दशम अध्याय
मित्रघात
महिष्कपुर में शिवादित्य एक-एक पल्लव विद्रोही को ढूंढ ढूंढकर समाप्त करता रहा। इधर महाराज नागादित्य ने नागदा की सुरक्षा व्यवस्था को दृढ़ किया और अपने परिवार समेत अमरनाथ की यात्रा की ओर चल पड़े। योजनानुसार विष्यन्त ने अपनी पत्नी और बच्चों को भी उनके साथ भेज दिया।
जिस दिन नागदा नरेश अमरनाथ से अपने राज्य लौटने वाले थे, उससे ठीक एक दिवस पूर्व की रात्रि विष्यन्त ने नागदा से चित्तौड़ आए मेवाड़ के मुट्ठीभर सैनिकों को एकत्रित किया और उन्हें लेकर गुप्त कन्दराओं से होकर भीलों के क्षेत्र में पहुँचा। बहुत से भील गहन निद्रा में थे, और कुछ बाहर टहलते हुय पहरा दे रहे थे। एक-एक योद्धा धीरे-धीरे कन्दरा से निकलने लगा। वहाँ टहल रहा एक प्रहरी भील विष्यन्त के निकट आया, “सेनानायक विष्यन्त, आप और आपका दल इस प्रकार गुप्त मार्ग से क्यों आ रहा है? अब तो नागदा स्वतंत्र है, तो इसकी क्या आवश्यकता है?”
“क्योंकि यही स्थान भीलों की सुरक्षा का केंद्र है।” कहते हुए विष्यन्त उस भील प्रहरी के निकट आया और उसका कंधा पकड़ उसके नेत्रों में देखा, “क्षमा करना, मित्र। किन्तु मैं ये करने को विवश हूँ।” उसने कन्दरा से बाहर निकले अपने सैनिकों की ओर संकेत किया और अपने समक्ष खड़े भील प्रहरी की गर्दन पकड़कर मरोड़ दी। अगले ही क्षण मेवाड़ी सैनिकों ने वहाँ खड़े प्रहरियों पर बाणों की बौछार कर दी।
कई भीलों की निद्रा भंग हुयी, किन्तु अधिकतम को उसी अवस्था में मार दिया गया। दो ने भागने का प्रयास किया किन्तु विष्यन्त दौड़ता हुआ उनके निकट गया तलवार के प्रहारों से उन दोनों का मस्तक काट गिराया। रक्त में नहाई तलवार लिए विष्यन्त एक सैनिक के निकट गया, “कितने शव गिरे?”
“कुल एक सौ साठ भील के आसपास दिख रहे हैं, महामहिम। सभी अपनी आखिरी श्वास गिन रहे हैं।”
विष्यन्त ने भी मृत्युशय्या पर लेटे उन तड़पते भीलों की ओर देखा, “हम्म, इतने शव पर्याप्त होंगे। ये भीलों की सबसे प्रमुख और शक्तिशाली सैन्य चौकी थी, और इनमें से एक भी जीवित नहीं बचा। किन्तु चीख पुकारें सुनकर हो सकता है वन में कोई छुपा हुआ भील बलेऊ तक पहुँच जाये। उससे पूर्व ही हमें अपने प्रमुख आखेट तक पहुँचना है। अगले चार कोस की यात्रा हमें छुपकर ही करनी है।
चालीस लोग मिलकर शीघ्र से शीघ्र इन शवों को यहाँ से हटाकर छुपाओ। नागदा की दो सहस्त्र की सेना शीघ्र ही यहाँ आती होगी। उन्हें मैंने बस यहाँ सशस्त्र खड़े रहने का आदेश दिया है, इन शवों पर उनकी दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए। शेष दो सौ योद्धा मेरे साथ चलो।”
भीलों के शव को कुचलते हुए विष्यन्त और उसका दल आगे बढ़ा। सारे के सारे चित्तौड़ी सैनिक घास और झाड़ियों में छुपते छुपाते भीलों के प्रमुख कबीले की ओर पहुँचे। वहाँ लगभग पचास भील प्रहरी शस्त्रों सहित घूम रहे थे। विष्यन्त के अगले संकेत पर एक साथ सैकड़ों तीर वायु में उड़े और उन प्रहरियों को घायल करने लगे।
अगले ही क्षण विष्यन्त ने तलवार निकालते हुए गर्जना की, “आक्रमण।” उसके एक संकेत पर दो सौ मेवाड़ी योद्धा पचास घायल भील प्रहरियों की ओर दौड़े और देखते ही देखते उन्हें एक-एक करके यमसदन पहुँचाते गये।
चीख पुकारें सुनकर अन्य भील भी बाहर आए और शस्त्र उठाकर मेवाड़ी सैनिकों से लोहा लेने लगे। किन्तु अकस्मात हुए आक्रमण में अधिकतम हानि भीलों को ही हो रही थी। मेवाड़ी सैनिकों ने कई शिविर अग्नि के सुपुर्द कर दिये।
दूर कुछ समय तक भीषण विध्वंस मचाने के उपरान्त विष्यन्त ने से देखा कि भीलराज बलेऊ भीलसेना की एक बड़ी टुकड़ी के साथ उसी ओर चले आ रहे थे। उन्हें निकट आता देख विष्यन्त ने पाँच मेवाड़ी सैनिकों को एकत्रित कर आदेश दिया, “भीलराज और भीलों की सम्पूर्ण सेना यहीं आ रही है। अपने प्रमुख आखेट की ओर जाओ। अलग-अलग होकर छुपते छुपाते हुए जाना, किसी की दृष्टि तुम पर पड़नी नहीं चाहिए।”
उन पाँचों को आदेश देकर विष्यन्त वापस अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ मोर्चे पर आया और भीलों पर आक्रमण करने लगा। दूर से ही विष्यन्त को भीलों पर प्रहार करता देख भीलराज बलेऊ अचम्भित रह गया, “ये कैसे सम्भव है?”
कुछ क्षण को तो भीलराज को अपने नेत्रों पर विश्वास ही नहीं हुआ, वो स्थिर खड़े अपने समुदाय के लोगों को कटता हुआ देखते रहे। अकस्मात ही एक भील ने उनका कंधा झटकारते हुए कहा, “सेना को आदेश दीजिए, भीलराज। हमारे भाईयों का संहार हो रहा है।”
“विश्वास नहीं होता, धीरा।” बलेऊ अब भी शंका में था, “जिस विष्यन्त पर जीवनभर विश्वास किया उसी ने हमारी पीठ में कटार घोंपी।” अपने नेत्रों की नमी पोछते हुए भीलराज ने घूरकर विष्यन्त की ओर देखा, “ये विष्यन्त मुझे जीवित चाहिए।” गर्जना करते हुए भीलराज दो सहस्त्र भीलों को साथ लेकर विष्यन्त की ओर दौड़ पड़े।
भीलों की विशाल टुकड़ी को अपने निकट आता देख एक मेवाड़ी सैनिक दौड़ता हुआ विष्यन्त की ओर आया, “उनकी संख्या बहुत अधिक है, महामहिम। हमें यहाँ से निकलना होगा।”
विष्यन्त ने मुस्कुराते हुए अपने उस सैनिक की ओर देखा, “हमें युद्ध करते रहना है, अपना मोर्चा संभालो।”
भीलराज और उसकी टुकड़ी के आक्रमण करते ही दो सौ मेवाड़ी सैनिकों की शक्ति क्षीण होने लगी। एक-एक करके मेवाड़ के सैनिक धाराशायी होने लगे। शीघ्र ही भाला लिये दसियों भीलों ने विष्यन्त को घेर लिया। बिना कोई अधिक प्रतिरोध दिखाए उसने अपने शस्त्र डाल दिये और हाथ ऊपर कर घुटनों के बल झुक गया।
कुपित हुए भीलराज विष्यन्त के निकट आए और तलवार उसकी गर्दन पर टिकायी, “क्या लगा था विष्यन्त, इन मुट्ठीभर सैनिकों को लेकर आओगे और भीलों का नाश कर दोगे ?”
“तुम्हारी कन्दरा के निकट वाली चौकी पर सहस्त्रों की टुकड़ी भीलों के विनाश को तत्पर खड़ी है, बलेऊ। यदि चाहता तो उन्हें लाकर भीलों का अस्तित्व मिटा सकता था। किन्तु मैं आज भी हमारी मित्रता भूला नहीं हूँ।”
विष्यन्त के निराशाजनक स्वर सुन बलेऊ भी सोच में पड़ गया। उसने निकट पड़े भीलों के शवों की ओर संकेत करते हुए कहा, “ये किस प्रकार की मित्रता है?”
“केवल एक रणनीति थी, जिससे मेरा भी परिवार सुरक्षित रहे और तुम्हारा भी। मैं विवश था, बलेऊ।” बलेऊ कुछ क्षण उसी की ओर देखता रहा, फिर उसने अपने साथ खड़े भील धीरा को आदेश दिया, “जाओ, देखकर आओ कन्दरा के निकट कितनी सेना खड़ी है।”
झाड़ियों से छोटे मार्गों पर दौड़ता हुआ धीरा कुछ ही समय में भीलों की कन्दरा वाली चौकी के निकट पहुँचा। कन्दरा के पास नागदा के सहस्त्रों योद्धा सशस्त्र खड़े बस आदेश की ही प्रतीक्षा में थे।
दौड़ता हुआ धीरा शीघ्र ही भीलों के मुख्य कबीले तक पहुँचा जहाँ बेड़ियों में जकड़ा विष्यन्त भीलराज के चरणों में पड़ा था। धीरा ने वहाँ आकर सूचित किया, “दो सहस्त्र से भी अधिक का सैन्य दल कन्दरा के निकट खड़ा है, भीलराज। कदाचित उन्हें सेनानायक विष्यन्त के आदेश की ही प्रतीक्षा है।”
ये सुनकर बलेऊ भी सोच में पड़ गया। उसने विष्यन्त के बाल पकड़ उसे ऊपर उठाया, “तुम कहते हो तुम भीलों की हत्या करने को विवश थे। कारण जान सकता हूँ?”
