अध्याय 6 – गहराइयों का सामना
कॉलेज की हलचल अब मुकुंद के लिए धीरे-धीरे सामान्य होने लगी थी। सुबह की क्लास, लाइब्रेरी में लंबे घंटे, हॉस्टल के शोर-गुल और कैंपस की भीड़—सब उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुके थे। लेकिन इस दिनचर्या की सतह के नीचे एक गहरी बेचैनी लगातार उसे कुरेदती रहती थी। हर दिन वह मुस्कुराकर सुदीप और बाकी दोस्तों से बातें करता, क्लास में ध्यान लगाने की कोशिश करता, लेकिन रात को जब अकेले बिस्तर पर लेटता, तो अंधेरे में उसे सिर्फ़ अपनी माँ का चेहरा और पिता की झुकी हुई कमर दिखाई देती।
पिता की ज़मीन बेमौसम बरसात में फिर से डूब गई थी। गाँव से आया पत्र उसने कितनी ही बार पढ़ा, लेकिन हर बार दिल में चुभन उतनी ही गहरी होती। माँ ने लिखा था—
"बेटा, तेरा दाख़िला हुआ यह गाँव के लिए बहुत बड़ी बात है। लेकिन हालात ठीक नहीं हैं। तेरा छोटा भाई भी अब स्कूल जाने लगा है, और खेत से आमदनी लगभग न के बराबर है। तू पढ़ाई पर ध्यान दे, बाकी का इंतज़ाम हम कर लेंगे।"
लेकिन मुकुंद जानता था कि माँ का यह ‘बाकी का इंतज़ाम’ कितनी बड़ी मजबूरी के साथ जुड़ा हुआ है।
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हॉस्टल की ज़िंदगी अपने ढंग से कठिनाइयाँ लाती थी। सुदीप अक्सर नए कपड़े, महंगे गैजेट्स और पार्टी की बातें करता, और मुकुंद चुपचाप किताबों में डूबा रहता। उनके बीच दोस्ती थी, लेकिन दोनों की दुनिया इतनी अलग थी कि कई बार मुकुंद को लगता, वह इस कमरे में सिर्फ़ एक पराया है।
एक रात सुदीप देर से लौटा। उसके हाथ में बड़ी सी पिज़्ज़ा बॉक्स थी, और दोस्तों का एक झुंड उसके साथ हँसता-खिलखिलाता आया। मुकुंद ने किताब बंद की और एक तरफ़ खिसक गया। सुदीप ने उसे भी ऑफ़र किया—
“भाई, चलो तुम भी खा लो। इतना पढ़कर क्या मिलेगा? थोड़ी life भी enjoy करो।”
मुकुंद ने मुस्कुराकर मना किया, “नहीं, भूख नहीं है।”
असल में भूख थी, लेकिन उसने मन को रोक लिया। उसकी माँ ने भेजे थे कुछ सूखे पराठे और अचार, वही उसका सहारा थे।
उस रात जब सब सो गए, मुकुंद ने टिफ़िन खोलकर बासी पराठे खाए। हर निवाले में उसे माँ की मेहनत और पिता का पसीना दिखाई दिया। उसकी आँखें भर आईं, लेकिन उसने आँसू पोंछ लिए। उसे याद था—उसने खुद से वादा किया था कि चाहे जैसे हालात हों, वह हार नहीं मानेगा।
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क्लास में आन्या से मुलाक़ात अब थोड़ी गहरी हो चुकी थी। लाइब्रेरी में दोनों अक्सर एक ही टेबल पर बैठ जाते। आन्या का स्वभाव सरल था, और उसकी मुस्कान मुकुंद के भीतर कहीं ठहर जाती।
एक दिन उसने पूछा, “मुकुंद, तुम हमेशा इतने चुप क्यों रहते हो? बाकी सब मस्ती करते हैं, और तुम बस किताबों में गुम रहते हो।”
मुकुंद ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, “शायद मैं ज़्यादा बोलना नहीं जानता। और वैसे भी, मेरे पास इतना वक्त नहीं है कि मैं बेकार की बातों में लगाऊँ।”
आन्या ने उसे ध्यान से देखा। “वक्त सबके पास बराबर होता है मुकुंद… बस हम उसका इस्तेमाल अलग-अलग तरीक़े से करते हैं।”
उस दिन पहली बार मुकुंद को लगा कि कोई उसकी चुप्पी को समझना चाहता है।
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पर ज़िंदगी इतनी आसान कहाँ थी। कॉलेज की फ़ीस भरने का वक्त आ गया था। उसने हॉस्टल की टेबल पर रखी फ़ीस रसीद को बार-बार देखा। रकम उसके लिए पहाड़ जैसी थी। उसने गाँव फ़ोन लगाया। पिता ने थकी हुई आवाज़ में कहा,
“बेटा, इस बार पैसे का इंतज़ाम करना बहुत मुश्किल है। ज़मीन गिरवी रखने की सोच रहा हूँ… लेकिन तू फ़िक्र मत कर, पढ़ाई रोकना मत।”
यह सुनकर मुकुंद के हाथ काँप गए। उसने फ़ोन रखते ही खिड़की से बाहर देखा। बाहर हॉस्टल का लॉन था, जहाँ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे, हँसी-ठिठोली कर रहे थे। लेकिन मुकुंद को उनकी हँसी किसी और दुनिया की आवाज़ लगी।
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उस रात सुदीप ने गौर किया कि मुकुंद बहुत चुप है। उसने कहा,
“भाई, कुछ गड़बड़ है क्या? तुम इतने down क्यों लग रहे हो?”
