भग:12
रचना: बाबुल हक़ अंसारी
"भीड़ का तूफ़ान और आख़िरी सौदा…"
पिछले खंड से…
"नहीं… त्रिपाठी ने नहीं, उन्हें हराया गया था।
वो भी कलम से नहीं, चाल से… सत्ता और स्वार्थ की चाल से।"
मंच पर विद्रोह
गुरु शंकरनंद के शब्द सुनते ही भीड़ में खलबली मच गई।
किसी ने गुस्से में कहा —
"तो असली गुनहगार कौन है?"
दूसरा चिल्लाया —
"सच बताओ गुरुजी! इतने साल क्यों चुप रहे?"
ढोल-नगाड़ों की गूंज अचानक थम गई थी।
हर आँखें मंच पर टिकी थीं।
हवा भारी थी… जैसे कोई तूफ़ान फटने ही वाला हो।
गुरुजी का सच
गुरु शंकरनंद ने काँपते हुए हाथ से माइक थामा।
"वो सौदा… मैंने किया था।"
पूरी भीड़ एक पल को पत्थर की मूर्ति बन गई।
आर्या और नीरव दोनों के मुँह से चीख निकली —
"आपने…?"
गुरुजी की आँखें नम थीं।
"हाँ, मैंने।
क्योंकि उस वक़्त मुझे डर था… डर कि अगर त्रिपाठी जी जीत गए तो उनकी सच्चाई कई बड़े लोगों के नकली ताज उतार देगी।
मुझे सत्ता के इशारों पर चुप रहना पड़ा।
और इस चुप्पी ने उन्हें हराया, न कि उनकी रचना ने।"
भीड़ की बगावत
भीड़ गरज उठी।
"धोखा हुआ था!"
"हमसे झूठ बोला गया!"
"त्रिपाठी की जीत छीनी गई थी!"
लोग मंच के करीब आने लगे।
कुछ लोग गुरुजी पर गुस्सा उतारना चाहते थे, लेकिन अनया सामने आ गई।
"रुक जाओ!
अगर मेरे पिता को इंसाफ़ चाहिए, तो ये गुस्सा किसी को मारकर नहीं मिलेगा।
ये आग सच की ताक़त से बुझेगी, न कि हिंसा से।"
आर्या और नीरव की जद्दोजहद
आर्या की आँखें आँसुओं से भर गईं।
"तो इसका मतलब… नीरव, तुम दोषी नहीं थे?"
नीरव का स्वर टूटा हुआ था।
"मैंने हार को अपनी जीत समझा… ये मेरी सबसे बड़ी गलती थी।
लेकिन असली गुनाह का बोझ… गुरुजी के कंधों पर था।"
आर्या ने काँपती आवाज़ में कहा,
"तो फिर मेरी नफ़रत किससे है? तुमसे… या उस व्यवस्था से जिसने सब लूटा?"
अनया का फैसला
अनया ने हाथ उठाया और दृढ़ स्वर में बोली —
"बस!
अब ये कहानी नफ़रत की नहीं होगी।
मैं अपने पापा की कलम को फिर से ज़िंदा करूँगी।
और ये आग — अब किताबों और शब्दों के ज़रिए बुझेगी, हिंसा से नहीं।"
भीड़ शांत होने लगी।
हर चेहरा उसकी ओर देख रहा था।
मानो सब उसकी आवाज़ को अपनी सच्चाई मान रहे हों।
भीड़ की खामोशी
मंच पर पसरी गहमागहमी धीरे-धीरे थम गई।
लोगों की चीखें अब फुसफुसाहट में बदलने लगीं।
हर कोई मानो सोच रहा था कि क्या वाक़ई सच को दबाने से इंसाफ़ रुक सकता है?
एक बुज़ुर्ग ने हाथ जोड़कर कहा —
"बेटी अनया, अगर तू अपने पिता की राह पकड़ लेगी… तो यक़ीन मान, हम सब तेरे साथ हैं।"
भीड़ ने सहमति में सिर हिलाया।
एक नारा गूंज उठा —
"सच की जीत होगी!"
गुरु शंकरनंद का प्रायश्चित
गुरुजी काँपते कदमों से घुटनों के बल बैठ गए।
उनकी आँखों से आँसू टपकने लगे।
"अनया… आर्या… नीरव… और इस भीड़ के हर शख़्स से मैं माफ़ी चाहता हूँ।
मैंने जो सौदा किया था, वो मेरी कायरता थी।
मैं सत्ता के डर से झुक गया, पर अब और नहीं।
आज से मेरी कलम सिर्फ़ सच के लिए चलेगी, चाहे उसका अंजाम मेरी मौत ही क्यों न हो।"
उन्होंने जेब से एक पुराना काग़ज़ निकाला।
वो रघुवीर त्रिपाठी की अधूरी पांडुलिपि थी, जिसे सालों से दबाकर रखा गया था।
"ये… यही असली विरासत है।
इसे मैंने छुपाया था, लेकिन अब ये अनया की है।"
आर्या और नीरव के दिल की उलझन
आर्या ने काँपते हुए उस पांडुलिपि को छुआ।
उसकी आँखें नीरव की ओर उठीं।
"तो… अब हमें किस राह पर चलना है?"
नीरव ने धीमे स्वर में कहा —
"आर्या, अब हमें साथ चलना होगा।
प्यार का सबूत ग़लतफ़हमी नहीं, बल्कि सच के लिए लड़ी गई लड़ाई होगी।"
आर्या की आँखों से फिर आँसू बहे, लेकिन इस बार उनमें उम्मीद की चमक थी।
अनया का संकल्प
अनया ने पांडुलिपि को हाथों में उठाया और मंच से पुकारा —
"ये सिर्फ़ मेरे पापा की कलम नहीं है, ये हर उस इंसान की आवाज़ है जिसे झूठ और अन्याय ने दबा दिया।
मैं इस पांडुलिपि को पूरा करूँगी… और इसे दुनिया के सामने लाऊँगी।
यही होगा मेरे पिता को असली इंसाफ़, और हमारी पीढ़ी के लिए नया दीपक।"
भीड़ जोरदार तालियों से गूँज उठी।
मानो हर दिल ने उसकी बात को अपनी प्रतिज्ञा मान लिया हो।
(जारी रहेगा… भाग 13 में)
अगले खंड में आएगा:
सत्ता के खेल का असली चेहरा उजागर।
अनया की नई जंग — पांडुलिपि को छापने की जद्दोजहद।
और आर्या व नीरव का रिश्ता, जो अब इम्तिहान के सबसे कठिन दौर से गुज़रेगा।