“क्योंकि मेरा परिवार महाराज नागादित्य के साथ अमरनाथ की यात्रा पर गया है। और उन्होंने ही मुझे ये आदेश दिया है कि भीलों का भारी मात्रा में संहार करके उन्हें नागदा से खदेड़ दिया जाये, अन्यथा उनके साथ गया मेरा परिवार जीवित नहीं लौटेगा।”
भीलराज ने क्षणभर के लिये विष्यन्त को आश्चर्यभाव से देखा, फिर तलवार उसकी गर्दन के और निकट लायी, “तुम मुझे मूर्ख समझते हो, जो तुम कुछ भी अनर्गल प्रलाप करोगे और मैं विश्वास कर लूँगा, हम्म ? महाराज नागादित्य, जिसने वर्षों में प्रथम बार नागदा को स्वतंत्रता का पुरस्कार दिया है, वो भीलों की हत्या करवायेंगे? वो राजा जिसने समस्त नागदा की प्रजा को एकता के सूत्र में बाँधा, उन्हें आशा की नई किरण दिखाई। वो महान राजा अकारण हम भीलों को खदेड़ने का आदेश क्यों देगा?”
“क्योंकि मेवाड़ नरेश मानमोरी से सम्बन्ध विच्छेद के उपरान्त नागदा के चित्तौड़ और मेवाड़ के अन्य नगरों से सारे व्यापारिक सम्बन्ध तोड़ दिये गये हैं। आने वाले कुछ महीनों में नागदा में अन्न की भयंकर कमी पड़ने वाली है, आर्थिक स्थिति चरमराने को है। नागदा इतनी जनसंख्या का भार नहीं झेल सकता। इसलिए महाराज नागादित्य ने भीलों का संहार करने का निर्णय लिया। नागादित्य स्वयं अपनी छवि कलंकित नहीं करना चाहते थे, इसीलिए वो इस समय तीर्थ यात्रा पर चले गये ताकि ये दुष्कृत्य मुझसे करवा सकें। मेरा परिवार उनके साथ है, यदि मैंने आप भीलों पर आक्रमण न किया होता तो कदाचित मेरी पत्नी और बच्चे जीवित नहीं लौटते।”
विष्यन्त की बात सुन बलेऊ सोच में पड़ गया। साथ खड़े धीरा नाम के भील ने सुझाव दिया, “मुझे सेनानायक के शब्दों में सत्य की झलक दिखाई दे रही है, महामहिम। ये चाहते तो पूरी दो सहस्त्र की सेना लाकर निद्रा में ही हम भीलों का नाश कर सकते थे।”
“किन्तु मैं केवल दो सौ योद्धाओं की टुकड़ी लेकर यहाँ आया, ताकि ये प्रदर्शित हो सके कि मैंने प्रयास किया। बस यही आशा थी कि कदाचित मेरा ये प्रयास देखकर महाराज नागादित्य मेरे परिवार को जीवित छोड़ दें।” कहते हुए विष्यन्त का गला भर आया।
बलेऊ का मन अब भी मानने को तैयार नहीं था। उसने विष्यन्त का गला पकड़ उसे अपने निकट खींचा और उसके नेत्रों में देखते हुए कहा, “यदि तुम्हारी कही एक भी बात असत्य निकली, तो मैं तुम्हें जीवित नहीं..।”
विष्यन्त ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “मुझे मृत्यु का भय न दिखाओ, बलेऊ। मैं तो यहाँ ये मानकर आया था कि मेरे प्राण जाने निश्चित हैं। इसीलिए मैं केवल दो सौ योद्धाओं के साथ आया, जिससे विजय की कोई संभावना ना हो। कदाचित तुमने मुझे अब तक पुरानी मित्रता के नाते जीवित रखा है। किन्तु मुझे अपने परिवार को बचाना था, इसलिए कुछ भीलों के प्राण लेना आवश्यक था ताकि महाराज नागादित्य को मेरा किया प्रयास दिखे और वो मेरे परिवार को प्राणदण्ड न दें। किन्तु वर्षों तक जिन भीलों का रक्षण किया, उनका सर्वनाश तो नहीं होने दे सकता था।”
बलेऊ ने विष्यन्त का मस्तक पकड़ उसके नेत्रों में देख उसे झकझोरने का प्रयास किया। किन्तु उसके नेत्रों में छाई दृढ़ता देख बलेऊ उसे धकेलते हुए पीछे हट गया और निकट पड़े शवों की ओर देखा, “तुमने बहुत से निर्दोषों के प्राण लिए हैं, विष्यन्त।”
तो “यदि ऐसा कोई संकट तुम्हारे परिवार पर आता, क्या तुम मौन रह जाते, भीलराज ? अपने प्राण देकर भी तुम उनका रक्षण करते। चाहें सामने कोई भी आता, तुम उसका प्रतिकार अवश्य करते। वही मैंने किया।” श्वास भरते हुए विष्यन्त ने कहा, “तुमने सदैव नेत्र बंद करके उस गुहिलवंशी पर विश्वास किया, किन्तु वर्षों पुराने अपने उस मित्र को भूल गए, जिसने तुम्हारे लोगों पर होते अत्याचार के विरुद्ध सर्वप्रथम स्वर उठाया था।”
बलेऊ बिना कोई उत्तर दिये कुछ क्षण मौन खड़ा रहा। नेत्र अश्रुओं से भर गए, मानों इससे बड़ा विश्वासघात उसने संपूर्ण जीवन में ना झेला हो, “अब भी विश्वास नहीं होता।”
विष्यन्त मन ही मन झल्ला उठा, किन्तु फिर संयम धारण कर बोला, “तो फिर मेरा मस्तक काटकर मुझे भी मेरे पापों के भार से मुक्त करो, बलेऊ। बहुत रक्त बहाया मैंने, तो मुझे दण्ड तो मिलना ही चाहिए।”
बलेऊ पलटकर उसके निकट आया और तलवार के एक ही वार से विष्यन्त की बेड़ियाँ काट दीं, “तुमने जो किया सो किया। किन्तु अब तुम्हारे किये दुष्कर्म का उत्तर महाराज नागादित्य को देना होगा।”
अपनी योजना को मिट्टी में मिलता देख क्षणभर को विष्यन्त विचलित हुआ, किन्तु उसने शीघ्र ही स्वयं को संभाल भी लिया और चेतावनी देते हुए कहा, “तुम भूल रहे हो बलेऊ, तुम्हारी कन्दरा वाली चौकी के पास दो सहस्त्र से भी अधिक की सैन्य टुकड़ी भीलों के विनाश को तत्पर खड़ी है। और कल प्रातः काल ही महाराज नागादित्य यहाँ पधारेंगे, तुम्हें वास्तव में लगता है इतना सबकुछ होने के उपरान्त नागदा नरेश तुमसे वार्ता करेंगे? यदि ऐसा संकट उठाया तो कल के कल भीलों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा।”
“तो तुम चाहते क्या हो?”
“वही जो वर्षों पूर्व करना चाहिए था। कल वो नागादित्य जैसे ही नागदा में प्रवेश करेगा, हम उसके कारवां पर आक्रमण कर देंगे। यदि पराजित हो गए, तो वीरगति पायेंगे। यदि विजयी हुए तो हमारा परिवार सुरक्षित हो जायेगा।”
“नहीं।” विष्यन्त का प्रस्ताव सुन बलेऊ विचलित हो उठा, “वर्षों तक मित्रता निभाई है महाराज नागादित्य ने, उन्हें अपना पक्ष समझाने का अवसर दिये बिना मैं ऐसा कोई निर्णय नहीं लूँगा।”
विष्यन्त ने दाँत पीसते हुए अपने क्रोध को नियंत्रित कर बलेऊ को समझाने का प्रयास किया, “देखो, मैं तुम्हारा आभारी हूँ कि इतना सबकुछ होने के उपरान्त भी तुमने मुझे प्राणदान दिया। किन्तु निर्णय लेना आवश्यक है भीलराज। यदि ऐसा नहीं किया, तो कदाचित तुम और तुम्हारे भील बचकर भाग जायें, किन्तु मेरे समस्त परिवार का अंत निश्चित है।”
“तुम मुझे भलीभाँति जानते हों, विष्यन्त। बलेऊ मित्रता के लिए अपना मस्तक भी कटा सकता है, और इसी मित्रता के कारण ही मैंने अब तक तुम्हें जीवित रखा, ताकि तुम्हारा पक्ष सुन सकूँ। महाराज नागादित्य को भी उस मित्रता के विश्वास पर मैं एक अवसर अवश्य दूँगा।”
“और उन दो सहस्त्र सैनिकों का क्या, जो चार कोस दूर तुम पर आक्रमण करने को तैयार खड़े हैं?”
