Shri Bappa Raval - 13 in Hindi Biography by The Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल - 13 - सिंधु नदी की रक्त गंगा

Featured Books
Categories
Share

श्री बप्पा रावल - 13 - सिंधु नदी की रक्त गंगा

द्वादशम अध्याय
सिंधु नदी की रक्त गंगा

भूरे रंग की चादर ओढ़े व्यापारी जैसा दिखने वाला मनुष्य, मेवों से भरे झोले लेकर देबल की तंग गलियों में घूम रहा था। लोग बड़ी रुचि लेकर उससे मेवों की खरीददारी कर रहे थे। तभी चार अश्वारोही शस्त्र ताने उसके निकट आये और उस व्यापारी की गर्दन पर तलवार तानते हुए कहा, “तुम अरब देश से आये हो न?”

“जी, जी हुजूर, मुझसे कोई गुस्ताखी हो गयी क्या?” उस व्यापारी ने घबराते हुए कहा।

उस अश्वारोही योद्धा ने उसे ऊपर से नीचे तक घूरा, “तुम अरब व्यापारी पिछले दो माह से व्यापार तो बहुत कर रहे हो, किन्तु कर देने के नाम पर हाथ खड़े कर लेते हो। चलो हमारे साथ, तुम्हारा तो अच्छे से उपचार किया जाएगा।” उसने पलटकर अपने सैनिकों की ओर देखा, “डालों बेड़ियाँ इस पर।”

“हमने कर देने में कोई कोताही नहीं बरती हुजूर, ये जुल्म ना करिए।” किन्तु सैनिकों ने उस व्यापारी की एक नहीं सुनी और प्रजाजनों के समक्ष ही उसे घसीटते हुए ले जाने लगे। प्रजाजनों को भी थोड़ा आश्चर्य हुआ, कुछ पीछा करते हुए तंग गलियों से बाहर निकले तो देखा वहाँ कई चलते फिरते पहिये लगे पिंजरें थे, जिन्हें अश्व खींचकर ले जा रहे हैं। उन सभी में अनेकों अरब व्यापारी बंदी बनाए गये थे। यह देख प्रजाजनों में कानाफूसी होना आरम्भ हो गयी।

“अरे भैया, ये अकस्मात ही इन भोले भाले व्यापारियों को बंदी क्यों बनाया जा रहा है ?” एक प्रजाजन ने संदेह जताया।

तब दूसरे ने कहा, “सुना है राजा दाहिर ने ही ऐसा आदेश दिया है। उनमें असहिष्णुता इतनी बढ़ गयी है कि अब वो किसी मुसलमान को सिंध में देखना भी नहीं चाहते।”

इस पर तीसरे को ताव आ गया, “ये क्या कह रहे हो, भैया? महाराज दाहिर ने अरब खलीफा से द्रोह करने वाले माविया बिन हारिस अलाफ़ी और उसके भाई मुहम्मद बिन हारिस अलाफ़ी को शरण देकर उनकी रक्षा की। और इसी कारण अरबियों से शत्रुता मोल ली, और तुम कह रहे हो कि वो आज इतने असहिष्णु हो गये हैं जो मुस्लिमों को अपने राज्य में देखना ही नहीं चाहते।”

इस पर दूसरे ने सफाई देने का प्रयास किया, “मैंने तो इस आदेश के विषय में बस सुना था। किन्तु अगर ये सत्य नहीं है तो इन निर्दोष व्यापारियों को बंदी क्यों बनाया जा रहा है? ये लोग जो इतने शानदार मेवे अरब से यहाँ लेकर आते हैं, वो तो हिन्द में दूर दूर तक कहीं ना मिलते।”

“हाँ, ये बात तो सही कही भैया।” उनमें से एक ने अपने हाथ में रखे काजू चबाते हुए कहा, “ऐसे स्वादिष्ट काजू पहले कभी नहीं खाए। वैसे पिछले दो महीनों से इन मेवों के स्वाद में कुछ अधिक ही वृद्धि हो गई है।”

“सही कहा, मित्र। इतने भलेमानस व्यापारियों को यदि बंदी बनाकर सिंध से निष्काषित किया गया, तो कदाचित सिंधुराज को विद्रोह का सामना करना पड़ेगा।”

शीघ्र ही सैकड़ों अरबी व्यापारियों को बंदी बनाकर एक सैन्य शिविर के निकट लाया गया। मुख्य शिविर से लाल पगड़ी और कवच धारण किये एक योद्धा आकृति का अँधेड़ आयु का व्यक्ति बाहर आया। अपनी घनी मूँछों पर ताव देकर उसने चहुं ओर दृष्टि घुमाई और एक सैनिक को बुलाकर पूछा, “इन व्यापारियों का सरदार पकड़ा गया या नहीं?”

“जी महामहिम, वो भी हमारा बंदी बन चुका है।” सैनिक ने सहमति जताई।

“हम्म, उसे बेड़ियों में जकड़के हमारे शिविर में भेजो। हम उससे एकांत में वार्ता करना चाहते हैं।”

******

सर पर काली पगड़ी धारण किये बेड़ियों में जकड़ा हुआ वो युवक मुख्य शिविर में आया। वो लाल पगड़ी वाला योद्धा अपने आसन पर हाथ फिराता हुआ अपने सामने खड़े उस युवक को घूरे जा रहा था। ढाढ़ी पर चढ़ा गहरा लाल रंग, और भूरे बालों के साथ काली पगड़ी और फूलों की कढ़ाई वाले पैर तक लम्बे कुर्ता पहने उस युवक की आयु अधिकतम बाईस वर्ष रही होगी। कुछ क्षणों के उपरान्त लाल पगड़ी वाले योद्धा ने शिविर में खड़े रक्षकों को बाहर जाने का संकेत दिया। उनके जाने के उपरान्त वो योद्धा मुस्कुराते हुए उठा और उस अरबी व्यापारी की बेड़ियाँ खोलने लगा, “आपका स्वागत है, अमीर मुहम्मद बिन कासिम।” 

इस पर उस व्यापारी का वेश धारण किये कासिम ने उसे टोका, “इसकी कोई जरूरत नहीं, हमें बंदी ही रहने दो, ज्ञानबुद्ध। हम यूँ खड़े-खड़े ही बात कर लेंगे।”

“जैसी आपकी इच्छा।” ज्ञानबुद्ध पीछे हटकर वापस अपने आसन पर बैठ गया।

उसका यूँ बैठना कासिम को तनिक भी रास नहीं आया, किन्तु फिर भी उसने बात को टालना ही उचित समझा, “तो अब कितने व्यापारियों को गिरफ्तार किया ?”

“लगभग एक हजार अरब सैनिक जो व्यापारियों का वेश लेकर देबल में अफीम में डुबाए मेवों का व्यापार कर रहे थे, उन सबको बंदी बना लिया गया है।”

“हम्म, और आलोर, नेरून और सीसम में हमारे ऐसे कितने व्यापारी गये थे?”

“लगभग पंद्रह सौ, हुजूर। और मुझे विश्वास है कि विगत दो माह में हजारों से लाखों लोग इन अफीम में डूबे मेवों के आदि हो चुके होंगे। दो माह में पूरे सवा लाख सेर मेवों का व्यापार हुआ है।”

“हम्म, बहुत अच्छे। और अब हमारे बाकि लोग मिलकर ये अवफ़ाह फैलायेंगे, कि अरबी व्यापारियों को कैद करने का हुक्म राजा दाहिर ने ही दिया है और शायद सिंध की आवाम में मिले हमारे लोगों ने इसकी शुरुआत कर भी दी होगी। जिन लोगों को अफीम की लत लग चुकी है, जब वो दाहिर की वजह से उन्हें नहीं मिल पाएगी तो वो भड़क उठेंगे। अगर उन्होंने सिंध के बादशाह से बगावत कर दी, फिर हम उनके लिए मसीहा बनकर आयेंगे और उनकी अफीम की जरूरत पूरी करके अपनी तरफ कर लेंगे।”
कासिम के मुख पर प्रसन्नता तो छाई, किन्तु अगले ही क्षण शंकाओं ने भी उसे घेर लिया, “पर तुम्हें यकीन है कि उस दाहिर के खिलाफ बगावत के लिए इतना काफी होगा?”

