"विजय और वो आम वाला बाग"
विजय बम्बई का लड़का था — ऊंची बिल्डिंग में रहने वाला, चमकते जूते पहनने वाला और ‘थैंक यू’ बोलने वाला लड़का। लेकिन हर साल गर्मी की छुट्टियों में जब वो अपनी नानी के गांव जाता, तो सबकुछ बदल जाता था — कपड़े से लेकर चाल तक।
गांव में विजय की पहचान बस एक ही थी — "बम्बई वाला लड़का"।
गांव के बच्चे उसे देख कर फुसफुसाते, “देखो देखो, आया है बम्बई वाला!”
वो ना तो मिट्टी में खेलना जानता था, ना ही बैलगाड़ी पर चढ़ना।
लेकिन उसे गांव से प्यार था — खासकर नानी के आमों के बाग से।
नानी का घर गांव के आखिरी छोर पर था। उनके घर के पीछे एक बड़ा सा आम का बाग था, जिसमें तीन पेड़ सबसे पुराने और सबसे मीठे आमों वाले थे।
बाग के बीच एक नहर बहती थी, जिसमें गांव के बच्चे कूद-कूदकर नहाते, और पेड़ों के नीचे पके आम चुपचाप तोड़कर खा जाते।
नानी बार-बार कहतीं,
“बाग में अकेले मत जाना। सांप भी हैं, और शैतान बच्चे भी।”
पर विजय को तो बाग खींचता था — जैसे पेड़ खुद कह रहे हों, “आजा बम्बई वाले, देख तेरी हिम्मत कितनी है!”
एक दिन दोपहर में जब नानी सो रहीं थीं, विजय झोला लेकर बाग में पहुंच गया।
उसने इधर-उधर देखा, कोई नजर नहीं आया।
एक पेड़ के नीचे गिरे कुछ आम दिखे — उसने जल्दी से दो उठाए और जेब में डाल लिए।
फिर उसकी नजर ऊपर की टहनी पर पके हुए पीले आमों पर पड़ी।
“अगर ऊपर से तोड़ लूं तो मज़ा आ जाए,” उसने सोचा।
विजय ने पहली बार पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की —
पहला कदम, फिर दूसरा, फिर तीसरे पर ही उसका पैर फिसल गया।
“अबे नीचे देख!”
अचानक एक आवाज़ आई।
नीचे तीन गांव के लड़के खड़े थे — लुंगी पहने, मिट्टी से सने, और आंखों में शरारत।
“बम्बई से आया है और पेड़ पर चढ़ना नहीं आता?”
“अरे इसे चढ़ना सिखाओ!”
“या फिर इसकी जेब चेक करो, आम तो नहीं चुराए!”
विजय सकपका गया। लेकिन तभी उनमें से एक लड़का मुस्कराया,
“चल, तू नया है… आज तेरी गलती माफ़। पर अगली बार बिना पूछे आम तोड़ने की ज़रूरत नहीं है।”
फिर उसने एक पका हुआ आम खुद तोड़कर विजय को दिया।
“ये ले, असली देसी स्वाद।”
विजय ने आम खाया और कुछ पल चुप रहा — फिर धीरे से बोला,
“कल फिर आऊँ?”
“आना, लेकिन इस बार पेड़ पर चढ़ना भी सीख कर आना!”
अगले दिन विजय खुद नहीं गया। गांव के वही लड़के नानी के दरवाजे पर आ गए।
“आंटी, विजय को खेलने ले जा रहे हैं, आम दिखाएंगे।”
नानी ने चौंक कर देखा, लेकिन मुस्कराकर बोलीं,
“ठीक है, पर बाग से बाहर मत जाना।”
उस दिन विजय ने पहली बार नहर में कूदकर नहाया, पेड़ की डाली से झूल कर आम तोड़े, और कीचड़ से सने पैर लेकर वापस घर आया।
नानी ने सिर पकड़ा, “हाय दइया, बम्बई वाला अब पूरा गांव वाला बन गया!”
छुट्टियों के बाकी दिन उड़ते चले गए।
अब विजय अकेला बाग नहीं जाता था — रामू, भोलू और श्यामू उसके दोस्त बन चुके थे।
चारों आम तोड़ते, नहर में तैरते, छांव में बैठकर किस्से सुनते और “बम्बई वाले की हिंदी में सुधार” करते।
जब विदाई का दिन आया, विजय चुप था।
नानी ने पूछा,
“क्या हुआ?”
विजय बोला,
“अगली बार आऊँगा तो और ऊँचे पेड़ पर चढ़ूँगा। और रामू-भोलू को एक असली बम्बई वाला चॉकलेट दूंगा!”
बमबे लौटते समय उसके बैग में नानी का अचार, गांव की मिट्टी, और आमों की मीठी ख़ुशबू थी।
पर दिल में जो चीज़ सबसे ज्यादा थी —
वो था दोस्ती का वो पहला आम,
जो बिना मांगे, खुद तोड़कर दिया गया था।