Adhure Sapno ki Chadar - 2 in Hindi Women Focused by Umabhatia UmaRoshnika books and stories PDF | अधूरे सपनों की चादर - 2

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अधूरे सपनों की चादर - 2

अध्याय 2 – बचपन की गलियाँ और भीतर की कसक

गाँव में थोड़ी ही दूरी पर बाबूजी के चाचा का घर था। सब उन्हें बड़े स्नेह से बाबा जी कहते थे। उनके परिवार में दो बुआ और दो चाचा थे, और सभी एक ही आँगन में रहते थे। घरों के बीच ज़्यादा दीवारें नहीं थीं, पर दिलों के बीच तो बिल्कुल भी नहीं।दिन में दो-तीन बार आना-जाना आम था। कोई दाल उबाल रही होती तो कटोरी लेकर दूसरी ओर भेज दी जाती, कोई नया पकवान बनता तो बच्चों को दौड़ाकर दे दिया जाता। शाम होते ही बाबूजी अक्सर बाबा जी के घर चले जाते। हम सब उनके पीछे-पीछे भागते क्योंकि वहाँ चाय-पकौड़े का मज़ा मिलता। लकड़ी के चूल्हे पर तली हुई गरमा-गरम पकौड़ियों की खुशबू से पूरा आँगन महक उठता।गाँव की वही मिट्टी, वही हवा, वही अपनापन — जीवन का आधार था।---बचपन की गलियाँबचपन का सबसे प्यारा हिस्सा उन गलियों में बसा था। कभी मिट्टी से घरौंदे बनाना, कभी आम के बाग़ में चोरी-चोरी आम तोड़ना, कभी नदी किनारे घंटों बैठकर पत्थर उछालना। गलियों की धूल भरी पगडंडियाँ आज भी स्मृति में चमकती हैं।बुआ और चाचाओं के बच्चों के साथ हर दिन एक नया रोमांच होता। किसी दिन पेड़ पर चढ़ने की शरारतें, किसी दिन मिट्टी की रसोई सजाना। शाम होते-होते सब थककर हँसते-खेलते एक ही चौपाल में बैठ जाते। झगड़े भी होते, लेकिन अगले ही पल मिट्टी झाड़कर सब फिर से साथ खेलने लगते।इन छोटे-छोटे पलों ने सिखाया कि रिश्तों की सच्चाई शिकायतों से ऊपर होती है।---बुज़ुर्गों का सायापरिवार के बुज़ुर्ग तो जैसे चलते-फिरते विद्यालय थे। दादी का आंचल, जो हर आँसू पोंछ देता था। बाबा जी की झुकी हुई चाल, जिनके कदमों के साथ खेतों की मिट्टी भी जीवंत हो उठती थी। माँ के हाथों का खाना, जिसमें केवल स्वाद नहीं, दुआएँ भी होती थीं। और बाबूजी का अनुशासन, जो सख़्त तो लगता पर भीतर से उतना ही कोमल था।हर दिन कोई न कोई सीख छिपी रहती — बड़ों का सम्मान करना, मेहमान का सत्कार करना, और सबसे अहम, कम में संतोष पाना। यही संस्कार तनु की आत्मा में बीज की तरह जमते चले गए।---रिश्तों की डोरगाँव का जीवन रिश्तों की डोर से ही बंधा हुआ था। सुबह उठकर सबसे पहले आँगन में दादी को प्रणाम करना, फिर बाबा जी के साथ खेतों का चक्कर लगाना। बुआ के घर जाकर उनके बच्चों संग खेलना, और फिर दोपहर को माँ की गोद में सिर रखकर उनींदे सपने देखना।हर रिश्ता एक नया सहारा देता। यही डोर बाद के जीवन में कठिनाइयों के बीच तनु की ढाल बनी।