“नहीं, हुजूर ये काफी नहीं है। राजा रायचंद्र के राज्य में बौद्धों का सम्मान सबसे ऊँचा था, किन्तु उसके बाद राय दाहिर सेन ने पुनः सबको बराबरी पर लाकर खड़ा कर दिया, तो अनेकों बौद्धों के मन में उनके लिए घृणा समा गयी। इसलिए इन रणनीतियों से बीस हजार बौद्ध योद्धाओं को आप अपने पक्ष में कर सकते हैं। किन्तु आलोर, नेरुन और सीसम के लिए केवल ये अफीम की लत पर्याप्त नहीं है। उसके लिए एक और बड़ा कदम उठाना होगा, और उसका एक ही मार्ग है।”

उत्सुक होकर कासिम ने प्रश्न किया, “है तो बताओ।” 

“देबल में स्थित भगवान महाविष्णु का मन्दिर। सिंधियों में ये मान्यता रही है कि जब तक उस मन्दिर की लाल पताका लहरा रही है, तब तक ये देश विदेशी आंतक, से सुरक्षित रहेगा।” श्वास भरते हुए ज्ञानबुद्ध ने आगे कहा, “और वर्षों पूर्व गोया ब्राह्मणों ने एक भविष्यवाणी भी की थी, कि जिस दिन इस पताका और मन्दिर को क्षति पहुँची, ना केवल राय दाहिर सेन के शासन का अंत होगा अपितु इस्लामी शासन का सिंध में पदार्पण भी होगा।”

ज्ञानबुद्ध की बात सुन कासिम ने कुछ क्षण विचार किया, फिर अनुमान लगाने का प्रयास किया, “तो तुम केवल इसलिए हमारा साथ नहीं दे रहे कि दाहिर ने बौद्धों का आला ओहदा छीन लिया, बल्कि तुम्हें भी शायद ये यकीन है कि सिंधुराज की सल्तनत का खात्मा बहुत जल्द होने वाला है।”

ज्ञानबुद्ध ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, “आपने अनुमान तो उचित लगाया, किन्तु राजा दाहिर के प्रति हमारी घृणा से बड़ा कोई कारण नहीं था।”

“फिर तो अच्छा है।” कासिम मन ही मन प्रसन्न हो गया, “अगर इस एक मन्दिर के तबाह होने से हम सिंधियों में डर पैदा कर सकते हैं, तो ये जरूर करना चाहिए। अफीम की लत और उन ब्राह्मणों की भविष्यवाणी का डर, ये दोनों चीजें सिंध के अलोर, नेरुन, सीसम जैसे इलाकों के लोगों को हमारी ओर कर सकती है।”

“सत्य कहा आपने, यदि भगवान महाविष्णु का मन्दिर टूटा तो पूरे सिंध को भय का राक्षस निगल जाएगा। ये आपकी मनोवैज्ञानिक जीत होगी। सम्भवतः राय दाहिर सेन को अपने ही अनेकों प्रतिनिधियों से विद्रोह का सामना करना पड़े, और मेवाड़ी सेना यूँ ही उनका साथ छोड़ चुकी है। ऐसे में सिंधुराज स्वयं अकेले पड़कर सरल आखेट बन जायेंगे।”

“सही कहा, ज्ञानबुद्ध। पर कन्नौज का राजा नागभट्ट भी तो सिन्धुराज की मदद को आ सकता है। ऐसे में जंग में और भी बहुत सी मुश्किलें आ सकती हैं। उस बारे में कुछ सोचा है?”

“मैंने कुछ सोच समझकर ही आपको इस समय यहाँ आमंत्रित किया है, महामहिम कासिम। क्योंकि सिंध को जीतने का इससे उचित अवसर आपको प्राप्त नहीं होगा।”

 “कहना क्या चाहते हो?”

“सिंध से कन्नौज जाने के लिए किसी भी गुप्तचर या संदेशवाहक के लिए सबसे सरल और छोटा मार्ग घने वनों से होकर जाता है। और वहाँ चप्पे चप्पे पर हमने अपने योद्धा तैनात कर रखे हैं, जो सिंध के किसी भी संदेशवाहक को देखते ही यम के द्वार भेज देंगे। किन्तु हमें कुछ दिनों पूर्व ही ज्ञात हुआ कि इसी उद्देश्य के लिए उन वनों में स्वयं महाराज मानमोरी ने भी अपने योद्धाओं को तैनात किया हुआ है। और तो और हरित ऋषि का वो शिष्य कालभोजादित्य रावल भी पल्लवों से युद्ध करने निकला है। अर्थात सिंध को इस समय कोई बाहरी सहायता उपलब्ध नहीं हो पाएगी, इसलिए सिन्धुराज को पराजित करने का यही उचित समय है। क्योंकि गुप्तचरों या संदेशवाहक की हत्या करने का प्रपंच बहुत दिनों तक नहीं चलेगा, और जिस दिन सिन्धी गुप्तचर दल को इसका भान हुआ वो कन्नौज नरेश तक पहुँचने का कोई न कोई मार्ग ढूंढ लेंगे।”

“तुम्हारी बात तो सही है।” कुछ क्षण विचार कर कासिम ने उसकी पीठ थपथपाई, “ब्राह्मणाबाद के लोग बहुत सजग हैं इसलिए अफीम वाली ये तरकीब वहाँ काम नहीं आती। पर अलोर, नेरून और सीसम में हमारे जो भी फौजी व्यापारी बनकर घूम रहे हैं, वो भी जल्दी ही यहाँ आयेंगे। जब उन शहरों के लोगों को भी खास मेवे मिलने बंद होंगे, तो उनमें भी अफीम की तलब बढ़ती चली जायेगी। अब ये बताओ कि हमारे बाकी साथी कहाँ है?”

“लगभग पाँच सौ अरबी योद्धा लोहार बनकर ब्राह्मणाबाद में रह रहे हैं, वो स्वयं सिंधियों के लिए शस्त्र तैयार कर रहे हैं। यदि युद्ध हुआ तो वो लोग अंतिम शस्त्रों का जत्था कमजोर ही बनायेंगे, जिससे आपकी जीत सुनिश्चित हो जायेगी। साथ में तीन सौ और अरबी जाँबाज ब्राह्मणाबाद के किले में रक्षक बनकर नियुक्त हुए हैं। ये सब लोग भारतवर्ष के विभिन्न नगरों में यात्रा कर धीरे-धीरे उनकी संस्कृति की शिक्षा लेकर देबल के बंदरगाह के द्वारा व्यापारी बनकर यहाँ सिंध में आये। फिर मैंने उन्हें बौद्ध धर्म की विशेष शिक्षा दी, ताकि वो शमनी सैनिकों के रूप में ही ब्राह्मणाबाद के किले की सुरक्षा समूह में सम्मिलित हो जायें।”

“बहुत अच्छे, हमारे पास पाँच हजार का फौजी दस्ता यहीं देबल में है। भेष बदलकर वो यहीं के नागरिक बनकर रह रहे हैं। आज रात ही उन्हें इक्कठा करो, हमारा लश्कर कल सुबह होने से पहले ही देबल के उस मन्दिर को गिरा देगा।” कासिम उत्साहित था।

“एक समस्या और है, हुजूर। आलोर से जयशाह की भेजी तीन हजार की सैन्य टुकड़ी आज रात्रि तक देबल पहुँच जायेगी। नेरुन के किलेदार काम्हादेव उस टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे हैं, और मेवाड़ी सेना के सिंध छोड़ने के कारण, लोग विशेष रूप से श्री महाविष्णु के मन्दिर के रक्षण के लिए ही आ रहे हैं।”  

यह सुन कासिम का स्वर गंभीर हो गया, “तो फिर समझ लो वक्त आ गया है कि तुम खुलकर दाहिरसेन से बगावत का ऐलान कर दो। पाँच हजार लड़ाके हमारे, तुम कितने इकठ्ठे कर सकते हो?”

“क्षमा करें, हुजुर। भले ही इस नगर में दाहिरसेन से घृणा करने वालों की भरमार है, किन्तु श्री महाविष्णु का मन्दिर सिंध का सुरक्षा कवच है। उसे तोड़ने के लिए कोई बौद्ध सैनिक भी सहमत नहीं होगा। यदि मैंने ऐसा कोई आदेश दिया, तो मेरी सेना मुझसे ही बगावत कर सकती है। आपको कुछ भी करके आज रात्रि से पूर्व ही अपने लड़ाकों की मदद से मन्दिर को ध्वस्त करना होगा।” कुछ क्षण विचार कर ज्ञानबुद्ध ने कहा, “हाँ, अपने चुनिंदा विश्वासपात्रों को आपके साथ भेज सकता हूँ। वो उसी स्थान पर आपके लिए शस्त्रों की व्यवस्था कर देंगे। अभी मन्दिर की रक्षा लगभग एक हजार सैनिक कर रहे हैं, और मैं वादा करता हूँ उन तक कोई सहायता नहीं भेजी जायेगी।”

“नहीं, ये सरासर बेवकूफी होगी।” कासिम संतुष्ट नहीं दिखा, “भले ही वहाँ एक हजार की ही फौज हो, पर अगर हम उनसे लड़ने गये तो सुबह भी हो सकती है। तब तक अगर सिंध का तीन हजार का फौजी दस्ता आ गया तो हमारी मुश्किल बढ़ जायेगी।”

“तो आप करना क्या चाहते हैं?”

