antarnihit - 16 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अन्तर्निहित - 16

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अन्तर्निहित - 16

[16]

“मैं बताती हूँ। उस प्रदर्शनी में मैंने अपना कोई शिल्प नहीं रखा था। किन्तु वहाँ मुझे सब के सम्मुख बाँसुरी बजाने का सौभाग्य मिला था। मेरी बाँसुरी सुनकर वत्सर मेरे पास आया था और कहने लगा .. 

“क्या तुम मुझे बाँसुरी बजाना सीखा सकती हो?”

“अवश्य। किन्तु उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। चुका पाओगे?” येला ने पहाड़ की तरफ देखते हुए कहा। 

“यदि मेरे बस में होगी तो चुका दूंगा।”

“और नहीं हुई तो?”

“तो बाँसुरी को भूल जाऊंगा।”

“और बाँसुरीवाली को?”

“उसे नहीं भूलूँगा। कभी नहीं।”

“किंमत तो जान लो।”

“कहो।” वत्सर ने नि:श्वास के साथ कहा। 

“मुझे तुम्हारा वह शिल्प देना पड़ेगा। स्वीकार्य है?”

“वह शिल्प?” वत्सर विचार में पड गया। 

“क्यों, श्रीमान? किंमत दे पाओगे?”

“दी। वह शिल्प की मूर्ति दी। अब तो मुझे बाँसुरी सिखाओगी ना?”

“सीखने की तुम्हारी लगन देखकर मैं प्रसन्न हुई। मुझे कोई किंमत नहीं चाहिए। चलो मैं सिखाती हूँ।” 

“अभी?”

“गुरु से ज्ञान लेने में शिष्यों को विलंब नहीं करना चाहिए। जब गुरु प्रस्तुत हो तो शीघ्र ही ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए।”

“तुम तो मेरे देश की भाषा, मेरे देश की वाणी बोल रही हो।”

“हूँ तो विदेशी किन्तु अब भारत की हो गई हूँ। शिल्प सिखाती हूँ, बाँसुरी बजाती हूँ और भारत के ग्रंथों का अध्ययन भी करती हूँ।”

“तुम्हारा चरित्र अदभुत है। क्या नाम है तुम्हारा?”

“येला। येला स्टॉकर।”

“येला स्टॉकर।”

“चलो शिक्षा के लिए सज्ज हो जाओ।” येला वत्सर को बाँसुरी बजाना सिखाने लगी, वत्सर सीखने लगा। 

कुछ दिन पश्चात वत्सर ने येला से कहा, “अब मैं मेरे गाँव लौट रहा हूँ। तुमने मुझे बाँसुरी सिखाई उसके लिए मैं तुम्हारा ऋणी रहूँगा।”

“तुम भी तो अच्छे शिष्य की भांति सिख गए हो।”

“यह शिष्य अपने गुरु को गुरु दक्षिणा देना चाहता है।”

“क्या दोगे?”

“वही जो गुरु ने मांग था।”

“वह शिल्प? क्या तुम मुझे वह शिल्प देने जा रहे हो?”

“हाँ, गुरु जी।”

“वत्सर, नहीं। तुम जानते हो कि विश्व में उस शिल्प का मूल्य क्या है?”

“तुमने मुझे जो ज्ञान दिया है वह भी तो अमूल्य है। तुम नहीं जानती कि बाँसुरी बजाकर मुझे कितना आनंद प्राप्त हो रहा है।”

“किन्तु वह शिल्प?”

“इन्हीं हाथों ने बनाया है उसे। यह हाथ ऐसा दूसरा बना लेगा। किन्तु तुम नहीं होती तो यह हाथ इस बाँसुरी को कभी नहीं बजा पाता। शिल्प तुम्हारी कार्यशाला में रहेगा। उससे उचित स्थान उस शिल्प का इस धरती पर अन्य नहीं हो सकता। अब यह शिल्प तुम्हारा हुआ।”

वत्सर की बात सुनकर येला गदगद हो गई। प्रसन्नता के कारण वह रो पड़ी। उसे देखते देखते वत्सर बाँसुरी बजाने लगा। कुछ समय उपरांत वत्सर ने, बाँसुरी ने तथा येला के अश्रुओं ने विराम लिया। 

“यदि गुरु की आज्ञा हो तो मैं चलूँ?” 

“अवश्य। किन्तु मेरी एक बात तुम्हें भी माननी पड़ेगी।”

“कहो गुरुदेव।”

“मेरी यह बाँसुरी मैं तुम्हें दे रही हूँ। तुम इसके सिवा अन्य किसी बाँसुरी को नहीं बजाओगे।”

येला ने अपनी बाँसुरी वत्सर को दे दी। वत्सर ने उसे गुरु प्रसाद के रूप में स्वीकार कर लिया। 

“ओह। तो यह बाँसुरी येला की है?” शैल ने वत्सर के हाथ में रही बाँसुरी को स्पर्श करते हुए कहा। 

“जी। गुरु प्रसाद है यह।”

“अब यह कहो कि जो व्यक्ति अपने अमूल्य शिल्प का त्याग कर सकता है वह किसी की हत्या कर सकता है?” येला ने शैल को मर्मघातक प्रश्न पूछ लिया। क्षणभर शैल उस प्रश्न से आहत हो गया। 

स्वयं को संभाला और कहा, “अभी तो मान लेता हूँ कि आप दोनों निर्दोष हो। किन्तु संशय से पूर्णत: परे नहीं हो।”

“हम पूरा सहयोग करेंगे।” वत्सर ने कहा। 

“ठीक है। आप दोनों का धन्यवाद।” शैल ने कहा। एल और वत्सर श्री कृष्ण जी के सम्मुख गए और प्रार्थना करने लगे। शैल आगे की योजनाआ बनाने में व्यस्त हो गया। कुछ विचार कर शैल ने कहा, “हमें उस शिल्प तक पहुंचना होगा। कहाँ है आपकी कार्यशाला?”

“मेरे साथ चलो। मैं ले चलती हूँ।”

“चलो। और वत्सर, तुम्हें भी हमारे साथ चलना होगा।”

“कब चलना है?”

“अविलंब चलना होगा।”