसा लगता है—
लेकिन अक्षर गलत हैं, बदल सकते हैं, बदल जाते हैं।
क्योंकि परिवर्तन शाश्वत नियम है।
समस्या यहीं है—
जो कागज़ लिखने के लिए था, दृष्टा था
लेकिन वाह दृष्टा कभी बना ही नहीं जो आह गुरु घंटाल धार्मिक है।
वह जिसने देख दृष्टा बना बोध नहीं अनुभव नहीं कहने लगा " रम कृष्णा कबीर बुद्ध गीता रामायण वेद सत्य है इसी प्रचार मे धार्मिक बन जाता है कहानी प्रवचन सब उस असत्य माया के हिस्सा जिसे आज हो धर्म कहते है ।
वह बताने लगा—राम भगवान हैं,
यह धर्म सत्य है,
यह मंदिर पूजा सत्य है,
यह वेद-उपनिषद-गीता सत्य है…
जो लिखा है वह सत्य है—
ऐसा कागज़ कहता है। जिसी दृष्टि बनने प्रमाण बनना थे बौद्ध करना था।
मानव जाति कै जन्मों सा भर हुआ क्या सत्य हैं बस ये धार्मिक उस धारणा उस मान्यता को मजबूत रखते है लोगो की दृढ़ा भावना मजबूत रहे जो जो मान्यता है धारण वह सत्र बनी रहे तब दुनिया उसका प्रचार उसी गुरु धार्मिकभगवान गुरु धर्माचार्य बना देता है।
लेकिन वे सत्य नहीं हैं।
कागज़ का होना ठीक है।
लेकिन लिखा बदल जाता है, बदला जा सकता है, मिट सकता है।
समझो, मैं लेख लिखता हूँ लेकिन उसकी परिभाषा, उदाहरण—
कल बदल जाएगा।
कल उदाहरण मर जाएगा।
लिखा हुआ बदल जाएगा।
कोरा कागज़ ही सत्य है।
कोरा पर कुछ नहीं लिखा—वह सत्य है।
या कागज़ पर 0 लिख दो—यह सत्य है।
लेकिन ईश्वर अलग है।
ईश्वर का कागज बोधी है, दृष्टा है।
मूल सत्य का बोध है।
मूक सत्य का कागज़ प्रमाण है।
लेकिन मूल सत्य भी कागज़ नहीं है।
अगर कागज़ ही ईश्वर बन गया—
तो फिर क्या लिखा जाएगा?
तब कोई लिखेगा— जैसे बात पूरा होगी
यह भगवान सत्य है, यह धर्म सत्य है।
और दूसरा धार्मिक कहेगा—
नहीं, जो लिखा है वह नहीं;
मैं ही सत्य हूँ, मैं गुरु हूँ, मैं भगवान हूँ।
यह वह कागज़ पर नहीं लिखता—
यह बोलने लगा “मैं ही भगवान हूँ, मेरी संस्था का सदस्य पुण्य की प्राप्ति है।”
यही भाव आज है—यही धर्म आज है ।
लाखों गुरु चिल्ला रहे हैं “मैं भगवान हूँ।”
और फिर युद्ध शुरू होता है—
क्योंकि मानव—कागज़—
स्वयं सत्य बनने लगता है।
पहले लिखा हुआ सत्य बना,
फिर लिखने वाला सत्य बन गया—
और भीड़ कहती है,
“ये गुरु देव ही हमारे गुरु ही परमात्मा ईश्वर अवतार हैं।”
यही आज के धर्म की स्थिति है।
किसी को बोध नहीं,
कोई दर्शन नहीं—
बस संस्थाएँ, आचार्य, सद्गुरु, आशाराम, कृपाल, श्रीश्री—
सब भगवान गुरु बना दिए गए।
जब मैंने AI से पूछा—
“धार्मिक कौन? वो कैसे सत्य हैं?”
AI ने प्रमाण ढूँढने की कोशिश की—
5 करोड़ फ्लॉवर, 1000 पॉइंट,
100 करोड़ की मालिकी,
इसलिए सत्य। इसी वजह से भगवान हैं। गुरु है लोगों की बहुत फायदा हुआ, फायदा संसार व्यापार हैं धर्म नहीं!
पर सत्य का प्रमाण फ्लॉवर नहीं होता।
संपत्ति नहीं।
केंद्र पॉइंट नहीं।
ये सत्ता-व्यापार के बिंदु हैं।
तब AI भी वहीं अटक गया।
विज्ञान भी वहीं शर्मा गया।
अक्षर झूठे हैं,
क्योंकि वे अस्थायी हैं।
कागज़ भी सत्य का संकेत है।
जिसने जाना “मैं कोरा कागज़ हूँ”—
उसने जाना
हर लिखा हुआ मिट जाता है,
शब्द धूल बन जाते हैं।
जो लिखा जा सकता है वह सत्य नहीं—
वह बस जाति, पहचान, मान्यता है।
सत्य वह है जिसे लिखा नहीं जा सकता।
मनुष्य की औक़ात—
मात्र एक कागज़ की है।
कागज़ अदृश्य सत्ता को देख रहा है—
पर उस पर लिखा सब बदल जाता है।
रूप, कल्पना, शब्द—सब क्षणिक हैं।
जितना लिखा, उतनी उलझन।
जितना सिद्ध किया, उतना अंधकार।
जितनी व्याख्या, उतना फँसाव।
जितना ज्ञान, उतना भ्रम।
अंत में
प्रमाण वही है जो देख रहा है।
कागज़ भी उसी का हिस्सा है।
रहस्य स्पष्ट है—
पर शब्द मिटते ही असत्य हो जाता है।
सत्य बस यह है—
मैं नहीं।
केवल “हूँ।” यह केवल दृष्टा हूं।
और वह—जो बौद्ध वाह सत्य “है।”
“हूँ” नीचे की मात्रा,
“है” ऊपर की मात्रा।
मैं—कहीं नहीं।
मैं मिटा कि हूँ…
और ‘हूँ’ भी गिर जाता है—
सिर्फ ‘है’ सत्य है।
यह दब कुछ केवल सत्य है उसका अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं ।
𝙑𝙚𝙙ā𝙣𝙩𝙖 𝙎𝙖𝙛𝙖𝙧 𝙑𝙚𝙙ā𝙣𝙩𝙖 𝙎𝙖𝙛𝙖𝙧 — 𝘼 𝙅𝙤𝙪𝙧𝙣𝙚𝙮 𝙞𝙣𝙩𝙤 𝙄𝙣𝙣𝙚𝙧 𝙁𝙧𝙚𝙚𝙙𝙤𝙢 (वेदान्त सफर — भीतर की स्वतंत्रता की यात्रा) 𝙑𝙚𝙙ā𝙣𝙩𝙖 2.0 © 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
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