“वो तीन हजार की फौज मन्दिर की हिफाजत को आती है तो आने दो। अभी फिलहाल ब्राह्मणाबाद में जो लोहार और महल रक्षक हैं, उन्हें छोड़कर बाकी सभी को देबल में बुलाना होगा। ऐसे में हमारी अरब फौज कुल चौदह हजार की हो जायेगी। पर इतना काफी नहीं होगा, इसलिए हम सुल्तान अल हजाज को पैगाम भेज रहे हैं। जल्द ही हमारे लिए और मदद आ जायेगी, और फिर हम सीधा देबल पर ही हमला कर देंगे।”

“देबल पर हमला? ये आप क्या कर रहे हैं, हुजूर?” ज्ञानबुद्ध चकित रह गया।

कासिम ने मुस्कुराते हुए ज्ञानबुद्ध की पीठ थपथपाई, “फिक्र मत करिए, जनाब। जब हम हमला करेंगे तो आप अपनी फौज में सबसे आगे होंगे और ऐसे में कम से कम नुकसान में हम आपको आसानी से कैद कर लेंगे। आपके गिरफ्तार होने पर आपका फौजी दस्ता हथियार डालने पर मजबूर हो जायेगा। फिर आप और आपकी फौज को हमें देबल के किले में कैद करना होगा। उसके बाद हमारी आला फौज देबल के मन्दिर पर सीधा हमला कर देगी। मन्दिर के तबाह होते ही हम आपको आजाद कर देंगे।”

******

सिंध के ब्राह्मणाबाद के महल में दौड़ता हुआ एक सैनिक जय के कक्ष में आया और घबराते हुए सूचित किया, “महामहिम, अखाड़े के दो हाथी पागल हो गये। युद्धाभ्यास करती राजकुमारी सूर्यदेवी और प्रीमल देवी उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास कर रही हैं, किन्तु सफल नहीं हो पा रहीं। वो दोनों बेड़ियों को तोड़कर निकल आये हैं, और अत्यंत आक्रामक हैं।”

जय हड़बड़ी में उठा और उस सैनिक को आदेश दिया, “शीघ्र से शीघ्र मिट्टी का तेल और रेशम के वस्त्रों का जत्था लेकर अखाड़े में पहुँचो।” वो अपने कक्ष से सरपट दौड़ गया।

अखाड़े में पहुँचकर जय ने देखा कि प्रीमल दौड़ते हुए हाथियों पर जल फेंककर उन्हें शांत करने का प्रयास कर रही है। वहीं सूर्यदेवी बचते बचाते उन्हें अपनी ओर खींचकर ले जाने का प्रयास कर रही है। तीन सैनिक अखाड़े में उन हाथियों के प्रहारों से घायल पड़े हैं। सूर्य और प्रीमल यही प्रयास कर रही हैं कि वो हाथी उन घायल सैनिकों से दूर रहें।

शीघ्र ही मिट्टी के तेल की थैलियाँ और रेशम के कपड़ों का जत्था लिए वो सैनिक वहाँ आया। जयशाह ने तत्काल ही दो तीरों की नोक पर रेशम के वो कपड़े बांधे, उन्हें मशाल से जलाया और उनमें से एक सैनिक के हाथ में दिया, “जब मैं कहूँ ये दूसरा तीर मेरी ओर उछालना।”

एक जलता तीर और धनुष संभाले जयशाह आगे बढ़ा और उनमें से एक हाथी को पुकारते हुए कहा, “साक्या।”

अपना नाम सुन उनमें से एक हाथी ने जय की ओर यूँ देखा मानों उसे पहचानता हो, पर फिर भी उसका क्रोध कम ना हुआ। वो दौड़ता हुआ जय की ओर आया। अगले ही क्षण जय ने वो जलता तीर अपनी बाईं दिशा में छोड़ा, साक्या की दृष्टि आश्चर्यजनक रूप से उस नोक पर ही टिक गई और वो उसी तीर की ओर दौड़ा जो कई गज दूर की एक दीवार में जा धँसा था। जय ने सैनिक के हाथ से दूसरा तीर लिया और प्रीमल की ओर बढ़ते दूसरे हाथी को पुकारा, “कालोत।”

वो हाथी भी उसी दिशा में जय की ओर मुड़ा और अग्नि की नोक वाला वही तीर जय ने दाईं ओर की दीवार की ओर मारा। कालोत भी चिंघाड़ता हुआ उसी ओर दौड़ा।

उनसे छुटकारा पाकर अपने शरीर से धूल झाड़ते हुए सूर्यदेवी और प्रीमल देवी जयशाह के निकट आयीं। हांफते हुए प्रीमल ने प्रश्न किया, “ये किस प्रकार किया, ज्येष्ठ?”

दीवार में धँसे उन तीरों की अग्नि बुझ चुकी थी। जयशाह ने साक्या और कालोत को दीवारों में धँसे तीर निकालते हुए देखा, “ये युद्धक पशु यदि अधिक दिन प्रशिक्षण से दूर हो जायें, तो अक्सर अपनी सुधबुध खो बैठते हैं। ऐसी ही परिस्थितियों में इन पर नियंत्रण पाने के लिए मैंने प्रशिक्षण के दौरान इन्हें ये खेल सिखाया था, जिसमें इन्हें बहुत आनंद आता है।”

शीघ्र ही साक्या वो तीर अपनी सूंड में दबाए जय के पास आया और उसके समक्ष बैठकर सूंड उठाते हुए वो तीर उसके हाथ में दिया। कालोत ने भी वैसा ही किया।

सूर्य ने साक्या की ओर देख कहा, “ये पिता महाराज का शाही हाथी है। इसके व्यवहार में इस प्रकार का परिवर्तन अच्छा संकेत नहीं है।”

जय ने साक्या के निकट आकर उसके मस्तक पर हाथ फेरा, “चिंता मत करो, सूर्य। मेरी इस विद्या का प्रयोग हम अपने अखाड़े में प्रशिक्षित हुए किसी भी हाथी पर कर सकते हैं, ये दिशा भटके हाथियों को सही मार्ग पर ला सकती है। और इस विद्या को पिता महाराज भी भलीभाँति जानतें हैं।”

“किन्तु प्रतीत होता है, इस साक्या को पिताश्री से कहीं अधिक प्रेम आपसे है।” प्रीमल ने भी ठिठोली की।

“सिंध के आलोर में प्रशिक्षित हुआ हर एक हाथी मुझे पहचानता है। भले ही ये पिता महाराज का शाही हाथी हो, किन्तु बालपन से मेरा मित्र है। इसीलिए तो आलोर से मैंने इस पर विश्वास करके ही मुख्यतः पिताश्री की सवारी के लिए उन्हें भेंट किया था। तीन तीन हाथियों को अकेला पछाड़ देता है ये।” जय ने उसकी सूंड सहलाते हुए अखाड़े में लेते घायल सैनिकों की ओर देखा जो उठने में भी असमर्थ प्रतीत हो रहे थे, “अब तुम दोनों का नायिका बनने का ये प्रपंच समाप्त हो गया हो, तो भीतर जाओ। माता प्रतीक्षा कर रही हैं। तब तक मैं इन घायल सैनिकों के उपचार का प्रबंध कराता हूँ।

******

दस दिन बीते। देबल के बंदरगाह पर लगभग दो सौ रक्षक पहरा दे रहे थे। दूर से ही सैकड़ों नौकाओं का समूह निकट आता दिखाई दिया। अरबिस्तान के ध्वज के साथ सहस्त्रों योद्धाओं को यूँ तट की ओर आता देख उनमें से दस रक्षक सूचना देने के लिए किले की ओर भागे। शेष रक्षकों ने मोर्चा संभालने का निर्णय लिया। उनमें से पचास ढाल संभालें एक पंक्ति में खड़े हुए और शेष धनुष लिए ठीक उनके पीछे खड़े होकर शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे।

“समझ नहीं आता इनके आने की सूचना हमें कैसे नहीं मिली?” तटरक्षकों का दल आश्चर्यभाव से इन नौकाओं की ओर देख रहा था। लगभग छह हजार घोड़े, छह हजार ऊँट के साथ लगभग पंद्रह हजार योद्धा तट के निकट आते जा रहे थे।

निकट आते उन अरबी योद्धाओं की हिंसक प्रवृति का अनुभव कर तट रक्षकों ने तीरों की बौछार आरम्भ कर दी। सैकड़ों तीरों से कुछ अरबी योद्धा घायल हुए और मारे भी गये। फिर एक-एक करके वो अरबी योद्धा तट पर उतरे और ढालों का दुर्ग बनाकर दौड़ते हुए तटरक्षकों से भिड़ गये। देबल के धनुर्धरों ने भी धनुष रख तलवारें उठाईं और उन अरबियों पर पूरी शक्ति से आक्रमण किया। किन्तु वो आधी घड़ी भी ना टिक पाए, अरबियों की उस विशाल टुकड़ी ने उन सबको निर्ममता से यमसदन पहुँचाया। एक-एक का शरीर तीरों से बिंधा भूमि पर गिरा दिखाई पड़ने लगा।

