एक दीप जला था मौन रात में,
न मंच था, न कोई शोर।
बस “राष्ट्र प्रथम” का प्रण लिए,
संघ चला — निडर, निष्ठ और कठोर।। 1
शाखा की मिट्टी, लाठी की सीख,
प्रार्थना में पलता विश्वास।
व्यक्ति गढ़ा, चरित्र बना,
यहीं से जागा राष्ट्र-प्रकाश।। 2
न सत्ता चाही, न सिंहासन,
न यश का कोई व्यापार।
जहाँ संकट आया सबसे पहले,
संघ बना जनता की ढाल-दीवार।। 3
सीमा पर वीर, गाँव में शिक्षक,
नगर-नगर सेवक रूप।
हर वेश में एक ही संकल्प,
भारत माता का दिव्य स्वरूप।। 4
आंधियाँ आईं, प्रतिबंध लगे,
कलंक, कारागार, प्रहार।
पर सत्य झुका नहीं एक क्षण,
संघ चला — और हुआ और अपार।। 5
यह सौ वर्ष नहीं, यह संकल्प है,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्वाला जीवित।
जहाँ “मैं” गलकर “हम” बनता,
वहीं राष्ट्र होता है निर्मित।। 6
अब अगली शताब्दी पुकार रही,
युवक, उठो — यह समय तुम्हारा।
संघ नहीं केवल इतिहास है,
संघ ही भारत का भविष्य सारा।। 7
– ©️जतिन त्यागी (राष्ट्रदीप)