14.
अजीब सी स्थिति थी।
रेखा को समझ में नहीं आता था कि ये कैसे दिन हैं?
क्या उसका मन और भारी हो गया है या कोई हल्कापन बादल की तरह तैरता हुआ उसके इर्द - गिर्द मंडराने लगा है।
उसे लगता था कि घर- परिवार के लोग क्या इसी तरह एक - एक करके दूर होते चले जाएंगे?
रेखा की बेटी की शादी भी तय हो गई थी।
एक राज्य में रहती थी रेखा, दूसरे राज्य में था उसका पीछे छूट चुका घर, तीसरे राज्य में थी बेटी की नौकरी और चौथे राज्य में था उसका ससुराल।
उसे अक्सर बचपन में पढ़ी गुरु नानकदेव की एक कहानी याद आ जाती थी। कहानी कुछ इस तरह है -
नानक जब एक से दूसरे गांव में विचरण करते हुए अपने शिष्यों के साथ देशाटन कर रहे थे तब एक बार संयोग से एक ऐसे गांव में पहुंच गए जहां के लोग बेहद रुखे, स्वार्थी, लोभी और नासमझ थे। नानक ने जैसे- तैसे वहां रात काटी और जो कुछ मिल सका उससे पेट भरा। अगले दिन जब वहां से चलने लगे तब वहां के लोगों को आशीर्वाद दिया कि ये गांव हमेशा यूं ही बसा रहे।
संयोग से जब अगले गांव में पहुंचे तो पाया कि यहां के लोग बहुत शिक्षित, परोपकारी, दानवीर और समझदार हैं। वह प्रसन्न होकर एक दिन वहां रहे और निकलते समय उस गांव को श्राप सा दिया कि ये गांव उजड़ जाए... ये सब बिखर जाएं।
शिष्यों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, वे बोल पड़े - गुरुदेव, ये कैसा अनर्थ? आपने उन लालची आलसी फालतू लोगों को तो बसे रहने का वरदान दिया और इन इतने अच्छे - भले लोगों को उजड़ जाने का श्राप दे रहे हैं?
नानक ने शांति से कहा - उस गांव के लोग जैसे थे, वैसी गंदगी केवल एक ही गांव में पड़ी रहे, सारे में फैले नहीं तो अच्छा। ये सज्जन लोग हैं, दुनिया भर में फैलेंगे तो अच्छाई सारे में फैलेगी। मैंने तो दुनिया का भला सोचा।
बंजारों और खानाबदोशों की भांति अलग - थलग होते जाते परिवार को इस कहानी से बड़ा सुकून मिलता।
रेखा और उसके पति ने अपनी तमाम व्यस्तता से कुछ समय निकाल कर बहुत दूर के एक नगर में जाकर अपनी सुपुत्री का विवाह किया। सारा परिवार विमान यात्रा से लंबी दूरी पार करके गया और बेटी को विदा कर आया।
यहां नियति ने एक बार फिर परिवार का साथ दिया। महिलाओं के सम्मान को लेकर रेखा का जो सोच हमेशा से रहा था उसी के अनुरूप घर की बहू को अपनी लड़की समझने वाला परिवार मिला और पूरी शादी में कहीं किसी को ये अहसास तक न हो पाया कि दहेज क्या होता है! लड़के वालों की शान क्या होती है!! लड़की वालों की मजबूरियां किसे कहते हैं? मिल- जुल कर घरेलू वातावरण में नई रिश्तेदारी जुड़ने का काम सब संपन्न हुआ।
रेखा जब वापस लौटी तो इस बात की कायल थी कि दुनिया में सबकी जगह तय है। सबका दाना - पानी निर्धारित कर के ही कुदरत बैठी है।
लेकिन कभी - कभी ऐसा भी लगता था कि रेखा इस तरह एक- एक काम को क्यों निपटा रही है? उसे कहां की जल्दी है।