रक्षकों के गिरने के उपरान्त अरबी सेना बंदरगाह के निकट वाले गाँवों को घेरने लगी। सूचना भिजवाने पर शीघ्र ही बौद्धों की सेना लिए ज्ञानबुद्ध आगे से अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए सीधा अरबियों से भिड़ गया। देबल के तट के निकट होते उस युद्ध के दौरान अकस्मात ही नगर में छिपी पाँच हजार की और अरबी सेना जो पहले व्यापारियों के भेष में थी, उसने देबल की सेना पर पीछे से धावा बोल दिया। इधर योजना के अनुरूप कासिम ने ज्ञानबुद्ध को द्वन्द के लिए ललकारा और उसे सरलता से पराजित कर उसकी गर्दन को अपनी काँख में दबा लिया और उसकी गर्दन पर तलवार रख विजय की घोषणा की। एक प्रहर से भी कम समय में देबल पराजित हो गया और बौद्धों के सैनिक शस्त्र डालने पर विवश हो गये। कासिम ने ज्ञानबुद्ध सहित सहस्त्रों बौद्ध योद्धाओं को बंदी बनाने का आदेश दिया।

विजय के उपरान्त कासिम ने मुस्कुराते हुए ज्ञानबुद्ध की ओर देखा, दोनों की योजना सफल हो चुकी है। युद्ध में दोनों पक्षों को मिलाकर लगभग तीन सौ योद्धा काम आ गये थे। ज्ञानबुद्ध के दुर्बल नेतृत्व के कारण वीरगति को प्राप्त होने वाले अधिकतर देबल के सैनिक ही थे।

ठीक निज दोपहर में सोलह विशालकाय जहाज देबल के तट के निकट आने लगे। छ जहाजों पर लगभग पाँच सौ लोग और एक-एक मंजनीक (Trebuchet) भी था। वहीं शेष दस जहाजों पर रसद का सामान लिए तीन सहस्त्र ऊँट भी आ रहे थे। तट पर मुहम्मद बिन कासिम उन्हें आता देख अति उत्साहित था, “बहुत जल्द वो मन्दिर मिट्टी में मिल जायेगा।”

इसके उपरान्त कासिम ने अपने छह प्रमुख सेनानियों को अपने सामने बुलवाया। उनमें से एक-एक योद्धा की कदकाठी अत्यंत बलिष्ठ और शत्रुओं में भय पैदा करने वाली थी। उनके पीछे समस्त अरबी सेना खड़ी थी। एक बीस हाथ ऊँचे टीले पर चढ़कर मुहम्मद बिन कासिम ने अपने सेनानियों को संबोधित करना आरम्भ किया।

“मेहराज, नईम सईद, अबु फजह, मोहरिज बिन साबत और जैश बिन अकबी। तुम सबने अपनी बहादुरी से पहले भी ईरान की जंग में अरबियों के लश्कर के साथ फतह हासिल कर अपनी काबिलियत साबित की है। आज हम उस मन्दिर को तबाह करके सिंध के बादशाह के खिलाफ अपनी जंग का ऐलान करने जा रहे हैं। याद रहे, अगर आज हम कामयाब हुए तो लौटकर जाने का मौका नहीं मिलेगा। तो किसी को लौटना है तो अभी लौट जाओ, क्योंकि आने वाली जंगों में ऐसे बहुत से बहादुर, जो इस फौज का हिस्सा हैं, वो अपने घरों को नहीं लौटेंगे। इसलिए आखिरी मौका दे रहा हूँ, अगर इस्लाम के रहनुमा खलीफा अल वालिद बिन अब्दुल मलिक और सुल्तान अलहजाज के नाम अपनी जान कुर्बानि की हिम्मत ना हो, तो अभी मौका है अपने देश लौट जाओ। क्योंकि जो बीच मैदान में जंग छोड़कर भागा, मैं खुद उसका सर कलम करूँगा। तो बोलो कौन लौटना चाहता है?”

भीड़ से कोई जवाब नहीं आया। सबकी आँखों में साहस देख कासिम ने अपनी तलवार ऊँची की, “उम्मयद खिलाफत के नाम।”

सहस्त्रों अरबसेना की वो हुंकार मीलों दूर तक सुनाई दी। छलांग मारकर कासिम टीले से नीचे आया और अपने छँठवें सेनानी की ओर मुड़ा। हब्शी जैसा दिखने वाला वो सेनानी कासिम से भी एक हाथ ऊँचा था, शरीर भी उससे दोगुना सुडौल, भुजाएँ इतनी मोटी की जंगली सांड को भी काँख में दबाकर मसल दे। उसके करीब कासिम ने उसका कंधा थपथपाया, “पहली जंग है तुम्हारी, शुज्जा। चारों तरफ लाशों के ढेर और खून के थक्के दिखाई देंगे। घबराओगे तो नहीं?”

शुज्जा छाती तानकर बोला, “फिक्र मत कीजिए, हुजूर। आज आप शुज्जा की बाजुओं का जोर देखेंगे, मन्दिर तो क्या वहाँ बैठने वाले हर मुशरीक को मैं अपने पंजों से मसल दूँगा।”

“तुमसे यही उम्मीद थी। तो एक जिम्मेदारी मैं तुम्हें देता हूँ, दस हजार का लश्कर और एक मँजनीक लेकर जाओ और देबल के उस मन्दिर के करीब गड्ढे खोदकर उस मंजनीक को गाड़ दो। उससे फेंके हुए बड़े-बड़े चट्टान के गोलों की चोट वो मन्दिर सह नहीं पायेगा। ये तुम्हारा इम्तिहान है, जो भी रास्ता रोके उसे खत्म कर दो।” कासिम ने शुज्जा का कंधा पकड़ उसके नेत्रों में देखा, “यहाँ से ठीक सत्तर कोस की दूरी पर है वो मन्दिर, अभी के अभी निकल जाओ और सारे इंतजमात और सामान के साथ कल सुबह तक वहाँ पहुँचकर हमले के लिए तैयार हो जाओ। कल शाम तक देबल के मन्दिर के तबाह होने की खबर मेरे कानों में पड़ जानी चाहिए।”

“जो हुक्म, मेरे आका। बंदा जान लड़ा देगा।” दहाड़ते हुए शुज्जा आगे बढ़ा।

उसके जाने के उपरान्त कासिम नईम सईद और मेहराज की ओर मुड़ा, “दस हजार के फौजी लश्कर के साथ तुम दोनों मेरे साथ चलोगे। शुज्जा अपना मोर्चा संभालेगा और मन्दिर की हिफाजत करने वाली फौज का ध्यान अपनी ओर खींच लेगा। हम तीन मंजनीकों का सामान लेकर जहाजों में नदी के रास्ते से जायेंगे। देबल के उस मन्दिर के निकट ही सिंधु नदी की एक नहर बहती है। हमें बस उस नहर की दूसरी ओर पहुँचना है, और वहाँ मंजनीकों को खड़ा करके हम वहीं से उस मन्दिर को आसानी से तबाह कर देंगे।”

इस पर मेहराज ने प्रश्न किया “लेकिन अगर जहाजों में बैठकर जायेंगे तो वहाँ पहुँचते हुए शाम भी हो सकती है, हुजूर। क्या शुज्जा तब तक दुश्मनों की फौज को रोक पायेगा?” 