---किताबों की दुनियातनु को सबसे अच्छा लगता था बाबा जी के पास बैठकर पढ़ना। किताब हाथ में आती तो वह दुनिया की सारी कसक भूल जाती। वह अपनी एक किताब उठाती और दौड़कर बाबा जी के घर पहुँच जाती। बड़े-बड़े हॉलनुमा कमरे में बैठकर जब वह शब्दों को बुनती, तो लगता जैसे दुनिया उसके पैरों के नीचे है।किताबें ही उसकी सबसे बड़ी साथी थीं — कभी राजकुमारियों के सपने दिखातीं, कभी योद्धाओं का साहस सिखातीं।---भीतर की कसकफिर भी दिल के एक कोने में कसक थी।बाबा जी का घर बड़ा था, ठीक उसके पास ही स्कूल भी। वहाँ के बच्चों के पास अच्छे कपड़े, चमकदार खिलौने, और हर सुविधा थी। उधर तनु का घर — छोटा, सामान से खाली, और हमेशा खर्चों की तंगी से जूझता हुआ।कभी-कभी तनु अपनी सहेली से कह देती —“मेरे घर में भी बड़ा सोफ़ा है, बड़ा रेडियो है… बहुत सारा सामान है।”यह उसकी मासूम कोशिश होती अपने को बराबर साबित करने की।पर सच ज़्यादा देर छिपता नहीं।---अपमान का दिनएक दिन स्कूल में टीचर ने फीस न भरने की बात कही।“चलो, तनु के घर। वहीं उसके माँ-बाप से बात करते हैं।”सहेली भी साथ चली।घर पहुँचते ही उसने देखा — केवल दो पुरानी कुर्सियाँ पड़ी हैं, और कुछ नहीं। दीवारें खाली, कमरा सूना।तनु का मन छोटा हो गया। सहेली की आँखों में उठे सवाल उसने पढ़ लिए। पर उसके पास कोई जवाब नहीं था।---अधूरी तमन्नाएँजन्मदिन आते तो बाकी बच्चे रंग-बिरंगे फ़्रॉक पहनकर मिठाई बाँटते। तनु चुपचाप खड़ी रह जाती। घर आकर माँ से कहती —“माँ, मेरे लिए भी वैसा ही फ़्रॉक बना दो।”माँ बेबस होकर मुस्कुरातीं —“बिटिया, हालात ऐसे नहीं हैं… अभी तो खर्चे पूरे ही नहीं पड़ते।”तनु अपनी मासूम इच्छाओं को भीतर ही भीतर दबा लेती।---तुलना और तन्हाईबाबा जी का परिवार संपन्न था। उनके बच्चे पढ़े-लिखे, सलीकेदार और आत्मविश्वासी थे। उधर तनु का परिवार बड़ा, खर्चे भारी, और सपने हमेशा किनारे।वह मन ही मन तुलना करती —“क्यों हमारा घर इतना अलग है? क्यों मैं भी उनकी तरह नहीं रह सकती?”हर बार यह कसक उसके भीतर तीर की तरह चुभती। लेकिन जैसे ही किताब हाथ में आती, उसकी आँखों की चमक लौट आती। किताबें उसे वह सब दे देतीं जो दुनिया छीन लेती थी — हिम्मत, उम्मीद और एक अलग आसमान।---रूह की पहली खटखटबचपन की इन गलियों में ही तनु की रूह ने पहली बार खटखट की थी। वह कह रही थी —“तुम्हारा रास्ता अलग है। तुम्हारी पहचान किसी बड़े घर या नए कपड़े से नहीं बनेगी। तुम्हारी पहचान तुम्हारे भीतर से जन्म लेगी।”तनु को उस समय ये बातें समझ नहीं आतीं, पर उसकी रूह ने पहले ही इशारा कर दिया था — कि कठिनाई ही उसकी ताक़त बनेगी, और किताबें उसकी उड़ान।---🌸 रूह-स्पर्श टिप्पणी 🌸“हर बच्चा किसी न किसी कसक के साथ बड़ा होता है। पर वही कसक अक्सर रूह को गढ़ देती है। तनु ने बचपन की कमी में ही अपनी सबसे बड़ी पूँजी पाई — किताबों का सहारा और भीतर की ताक़त।”---