“उनमें से एक भी जीवित बचकर नहीं जाएगा।” बलेऊ ने भौहें सिकोड़ते हुए गर्जना की, “इस वन को हमसे अच्छा और कोई नहीं जानता। पहले भी मुट्ठीभर भीलों ने सहस्त्रों शत्रुओं को निगला है। आज भी हम वही करेंगे।” कहते हुए वो भीलों की ओर मुड़ा, “उन दो सहस्त्र सैनिकों में से कोई जीवित नहीं बचना चाहिए। कल प्रातः काल महाराज नागादित्य नागदा लौटकर आ रहे हैं। स्मरण रहे भीलों, राजकुमार कालभोज, महारानी मृणालिनी, देवी तारा और सेनानायक विष्यन्त के परिवार को शस्त्रों से स्पर्श करने का साहस मत करना। हमारा उद्देश्य केवल महाराज नागादित्य को बंदी बनाना है।”
विष्यन्त ने ताली बजाकर कटाक्ष करते हुए कहा, “अद्भुत बलेऊ, अद्भुत। तुम्हें लगता है तुम गुहिलवंशी नागादित्य के कारवां पर आक्रमण करके उन्हें यूँ ही बंदी बना लोगे? नागादित्य यदि जीवित बच गया तो नागदा की सेना हमें नहीं छोड़ेगी। वो कोई साधारण योद्धा नहीं है, हर परिस्थितियों से जुड़ी रणनीतियाँ बनाकर रखता है। क्या तुम्हें समझ नहीं आता कि यदि हम असफल हुए तो..”
“निर्णय हो गया, सेनानायक विष्यन्त।” बलेऊ ने गरजते हुए कहा, “नागादित्य शीघ्र ही हमारा बंदी होगा।” मुस्कुराकर विष्यन्त ने कटाक्ष करते हुए कहा, “हाँ, तुम्हारे लिए ये सब कहना बहुत सरल है। तुम्हारे अपने परिवार के प्राण जो दांव पर नहीं लगे।”
उस एक कटाक्ष ने क्षणभर के लिए भीलराज को मौन कर दिया। तभी दौड़ता हुआ एक भील बलेऊ के निकट आया, “भीलराज, आपका परिवार..।”
उसे घबराया हुआ देख बलेऊ विचलित हो उठा, “तुम..तुम कहना क्या चाहते हो?”
उस भील ने बिना कुछ कहे आँखों में अश्रु लिए कबीले के पिछले भाग की ओर संकेत किया। विष्यन्त मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ, उसकी योजना का एक और चरण सफल जो हो चुका था। वहीं उस भील के मुख पर छाया भय देख बलेऊ अपने कबीले की ओर दौड़ा। विष्यन्त, धीरा और अन्य भील भी उसके पीछे दौड़ गये।
शीघ्र ही वो सभी मिट्टी के बने एक झोंपड़े के निकट पहुँचे। लगभग तीन मेवाड़ी सैनिकों और चार भीलों का शव भिन्न-भिन्न स्थानों पर क्षत विक्षत हुआ पड़ा था। मुख पर निराशा का भाव लिए चार भील योद्धा झोंपड़े के द्वार पर खड़े थे। उनमें से एक भील दो वर्षीय देवा को अपनी गोद में उठाये हुए था, और रोते हुए उस बालक को शांत कराने का प्रयास कर रहा था। नाना प्रकार की आशंका लिये भीलराज का हृदय स्थिर सा हो गया, झोंपड़े की ओर हर एक पग बढ़ाते हुए उनके हृदय में कंपन सी होने लगी। किसी प्रकार साहस करके उसने अंदर प्रवेश किया तो दो और मेवाड़ी सैनिकों की मृत देह को पाया।
अगले ही क्षण भीलराज की दृष्टि झोपड़े में रखी शय्या की ओर पड़ी। श्वेत चादर से दो शरीर ढके हुए थे और शय्या के नीचे अब भी रक्त टपक रहा था। मन में अनगिनत अनिष्ट की संभावनाओं का भय लिए बलेऊ ने किसी प्रकार साहस जुटाकर आगे बढ़ने का निश्चय किया। किन्तु इससे पूर्व वो चादरें हटाता, प्रकृति के एक झोंके ने स्वयं आकर उन चादरों को हटाकर उन शरीरों की पहचान बता दी, जिन्हें देख भीलराज बलेऊ अपने घुटनों के बल आ झुका। भीलराज की पत्नी और प्रिय पुत्री रसिका के वो शव देख विष्यन्त तो मन ही मन मुस्कुरा रहा था, किन्तु अपने प्रियजनों के धड़ से अलग हुए मस्तकों को देख बलेऊ स्तब्ध बैठा स्थिर सा हो गया।
कक्ष में खड़े भील धीरा ने वहाँ खड़े एक भील से प्रश्न किया, “कैसे हुआ ये सब ?”
“अलग-अलग स्थानों से छुपते छुपाते पाँच मेवाड़ी सैनिक आए और भीलराज के कक्ष में घुसने का प्रयास किया। कुछ को हमने मार गिराया, किन्तु कुछ भीलराज के घर में प्रवेश करने में सफल हो गये।”
“हाँ, कदाचित उनका उद्देश्य सीधा भीलराज की हत्या ही थी।” विष्यन्त ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “किन्तु कदाचित नीचे लड़ाई के मैदान में आने के कारण इनके प्राण बच गये।”
“और इन्हें आदेश किसने दिया।” कुपित हुए धीरा ने विष्यन्त से प्रश्न किया, “इन्हें दिशा निर्देश तो आप ही दे रहे थे न, सेनानायक विष्यन्त?”
“ये सारे सैनिक नागदा के हैं, धीरा। मैं ना भी बताऊँ तो भी महाराज नागादित्य से भीलराज की घनिष्ठ मित्रता के कारण उन्हें भीलों के समस्त स्थलों का ज्ञान है। और इस नरसंहार का आदेश महाराज नागादित्य का है, मैं बस एक..एक चेहरा हूँ जो इसका समर्थन करने के लिए विवश था।”
विष्यन्त का तर्क सुन खीजते हुए धीरा बलेऊ के निकट गया। भीलों का वो सरदार किसी निर्बल भिक्षुक की भाँति अपने परिवार की दशा देख स्थिर बैठा था। बोलने तक की स्थिति में नहीं था वो। कदाचित नेत्रों से रुके हुए अश्रुओं ने उन क्षणों में बलेऊ के मस्तिष्क को मृत सा कर दिया था।
धीरा ने नीचे बैठकर बलेऊ को समझाने का प्रयास किया, “धीरज रखिए, महामहिम। ये समय दुर्बल पड़ने का नहीं है।”
किन्तु बलेऊ ने कोई उत्तर नहीं दिया। बस स्थिर बैठा रहा। धीरा ने अपने राजा की धमनियाँ और मस्तक स्पर्श किया और विष्यन्त के पास आया, “भीलराज का मस्तक ज्वर से तप रहा है। हमें कल की योजना स्थगित करनी होगी।”
विष्यन्त ने खीजते हुए कहा, “इतना सबकुछ होने के उपरान्त भी तुम उस एक अवसर को भी छोड़ देना चाहते हो जो उस अपराधी को दण्ड देने का माध्यम बन सकता है?”
“किन्तु भीलराज का स्वास्थ ठीक नहीं है, ऐसे में ये इस अभियान पर नहीं जा सकते।”
विष्यन्त ने कुछ क्षण बलेऊ की ओर देखा और मन ही मन मुस्कुराया, “कदाचित यही उनके लिए उचित भी होगा। क्योंकि मुझे भय है कि इतना सबकुछ होने के उपरान्त भी कहीं ऐसा ना हो वो नागादित्य को बंदी बनाने का ही प्रयास करें। उस गुहिलवंशी का जीवित रहना हम सभी के लिए संकटकारी हो सकता है।”
“तो आप ये चाहते हैं कि हम..।” विष्यन्त ने धीरा का कंधा पकड़ उसके नेत्रों में देखा, “तुम्हें मुझपर विश्वास है, धीरा ?”