“जमीन दुश्मन की है, जंग आसान तो नहीं होगी। पर परवरदिगार की रहमत रही तो जरूर रोक पायेगा। हमारा मकसद किसी भी कीमत पर उस मन्दिर को तबाह करके सिंध के बाकि हाकिमों के दिमाग में डर पैदा करना है। उसके लिए शुज्जा की कुर्बानी देने में मुझे कोई एतराज नहीं। ये करके अगर हम सिंध के हाकिमों के बीच फूट डालने में कामयाब हुए, तो मकरान से मुहम्मद हारून और एक और हाकिम अब्दुल अस्मत की बड़ी फौज और रसद हमारी मदद के लिए आ जायेगी। फिर सिंध पर हमारी जीत तय है।”

इसके बाद कासिम अपने बाकि सैन्य अधिकारियों अबु फजह, मोहरिज बिन साबत और जैश बिन अकबी की ओर मुड़ा, “पाँच हजार के फौजी दस्ते के साथ तुम लोग यहीं रहो। अभी यहाँ की आवाम के किसी बाशिंदे को नुकसान मत पहुँचाना। सिंध पर फतह हासिल करने के बाद मैं तुम्हें नहीं रोकूँगा।”

******

श्री महाविष्णु के मन्दिर के निकट तीन सहस्त्र आलोर की और एक सहस्त्र बौद्धों की सेना तैयार खड़ी थी। ऊँची कदकाठी, घनी मूँछों और चेहरे पे क्षत्रित्व का गौरव लिए 'काम्हादेव' घूमते हुए उन चार सहस्त्र सैनिकों के नेत्रों में छिपे साहस की जाँच करने का प्रयास कर रहे थे। डूबते हुए सूर्य की ओर देख काम्हादेव की चिंता बढ़ती चली जा रही थी, “सूचना मिल चुकी है, आज प्रातः काल ही हम देबल का किला हार गये। इस्लामी आक्रांता वहाँ पर अधिकार कर चुके हैं।”

यह सूचना मिलते ही वहाँ खड़े योद्धा स्तब्ध रह गये। उन्हें विचलित देख काम्हा ने उनका साहस बढ़ाने का प्रयास किया, “हमने सहायता की सूचना भिजवा तो दी है। पर ना ब्राह्मणाबाद से इतनी शीघ्र कोई सेना आ सकती है, ना ही अलोर से। और इस्लामी सेना का दस सहस्त्र का दल इसी ओर बढ़ रहा है। सीसम के किलेदार बाजवा भी कल संध्या होने से पूर्व यहाँ तक पहुँच नहीं पायेंगे। तो जो करना है, वो हमें ही करना है। क्योंकि यदि भगवान महाविष्णु का ये पवित्र मन्दिर ध्वस्त हुआ और उस पर लहराती ये पताका गिरी, तो समस्त सिंधुराज्य के साथ हमारी आने वाली संस्कृति संकट में पड़ जायेगी। हमारे घर परिवार सबकी गर्दनों पर तलवार लटकने लगेंगी। और यदि कोई आने वाली पीढ़ी बच गयी तो वो हमें कभी क्षमा नहीं करेगी।” कहते हुए काम्हादेव ने अपने हाथ में पकड़ी तलवार पर कसाव बढ़ाया, “हमारा बस एक ही कर्तव्य है कि जब तक कोई सहायता नहीं आ जाती हमें प्राणांत होने तक इस मन्दिर की रक्षा करनी है। भले ही शत्रु की संख्या दोगुनी हो पर फिर भी हमारी एकता और मातृभूमि के प्रति समर्पण की शक्ति का सामना करना उनके लिए सरल नहीं होगा। यदि हम मन्दिर की रक्षा करने अर्थात कल संध्या तक शत्रुओं को रोकने में सफल हो गये, तो सीसम के जाट बाजवा और उनका दल भी हमारी सहायता करने के लिए पहुँच जायेगा। तब तक हमें कुछ भी करके उन अरबों को रोकना होगा। किन्तु यदि ये मन्दिर ध्वस्त हुआ तो समस्त सिंध राज्य के सामंतों में अविश्वास की लहर दौड़ उठेगी, और फिर कोई एक होकर इन आक्रान्ताओं से युद्ध ना कर पायेगा। तो कहो, क्या तुम सब हमारा साथ देने को तैयार हो?”

“जय भवानी।” चार सहस्त्र रणबाकुरों के मुख की गर्जना का स्वर भी मीलों दूर तक सुनाई दिया।

“कल प्रातः काल तक शत्रु हमारी भूमि तक पहुँच जायेगा। हमारी पहली रणनीति यही होगी, कि हम मन्दिर के इर्द गिर्द ही उनकी प्रतीक्षा करें और शत्रु की गतिविधियों के अनुसार ही आक्रमण की योजना बनायेंगे। यदि वो मन्दिर को घेरेंगे तो हम अंदर से ही आक्रमण करेंगे, यदि वो छावनी लगाकर विश्राम करेंगे तो हम उनकी छावनियाँ जला देंगे पर मन्दिर पर आँच नहीं आने देंगे। तो आज रात्रि जितने शक्ति वर्धक भोजन करने हैं कर लो, कल पूरे दिन बस स्वेद बहाना है।”

******

सूर्य उदय होने को था, जिसके साथ ही काम्हादेव की सेना महाविष्णु के मन्दिर के ठीक सामने एकत्र होने लगी।

तभी एक सैनिक दौड़ता हुआ वहाँ आया और सूचित किया, “अरब सेना ने कुछ दूरी पर ही पड़ाव डाल दिया है, महामहिम। वो गहरे गड्ढे खोदकर वहाँ मँजनीक स्थापित करने में लगे हुए हैं।” 

 “मँजनीक, अर्थात वो तो..।” काम्हादेव अचम्भित रह गया।

“वो एक विशिष्ट प्रकार के शस्त्र हैं, महामहिम। इसका जिक्र यूनानी योद्धाओं के कालखण्ड में भी है।”

“हाँ, जानता हूँ वो एक ऐसा शस्त्र है जिसके प्रयोग से विशालकाय चट्टानें वायु की गति से फेंकी जा सकती है। सदियों पूर्व सिकंदर ने भी वो शस्त्र भारत में लाये थे। इसका प्रयोग मुख्यतः किलों को तोड़ने के लिए किया जाता है, उनमें से कईयों की भेदन सीमा सैकड़ों गज से भी अधिक होती है।” विचार कर काम्हादेव के नेत्र आश्चर्य से बड़े हो गये, “इसका अर्थ ये है कि वो वहीं से मन्दिर पर आक्रमण करने वाले हैं।” काम्हा की दृष्टि सूर्य की ओर गयी जिसके उदय होने में कुछ ही घड़ियाँ शेष थीं।” तत्पश्चात वो सूचना देने वाले सैनिक की ओर मुड़ा, “कौन से क्षेत्र में हैं वो?”

“वो खुले मैदान में हैं, महामहिम। उन्होंने आसपास के वनों के वृक्ष काट कर भूमि पर गिरा दिए हैं, ताकि जंगल के भीतर से छुपकर उन पर कोई आक्रमण ना कर सके। दस हजार की वो टुकड़ी बहुत तीव्रगति से खुदाई कर रही है।”

“हम्म, मैं कुछ समय विचार करके अपना निर्णय सुनाता हूं।” श्वास भरकर काम्हादेव ने मन्दिर की ओर देखा। कुछ क्षण विचार कर वो सीधा मन्दिर की ओर गया और उच्च कोटि की लकड़ी और लोहे से बने उस विशालकाय द्वार को खोलकर प्रवेश किया। आरती और घंटियों के स्वरों ने उसके हृदय में विशेष मनोऊर्जा का संचार आरम्भ किया। वो सीधे श्री हरि के प्रमुख मन्दिर में गया और द्वार पर ही लेटकर दण्डवत प्रणाम किया। उसके मस्तक उठाते ही एक ब्राह्मणदेव ने उसके मस्तक को चंदन के टीके से अलंकृत किया। काम्हादेव ने उनके चरण स्पर्श किये, “ऋषि सोदेव को मेरा नमन है। युद्ध में जाने की आज्ञा दें, ऋषिवर।” सोदेव ने उसके सर पर हाथ फेरा। उनके मुख पर छाई चिंता की लकीरें देख काम्हा ने प्रश्न किया, “आपकी इस उदविघ्नता का कारण जान सकता हूँ, ब्राह्मणदेव ?”

साहस करके सोदेव ने कहा, “ग्रहों की दशा बता रही है कि भविष्यवाणी के सत्य होने का समय आने को है। इसलिए मैं युद्ध में जाने का सुझाव तो नहीं दूँगा।”

वो कड़वे शब्द सुन पहले तो कुछ क्षणों के लिए काम्हादेव भी विचलित हुआ, किन्तु शीघ्र ही उसने स्वयं को संभाल लिया, “आप जानते हैं ऋषिवर, कि ये मन्दिर सिंधुराज दाहिर और समस्त सिंध के सामंतों के मध्य में हुई संधि का प्रतीक है। कदाचित शत्रु को इस सत्य का भान हो गया है और विशेष रूप से वो इस मन्दिर को ही ध्वस्त करने आ रहा है। यदि हम पीछे हट गये तो न जाने कितने सामंत इन इस्लामी हैवानों के समक्ष घुटने टेक देगे, और इससे राजा दाहिर के साथ समस्त सिंध दुर्बल पड़ जायेगा। इसलिए मुझे प्रयास तो करना होगा।”

“यदि मृत्यु का कुआं सामने दिखाई दे रहा हो, तो उसमें कूदना समझदारी नहीं।”

काम्हा मुस्कुराया, “यदि भविष्यवाणी और मृत्यु के भय से क्षत्रिय अपना कर्म छोड़े दे, तो उसे कुलकलंक कहा जाता है, ऋषिवर। यदि मेरे प्रयास से ऐसा थोड़ा भी अवसर बना कि गोया ब्राह्मणों की भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध होने से रोक सकूँ, तो मैं पीछे तो नहीं हटूंगा।” उसने झुककर सुदेव के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया फिर श्री हरि की मूर्ति के चरणों में मत्था टेका और उनका भी आशीर्वाद लिये बाहर की ओर बढ़ा।

