"तेरे साथ, एक वर्दी का सपना"
गाँव की छोटी सी लाइब्रेरी में हर दिन सुबह 6 बजे एक लड़का आता था — नाम था आकाश।
गहरे रंग का, पतला, आंखों में मेहनत की लकीरें और हाथों में एक पुराना नोटबुक।
आकाश का सपना था — सेना में भर्ती होना।
वहीं उसी लाइब्रेरी के कोने में एक लड़की भी बैठती थी — संध्या।
सपना उसका भी बड़ा था — राज्य पुलिस में अफसर बनना।
वो दोनों रोज़ आमने-सामने बैठते,
नज़रें कभी-कभी टकरा जातीं,
पर एक शब्द भी नहीं बोलते।
वो लाइब्रेरी उनके बीच की दूरी थी —
और वही दूरी धीरे-धीरे एक चुपचाप रिश्ता बन गई थी।
संध्या गाँव की तेज़ लड़की थी।
सुबह दौड़ लगाना, फिर नाश्ता करके स्टडी, और फिर शाम को पेड़ के नीचे बैठकर पुराने सालों की तैयारी वाली किताबें पढ़ना — यही उसकी दिनचर्या थी।
आकाश थोड़ा कम बोलने वाला था, लेकिन उसकी आँखें हमेशा उस पेड़ की छांव को खोजतीं, जहां संध्या बैठी होती।
एक दिन अचानक बारिश हो गई।
संध्या बिना छतरी के भाग रही थी।
आकाश ने अपनी शर्ट उतारकर उसके सिर पर डाल दी।
संध्या चौंकी।
“पगला हो क्या?”
“नहीं... इंसानियत है,” आकाश बोला।
उस दिन पहली बार दोनों ने हँसते हुए एक ही छांव में खड़े होकर बात की।
बातों का सिलसिला शुरू हुआ —
सपने, मेहनत, फिजिकल रूटीन, पुराने इंटरव्यू, और ज़िन्दगी की मुश्किलें।
संध्या बोली,
“लड़की हूँ, तो सब कहते हैं कि शादी कर लो, नौकरी में क्या रखा है।”
आकाश ने उसकी आँखों में देखा,
“तो उन्हें दिखा दो, कि एक वर्दी, एक सिंदूर से कम नहीं होती।”
संध्या कुछ नहीं बोली, लेकिन उस दिन से उसकी नज़रें बदल गईं।
अब हर दिन की शुरुआत, सिर्फ तैयारी नहीं… थोड़ी सी उम्मीद से भी होती।
दोनों साथ में दौड़ते,
एक-दूसरे के लिए किताबें ढूंढ़ते,
कभी-कभी गलती से चाय के पैसे भी बाँट लेते।
लेकिन दोनों जानते थे —
सपने अभी अधूरे हैं,
और रिश्ते की बात बाद की है।
एक दिन संध्या का घर में हंगामा हो गया।
उसकी शादी तय कर दी गई थी — एक बिज़नेसमैन से जो शहर में रहता था।
संध्या ने विरोध किया।
लेकिन माँ बोली, “तू कोई ऑफिसर थोड़ी बनी है अब तक… किताबें पढ़कर कौन शादी टालता है?”
वो रात संध्या की सबसे लंबी रात थी।
सुबह जब आकाश को पता चला, तो उसने कुछ नहीं कहा।
बस उसके सामने एक पुराना एग्जाम फॉर्म रखा और बोला —
“ये परीक्षा 3 महीने बाद है, मैं भी दे रहा हूँ… तू भी दे न।
शायद अगली बार हम सिर्फ लाइब्रेरी में न मिलें।”
संध्या ने वो फॉर्म भरा, लेकिन साथ में एक वादा भी किया —
अब सिर्फ सपने पूरे करने हैं, किसी को साबित नहीं करना… खुद को साबित करना है।
तीन महीने की कहानी कोई फिल्म से कम नहीं थी।
सुबह 4 बजे की दौड़
दिनभर की पढ़ाई
पुराने नोट्स की मारामारी
और कभी-कभी बगैर बताए एक-दूसरे के लिए छोड़ी गई टॉफी
आखिरकार परीक्षा हुई,
इंटरव्यू हुए,
और फिर एक दिन रिजल्ट भी आया।
संध्या का नाम राज्य पुलिस सब-इंस्पेक्टर की लिस्ट में था।
और आकाश का नाम भारतीय सेना भर्ती के कॉल-लेटर में।
दोनों पास हो गए थे।
पर अब ज़िन्दगी दो दिशाओं में थी।
एक वर्दी उत्तर की तरफ़ जा रही थी, दूसरी दक्षिण की।
रविवार की शाम, बगीचे के उसी पेड़ के नीचे दोनों बैठे थे।
चुपचाप।
संध्या ने धीरे से पूछा,
“अगर हम पहले बात करते… तो शायद आज कुछ और होता?”
आकाश मुस्कराया,
“शायद… पर तब हम इतने मजबूत नहीं होते।
अब अगर मिलेंगे, तो अपनी शर्तों पर… दो वर्दीधारी, बराबरी के साथ।”
संध्या हँसी।
“ठीक है... वर्दी में मिलने तक, खुद से प्यार करते रहेंगे।”
अब वो दोनों कभी-कभी फ़ोन पर बात करते हैं —
“आज कितनी दौड़ लगाई?”
“तेरे थाने में कितने केस आए?”
“तेरे कैंप में कितना खाना मिलता है?”
लेकिन इन सब सवालों के पीछे एक जवाब छिपा होता है —
“मैं आज भी तुम्हारे साथ हूँ… दूर सही, पर पूरे सम्मान के साथ।”