धीरा ने सहमति में सिर हिलाया, “आपने तो जीवनपर्यंत हम भीलों का कल्याण ही चाहा है। आप पर विश्वास ना करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।”
“तो फिर मैं जो कह रहा हूँ, वो ध्यान से सुनो। कल प्रातः काल हम नागादित्य और उसके रक्षकों के अतिरिक्त और किसी की हत्या नहीं करेंगे। किन्तु इस समय सर्वप्रथम हमें उन दो सहस्त्र सैनिकों को यमसदन पहुँचाना होगा जो कन्दरा वाली चौकी के निकट खड़े बस एक आदेश की प्रतीक्षा में हैं। इससे पहले उनका संयम समाप्त हो और वो स्वयं ही आक्रमण करने आ जायें, हमें उन पर आक्रमण कर देना चाहिए।”
विष्यन्त का सुझाव सुन धीरा ने अब तक स्थिर बैठे भीलराज की ओर देखा, “ऐसा प्रतीत होता है कि भीलराज कुछ भी सोचने समझने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में तो मुझे आपका निर्णय ही सर्वोत्तम प्रतीत होता है।”
“तो फिर अपनी सर्वशक्तिशाली और तेज तर्रार टुकड़ी लेकर मेरे साथ कन्दरा के निकट चलो।” विष्यन्त कक्ष से बाहर निकला।
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सूर्य के उदय होते होते कन्दरा के निकट स्थापित भील चौकी सहस्त्रों नागदा के सैनिकों के शवों से पट गयी। सहस्त्रों भीलों के साथ विष्यन्त क्षत विक्षत शवों को कुचलकर माथे से रक्त सना स्वेद पोछता हुआ आगे बढ़ा और मटके में रखा जल उठाकर अपने माथे पर डाला। अपने बालों को झटकारता हुआ वो धीरा के निकट आया और उसे मटका पकड़ाते हुए कहा, “अपने गले तर कर लो। उस गुहिलवंशी को गिराना सरल नहीं होने वाला।”
“अवश्य।” धीरा ने भी मटके में भरा जल पीया और अपने साथी भीलों को भी ये करने का संकेत दिया।
तत्पश्चात विष्यन्त ने भूमि पर रक्तरंजित हुई लाल मिट्टी को अपने मुख और शरीर पर मलना आरम्भ किया, फिर मुख को एक काले वस्त्र से ढकते हुए भीलों को निर्देश दिया, “स्मरण रहे, यदि उस नागादित्य ने हमें पहचान लिया कि हम भील हैं, तो वो हमें बहकाने का प्रयास कर सकता है। इसलिए जब तक वो दुष्ट गुहिलवंशी भूमि पर नहीं गिरता, हम अपनी पहचान छुपाकर रखेंगे।”
“जो आज्ञा, सेनानायक।” धीरा ने भी भूमि पर गिरी लाल मिट्टी अपने मुख और शरीर पर लगाई जिसका अनुसरण करते हुए शेष भील सैनिक भी वही करने लगे।
“तुम्हारी स्थिरता और ज्वर ने मेरा कार्य बहुत सरल कर दिया, बलेऊ।” मन ही मन ये विचार लिए विष्यन्त ने निकट पड़े शवों की ओर देख कंधे उचकाये, “प्रवेश सीमा और उसके आगे के समस्त रक्षक तो यहीं मारे गये। अब नागादित्य के पास केवल उसका सुरक्षा दल होगा।” धीरे धीरे सशस्त्र भील सैन्य दलों को साथ लेकर, झाड़ियों से होता हुआ विष्यन्त आगे बढ़ चला।
इधर नागादित्य के कारवां ने नागदा की सीमा में प्रवेश किया। अग्रिम रथ पर स्वयं महाराज नागादित्य अपनी पत्नी रानी मृणालिनी के साथ चल रहे थे। दूसरे रथ पर कालभोज को साथ लिए देवी तारा सवार थीं। वहीं तीसरे रथ पर विष्यन्त की पत्नी और उसके दो पुत्र थे जिनकी आयु लगभग दस और सात वर्ष की प्रतीत हो रही थी। उन रथों के पीछे सुरक्षा के लिये लगभग सौ अश्वारोही और सौ पैदल सैनिक भी साथ चल रहे थे।
नगरद्वार के भीतर प्रवेश कर नागादित्य आश्चर्य में पड़ गये, “ये सीमा के समस्त रक्षक कहाँ गये ?” उन्होंने हाथ उठाकर रथ को रुकने का संकेत दिया। फिर उन्होंने रथ से उतरकर चहुं ओर दृष्टि घुमाई, “कुछ अनिष्ट के संकेत मिल रहे हैं।” वो कुछ आगे बढ़े तो भी किसी मनुष्य का चिन्ह मात्र भी नहीं दिखा।
आगे का मार्ग घने वृक्षों से ढका हुआ था। सुरक्षा को सुनिश्चित किये बिना, आगे बढ़ना उचित भी प्रतीत नहीं हो रहा था।
“दस पैदल सैनिक मेरे साथ चलो।” नागादित्य ने म्यान से तलवार निकाली और दबे पाँव आगे बढ़े।
वनों में प्रवेश कर उन्होंने कुछ पग आगे बढ़ संभावित संकट को भाँपने का प्रयास किया। अकस्मात ही वृक्ष के पत्तों की अप्राकृतिक सरसराहट के स्वर ने उनके कान खड़े कर दिये। उन्होंने अपने साथ आए सैनिकों को नेत्रों से ही संकेत किया कि वो चहुं ओर दृष्टि बनाए रखें। तत्पश्चात नागादित्य ने एक कटार निकाली और निकट के एक वृक्ष की डाली की ओर लक्ष्य साधा। डाली कटी और उस वृक्ष पर बैठा एक मनुष्य असंतुलित होकर भूमि पर गिर पड़ा।
मुख को काले वस्त्रों से ढके और सम्पूर्ण शरीर को लाल मिट्टी से रंगे उस मनुष्य को देख नागादित्य आश्चर्य में पड़ गये, “ये किस प्रकार का भेष है?” नागादित्य उसकी ओर बढ़े, तभी एक-दूसरे वृक्ष से सूँ करता हुआ एक तीर सीधा नागादित्य की छाती की ओर बढ़ा। उस संकट को भांप अगले ही क्षण नागदा नरेश ने तलवार के प्रहार से उस तीर के दो टुकड़े कर दिये। अगले ही क्षण वृक्षों से बाणों की मानों वर्षा सी हो गयी और नागादित्य के साथ आए दस सैनिकों को बींध डाला। यह देख नागादित्य ने तलवार छोड़ी और अपने सैनिकों के हाथ से गिरी दो लम्बी ढालें उठाकर उन बाणों की वर्षा से अपना रक्षण करते हुए पीछे हटने लगे। किन्तु शीघ्र ही उन्हें आभास हुआ कि कुछ शस्त्रधारी धीरे-धीरे उन्हें घेर रहे हैं। पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि लालमुख धारी सहस्त्रों योद्धा उनके परिवार की सुरक्षा करते रक्षक दलों की ओर बढ़ रहे हैं। कुपित हुए नागादित्य ने ढालों के प्रयोग से स्वयं को शत्रु के प्रहारों से बचाया, और सामने पड़े दो लाल योद्धाओं के मस्तक पर ढालों का वार कर घेरा तोड़कर निकले और पलटते हुए बारी-बारी से दोनों ढालों को चक्र की भाँति घुमाकर फेंका। घूमती हुयी उन ढालों ने दसियों योद्धाओं को चोट कर उन्हें भूशायी किया, और इस अवसर का लाभ उठाकर नागादित्य दौड़ते हुए अपने कारवां की ओर गये।
रक्षक सैनिक पहले तो संशय में दिख रहे थे कि वो लाल योद्धाओं पर प्रहार करें या नहीं, किन्तु जैसे ही नागादित्य ने दौड़ते हुए कटार निकालकर सीधा एक लाल योद्धा के कण्ठ पर चलाकर उसे धरती पर गिराया, लगभग सौ अश्वारोही और एक सौ नब्बे पैदल सैनिकों के मन की समस्त शंका मिट गयी।
“घेराबंदी।” नागादित्य के उस एक आदेश पर बरछी और लम्बी लम्बी ढाले लिए दस दस पैदल सैनिकों ने रानी मृणालिनी, देवी तारा और विष्यन्त के परिवार के रथों को घेर लिया। कुपित हुई मृणालिनी ने रथ से धनुष निकाल स्वयं को घेरे सैनिकों को आदेश दिया, “जाकर महाराज का युद्ध में समर्थन करो। मेरे शस्त्रों की धार मंद नहीं पड़ी।” कहते हुए मृणालिनी ने धनुष पर दो बाण एक साथ चढ़ाए और दो लाल योद्धाओं के कण्ठ भेद डाले।
नागादित्य छलांग लगाकर अश्व पर चढ़े और सौ अश्वारोहियों को लेकर लालयोद्धाओं के भेष में आये भीलों पर टूट पड़े। एक प्रहर के चौथाई भाग में ही लगभग सात सौ लाल योद्धाओं के शव बिछ गये, किन्तु नागादित्य के भी पचास आश्वारोही और लगभग सत्तर पैदल सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये।
लाल योद्धाओं की संख्या कम नहीं हुयी, वो अब भी सहस्त्रों की मात्रा में ऊँचे-ऊँचे टीलों से कूदकर आ रहे थे। नगर जाकर अतिरिक्त सैन्य सहायता लेने का मार्ग भी अवरुद्ध था। नागादित्य को पराजय स्पष्ट दिखने लगी। अपना अश्व दौड़ाते हुए वो मृणालिनी के निकट पहुँचे, “आप, देवी तारा, कालभोज, और सेनानायक विष्यन्त के परिवार को लेकर यहाँ से जाईए, महारानी। हम इस मोर्चे पर विजयी नहीं हो सकते। किन्तु आप सबकी सुरक्षा सुनिश्चित होने के उपरान्त ही हम पीछे हट सकते हैं। आप अपना रथ दक्षिण में स्थित महादेव के मन्दिर के पास ही छोड़ दीजिएगा। वहाँ से उत्तर में दो कोस की दूरी पर जो तीन बर्गद के वृक्ष हैं, हम आपसे वहीं मिलेंगे।”