मन्दिर से बाहर आकर काम्हा ने उदय हुए सूर्य की ओर देखा और उन्हें प्रणाम करते हुए अपने सैनिकों की ओर मुड़ा, “ध्यान रहे, एक बार यदि वो मंजनीक तैयार हो गया तो हमें अपने मन्दिरों की रक्षा करने का अवसर नहीं मिलेगा, वो दूर से ही हम पर आक्रमण कर देंगे और हम हाथ मलते रह जायेंगे। अब रणनीति में परिवर्तित करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। इससे पूर्व कि वो गड्ढे खोदकर मँजनीक स्थापित करने में सफल हो जायें, हमें उन पर आक्रमण करके उन्हें तोड़ना होगा अन्यथा वो वहीं से मन्दिर तोड़ देंगे। उनकी संख्या भले ही दस सहस्त्र हो और हमारी चार, पर ये अंतर इतना बड़ा नहीं है जो हमें हमारी भूमि पर घुटने टेकने पर विवश कर दे। यदि हम साहस बनाए रखें, तो हम इस टुकड़ी को परास्त भी कर सकते हैं।”

अपने शब्दों से सैनिकों के नेत्रों में उभरती दृढ़ता देख काम्हादेव उत्साहित हो गये, “हमारा पहला उद्देश्य उन मंजनीकों को पूर्ण रूप से ध्वस्त करना है, किन्तु जहाँ तक मेरा अनुमान है, वो उन शस्त्रों की रक्षा का पूरा प्रयास करेंगे और हम पर पुरजोर आक्रमण करेंगे। यदि मैं वीरगति को प्राप्त हो जाऊँ तो तुममें से कोई रण छोड़कर नहीं भागेगा, अपितु तुम सब पूरी शक्ति से शत्रुओं पर टूट पड़ना। उनकी जितनी हानि कर सको करना पर पीछे मत लौटना, क्योंकि उस क्षण हर एक योद्धा सेनानायक होगा। यदि हम विजयी ना भी हो पायें, तो भी हमारे अंतिम सैनिक को भी पूरा प्रयास करना है कि वो संध्या तक बाजवा और उसके जाटों के आने तक इस अरब सेना को रोक सके।” मुट्ठियाँ भींचकर काम्हादेव ने हाथ उठाकर हुँकार भरी, “हर हर महादेव।”

 “हर हर महादेव।” चार सहस्त्र स्वर गूंज उठे। 

दस हजार अरबी योद्धाओं के साथ मिलकर मंजनीक के लिए खुदाई करवाता हुआ शुज्जा भी आश्चर्य में पड़ गया कि देबल की पराजय के उपरान्त भी उन सिन्धी योद्धाओं का मनोबल अब भी कैसे बना हुआ है।

वहीं एक सहस्त्र अश्व और तीन सहस्त्र पैदल सैनिक, अपने शरीरों पर शस्त्र लादकर ढाल ऊँची किये शुज्जा की टोली की ओर दौड़ पड़े। हुँकारों ने पहले ही शुज्जा को सावधान कर दिया। उसने अपनी सेना को मंज़नीकों के लिए बनाये गये गड्ढों के आगे करना शुरू कर दिया ताकि पीछे रखे मंजनीक बनाने की सामग्रियों का रक्षण हो सके। सूर्य की लालिमा समग्र आकाश में फैल चुकी थी।

नेत्रों में अग्नि का संताप लिए जैसे ही काम्हादेव की सेना निकट आयी, शुज्जा ने अपने तीरंदाजों को तीर छोड़ने का आदेश दिया। सहस्त्रों तीर वायु में उड़े किन्तु काम्हा का दल उसके लिए तैयार था, ढालें ऊँची कर उन वीरों ने बड़ी सरलता से स्वयं को उन प्रहारों से बचाया।

शुज्जा ने भी हुँकार भरते अरबी घुड़सवारों को शत्रुओं पर प्रहार करने का आदेश दिया। चहुं ओर तीरों, भालों की वर्षा सी होने लगीं। भूमि पर पड़े टूटे हुए वृक्षों की टहनियों और तनों के बीच ना ही अश्वों का दौड़ना सरल था ना ही मनुष्यों का। फिर भी अपनी भूमि पर लड़ने की आदत के कारण काम्हा के नेतृत्व में सिन्धी योद्धा नरसिंह बनकर अरबियों को अपना आखेट बनाने लगे। अपने योद्धाओं का गिरता हुआ मनोबल देख शुज्जा एक सिन्धी घुड़सवार की ओर दौड़ता हुआ गया, और उसकी तलवार के प्रहार से बचते हुए उसके घोड़े की टांग पकड़ी और उठाकर उसका संतुलन ही बिगाड़ दिया। वो घुड़सवार अश्व से गिरा और उसके गिरते ही शुज्जा ने उसका घोड़ा भी अपने कंधे पर उठा लिया और उसे उस सिन्धी घुड़सवार के ऊपर पटक दिया। अपने शत्रु को घायल और विवश देख शुज्जा ने भूमि पर गिरी एक तलवार उठाई और एक ही प्रहार में घोड़े की गर्दन सहित उस सिन्धी घुड़सवार के शरीर को भी दो टुकड़ों में काट दिया।

शुज्जा के उस शक्ति प्रदर्शन ने अरबियों का साहस कई गुना बढ़ा दिया। वो गर्जना करते हुए सिंधियों से जा भिड़े। शत्रुओं को उग्र होता देख काम्हादेव अपने अश्व को दौड़ाता हुआ आया और सीधा शुज्जा की छाती की ओर तीन बाण मारे। उन बाणों ने उसके कवच को तो भेदा किन्तु सुईनुमा घाव से अधिक क्षति ना पहुँचा पाये। झल्लाते हुए शुज्जा ने निकट पड़ा वृक्ष का एक तीन हाथ लम्बा और एक हाथ मोटा तना उठा लिया। यह देख काम्हा अपने अश्व से कूदकर अपनी तलवार सीधे अपने निकट युद्ध कर रहे एक अरब सैनिक की छाती में घुसाई, और उसे घसीटते हुए अपने सामने ले आया जिससे शुज्जा का फेंका वो वृक्ष का तना उस अरबी सैनिक की छाती पर लगा।

अनुभवहीन शुज्जा इस असफलता से बहुत झल्लाया। वहीं काम्हा ने उसे मुस्कुराते हुए यूँ घूरा मानों उसका उपहास उड़ा रहा हो। क्रोध में गर्जना करते हुए शुज्जा ने दो लम्बी लम्बी ढालें उठाई और सिंधियों के तीर से स्वयं को बचाता हुआ सीधा काम्हा की ओर दौड़ पड़ा।

 “अपने बल पर कुछ अधिक ही विश्वास है इसे।” बुदबुदाते हुए काम्हा पुनः अपने अश्व पर चढ़ा और अपनी सैन्य टुकड़ी से बायीं ओर दौड़ा।

मदमस्त हाथी की भाँति शुज्जा मूर्खों की तरह काम्हा के पीछे ही पड़ गया। उसे कुछ दूर ले जाने के उपरान्त काम्हा ने गर्जना की, “शरव्यूह।”

उसके एक संकेत पर सैकड़ों सिंधी अश्वारोही पूर्ण गति से तीर की आकृति बनाकर सीधा मंजनीक की ओर ही दौड़ पड़े। उनकी सुरक्षा के लिए पैदल सैनिक दाईं और बाईं ओर से उन्हें घेरने का प्रयास कर रही अरब टुकड़ी से जा भिड़े। किन्तु ढालों और पैदल सैनिकों की सुरक्षा के उपरान्त भी अश्वारोहियों के शरीरों को बाईं और दाईं ओर से आते तीर और भाले क्षति अवश्य पहुँचा रहे थे। यह देख काम्हा का ध्यान दो क्षण के लिए उस ओर से हटा और शुज्जा ने दौड़ते हुए ढाल से उसके अश्व पर प्रहार कर उसे भूमि पर गिरा दिया।

