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देह-आत्मा और संतुलन
शिवालिक की तलहटी में वर्षा ऋतु अपने चरम पर थी। रावी नदी, जो कभी शांत और चमकदार थी, अब बादलों की गर्जना और बरसते पानी के वेग से उफन रही थी। वर्षा ने चारों ओर एक रहस्यमय आवरण बुन दिया था। पेड़ों की पत्तियाँ बूँदों से भीगीं, हवा में मिट्टी की सोंधी खुशबू तैर रही थी। पर्यूषण पर्व का पवित्र समय चल रहा था, जब जैन समुदाय आत्म-शुद्धि, क्षमा, और प्रायश्चित की साधना में लीन था। लेकिन यह मौसम और यह पर्व मंजीत और राघवी के लिए विरह की अग्नि में तपने की घड़ी बन चुका था।
राघवी अपने आश्रम के छोटे से कक्ष में अकेली थी। खिड़की के बाहर बारिश की रिमझिम और बिजली की चमक पर्यूषण की उसकी औपचारिक साधना में बाधा डाल रही थी। वह रोज णमोकार मंत्र का जाप करती, जैन ग्रंथों का अध्ययन करती, और शिष्यों को क्षमा-वाणी का उपदेश देती, लेकिन मन बार-बार भटकता। वर्षा का यह रूप उसके भीतर रागिनी को जगा रहा था- वह रागिनी, जो मंजीत के साथ बिताए पलों में जीवित थी, जिसके सपने उसकी कविताओं में पलते थे। वह अपने मन को समझाती कि यह देह का मायाजाल है, लेकिन मंजीत की नम आँखें, उसकी कविताओं की गूँज, और उसकी शांत मुस्कान बार-बार विरह की पीड़ा को ताजा कर देती थी।
एक रात, जब बादल गरज रहे थे, राघवी ने डायरी खोली और लिखा:
‘पर्यूषण आत्मा को शुद्ध करने का पर्व है, लेकिन मेरा मन रावी की तरह उफन रहा है। मंजीत, तुम्हारी यादें विरह की आग बनकर जलाती हैं। क्या यह देह की कमजोरी है, या आत्मा की तड़प? मैं साध्वी राघवी हूँ, लेकिन रागिनी का विरह कहीं जीवित है।’
वह जानती थी कि पर्यूषण का लक्ष्य राग-द्वेष से मुक्ति है। उसने नवतत्त्व की शिक्षाएँ स्मरण कींः ‘देह नश्वर है, आत्मा शाश्वत। बेचैनी देह की चाहत से जन्मती है, शांति आत्मा की खोज से मिलती है।’
गहरी साँस लेकर उसने प्रायश्चित का संकल्प लिया। वह पूजा स्थल पर गई, णमोकार मंत्र का जाप किया, और मन को शांत करने की कोशिश की। लेकिन मंजीत की याद मन के किसी कोने में विरह की अग्नि सुलगाती रही।
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उधर, मंजीत अपने गाँव के कच्चे घर में बुखार से तप रहा था। खपरैल से टपकता पानी और भीषण बरसात उसे भयभीत कर रही थी। रावी का उफनता रूप उसकी विरह की पीड़ा का प्रतीक-सा लगता। पर्यूषण के दौरान वह ध्यान करता, अहिंसा का पाठ पढ़ता, और बच्चों को जैन सिद्धांत सिखाता, लेकिन मन राघवी की ओर दौड़ता। वह सोचता, ‘रागिनी, तुम साध्वी राघवी हो, लेकिन मेरे लिए वही हो- वह आत्मा जो मेरे दिल को छूती है। यह बरखा, यह पर्यूषणकाल ही मानो शत्रु बन गया, जिसने सदियों के फासले कर दिये!’