मृणालिनी ने बिना कोई और प्रश्न किये उसे सेनानायक का आदेश समझा और तीनों रथों के साथ पीछे हटने लगीं। नागादित्य और उनकी मुट्ठीभर सेना वज्र के समान उन तीनों का कवच बनकर उन्हें नगर के बाहर जाते हुए सुरक्षा देने लगी। वहीं लाल योद्धाओं के तीर और भाले नागदा के उन वीरों को घायल करते रहे।
शवों से धरा पटने लगी, और इन बलिदानों की सहायता से ही मृणालिनी तीन रथ और दस पैदल सैनिकों के साथ नगर द्वार से दूर चली गईं। किन्तु उनके जाने तक नागदा के केवल पचास योद्धा ही शेष बचे थे, किन्तु तब तक लाल योद्धाओं के भेष में छिपे भीलों के भी एक सहस्त्र से अधिक शव गिरा चुके थे। युद्ध जारी रहा।
तभी अकस्मात ही सूँ करते हुए दो बाण नागादित्य के कंधे और छाती में आ लगे। नागादित्य दो क्षणों के लिए भूमि पर घुटनों के बल झुक गये।
अपने राजा को घायल देख दौड़ता हुआ नागदा का एक वीर रक्षक उनके निकट आया, “आप जाईए महाराज। यदि आपको कुछ हो गया, तो हम समस्त रक्षकों का बलिदान व्यर्थ हो जायेगा। नागदा में वर्षों उपरान्त आपने आशा के सूर्य का उदय किया है, हमारे बलिदानों को व्यर्थ ना कीजिए। जाकर अपने वंशजों की रक्षा कीजिए।”
श्वास भरते हुए महाराज नागादित्य पुनः उठे, “हम अकेले यहाँ से नहीं जायेंगे, सामंत तक पूरा दल हमारे साथ जाएगा।
“समझने का प्रयास कीजिए महाराज, यदि हम इन लाल योद्धाओं को पार करके नागदा के भीतर नहीं गये, तो सम्भव है कि हमारे राज्य पर इन आंतकियों का अधिकार हो जाए।”
“उसकी चिंता मत करो। एक बार हम अपने गंतव्य तक पहुँच गये, तो वहाँ से भीलों की बस्ती दूर नहीं। हमें वहाँ से सहायता प्राप्त होगी।”
“हम सब यहाँ से साथ नहीं जा सकते, महाराज। मैं यहाँ से सैनिकों की सुरक्षा की सहायता से नागदा के महल पहुँच जाऊँगा और वहाँ की सेना को यहाँ की घटना की सूचना देकर शीघ्र ही सहायता प्राप्त कर लूँगा। किन्तु इस प्रयास में मेरे प्राण भी जा सकते हैं। किन्तु यदि आपको कुछ हो गया तो लाखों मनुष्य अनाथ हो जायेंगे, महाराज। वास्तविकता को समझिए, यदि हम सबने यहाँ से जाने का प्रयास किया तो इतने लोग इन आतंकियों की दृष्टि से छुप नहीं पायेंगे, आपके भी प्राण संकट में पड़ सकते हैं।”
नागदा नरेश ने अपनी लगातार गिराते हुए योद्धाओं की ओर देखा। उनके मुख पर छाई विवशता देख सामंतक ने उन्हें चेतावनी भरे स्वर में कहा, “यदि आप यहाँ से नहीं गये, तो मैं भी नगर के भीतर नहीं जा पाऊँगा। सब यहीं के यहीं वीरगति को प्राप्त हो जायेंगे, और नागदा का सूर्य पुनः अस्त हो जायेगा, महाराज। मेरी विनती सुनिए और शीघ्र ही यहाँ से निकल जाईये। मुझे विश्वास है आप अपने चातुर्य का प्रयोग कर इन आतंकियों को अवश्य भटका देंगे।”
नागादित्य ने अपनी भावनाओं को नियंत्रित किया और दौड़ते हुए एक अश्व पर आरूढ़ हो गये, “शीघ्र जाओ, सामंतक।” अपना अश्व मोड़ नागादित्य नगर द्वार के बाहर की ओर चल पड़े।
“पीछा करो।” विष्यन्त और धीरा एक टुकड़ी लेकर नागादित्य के पीछे दौड़ पड़े।
“मुझे मार्ग दो, योद्धाओं।” आदेश देकर नागदा का वो वीर सामंतक बाईं ओर दौड़ गया।
नागदा के शेष बचे चालीस योद्धाओं ने बरछी और ढालों से सामंतक को रक्षण कवच दिया और पूर्ण बल से लाल योद्धाओं के शस्त्र को अपनी ढालों और छाती पर रोकते हुए सामंतक को मार्ग देते हुए वनों की ओर बढ़ने लगे। अवसर पाकर शीघ्र ही सामंतक घने वनों में लुप्त हो गया।
अपने सम्पूर्ण साहस और बल का प्रयोग कर रहे नागदा के सैनिकों को जब ये दिखा कि वो अपने उद्देश्य में सफल हो चुके हैं, तो स्वयं पर से ढाल का आवरण हटाकर लाल योद्धाओं पर टूट पड़े। शीघ्र ही नागदा के शेष चालीस योद्धा भी अनेकों लाल योद्धाओं के रक्त से धरा को अलंकृत करने के उपरान्त, स्वयं अपने मस्तकों के समर्पण से नागदा की माटी को पवित्र कर गये।
इधर सैकड़ों की टुकड़ी लिये विष्यन्त और धीरा नागादित्य के पीछे दौड़े जा रहे थे। किन्तु अकस्मात ही नागदा नरेश उनकी दृष्टि से ओझल हो गये। विष्यन्त विचलित हो उठा, “कहाँ गया वो, ढूँढो उसे?”
अपने माथे से स्वेद पोछ धीरा ने विष्यन्त को सुझाव दिया, “हमारे एक सहस्त्र से भी अधिक भाई वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं, महामहिम। आज तक भीलों को इतनी क्षति कभी नहीं उठानी पड़ी। और महाराज नागादित्य के पास अब भी दस योद्धा शेष हैं।” उसके मुख पर भय स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
खीजते हुए विष्यन्त धीरा पर बरस पड़ा, “यदि हम अपना साहस खोकर पीछे हट गये और वो नागादित्य राजनगर में पहुँच गया, तो ना केवल मुझे अपने परिवार को खोना पड़ेगा, अपितु तुम भीलों का भी सर्वनाश कर दिया जायेगा। तो निर्णय ले लो, रक्त बहाकर अपनी जाति की रक्षा करनी है, या अभी भयभीत होकर अपने अस्तित्व को संकट में डालना है।”
कुछ क्षण विचार कर धीरा ने अपना साहस जुटाया और सहमति में सिर हिलाया। तत्पश्चात विष्यन्त ने कंधे उचकाये और अपने साथ आए सैकड़ों भीलों को आदेश दिया, “स्मरण रहे, जैसे ही नागादित्य दिखे। उसे तीरों से छलनी कर देना। जितने क्षण वो जीवित रहेगा, हमें उतनी ही हानि होगी।”
इधर महाराज नागादित्य अपने अश्व को दौड़ाते हुए एक निर्जन स्थल पर पहुँचे। सामने एक चट्टान को देख वो अश्व से उतरे और अपने हृदय के निकट धँसे तीर को निकालकर भूमि पर फेंका। तीर निकलते ही छाती से रक्त की धारा फूट पड़ी। गहरी श्वास भरते हुए उन्होंने कंधे पर लगा तीर भी निकाला और कुछ क्षण पत्थर पर मस्तक टिकाकर ही बैठ गये। किन्तु कुछ क्षणों के उपरान्त ही उन्हें आभास हुआ कि उनका परिवार अभी भी असुरक्षित हो सकता है। मन में विषम संभावनाओं का विचार लिए उन्होंने अपने अंगवस्त्र फाड़कर छाती पर बांधा और पुनः अश्व पर आरूढ़ होकर बढ़ चले।
इधर विष्यन्त और उसकी टोली नागादित्य को ढूंढते रहे, वहीं नागदा नरेश उन तीन बर्गद के वृक्षों के निकट पहुँचे जहाँ उनके और विष्यन्त के परिवार सहित दस सैनिक उनकी प्रतीक्षा में थे। नागादित्य को घायल देख रानी मृणालिनी विचलित होकर उनकी ओर दौड़ीं, और उनके अश्व से उतरते ही उन्हें थाम लिया। नागादित्य ने श्वास भरते हुए अपने पुत्र कालभोज की ओर देखा। तीन वर्ष का वो बालक दौड़ता हुआ अपने पिता से लिपट गया। विषम परिस्थितियों में कुछ क्षण के मिले परिवार के आलिंगन ने नागदा नरेश का साहस कई गुना बढ़ा दिया। उन्होंने कालभोज के मस्तक पर हाथ फेरा और क्षणभर श्वास भरने के उपरान्त कहा, “यहाँ हमारी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं है। किन्तु भीलों की बस्ती यहाँ से निकट ही है। चढ़ाई थोड़ी संकरीली है, किन्तु हम शीघ्रता से वहाँ पहुँच जायेंगे।”
कुछ पग आगे चलकर मृणालिनी ने प्रश्न किया, “किन्तु ये लाल रंग चढ़ाए योद्धा थे कौन, और यहाँ कहाँ से आ गए ?”
नागादित्य मुस्कुराये, “मुझे तो लगा था अब तक तुम्हें अनुमान हो गया होगा।”
“अर्थात आप कहना चाहते हैं कि उन्हें ज्येष्ठ भ्राता ने भेजा है?”