शुज्जा के एक प्रहार में इतना जोर था कि वो अश्व हिनहिनाते हुए भूमि पर गिर पड़ा। अगले ही क्षण उसने दोनों ढालों के नुकीले सिरे सीधा उस अश्व की गर्दन में गाड़ दिये। उस अश्व ने तड़पते हुए वहीं प्राण छोड़ दिये। उस अरबी शैतान का बाहुबल देख काम्हा भी समझ गया था कि ढाल का कोई लाभ नहीं होगा। अपनी छाती पीटते हुए शुज्जा उसकी ओर दौड़ा, काम्हा चपलता पूर्वक उसके मुक्के से बचा और दौड़ता हुआ अपने मृत हुए अश्व के निकट आकर दो तलवारें खींच निकालीं। गुर्राते हुए शुज्जा ने काम्हा को घूरकर देखा और अपनी पीठ पर टँगी भारी तलवार निकाली। काम्हादेव ने भी कंधे उचकाते हुए तलवारों पर कसाव बढ़ाया। दोनों योद्धा एक-दूसरे के लहू की प्यास लेकर दौड़ पड़े।

शुज्जा का बल अधिक था, शरीर भी मानों पत्थर सा कठोर बना था। काम्हा की चपलता अधिक थी और उसने उसकी तलवार के वार से बचते हुए उसकी छाती पर लात भी मारी। किन्तु शुज्जा हँसते हुए उस प्रहार को झेल गया। वो तनिक भी नहीं हिला, और अपने बल के प्रदर्शन के लिए काम्हा की टांग पकड़कर उसे दस गज दूर फेंक दिया। उसके भूमि पर गिरते ही शुज्जा तीव्रगति से उसकी ओर दौड़ा। काम्हा को अब तक आभास हो चुका था कि यदि वो उस दानव की पकड़ में आ गया तो मृत्यु निश्चित है। वो लुढ़कते हुए उसकी पकड़ से बचा और उठते हुए उसकी दाईं एड़ी पर पाँव से प्रहार भी किया। शुज्जा अपना संतुलन खोकर भूमि पर झुका, इतने में काम्हा ने अपनी तलवार की मुट्ठी से उसके मस्तक पर इतनी जोर से प्रहार किया की उसका शिरस्त्राण ही टूट गया। माथे से बहती रक्त की उन चंद बूंदों ने सीधे शुज्जा के अहंकार पर चोट की।

इस बार काम्हा ने उसके मस्तक पर वार करने का प्रयास किया, किन्तु शुज्जा ने उसकी तलवार पकड़ी और हाथ से मारकर उसके दो टुकड़े कर दिये। अगले ही क्षण उसने उठकर अचम्भित हुए काम्हा को जोर का धक्का देकर उसे भूमि पर गिरा दिया और मुट्ठी बांधे उसकी छाती की ओर उछला। काम्हा लुढ़कता हुआ हटकर पुनः उस वार से बचा। भूमि पर हुए शुज्जा के उस भीषण प्रहार से उस पर दरारें दिखनी आरम्भ हो गयी।

हांफते हुए काम्हा ने अपनी अश्वारोही सेना की ओर देखा जो अरबियों से लोहा लेती हुई मंजनीक के निकट पहुँच ही रही थी। अब तक वो ये भी समझ चुका था कि शुज्जा जैसे हब्शी का वध करना अत्यंत दुष्कर है, इसलिए वो पीछे हटने लगा। शत्रु को पीछे हटता देख शुज्जा के अहंकार को बड़ी शांति मिली, वो उसके पीछे दौड़ा। काम्हा भी दौड़ने लगा, किन्तु कुछ दूर जाकर शुज्जा ने रुककर अपनी सेना की ओर देखा। यह देख काम्हा ने अपनी म्यान में रखी एक कटार निकाली और शुज्जा की ओर दे मारी। वो कटार शुज्जा की बाजू घाव करती हुई गई, जो उसे भड़काने के लिये पर्याप्त थी।

“आ जा अरबी शैतान, साहस है तो आ जा।” कटाक्ष करते हुए काम्हा पीछे दौड़ा।

गुर्राते हुए शुज्जा उसके पीछे दौड़ा। अवसर पाकर काम्हा निकट की चट्टानों पर चढ़ गया। दौड़ते दौड़ते वो शुज्जा की मूर्खता का लाभ उठाते हुए उसे अपनी सेना से कम से कम दो सौ गज दूर ले आया। दोपहर का समय समाप्त होने को था, मंजनीकों तक पहुँचते पहुँचते पाँच सौ सिन्धी अश्वारोही वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। लगभग दो सहस्त्र पैदल सैनिक भी यम के द्वार पहुँच चुके थे। किन्तु अरबियों की भी तीन सहस्त्र की टोली गिर चुकी थी, और काम्हा ने अब भी शुज्जा के क्रोध और अहंकार का लाभ उठाते हुए उसे अपने साथ उलझाए रखा था। 

संध्या काल का समय आरम्भ होने को था। काम्हादेव और शुज्जा चट्टानों के नीचे बहती हुई नहर के निकट पहुँच चुके थे, किन्तु वहाँ भी बड़ी चपलता से काम्हा उसके वारों से बचकर उसे चकमा दिये जा रहा था। अकस्मात ही एक सहस्त्र से भी अधिक मशालें लिए एक अश्वारोही टुकड़ी अरबियों के पीछे से आयी। उस टुकड़ी को दूर से ही देख काम्हा के मुख पर मुस्कान खिल गईं, “ईश्वर की अनुकंपा है जो आप समय से पूर्व ही यहाँ पहुँच आए बाजवा।”

विशालकाय श्वेत अश्व पर आरूढ़ हुए उस वीर जाट बाजवा की अश्वारोही सेना सीधा मंजनीक बनाने की सामग्रियों पर टूट पड़ी। उसकी गर्जना और नेत्रों में दिखती ताजगी और रक्त बहाने का जुनून देख अरबी सेना भयभीत होकर विचलित सी हो गयी। उनका ये संकट अभी टला नहीं था कि कुछ ही क्षणों उपरान्त चार सहस्त्र की पैदल जाट सेना भी अत्यंत बलिष्ठ योद्धाओं के नेतृत्व में हुँकार भरती हुई बाईं ओर से अरबियों पर टूट पड़ी।

“मोखा और रासल भी यहाँ आ गये। अब हमें कोई पराजित नहीं कर सकता।” उत्साह में काम्हा ने उस दानव शुज्जा की ओर देखा जो अपनी सेना को बिखरते देख विचलित खड़ा था।

अरबी योद्धाओं के मन में अनेक प्रकार के संशय समा गये कि वो मंजनीक को बचायें या अपने प्राण, उनका सेनानायक भी उनसे दूर था। मंजनीक की सामग्रियों को उन जाटों ने शीघ्र ही अग्नि के सुपुर्द कर दिया। शुज्जा ने दौड़कर चट्टानों से उतरने का प्रयास किया, किन्तु काम्हा ने उसके ध्यान बँटने का लाभ उठाया और तलवार का वार उसकी जांघ पर किया घायल हुआ शुज्जा क्षणमात्र को अपना पाँव पकड़कर बैठा, और इतने में ही काम्हा ने उसकी भारी तलवार पर वार कर उसके दो टुकड़े कर डाले। इसके उपरान्त काम्हा ने सीधा उसके मस्तक पर प्रहार करना चाहा। किन्तु उस दशा में भी शुज्जा ने अपना साहस नहीं खोया और उठकर काम्हा के प्रहार से बचते हुए सीधा उसके मुख पर मुष्टिका का प्रहार किया। काम्हा का मस्तक थोड़े समय के लिए चकराया, इतने में ही शुज्जा दौड़ता हुआ उसके निकट गया और उसे पूरा उठाकर सीधा चट्टानों के नीचे बहती हुई नहर की ओर फेंका। नहर में गिरने से ठीक एक पग पूर्व काम्हा ने चट्टान के सहारे लटककर स्वयं को गिरने से बचा लिया। हांफते हुए काम्हा ने नीचे नहर में बहती जल की धारा की ओर देखा, जो इतनी तीव्र थी कि एक हाथी तक को अपने साथ बहा ले जाये।

उसे वापस चढ़कर ऊपर आने का प्रयास करते देख झल्लाते हुए शुज्जा पुनः काम्हा को गिराने के उद्देश्य से उसकी ओर दौड़ा। किन्तु इस बार वीर काम्हा पहले से कहीं अधिक सावधान था। उसने अपनी कमर में बँधी एक कटार निकाली और शुज्जा के निकट आते ही उसके घुटने के ठीक नीचे प्रहार कर उसका संतुलन बिगाड़ा, फिर उछलकर सीधा उसके मस्तक पर लात मारी।

इस बार वो हब्शी अपना भारी शरीर नहीं संभाल पाया और चीखते हुए नहर में गिर गया। अपने माथे से स्वेद पोछ हृदय में संतोष का भाव लिये काम्हा ने अपनी तलवार उठाकर ऊँची करते हुए गर्जना की, “शत्रु का सेनानायक मारा गया। हर हर महादेव।”