अब रेखा ने पूरी तरह से अपने नए विश्वविद्यालय के काम में अपने आप को डुबो दिया। वह अच्छी तरह जानती थी कि अपने करियर की ऊंचाई पर पचास पार की उम्र में अपना एंप्लॉयर बदलना क्या होता है। पुरानी जगह तो मन से सब आपके साथ होते हैं क्योंकि आपने समय - समय पर वहां अपने काम से अपने आप को सिद्ध किया होता है, लेकिन नई जगह आने पर लोग आपकी पुरानी उपलब्धियों को नहीं जानते। उनके लिए तो आप दोबारा कसौटी पर होते हैं। आप कुछ करके बताइए, तो वे आपका लोहा मानें। और सच्चाई यह है कि अब आप कोई करामात करने की उम्र खो चुके होते हैं, और मन से हारने की स्थिति भी स्वीकार नहीं करना चाहते।
ख़ैर, इस तरह के बहाने और क्षमा याचना के पुलिंदे तो रेखा ने न कभी बनाए और न ही बनाना पसंद किया। उसे तो यही लगता था कि किसान की उम्र को खेत क्या जाने, उसे तो निराई- गुड़ाई चाहिए।
वह देर रात तक अपने लैपटॉप पर सक्रिय रहती चाहे घर हो या दफ़्तर। उसने लगातार प्रगति करने वाले लोकप्रिय संस्थानों की गतिविधियों का भी बारीक अध्ययन किया ताकि महिलाओं के लिए समाज में चुनौती तथा सम्मान के द्वार खोलने वाले नए - नए पाठ्यक्रमों का आगाज़ हो सके। उसे परामर्श तथा वार्तालाप के लिए अब दुनिया भर में फैले अपने वो विद्यार्थी भी उपलब्ध थे जो अपनी मेहनत और सलाहियत से बड़े - बड़े पदों पर पहुंच रहे थे।
जैसे शिक्षा से बनी रेखा अब शिक्षा के लिए ही समर्पित थी।
आठ सितंबर 2008 का दिन था।
बरसात के मौसम के बीत जाने के से अहसास थे। शहर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर जयपुर - अजमेर मुख्य मार्ग से दो - तीन किलोमीटर दूर हरी- भरी धरती पर आलीशान इमारतों से सजा- संवरा भव्य परिसर था। इसी परिसर में कुछ छात्रावासों में रहती देश भर से आई विद्यार्थी छात्राओं की उत्साह - उमंग भरी उपस्थिति।
एक ओर विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन तथा पर्याप्त कड़े सुरक्षा घेरे में अकादमिक इमारतों से कुछ अलग लंबा- चौड़ा मेस और अतिथि गृह। कुछ कर्मचारियों के आवास।
चारों ओर एक नए संस्थान के जन्म ले लेने का स्पंदन। नगर की शैक्षणिक ज़मीन पर एक नए महिला संस्थान के अभ्युदय का गौरवपूर्ण अहसास।
सभी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। महिला शिक्षा की अदम्य आकांक्षा के साथ एक नई उड़ान की पूरी व्यवस्था थी। अधिकारी कर्मचारी शिक्षक शिक्षार्थी सब अपनी - अपनी जगह चाक - चौबस्त!
रेखा शाम को जब घर लौटने के लिए अपनी कार में बैठी तो बेहद संतुष्ट और प्रसन्न थी।
रात को उसने कुछ देर का समय केवल अपने घर- परिवार के लिए निकाल कर सुदूर विदेश में रह रहे अपने सुपुत्र और दूर दूसरे राज्य के एक विख्यात शैक्षणिक परिसर में में रह रही अपनी सुपुत्री से लंबी बात की। उन्हें आश्वासन दिया कि सत्र शुरू होने के बाद वह समारोह के फ़ोटो और वीडियो उन्हें दिखाने के लिए भेज देगी।
पति - पत्नी ने शाम को एक छोटे से समारोह में शिरकत करने के बाद साथ ही भोजन किया।
अगली सुबह जब विश्वविद्यालय प्रशासन की कार उसे लेने आई तो नाश्ते के बाद उसने गाड़ी में बैठते- बैठते कहा - कल सुबह ग्यारह बजे विश्वविद्यालय के पहले सत्र का उदघाटन है, आज काम में काफ़ी देर होगी अतः वह कैंपस में ही अपने आवास में ठहरेगी ताकि सुबह सब कार्य समय पर संपन्न हो सके। सुबह उदघाटन से पूर्व एक हवन -पूजा का कार्यक्रम भी रखा गया था।