“अचम्भित होने की आवश्यकता नहीं है, मृणालिनी। तुम भलीभाँति जानती हो कि तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता मानमोरी परमारवंश पर कितना बड़ा कलंक है।” मृणालिनी मौन हो गयी, किन्तु मुख से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि मन में कहने को बहुत कुछ है।
“इस विषय पर हम ओर कभी विवाद कर लेंगे, महारानी मृणालिनी। हमें शीघ्र चलना होगा।” अपना स्वर कठोर कर महाराज नागादित्य आगे बढ़ गये।
इधर विष्यन्त और धीरा को भीलों की टोली लिये घूमते हुए दोपहर हो आयी। शीघ्र ही वो उस शिव मन्दिर के निकट पहुँचे जहाँ नागादित्य के कारवां ने तीनों रथ छोड़े थे।
“वो लोग निकट कहीं होंगे।” धीरा ने अनुमान लगाया।
वहीं विष्यन्त के मुख पर मुस्कान छा गयी, “निकट कहीं नहीं हैं वो, सीधा सिंह की माँद की ओर जा रहे हैं। बस प्रार्थना करो कि भीलराज कोई मूर्खता न करें।”
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अपने कारवां के साथ भीलों के कबीले में प्रवेश करते हुए नागादित्य को तनिक भी अनुमान नहीं था कि वो कितने बड़े संकट की ओर बढ़ रहे हैं। कबीले में दस सैनिकों को अपने और विष्यन्त के परिवार के साथ वहाँ प्रवेश करते ही वहाँ उपस्थित मुट्ठीभर भीलों ने अपने-अपने शस्त्र निकाल लिये। उनका ये व्यवहार देख नागादित्य को थोड़ा आश्चर्य हुआ। तभी उसकी दृष्टि दो चिताओं पर पड़ी, जो अपनी मुखाग्नि की प्रतीक्षा में थे। वहीं भीलराज बलेऊ उन चिताओं के ठीक निकट मौन बैठा था।
समस्त भीलों का स्वयं की ओर क्रोध भरी दृष्टि से देखना नागादित्य के लिय भी अपच हो रहा था, किसी भयानक अनिष्ट का संदेह लिये वो आगे बढ़े। आगे बढ़ते हुए भीलराज की पत्नी और पुत्री रसिका की मृत देह देख नागादित्य अचम्भित रह गये, “ये..ये कैसे, किसने..?”
अकस्मात ही उनकी दृष्टि ऊपर उठी, लाल रंग में नहाये काले वस्त्रों को धारण किये सहस्त्रों योद्धा सौ गज की दूरी पर खड़े नागादित्य को घूर रहे थे। मुट्ठियाँ भींचते हुए नागादित्य ने पीछे खड़े अपने नागदा के सैनिकों को निर्देश दिया, “स्त्रियों और बालकों को सुरक्षित निकट के झोंपड़े में ले जाओ।”
नागादित्य को भीलों के साथ सुरक्षित जान नागदा के सैनिक स्त्रियों और बालकों को लेकर कबीले में ले जाने लगे। भीलों ने बलेऊ के आदेश के लिए उसके संकेत की प्रतीक्षा की, किन्तु विष्यन्त और भीलराज दोनों की ओर से कोई संकेत ना मिलने पर उन्होंने नागदा के सैनिकों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं किया।
नागदा के सैनिक कबीलों की ओर चले गये, किन्तु रानी मृणालिनी अपना धनुष और बाणों से भरा तुरीर्ण संभाले वहीं खड़ी रहीं। उन्हें युद्ध को तत्पर देख नागादित्य ने भीलराज के कंधे पर हाथ रखा, “मेरे भी कई रक्षक आज इन लाल आतंकियों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये, बलेऊ। किन्तु ये समय शोक मनाने का नहीं है।” उन्होंने अपनी म्यान में रखी तलवार निकालकर बलेऊ के हाथ में दी, “हम मिलकर इन हत्यारों को यमसदन पहुँचायेंगे।” नेत्रों में धधकती ज्वाला लिये बलेऊ ने नागादित्य की ओर देखा, और उसके हाथों से तलवार ले ली। तत्पश्चात नागादित्य ने अपने कंधे उचकाते हुए उन लाल योद्धाओं की ओर देखा। अपने पीछे एकत्र होते मुट्ठीभर भीलों को देख उनका साहस और बढ़ा, किन्तु उन्हें ये कतई अनुमान नहीं था कि वो भील उनके समर्थन के लिए नहीं अपितु उनकी घेराबंदी कर रहे हैं। वहीं दूर खड़े विष्यन्त को ये भय सता रहा था कि कहीं भीलराज नागादित्य का वध करने के स्थान पर उसे बंदी न बना लें, ऐसे में उसका सत्य उजागर हो सकता था। किन्तु कदाचित बलेऊ के नेत्रों की धधकती अग्नि देख उसके मन को थोड़ी शांति मिली।
नागादित्य का दुर्भाग्य था कि बलेऊ के नेत्रों में जो क्रोधाग्नि उसने देखी थी वो उन लाल योद्धाओं के लिए नहीं थी, अपितु वो तो नागदा नरेश के लिये यमदेव का संदेश था जो अपने मन्तव्य का प्रत्यक्ष प्रमाण देने ही वाला था। अगले ही क्षण बलेऊ ने भूमि से उठकर अपनी तलवार सीधा नागादित्य की पीठ में घुसा दी। उदर को चीरकर बाहर निकलती उस तलवार ने केवल नागादित्य का रक्त ही नहीं बहाया अपितु मित्र पर किये एक अगाध विश्वास का गला भी घोंट दिया।
अपने पति पर हुआ अकस्मात प्रहार देख मृणालिनी भी अचम्भित रह गयी। स्तब्ध हुए नागादित्य ने पलटकर बलेऊ की ओर देखा, अपने परममित्र के नेत्रों में अपने लिए असीम, घृणा का भाव देख नागदा नरेश को अपने नेत्रों पर विश्वास ही नहीं हुआ।
वहीं विष्यन्त के हृदय को असीम शांति मिली, “जानता था बलेऊ, अपनों का बहा रक्त देख तुम्हारा मानसिक संतुलन अवश्य बिगड़ जायेगा।”
अपना धनुष हाथ में लिए मृणालिनी स्तब्ध खड़ी नागादित्य को घुटनों के बल बैठा देखती रही। बलेऊ ने तलवार वापस खींच निकाली, पीठ पर हुए उस गहरे घाव का प्रभाव रीढ़ से होते हुए नागादित्य के गले की नसों तक पहुँच गया। उनके मुख से फूटी रक्त की धारा भूमि को लाल कर गयी। मिट्टी को अपने रक्त में सना देख नागादित्य ने क्षणभर को अपने नेत्र मूँदे और उस विषम परिस्थिति में भी संयम धारण करने का प्रयास किया। उन्होंने मुड़कर बलेऊ की ओर देखा, तो उसके नेत्रों में स्वयं के प्रति घृणा का भाव देख उसका रहस्य समझ ही नहीं आया, “मुझसे ऐसी क्या भूल हो गयी, बलेऊ ?”
उस दयनीय अवस्था में नागादित्य के वो वेदना और आत्मीयता से भरे शब्द सुन बलेऊ के मस्तिष्क में जमी हुई स्थिरता की चट्टान अकस्मात ही टुकड़े-टुकड़े हो गयि। नागादित्य के नेत्रों में दिख रही निश्चलता को देख उस क्षण उसे ये आभास सा होने लगा कि कहीं उससे भारी भूल तो नहीं हो गयी। बलेऊ के मुख पर छाया क्रोध विलुप्त सा हो गया, वो विचलित होकर कुछ पग पीछे हटा।
नागादित्य ने भूमि से उठकर अपने शरीर को संभालने का प्रयास किया। मृणालिनी दौड़ती हुई नागादित्य के निकट आई और अपने अंगवस्त्र बांधकर नागदित्य के शरीर से बहते रक्त को रोकना चाहा। विष्यन्त और अन्य भील नागदा नरेश की ओर बढ़े किन्तु बलेऊ ने हाथ उठाकर उन्हें रुकने का संकेत दिया, “कोई नागदा नरेश के निकट नहीं आयेगा।”
बलेऊ ने अन्य भीलों को किनारे हटकर मार्ग देने का संकेत दिया। बलेऊ को घृणा भरी दृष्टि से देखते हुए मृणालिनी ने उसे चेतावनी दी, “तुम्हें इसका बहुत भारी मोल चुकाना होगा, भीलराज।”
बलेऊ ने उस चेतावनी का कोई उत्तर नहीं दिया। मृणालिनी नागादित्य को संभालते हुए वहाँ से ले गयी। कुपित हुआ विष्यन्त दौड़कर बलेऊ के निकट आया, “तुम्हारी बुद्धि मलीन हो गयी है क्या, बलेऊ ? जीवित क्यों जाने दिया उस अधर्मी को?”