काँपते हाथों से उसने डायरी में लिखा: ‘पर्यूषण मेरे लिए विरह की परीक्षा है। मैंने अहिंसा अपनाई, ध्यान किया, लेकिन यह मन रागिनी के बिना तड़पता है। तुम मेरे लिए चेहरा नहीं, आत्मा हो। यह विरह देह की भूख है या आत्मा की पुकार, मुझे बताओ, रास्ता तो दिखाओ!’
उसे साध्वी विशुद्धमति की बातें याद आतीं: ‘देह को मन से नहीं, आत्मा से जोड़ो, बेचैनी मिटेगी।’
वह ध्यान की कोशिश करता, लेकिन बारिश और रावी की गर्जना उसे भयभीत कर देती। वह राघवी के लिए प्रार्थना करता: ‘तुम जहाँ हो, तुम्हारा मन शांत रहे। तुम्हारी साधना तुम्हें मोक्ष दिलाए, मेरा विरह तुम तक न पहुँचे।’
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पर्यूषण पर्व के बीच मंजीत के स्कूल में एक अनोखा आयोजन हुआ। फिजिक्स के शिक्षक दलजीत सिंह ने बच्चों को एक वाटर प्रोजेक्ट दियाः ‘पानी पर चलने का जुगाड़ बनाना’।
यह पर्यूषण की भावना के साथ तालमेल रखता था, क्योंकि यह बच्चों को रचनात्मकता और प्रकृति के साथ संतुलन सिखाता था। सभी बच्चे उत्साह से जुट गए, और पानी पर चलने के लिए अनोखे क्राफ्ट बनाए। लेकिन सबकी नजरें एक लड़की, सिमरन पर टिकी थीं, जिसने सबसे अनोखा जुगाड़ तैयार किया। उसने बाँस की पतली टहनियों और प्लास्टिक की खाली बोतलों को जोड़कर हल्के, तैरने वाले प्लेटफॉर्म बनाए, जो पानी पर संतुलन बनाए रखते थे। उसने अपने जुगाड़ को ‘साधना पैड’ नाम दिया, यह कहते हुए कि- जैसे पर्यूषण में आत्मा को संतुलन की जरूरत होती है, वैसे ही यह जुगाड़ पानी पर संतुलन सिखाता है।
मंजीत, जो बुखार से जूझ रहा था, इस आयोजन में शामिल नहीं हो सका, लेकिन बच्चों ने उसे सिमरन के जुगाड़ की कहानी सुनाई। उसने सोचा, ‘सिमरन की यह रचनात्मकता मेरी साधना से कितनी मिलती-जुलती है। जैसे वह पानी पर चलने का संतुलन ढूँढ रही है, मैं भी अपने मन के विरह को आत्मा की शांति में बदलने की कोशिश कर रहा हूँ।’
उसने सिमरन के लिए एक छोटी सी कविता लिखी:
‘पानी पर चलती, सुमिरन की साधना वहाँ,
विरह को संतुलित करे, आत्मा का बोध यहाँ।’
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एक तो पर्यूषणकाल के कारण जिसमें साधु चार माह तक विहार नहीं करते, दूसरे उफनती रावी और कीचड़ भरे रास्तों ने मंजीत और राघवी की मुलाकात को असंभव बना दिया था।
यह दूरी उनके विरह की आग को और भड़का रही थी। राघवी शिष्यों को क्षमा और अहिंसा का पाठ पढ़ाती, लेकिन मन मंजीत की ओर दौड़ता रहता। वह सोचती- यह विरह गलत नहीं, लेकिन इसे आत्मा की खोज में बदलना होगा। मंजीत मेरे लिए एक आत्मा है, जो मेरी तरह सत्य की तलाश में है...।
एक दिन, जब बारिश थमी, राघवी गाँव में पर्यूषण के उपलक्ष्य में आयोजित एक कार्यक्रम में गई, जहाँ बच्चे अहिंसा पर नुक्कड़ नाटक खेल रहे थे। गाँव के जलाशय में सिमरन ने अपने ‘साधना पैड’ का प्रदर्शन भी किया, जिसे देख राघवी मुस्कुराई। उसकी नजरें मंजीत को ढूँढ रही थीं, लेकिन एक बच्चे ने बताया कि- सर तो बुखार विच पेए ने। दो-ढाई महीने देर से स्कूल बी नेईं आए।’
