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सारा ने द्वार बंद कर दिया, गवाक्ष को खोल दिया। एक मंद समीर ने भीतर प्रवेश कर लिया और सारा को स्पर्श करता हुआ कक्ष में ही विलीन हो गया। हवाका स्पर्श सारा को अच्छा लगा। गवाक्ष से बाहर के दृश्यों को देखने लगी। दूर एक छोटी पहाड़ी थी। वहाँ कहीं कहीं से झरने की भांति पानी नीचे की तरफ बह रहा था। उससे एक ध्वनि उत्पन्न हो रहा था। सारा उसे ध्यान से सुनने लगी। उसे वह परिचित लगा।
‘मेरे देश के झरनें भी यही ध्वनि सुनाते हैं। इसी प्रकार पहाड़ी से नीचे बहते हैं। ऐसा ही मनोहर दृश्य रचते हैं। यही सुगंध, यही समीर, यही सूरज। सब कुछ तो समान है। मेरे देश में तथा इनके देश में कौन सा अंतर है जो हम एक दूसरे के शत्रु बन बैठे हैं?’
‘है, अंतर है।’
‘कैसा अंतर?’
‘मनुष्यों का अंतर, व्यवहार का अंतर।’
‘वह कैसे?’
‘जीतने सम्मान से विजेंदर ने मेरे साथ व्यवहार किया है ऐसा पाकिस्तान में किसी भारतीय महिला पुलिस से होता क्या? भारतीय छोड़ो, अपने पाकिस्तानी महिला पुलिस अधीकारी के रूप में मेरे साथ भी नहीं हो रहा है।’
अपने ही शब्दों ने सारा को चौंका दिया। उसे वह सब स्मरण होने लगा कि पाकिस्तान में उसके साथ कैसा व्यवहार हो रहा है। सीनियर भी, जूनियर भी बात बात पर अपमान कर देते हैं।’
‘क्यों?’
‘क्यों कि तुम एक स्त्री हो। तुम्हारे देश में स्त्री का मूल्य कुछ भी नहीं है। पद कितना भी ऊंचा हो, कोई महत्व नहीं रखता। यदि तुम स्त्री हो तो तुम किसी सम्मान की अपेक्षा नहीं कर सकते।’
‘किसी अन्य के स्थान पर तुम्हें यहाँ भेजने में भी तुम्हारा अपमान ही हुआ है, सारा।’
‘हाँ। जानती हूँ। कैसी कैसी दलीलें दी गई थी –
सारा अपने काम में सक्षम नहीं है।
सारा हमेशा कानून की बात करती है।
सारा ईमानदार है। ईमानदार पुलिस का पाकिस्तान में क्या काम?
सारा अपने मन की ही करती है। सिनीयर्स की नहीं सुनती है।
सारा में एक बात तो है, वह अभी भी जवान है। खूबसूरत भी है। उसे भारत भेज देते हैं। वह हमारे लिए काम करेगी। वहाँ के पुलिस तथा सेना के अधिकारियों को अपने मोह पाश में फँसाकर गुप्त सूचनाएं हमें देती रहेगी।’
‘बस, यही एकमात्र मेरी औकात मानी गई और मुझे इसी योजना पर काम करने के लिए भारत भेज दिया।’
‘खूबसूरत तो तुम हो ही, सारा।’
‘खूबसूरत?’ सारा ने स्वयं को दर्पण में देखा। ऊपर से नीचे तक देखा। प्रत्येक कोने से देखा।
‘खूबसूरत तो हूँ। इसमें को संदेह नहीं है।’
‘और जवानी?’
‘अभी तक तो है। कब तक रहेगी, क्या पता?’
‘तो फंसा दो शैल को।’
‘उसकी तो पहले से ही एक स्त्री मित्र है। वह भी विदेशी। जवान भी। मुझसे भी सुंदर। उसे फंसाना ..।”
‘विजेंदर भी तो है। हो सकता है उसकी कोई स्त्री मित्र ही ना हो।’
‘हो सकता है उसकी पत्नी हो।’
‘अपने स्वार्थ के लिए किसी के जीवन को अस्तव्यस्त करना ठीक नहीं है, सारा।’
‘किन्तु मेरा देश यही चाहता है।‘
‘यह देश भी तेरा ही है। तेरे दादा इसी देश में रहते थे। तेरे पिता का जन्म भी यहीं हुआ था।’
‘किन्तु अब यह देश मेरा नहीं है।’
‘अभी भी है, यदि तुम मानो तो।’
‘तो मैं क्या करूँ?’
‘जो तुम्हारी आत्मा तुम्हें कहे वह करो।’
‘पाकिस्तान में रहते हुए तो हमने हमारी आत्मा को ही मार डाला है।’
‘और भारत की हवा का स्पर्श होते ही वही आत्मा जाग गई है। क्या कहती है यह आत्मा?’