इस पर बलेऊ विष्यन्त पर बरस पड़ा, “मैंने महाराज नागादित्य के नेत्रों में सत्यता की झलक देखी है, सेनानायक विष्यन्त। सम्पूर्ण सत्य को जाने बिना मैं उन्हें और क्षति नहीं पहुँचाऊँगा।”
“हाँ, क्यों नहीं। तुम्हारा परिवार तो रहा नहीं, किन्तु उस दुष्ट को जीवित छोड़ मैं अपने परिवार को कोई क्षति नहीं पहुँचने दूँगा। यदि तुम्हारा कोई भी भील मार्ग में आया तो उसका मस्तक सर पर नहीं रहेगा।”
उस क्षण बलेऊ को भी नहीं सूझा कि वो विष्यन्त को क्या उत्तर दे। उसके आदेश के बिना भीलों ने भी विष्यन्त का मार्ग नहीं रोका। विष्यन्त ने भूमि पर गिरे धनुष और बाणों का जोड़ा उठाया और सरपट दौड़ गया। उसे अकेला जाते देख धीरा से रहा नहीं गया, उसने भी उसका साथ देने का निश्चय किया और उसके पीछे आया।
“तुम कहाँ जा रहे हो, धीरा ?” भीलराज ने उसे डपटा। “आपने अपनी आँखों पर मित्रता की पट्टी बांधी हुई है, भीलराज। किन्तु जिस विष्यन्त ने निस्वार्थ भावना से वर्षों तक भीलों का रक्षण किया, उनके परिवार के प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य बनता है। मैं संकट की इस घड़ी में उन्हें अकेला नहीं छोडूंगा।” कहते हुए धीरा विष्यन्त की ओर दौड़ा।
विचलित खड़े भीलराज ने क्षणभर को अपनी पत्नी और बालिका के शवों की ओर देखा, तो लगा कि उसे विष्यन्त और धीरा को नहीं रोकना चाहिए। किन्तु मन का विवेक कुछ और कह रहा था।
बलेऊ के मन के भीतर चलता हुआ वो दोहरा द्वन्द कदाचित आज नागदा नरेश के लिए बहुत घातक सिद्ध होने वाला था। नागादित्य और मृणालिनी शीघ्र ही उस झोंपड़े के निकट पहुँचे जहाँ नागदा के दस सैनिक पहरा दे रहे थे। देवी तारा और विष्यन्त की पत्नी मुद्रिका कदाचित झोंपड़े के भीतर थीं। वहीं नन्हा कालभोज और विष्यन्त के दोनों बालक झोंपड़े के बाहर खेल रहे थे।
सौ गज दूर से ही अपने पिता को घायल देख कालभोज उनकी ओर दौड़ा, अन्य बालक भी उनके पीछे दौड़े। वहाँ खड़े रक्षक सैनिक भी स्तब्ध रह गये। तब तक विष्यन्त और धीरा भी उनके निकट आ चुके थे। संकट का आभास पाकर मृणालिनी ने पीछे मुड़कर देखा तो दो लाल योद्धाओं में से एक के धनुष से छूटा बाण सीधा नागादित्य की ओर बढ़ रहा था। अपने सुहाग की रक्षा के लिए नागादित्य को किनारे हटाकर मृणालिनी ने अपनी छाती आगे कर दी और उस बाण को अपने हृदय पर झेल लिया।
“माता।” चीखता हुआ कालभोज नागादित्य और मृणालिनी की ओर दौड़ा। पलटकर नागादित्य ने भी मृणालिनी को संभाला। हृदय को चीरता हुआ वो बाण मृणालिनी की छाती के पार जा चुका था।
विष्यन्त को क्षणभर के लिए भय लगा, किन्तु उसने बाणों की बौछार जारी रखी। नागादित्य भूमि से उठे और क्रोध में घूरते हुए विष्यन्त की ओर बढ़े। भय के मारे विष्यन्त अंधाधुंध बाण चलाने लगा, नागादित्य की छाती, भुजा, कंधे को सात बाणों ने घायल किया। वहीं धीरा अपनी तलवार लिए दौड़ता हुआ वहाँ आया और उछलकर नागादित्य के कण्ठ पर प्रहार करना चाहा। नागदा नरेश उसके वार से बचते हुए किनारे हटे और अपनी छाती में लगा बाण निकालकर सीधा उसके कण्ठ में उतार दिया। मुख से रक्त उगलता हुआ धीरा भूमि पर गिरकर तड़पने लगा।
शोर सुनकर देवी तारा और विष्यन्त की पत्नी मुद्रिका भी बाहर आयीं। क्रोध में हांफते नागादित्य ने विष्यन्त की ओर बढ़ने का प्रयास किया, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपने शरीर पर से नियंत्रण खो दिया और बाणों से भरा शरीर लिए घुटनों के बल आ झुके।
“विजयंत।” विष्यन्त की पत्नी मुद्रिका की उस चीख ने उसके प्रहारों को जड़ कर दिया। अपने सामने का दृश्य देख वो स्तब्ध सा रह गया। उसकी विचलित हुई दृष्टि की दिशा देख नागादित्य भी उसी ओर मुड़े, तो एक दस वर्षीय बालक को भूमि पर गिरा पाया। मुद्रिका उसी की ओर दौड़ी चली आ रही थी।
भय के मारे अंधाधुंध बाण चलाते हुए अपने उस पुत्र को स्वयं विष्यन्त ने ही अपने बाणों से छलनी कर दिया था। दो बाण उसके कण्ठ में धँसे हुए थे और वो भूमि पर गिरा अपने प्राणों के लिए तड़प रहा था। विष्यन्त के कंधे से उसका धनुष सरक गया, उसे अनुमान भी नहीं था कि उसके पापों के कलश में भरा विष एक दिन उसके स्वयं के अंश को ही लील जायेगा। अपने शस्त्र गिराकर वो अपने पुत्र की ओर दौड़ा और उसके निकट आकर घुटनों के बल झुकते हुए अपने मुख पर से ढका वस्त्र उतारा। मुख से रक्त उगलते हुए विष्यन्त के उस पुत्र की दृष्टि अकस्मात ही अपने पिता का वो मुख देख घृणा से भर गयी। मुद्रिका को भी अपने पति का रक्तरंजित मिट्टी से सना वो मुख देख अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हुआ।
“विष्यन्त।” महाराज नागादित्य भी भूमि पर बैठे अचम्भित से रह गये। नागदा के रक्षक सैनिकों ने विष्यन्त को चारों दिशाओं से घेर लिया।
विचलित हुआ कालभोज अपनी माता के निकट बैठा अश्रु बहा रहा था। नागादित्य साहस जुटाकर उठे, अपनी छाती में धँसे बाण निकालकर अपने पुत्र के निकट गये और अपने रक्तरंजित हाथ को प्रेम से उसके मस्तक पर फेरा। महारानी मृणालिनी ने भी कालभोज का हाथ थाम नेत्रों के संकेत से ही उसे ढाढ़स बँधाने का प्रयास किया। देवी तारा भी दौड़ती हुई वहाँ आयीं, अश्रु बहाता तीन वर्षीय कालभोज सीधा उन्हीं से लिपट गया।
तभी दूर से भीलराज बलेऊ अपनी टोली के साथ वहाँ आता दिखा। मृणालिनी ने तारा का हाथ पकड़कर उससे विनती की, “भील ही हमारे वास्तविक शत्रु निकले तारा, कालभोज को यहाँ से ले जाओ। उसके प्राण संकट में है।”
तारा अचम्भित रह गयी, “ये..ये आप क्या कह रही हैं, महारानी ?”
“ये सारा आतंक भीलों ने ही मचाया है, तारा। विवाद का समय नहीं है, कालभोज को अपने साथ ले जाओ। तुम्हारे अतिरिक्त मैं और किसी पर विश्वास नहीं कर सकती।” मृणालिनी की विनती सुन तारा भी विवशता का अनुभव करने लगी।
तारा को विचलित जान मृणालिनी ने उसका हाथ थाम उसे आशा भरी दृष्टि से देखा, “तुम्हारा इस संसार में कोई नहीं है, तारा। आशा करती हूँ तुम मेरे इस पुत्र को अपनी ही संतान का दर्जा दोगी। सम्भव है कि भीलराज तुम्हें बहकाने का प्रयास करे, किन्तु तुम जितनी शीघ्र हो सके यहाँ से निकल जाना।”
अश्रु बहाते हुए तारा ने सहमति में सर हिलाया। नागादित्य ने पुनः कालभोज के मस्तक पर हाथ फेरा, “प्रस्थान करो, पुत्र।”
किन्तु हठी कालभोज नागादित्य की छाती से लिपट गया। अपने पुत्र का हाथ थामे रानी मृणालिनी की श्वास शीघ्र ही थम गयी। कालभोज अपनी माता का मृत मुख देखे, इससे पूर्व ही नागादित्य ने अपने पुत्र को और कसकर गले लगा लिया।
देवी तारा ने नागादित्य को स्मरण कराया, “महाराज, वो भील यहीं आ रहे हैं।”
“चिंता मत करो, तारा। संकट टल चुका है।” पुत्र का मस्तक सहलाते हुए नागादित्य ने विष्यन्त की ओर देखा, “भील रुक गये और तुम अकेले मुझपर प्रहार करने आए, अर्थात योजना तुम्हारी रही होगी।” श्वास भरते हुए नागादित्य के मुख पर मुस्कान खिल गयी, “आशा करता हूँ तुम्हें ये आभास हो गया होगा सेनानायक विष्यन्त, कि लालसा का अंधत्व एक न एक दिन अपनी ही संपदा दांव पर लगाने को विवश कर देता है। तुमने दांव लगाया और विजयी होकर भी परास्त हो गये। तुम कंगाल हो गये, सेनानायक विष्यन्त, कंगाल। अब कभी अपने परिवार से दृष्टि ना मिला पाओगे।” भीलराज के वहाँ पहुँचने से पूर्व ही नागादित्य ने स्वयं पर से नियंत्रण खो दिया और भूमि पर गिर पड़े, मृत्यु से ठीक पूर्व उन्होंने नागदा के दस सैनिकों को आदेश दिया, “इसके प्राण मत लेना, सैनिकों। अब ये जीवनभर ग्लानि का बोझ लिये जीएगा।”
जैसे-जैसे भीलराज बलेऊ निकट आया, नागादित्य के नेत्र बंद होते गये। तीन वर्ष का अबोध कालभोज उनकी छाती से लिपटकर अश्रु बहाने लगा। निकट आकर महारानी का शव देख बलेऊ और भी विचलित हो गया, “हे महादेव आज किस-किस की बलि माँगेंगे?”
