“घर की देहलीज़”
वह बाहर नहीं निकलती,
पर भीतर बहुत कुछ चलता है।
डर की परछाइयाँ,
संस्कारों की जंजीरें,
और सवाल —
क्या मैं कर पाऊँगी?
घर की दीवारें
सिर्फ ईंटों की नहीं,
कभी-कभी
मन की सीमाएँ बन जाती हैं।
उसने सीखा था—
चुप रहना सुरक्षित है,
कम चाहना समझदारी है,
और खुद से पहले
दुनिया की सोच ज़रूरी है।
पर मनोविज्ञान कहता है—
यह कमजोरी नहीं,
यह सीखी हुई आदत है।
जो बदली जा सकती है
थोड़े साहस से,
थोड़े आत्मविश्वास से।
जब वह
एक कदम बाहर रखती है,
तो दुनिया नहीं बदलती—
वह खुद बदलती है।
और यही
सबसे बड़ी आज़ादी है।