‘मैं कोई निर्णय नहीं कर सकती। मैं उसे समय पर छोड़ देती हूँ। समय ही मुझे मार्ग दिखाएगा।’
सारा विचार करते करते सो गई।
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“येला। कहो, कैसे चलेंगें वत्सर के घर तक?”
“अर्थात?”
“बस, ट्रेन, हवाई जहाज अथवा टेकसी से?”
“मैं नहीं चल रही। तुम्हें अकेले ही जाना होगा। तुम्हारी इच्छा, तुम जैसे जाना चाहो जा सकते हो।”
“क्या? तुमने ही कहा था कि तुम मुझे वत्सर तक ले जाओगी?”
“मैंने जो कहा था उसका अर्थ होता है तुम्हें वत्सर का पता बताना, उसके शिल्प के विषय में बताना जो इस मंजूषा से जुड़ा हो ऐसा प्रतीत हो रहा है। मैंने कहीं नहीं कहा कि मैं तुम्हारे साथ चल रही हूँ।”
“येला। तुमने अभी तो मेरी स्त्री मित्र होना स्वीकारा था। और अब, अब क्या हुआ?”
“वह आपने मुझे कहा था कि एक नाटक में साथ देना, तो मैंने वही किया। आगे कुछ नहीं।”
“तो क्या तुम मेरी स्त्री मित्र नहीं हो?”
“नहीं। कभी नहीं।”
“आपके विश्वास पर तो मैं निकाल पड़ा हूँ अवकाश लेकर। और अब आप ही ..।”
“मैं पुलिस नहीं हूँ और ना ही ऐसे किसी कार्य में मेरी रुचि है। इससे अधिक मैं कोई सहयोग नहीं करनेवाली हूँ। कोई अपेक्षा भी नहीं रखना। मुझे चलना होगा। चलती हूँ। आपकी सफलता की कामना करती हूँ।”
“ओह। मैं भी आप पर विश्वास कर बैठ। बुद्धू हूँ मैं। अंतिम बार पूछता हूँ कि तुम मेरे साथ चलोगी?”
“और मैं अंतिम बार कह रही हूँ कि नहीं चलूँगी। राम, राम।”
येला चलने लगी। शैल उसे जाते देखते रहा। कुछ क्षण कुछ भी विचार किए बिना वह वहीं खड़ा रहा। येला के जाने के कुछ समय पश्चात वह जागृत हुआ। उसने घर कि तरफ पग उठाए।
घर जाते ही उसने सभी वातायन खोल दिए। दूर गगन में देखता रहा, विचार करता रहा।
‘मैं भी मूर्ख हूँ। बिना कुछ विचार किए एक अज्ञात स्त्री की बात मानकर सात दिवस का अवकाश लेकर निकल पड़ा। मुझे ऐसी शीघ्रता नहीं करनी चाहिए थी।’
‘बड़े अधीर एवं उत्सुक थे येला के साथ जाने के लिए! तुमने तो उसे स्त्री मित्र भी बना लिया था।’
‘हाँ। वह मेरी भूल थी। किन्तु अब क्या? अब क्या करूँ? वत्सर को मिलूँ? वहाँ तक जाऊँ?’
‘नहीं जाओगे तो सात दिवस तक क्या करोगे?’
‘सारा के साथ मिलकर अन्वेषण आगे बढ़ाऊँगा।’
‘सारा के साथ? उससे तो भागकर, बचकर निकल लिए हो।’
‘तो? तुमने मुझे दुविधा में डाल दिया। अब यह सात दिन मैं क्या कर सकता हूँ? काम पर नहीं जा सकता। येला साथ नहीं चल रही।’
‘यदि यही सूचना किसी अन्य ने दी होती तब भी तुम यही आग्रह रखते कि वह व्यक्ति तुम्हारे साथ चलेगी तो ही तुम वत्सर के पास जाते?’
‘नहीं। मैं तब स्वयं ही चल जाता। विजेंदर को साथ लेता।’
‘तो ले लो विजेंदर को साथ।’
‘नहीं, अभी मैं ऐसा नहीं कर सकता।’
‘क्यों?’
‘क्यों कि मैं सब को कह चुका हूँ कि मैं येला, मेरी स्त्री मित्र येला, के साथ कहीं जा रहा हूँ।’
‘तो क्या हुआ? कह देना येला ने विश्वासघात किया।’
‘तब तो जग हँसाई होगी।’
‘वो तो होनी ही है।’
‘तो उससे बचने का उपाय क्या है?’
‘एक ही उपाय है, वत्सर के पास जाना।’
‘किन्तु ..?’
‘किन्तु के लिए कोई अवकाश नहीं है यहाँ, श्रीमान शैल।’
‘अर्थात मुझे जाना ही पड़ेगा? वह भी अकेले?’
‘और कोई विकल्प नहीं है।’
‘ठीक है।’
शैल ने निर्णय कर लिया। उसने यात्रा की टिकट करा ली। जाने की तैयारी करने में व्यस्त हो गया।