ज्ञान योगी भक्ति पर इस समझ के साथ मनन करें कि ज्ञान के अंत में भक्ति प्रकट होती है और भक्ति के अंत पर ज्ञान प्रकट होता है। कर्मयोगी कीर्तन को, जप को अपना तेजकर्म बनाएँ। ध्यान योगी भक्ति को अपना ध्यान बनाएँ।
नारद भक्ति सूत्र - प्रस्तावना
“यह ग्रंथ समर्पित है भारत के उन संतों को, जिन्होंने भक्ति की समझ देकर सामान्य जन को भी ईश्वर का अनुभव कराया।”====================भक्ति मनन प्रश्न‘भक्ति करने से ईश्वर नहीं मिलता होता तो भी क्या आप भक्ति करते?’ यदि आपका जवाब ‘हाँ’ है तो आप भक्ति को समझ रहे हैं।भक्ति सूत्रभक्ति अपने आपमें परिपूर्ण है... भक्ति रास्ता भी है और मंज़िल भी।भक्ति सारज्ञान योगी भक्ति पर इस समझ के साथ मनन करें कि ज्ञान के अंत में भक्ति प्रकट होती है और भक्ति के अंत पर ज्ञान प्रकट होता है। कर्मयोगी कीर्तन को, जप को अपना तेजकर्म बनाएँ। ध्यान योगी भक्ति ...Read More
नारद भक्ति सूत्र - 1. भक्ति अमृत रूपी प्रेम है
1. भक्ति अमृत रूपी प्रेम हैअथातो भक्ति व्याख्यास्यामः।।1।।सा त्वस्मिन परम प्रेमरूपा ।।2।।अर्थ : अब भक्ति की व्याख्या करता हूँ।।१।।वह ईश्वर में परम प्रेम रूपा है।।२।।पहले सूत्र में नारदजी कहते हैं, 'मैं भक्ति की व्याख्या करता हूँ' तो भक्ति की व्याख्या कौन कर सकता है? वही जो स्वयं भक्ति का स्वरूप हो, उसका स्त्रोत हो। स्वयं गंगा से ही गंगाजल प्राप्त हो सकता है। इसीलिए नारद के बताए सूत्रों का महत्त्व है क्योंकि भक्ति के वे सूत्र एक परम भक्त से आ रहे हैं।दूसरे सूत्र में नारद भक्ति को 'ईश्वर में परम प्रेम' स्वरूप बता रहे हैं। इसलिए भक्ति को ...Read More
नारद भक्ति सूत्र - 2. भक्ति पाकर कैसी दशा होती है
2.भक्ति पाकर कैसी दशा होती हैयत्प्राप्य न किञ्चिद्वाच्छति, न शोचति,न द्वेष्टि, न रमते, नोत्साही भवति ||५||अर्थ : उस भक्ति प्राप्त होने पर ना किसी वस्तु की इच्छा करता है, ना शोक करता है, ना द्वेष करता है, ना विषयों में रमण करता है। तथा ना ही विषयों के प्राप्त करने का उत्साह ही करता है।प्रस्तुत भक्ति सूत्र में नारद जी ने परमभक्ति को प्राप्त भक्तों के जिन-जिन लक्षणों का वर्णन किया है, उनके विपरीत लक्षण संसारियों में पाए जाते हैं। एक संसारी इंसान कैसा होता है? उसके भीतर दिन प्रतिदिन नई-नई इच्छाएँ जगती रहती हैं– कभी गाड़ी, घर, मोबाइल, ...Read More
नारद भक्ति सूत्र - 3. भक्ति के अनुकूल कर्म कैसे हो
3.भक्ति के अनुकूल कर्म कैसे होनिरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः ||८||तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ॥९॥अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता ||१०||लोके वेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ||११||अर्थ : निरोधस्तु वस्तुतः त्याग; लोक = लौकिक,वेद = धार्मिक; व्यापार = व्यापारों का; न्यास : संन्यास है। लौकिक और वैदिक (समस्त) कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं ||८||भगवान के प्रति अनन्यता तथा उसके विरोधी विषय में उदासीनता को निरोध कहते हैं ।।९।।एक प्रियतम प्रभु को छोड़कर अन्य आश्रयों का त्याग अनन्यता है ।।१०।।लौकिक और वैदिक कर्मों में भगवान के अनुकूल कर्म करना ही उसके प्रतिकूल विषयों में उदासीनता है ।।११।।नारद भक्ति सूत्र के ८ से लेकर ११ तक के सूत्र आपस ...Read More