लेखनी थककर के बोली,
मुझसे ना कोई जज्बात भरो।
पथ पर निकरो, कुछ और करो...?
भावों से भरा पड़ा था मन,
कहने को जियादा शब्द न थे।
थी पास परी बिसरी यादें,
कुछ वादों की फरियादें! ।
अंतस में दबी रह जाती हैं
ना लेखनी सकुचाती है।
पल पल इक-इक कर चिंगारी,
मन कोनों में सुलगाती है।
भाव खूब खाती है, न लजाती है,
लगता है भयी मदमाती है।
जब लेखनी थम जाती है........
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#सनातनी_जितेंद्र मन