सुनकर राघवी का मन अनायास तड़प उठा। उसने साधना की शक्ति से मन को बहुत संभाला लेकिन वह संभला ही नहीं। तब उसने मंजीत को देखने की इच्छा व्यक्त की और बच्चे उसे कच्ची गलियों में मंजीत के घर ले आये। राघवी उसे दूर से ही देख मानो खुद भी बुखार से काँप उठी। मंजीत ने उसे देखा तो चेहरा मुस्कान से भर गया, मानो बुखार भाग गया। वह उठकर बैठ गया और राघवी ने पास आकर उसकी हथेली पर अपनी हथेली रख दी तो लगा वह हाड़-मांस का टुकड़ा न होकर, गुलाब का स्निग्ध-सुगंधित पुष्प हो! जिसकी छुअन से पलांश में ही सारा दुख-दर्द भाग गया! जैसे रावी में शीतल जल की हिलोर आई हो, दिल में खुशी की लहर उठ खड़ी हुई।
हालचाल लेकर और सावधानियाँ बताकर कुछ देर बाद वह लौट आई। उस रात मंजीत के लिए उसने प्रार्थना कीः ‘हे प्रभु! उसे स्वास्थ्य दो, उसका विरह शांत हो।’
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मंजीत बुखार से उबरते हुए, नवतत्त्व पढ़कर विरह को आत्मिक खोज में बदलने की कोशिश करने लगा। सिमरन के जुगाड़ की कहानी सुनकर उसने सोचा, जैसे सिमरन ने पानी पर चलने का संतुलन ढूँढा, मुझे भी अपने मन का संतुलन ढूँढना होगा। रागिनी मेरे लिए स्त्री नहीं, एक आत्मा है। उसका विरह मुझे साधना की ओर ले जायेगा।
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पर्यूषण के अंतिम दिन, जब बारिश बंद हो चुकी थी और रावी शांत हो चली थी, नदी तट पर एक सामुदायिक आयोजन में मंजीत और राघवी की मुलाकात हुई। बच्चे और शिष्य क्षमा-वाणी के गीत गा रहे थे, और सिमरन अपने ‘साधना पैड’ का प्रदर्शन कर रही थी। मंजीत की आँखों में विरह की गहराई थी, लेकिन शांति भी। राघवी ने मुस्कुराकर अभिवादन किया।
आयोजन के बाद, मंजीत बोला, ‘साध्वी जी, पर्यूषण और सिमरन के जुगाड़ ने मुझे सिखाया कि संतुलन ही साधना है। आपका विरह मेरी आत्मा की पुकार बन गया। नताशा का पत्र भ्रम था, आपका प्यार मेरी खोज है।’
राघवी ने रावी की ओर देखा, जहाँ सूरज की कोमल किरणें चमक रही थीं। उसने कहा, ‘मंजीत, पर्यूषण का संदेश है- देह को समझो, आत्मा को पहचानो। तुम्हारा विरह तुम्हें सत्य की ओर ले जा रहा है।’
कार्यक्रम से लौटने के बाद उस रोज मंजीत ने अपनी डायरी में लिखा:
‘पर्यूषण की क्षमा, विरह को शांत करे,
साधना पैड सा संतुलन, आत्मा को मुक्त करे।’
राघवी ने लिखा:
‘पर्यूषण देह को धोता है, आत्मा को शुद्ध करता है।
मंजीत का विरह मेरा भी था, अब हम मोक्ष की राह पर हैं।’
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लग रहा था, रागिनी और मंजीत की कहानी अब विरह और आत्मा के संवाद की कहानी बन चुकी थी। जैसे रावी की शांत लहरों की तरह, जिंदगी उनकी, पर्यूषण की क्षमा और शांति के संतुलन की ओर बढ़ रही थी।
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