मुकुंद पहले तो टाल गया, लेकिन जब सुदीप ने बार-बार पूछा तो उसने सच बता दिया।
सुदीप थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, “देखो, मैं जानता हूँ तुम्हारी हालात अलग है। लेकिन तुम अकेले नहीं हो। मैं मदद कर सकता हूँ। पैसे की टेंशन मत लो।”
मुकुंद ने तुरंत इंकार किया, “नहीं! मैं दोस्ती को बोझ नहीं बनाना चाहता।”
सुदीप ने उसकी तरफ़ देखा। “कभी-कभी मदद लेना भी ज़रूरी होता है। दोस्ती का मतलब सिर्फ़ हँसना-खेलना नहीं है, मुश्किल वक्त में साथ खड़े रहना भी है।”
मुकुंद ने कुछ नहीं कहा। लेकिन उसके दिल में पहली बार सुदीप की दोस्ती की गहराई महसूस हुई।
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फिर भी मुश्किलें कम नहीं हुईं। कॉलेज में internal exams शुरू हो गए थे। मुकुंद दिन-रात पढ़ाई करता, लेकिन दबाव इतना बढ़ गया था कि उसकी तबियत गिरने लगी।
एक रात लाइब्रेरी से लौटते वक्त वह सीढ़ियों पर लड़खड़ाकर गिर पड़ा। आन्या तुरंत उसके पास पहुँची। उसने पानी पिलाया और घबराकर बोली, “मुकुंद, तुम ठीक हो? तुम्हें डॉक्टर के पास चलना चाहिए।”
मुकुंद ने सिर हिलाया, “नहीं… बस थोड़ी थकान है।”
आन्या की आँखों में चिंता थी। “तुम खुद को इतनी तकलीफ़ क्यों दे रहे हो? कभी-कभी दूसरों को भी बताना चाहिए कि तुम्हें मदद की ज़रूरत है।”
उसकी बात मुकुंद के दिल में उतर गई।
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लेकिन इस सबके बीच, एक नया मोड़ आया। कॉलेज में वार्षिक प्रतियोगिता की घोषणा हुई—“नेशनल साइंस कॉम्पिटिशन।” विजेता को मोटी scholarship और पूरे देश में पहचान मिलनी थी।
सुदीप ने उत्साह से कहा, “भाई, ये मौका तुम्हारे लिए ही है! अगर तुम जीत गए, तो तुम्हारी फ़ीस और बाकी सब tension खत्म।”
आन्या ने भी हौसला दिया। “तुम्हारे पास दिमाग़ है, मेहनत है… और सबसे बड़ी बात, जुनून है। यह तुम्हें जीत तक ले जाएगा।”
मुकुंद के दिल में एक नई रोशनी जली। उसे लगा, शायद यही वो रास्ता है जिससे वह अपने संघर्षों को जीत सकता है।
लेकिन क्या यह रास्ता आसान होगा? या इसमें और भी मुश्किलें छिपी हैं?
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उस रात मुकुंद ने अपनी डायरी खोली और लिखा—
"शायद किस्मत मुझे बार-बार परख रही है। लेकिन इस बार मैं गिरूँगा नहीं। यह लड़ाई सिर्फ़ मेरे लिए नहीं है, माँ-बाबा के लिए है, अपने गाँव के लिए है, उस हर बच्चे के लिए है जो सपने देखता है लेकिन हालात उसे रोकते हैं। मैं हार नहीं मानूँगा।"
उसने पन्ना बंद किया, आँखें मूँदी और सोचा—
“कल से एक नई शुरुआत होगी।”
लेकि
न मुकुंद यह नहीं जानता था कि इस नई शुरुआत में आने वाले तूफ़ान उसकी कल्पना से कहीं बड़े होंगे…
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