बलेऊ ने आगे बढ़कर नन्हें कालभोज को सांत्वना देने का प्रयास किया, किन्तु भय के मारे देवी तारा ने उसे पीछे खींचा और उसे गोद में लेकर कुछ पग पीछे हटी। उन्हें भयभीत देख बलेऊ ने कहा, “विचलित मत होईये, देवी तारा। हम उस बालक को क्षति नहीं पहुँचायेंगे।”
किन्तु देवी तारा फिर भी दो पग पीछे हट गयीं। नागदा के दस सैनिकों ने देवी तारा की सुरक्षा के लिए उन्हें घेर लिया। भीलराज ने अपनी तलवार नीचे कर हाथ उठाये अहिंसा बनाए रखने का संकेत दिया।
सैनिकों का घेरा हटते ही बलेऊ की दृष्टि अपने परिवार के साथ बैठे विष्यन्त पर पड़ी। अपने ज्येष्ठ पुत्र के शव पर बिलखती मुद्रिका बार-बार विष्यन्त की छाती पर मार उसे कोस रही थी, वहीं सात वर्षीय एक बालक अपने भ्राता के शरीर पर जीवन के चिन्ह ढूँढने का प्रयास कर रहा था। बलेऊ को पहले लगा वो नागादित्य के कारण हुआ। उसने विष्यन्त के कंधे पर हाथ रख उसे सहानुभूति देने का प्रयास किया, किन्तु उसका हाथ निकट आते ही विष्यन्त उससे दूर हटा, “मैं इस योग्य नहीं हूँ, भीलराज।”
भीलराज ने कुछ क्षण उसे आश्चर्यभाव से देखा। विष्यन्त उसके समक्ष घुटनों के बल झुक गया, “सत्ता की लालसा में ये सारा षड्यन्त्र मैंने ही रचा था, बलेऊ। मैं तुम्हारा अपराधी हूँ, दण्ड देकर मुक्त करो मुझे।”
विष्यन्त का कथन सुन बलेऊ की तो जैसे पाँवों तले जमीन खिसक गयी, “ये, ये तुम..। कहना क्या चाहते हो, विष्यन्त?”
अपनी श्वास रोक मुठ्ठियाँ भींचते हुए विष्यन्त ने साहस जुटाया और कहना आरम्भ किया, “वर्षों से मैं तुम भीलों का रक्षण करता आया था, इसीलिए मेरा मानना था कि नागदा के सिंहासन पर मेरा ही अधिकार है। जबसे नागादित्य उस सिंहासन पर बैठा था तबसे मेरे हृदय में ईर्ष्या की अग्नि भभक रही थी। इसीलिए नागादित्य की अमरनाथ यात्रा में मैंने एक अवसर ढूँढ लिया, और विनती करके अपने परिवार को महाराज नागादित्य के साथ भेजा। अपने मुट्ठीभर निष्ठावान सैनिक एकत्र कर भीलों पर आक्रमण किया, फिर तुम्हें नागादित्य के विरुद्ध भड़काया। मेरे ही आदेश पर खेतों में से छुपते छुपाते पाँच सैनिक तुम्हारे कबीले में गये और तुम्हारे परिवार की हत्या कर दी, ताकि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास हो जाए। जो दो सहस्त्र सैनिक भीलों ने मारे, वो महाराज नागादित्य ने नागदा के प्रवेश द्वार की सुरक्षा के लिए नियुक्त किये थे। उन्हें अनुमान भी नहीं था कि भीलों की बस्ती में क्या हो रहा है। फिर हमने भेष बदलकर नागादित्य के कारवां पर आक्रमण किया और वो सहायता की आशा लिए भीलों की बस्ती आए, और उसके उपरान्त जो हुआ वो तुम जानते हो।”
बलेऊ स्तब्ध खड़ा विष्यन्त को देखता रहा, विश्वास की ऐसी लत लगी थी कि विष्यन्त का वो सत्य उसके गले के नीचे नहीं उतर रहा था। उसकी दृष्टि महारानी मृणालिनी के हृदय में धँसे बाण की ओर गयी, फिर उसने विष्यन्त के दस वर्षीय पुत्र के कण्ठ में धँसे बाणों और नागादित्य के शव के समीप पड़े बाणों की ओर दृष्टि डाली, सभी का रंग एक ही था।
“तुमने अपने ही पुत्र को..?” बलेऊ के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
विष्यन्त ने अपनी दृष्टि झुका ली, “पाप कर्मों का प्रभाव ही ऐसा होता है कि वो व्यक्ति के मन को अंदर से भयभीत कर देता है। महाराज नागादित्य के निकट आने पर मैं भयभीत होकर उन पर अंधाधुंध बाणों की वर्षा करने लगा, और देखा ही नहीं कि पीछे मेरा पुत्र भी खड़ा है..।”
बलेऊ ने कुछ क्षणों के लिए अपने नेत्र बंद कर अपने मन मस्तिष्क को संतुलित करने का प्रयास किया। एक दिवस में ही जीवन में इतने उतार चढ़ाव देख किसी का भी मानसिक संतुलन बिगड़ सकता था। फिर भी बलेऊ स्वयं को संभालने का पूर्ण प्रयास कर रहा था, “मैं नहीं मानता कि तुम अकेले ऐसी योजना बना सकते हो? मुझे पूर्ण सत्य जानना है।”
उस क्षण विष्यन्त की इच्छा तो हुई कि वो मानमोरी का नाम ले ले, किन्तु फिर उसे चित्तौड़ में रह रही अपनी माता का स्मरण हो आया, “ये योजना केवल मेरी थी। इसका दण्ड भी केवल मुझे मिलना चाहिए। अपनी तलवार उठाओ बलेऊ और मेरा मस्तक काटकर अपने हृदय की अग्नि बुझा लो।”
बलेऊ ने मुट्ठी भींचते हुए अपनी दृष्टि उठाई तो देखा कालभोज, देवी तारा और नागदा के सैनिक वहाँ से जा चुके हैं, “कहाँ गये वो?”
“वो तो वन मार्ग से निकल गये, महामहिम। “एक भील ने बताया।”
खीजते हुए बलेऊ ने नागादित्य और महारानी मृणालिनी की ओर देखा। उन दोनों के निकट आकर बलेऊ ने घुटने के बल बैठ अपना माथा पीट लिया, “हे ईश्वर, ये तेरा कैसा प्रकोप है? परिवार भी गया, मित्र भी गया। अब जीवित रहूँ तो किसके लिये?” पीड़ा से तड़पते हुए भीलराज अपना मस्तक नागादित्य के चरणों में रगड़ने लगा, “लौट आओ महाराज, लौट आओ। अपने इस अभागे मित्र को क्षमादान दो, हे महाराज लौट आओ।”
बलेऊ के उस क्रंदन को सुन कई भीलों ने आकर उसे संभालने का प्रयास किया। आधे प्रहर तक वो उन शवों के निकट ही अश्रु बहाकर अपनी वेदना शांत करने का प्रयास करता रहा। कल रात्रि से अपने रोके हुए समस्त अश्रुओं को बहाकर उसके हृदय की समस्त पीड़ा प्रदर्शित हो गयी। बहते अश्रुओं ने कुछ सीमा तक बलेऊ की बिगड़ती मानसिक स्थिति को संभाल लिया। सूर्य ढलने को था, विष्यन्त अब भी अपने स्थान पर बैठा बलेऊ की ओर देख रहा था। अकस्मात ही उस पर दृष्टि पड़ते ही बलेऊ क्रोध में भरकर अपनी तलवार लिए उसके निकट आया और तलवार को उसके कण्ठ पर टिकाकर उसे घूरने लगा।
विष्यन्त ने अपना मस्तक झुका लिया, “शीघ्र करो, बलेऊ। मुझे इस पाप के भार से मुक्त करो।”
बलेऊ ने क्षणभर उसे घूरा फिर तलवार को उसकी गर्दन पर फेरते हुए कठोर मन से निर्णय लिया, “तुम्हें तो जीवित रहना होगा, विष्यन्त। अज्ञानतावश ही सही, किन्तु मुझसे भी बहुत बड़ा अपराध हुआ है। और तुम एकमात्र साक्ष्य हो जो युवराज कालभोज के समक्ष मुझे निरपराध घोषित करेगा। वो मुझे क्षमा करेंगे या नहीं ये उनका निर्णय होगा, किन्तु मेरे सर पर लगा ये कलंक धोने के लिए तुम्हें जीवित रहना होगा। तुम्हारा जीवन ही तुम्हारा दण्ड होगा, क्योंकि संसार के लिए तुम मृत घोषित कर दिये जाओगे। अब जब तक युवराज कालभोज मिल नहीं जाते, तुम हमारे बंदी बनकर रहोगे। अपने परिवार से अंतिम बार भेंट कर लो। क्योंकि इसके बाद ये मिलन सम्भव नहीं होगा।”
बलेऊ ने कुछ पग पीछे हट अपने भीलों को आदेश दिया, “बहुत बड़ा पाप किया है हमने, और इसका प्रायाश्चित तभी हो सकता है जब हम युवराज कालभोज को ढूंढकर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करें।”
To be continued..