उसने बताया कि कल रात को परिसर में ही एक रात्रि भोज भी रखा गया है, और साथ ही उसने अपने पति को भी भोज के समय वहां आने के लिए आमंत्रित किया। उसने यह भी कहा कि डिनर के बाद हम लोग वापस घर लौट आयेंगे।
नौ सितंबर की शाम को पांच बजे विश्वविद्यालय परिसर में सुरक्षा और परिसर संचालन से संबंधित कुछ नियम भी सार्वजनिक तौर पर जारी कर दिए गए।
एक प्रकार से यह विश्वविद्यालय के कड़े अनुशासन की नई पहल थी जिसमें उसे निर्बाध रूप से चलाने की महान आकांक्षा निहित थी।
रेखा अपने चैंबर में थी और अंतिम रूप से सारे कार्य को एक बार फिर देख रही थी।
तमाम व्यस्तता ने उसे शाम की चाय भी पीने का अवकाश मुहैया नहीं कराया था। चाय वाइस चांसलर की मेज़ पर रखी हुई ठंडी हो रही थी जिसे शायद किसी ने सावधानी वश एक प्लेट से ढक दिया था ताकि फोन पर बात समाप्त हो जाने के पश्चात कुलपति महोदया उसे पी सकें। साथ में रखी बिस्कुटों की प्लेट भी छुए जाने के इंतज़ार में थी।
दोपहर का भोजन भी दो मीटिंगों के बीच छोटे से अंतराल में जल्दी में ही खाया गया था जो शायद एक अनिवार्य औपचारिकता की तरह संपन्न हुआ था।
कहा जाता है कि रोटी कपड़ा और मकान इंसान की प्रथम और आधारभूत आवश्यकता है इसीलिए भोजन को सृष्टि का प्रथम नियम भी कहा जाता है।
पेट को भूख न लगे तो शायद इंसान आलस्य में पड़ा सोता ही रहे। पापी पेट के लिए ही तो इंसान घर छोड़ कर रोज सुबह बाहर निकलता है और दर- दर की ठोकरें खाता है।
लेकिन ये सब तो शास्त्रीय बातें हैं इनका आधुनिक शिक्षित समुदाय से क्या लेना- देना !
इसी समय कैंपस के मुख्य द्वार के गार्ड ऑफिस से एक फ़ोन आया जिसे चैंबर के एक ओर बने छोटे कक्ष में बैठी कुलपति की पीए ने उठाया। उसने कुछ देर बाद की किंतु उसके बाद कुछ तल्खी के साथ उसने फ़ोन सीधे कुलपति महोदया को दे दिया।
रेखा ने हमेशा की तरह शांत लहज़े में बात की। उधर से बताया गया कि मुख्य गेट पर लगी नियमावली में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि तमाम वाहनों को रोक कर परिसर की पार्किंग में ही खड़ा किया जाए, केवल विश्वविद्यालय कुलपति (अथवा विशिष्ट अतिथियों) की कार को ही प्रशासनिक भवन के आंतरिक द्वार तक जाने की अनुमति है। जबकि एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी शिक्षक जो कभी रेखा के भी शिक्षक रहे, अपनी कार को भीतर तक ले जाना चाहते हैं।
तहकीकात करने पर पता चला कि आगंतुक शिक्षक महाशय वहां उतरने के लिए तैयार नहीं हैं और कुलपति से स्वयं बात करना चाहते हैं।
रेखा के सामने अनावश्यक दबाव आ पड़ा। अब या तो गार्ड को अपना ही बनाया नियम तोड़ने को कहो, या शिक्षक महोदय को नाराज़ करो।
लेकिन रेखा तो रेखा थी। उसने अनुशासन के दोनों घोड़े साध के रखे। "ज़रा सा इंतज़ार करो", कह कर फ़ोन रख दिया और स्वयं टहलती हुई पैदल चल कर मुख्यगेट तक पहुंची।
गेट पर अपने आदरणीय गुरुजी के साथ कार में बैठी और गार्ड ने भी सैल्यूट के साथ कार को भीतर जाने दिया।
इंसान और नियम दोनों का सम्मान करने की यह मिसाल चर्चा का विषय बनी।
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