उसकी गर्जना सुनते ही अरबी योद्धाओं का मानों साहस ही टूट गया। मंजनीकों को जलाती हुई ऊँची-ऊँची अग्नि की लपटें और सेनानायक की मृत्यु का समाचार, उस सेना के पाँव उखाड़ने के लिए पर्याप्त था। भय के मारे वो पीछे भागने लगे। जाटों और शेष सिन्धी योद्धाओं ने मिलकर उन पर बहुत से भाले और तीर बरसाए किन्तु लगभग तीन सहस्त्र से भी अधिक अरबी योद्धा अपने प्राण बचाकर भागने में सफल हो गये।

******

सूर्यास्त होते-होते शवों के ढेरों के मध्य बाजवा और काम्हादेव एक-दूसरे के गले लग गये, “आपका बहुत-बहुत आभार रहा सामंत बाजवा, जो आप समय पर यहाँ पहुँच आये।”

मुस्कुराते हुए बाजवा ने भी काम्हा की पीठ थपथपाई, “देखा हमने कैसे उस दानव को मार गिराया। अगर हम नहीं भी आते, तो भी कदाचित आप अपने ही बलबूते पर ये युद्ध जीत लेते।” 

“सम्भव तो था, किन्तु आपके आने से सहस्त्रों योद्धाओं के प्राण बच गये।” मुस्कुराते हुए काम्हा बाजवा, मोखा और रासल के निकट गये। काम्हा ने उन दोनों का भी आभार प्रकट करते हुए कहा, “आप दोनों के राजा दाहिर से अच्छे सम्बन्ध नहीं हैं, फिर भी आप दोनों भाईयों का यूँ हमारी सहायता को आना.... हम वास्तव में आपके ऋणी हैं।”

अपनी तलवार पर लगे रक्त को साफ करते हुए मोखा ने तेवर दिखाते हुए कहा, “श्री महाविष्णु का ये मन्दिर केवल महाराज दाहिर का नहीं, अपितु पूरे सिंध की सुरक्षा और एकता की कुंजी है। तो हमने कोई उपकार नहीं किया अपितु केवल अपने रक्षण का भार संभाला है।”

रासल ने भी अपने भाई का समर्थन करते हुए कहा, “दाहिरसेन हमारे पिता सामंत बसाया का हत्यारा जरूर है, परन्तु अभी के लिए तो हम आपसी मनमुटाव को दूर कर ही सकते हैं।”

“अवश्य।” काम्हादेव मुस्कुराया, “तो चलिए आज की विजय पर श्री हरि की कृपा का धन्यवाद कर उनका आशीर्वाद ले लेते हैं।” काम्हा के साथ बाजवा, मोखा और रासल भी मन्दिर की ओर चल पड़े।

अभी वो कुछ पग आगे ही बढ़े थे कि मन्दिर की दिशा से एक भयानक विस्फोट का स्वर सुनाई दिया। अचम्भित हुए वो चारों योद्धा मन्दिर की ओर दौड़ पड़े। वहाँ पहुँचते ही उनके सबके नेत्र आश्चर्य से फैल गये। मन्दिर की दशा देख काम्हा अपना सर पकड़के भूमि पर बैठ गया। मन्दिर के कई खंबे टूटकर टेढ़े हो गए थे, पुजारी दौड़कर इधर-उधर भाग रहे थे। मन्दिर में बँधी गायें भय से रंभा रही थीं, कुछ पुजारी उन्हें खोलकर बाहर ले जाने का प्रयास कर रहे थे। तभी आकाश से एक और अग्नि लगे वस्त्रों में बंधा हुआ दो घोड़ों के बराबर बड़ा सा गोला आया और वायु की गति से सीधा श्री महाविष्णु के मन्दिर के द्वार से टकराया। मजबूत लोहे और उच्च कोटि की लकड़ियों से बने उस द्वार में भी दरारें पड़ना आरम्भ हो गयीं।

काम्हा को विचलित देख बाजवा अकेले ही दौड़ता हुआ उन अग्नि गोलों के स्त्रोत को खोजने गया। निकट जाकर उसने पत्थरों के पीछे देखा कि अरब सेना की एक विशाल टुकड़ी गहरी नहर की दूसरी ओर खड़ी है और वहीं से वो अग्निगोलक बरसा रही है। बाजवा ने ध्यान से देखा कि वहाँ तीन मँजनीक को चलाने में लगभग हजार लोगों का काम लग रहा था। तीस लोगों ने मिलकर ज्वलनशील कपड़ों से बंधे गोले को उठाकर पहले मँजनीक में रखा, फिर उस पर तेल मलना आरम्भ किया, क्योंकि यदि पहले तेल मलते, तो मँजनीक पर रखते हुए वो गोले हाथ से फिसलकर उन्हें ही चोट पहुँचा सकते थे। फिर देखा कि लगभग पाँच सौ लोग मिलकर लगभग दो सौ गज ऊँची और लगभग पचास गज चौड़ी उस इमारत जैसी दिखने वाली मँजनीक का संचालन कर रहे थे।

“एक-एक गोला बरसाने में कम से कम तीन सौ से पाँच सौ क्षणों का समय तो लगेगा ही।” अनुमान लगाते हुए बाजवा दौड़ता हुआ वापस काम्हा के पास आया, “वो लोग खाड़ी के उस पार से आक्रमण कर रहे हैं। एक-एक गोले को तैयार करने में कम से कम तीन सौ से पाँच सौ क्षणों का समय लगेगा, किन्तु फिर भी हम यहाँ से उन पर सीधा आक्रमण नहीं कर सकते।”

दाँत पीसते हुए काम्हा फट पड़ा, “मुझे समझ नहीं आता पिछले कुछ दिनों में सिन्धी गुप्तचर मंडली इतनी दुर्बल कैसे पड़ गयी? अरबिस्तान से एक विशाल टुकड़ी यहाँ आकर आक्रमण कर देती है, और हमें इसकी कोई पूर्व सूचना मिलती ही नहीं। और अब अरबियों की एक और टुकड़ी हमारे द्वार पर खड़ी है और हमें अब ज्ञात हो रहा है।”

“निसन्देह कोई द्रोही है, काम्हा। कोई ऐसा जिसे देबल के सभी गुप्तचरों के विषय में ज्ञात है।” बाजवा ने अनुमान लगाने का प्रयास किया, “वैसे भी देबल की बीस हजार की सेना का केवल एक प्रहर में पराजित हो जाना कहीं से भी विश्वास करने योग्य बात नहीं लगती।”

“अर्थात, आपके अनुसार ज्ञानबुद्ध ने हमसे और अपने राष्ट्र से छल किया?”

“अभी हमारे पास अनुमान लगाने का समय नहीं है, काम्हा। हमें शत्रु को उत्तर देना होगा और इस युद्ध के सेनानायक आप हैं।” 

अकस्मात ही काम्हादेव की भौहें तनीं और उसने उठकर अपनी मुट्ठियाँ भींची, “तो फिर हम घूमकर नदी की ओर से ही आक्रमण करेंगे।”

यह सुन मोखा ने प्रश्न उठाया, “किन्तु ये रात्रि का समय है, और हम समय रहते नौकाओं से वहाँ पहुँच भी गये तो क्या हमें ये पता है कि शत्रु की संख्या कितनी है ?” “उन्हें गिनकर अनुमान लगाना कठिन था। किन्तु हमारे पास अब भी छ हजार की सेना है जो अपने से दुगनी सेना की ईंट से ईंट बजा सकती है।” बाजवा ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।

इस पर रासल ने भी आपत्ति जताई, “दिनभर की लड़ाई में वो थक चुके हैं, घायल हैं। और तो और रात्रि का अंधकार। कैसे जीतेंगे हम ये युद्ध?”

इस पर काम्हादेव ने दृढ़तापूर्वक कहा, “विजयी नहीं हो पाए तो रण में शत्रुओं की अधिक से अधिक हानि कर मृत्यु सुन्दरी का आलिंगन करेंगे। किन्तु शस्त्र डालकर यूँ अपनी संस्कृति का अपमान नहीं होने देंगे।” उसने बाजवा की ओर देखा, “हम छोटी छोटी नौकाओं में ही जायेंगे। शत्रु के समक्ष जब लक्ष्य अधिक होंगे तो हमारी कम से कम नौकाओं को हानि होगी, और सैन्यक्षति भी कम होगी।”

बाजवा ने भी दृढ़ स्वर में समर्थन किया, “उचित कहा, मित्र। विजय प्राप्त हुयी तो ठीक, अन्यथा बलिदान होते हुए भी शत्रु के हृदय को इतना आतंकित कर जायेंगे कि वो भय के मारे यहीं से लौट जायेंगे।”

******

लगभग दस गज ऊँचे टीले पर खड़े मुहम्मद बिन कासिम दूरबीन से अब भी श्री महाविष्णु के मन्दिर पर दृष्टि जमाये हुए था, “बारह आग के गोले दागे जा चुके हैं, और अभी तक उनकी लाल पताका फहरा रही है। ये कमबख्त हिन्दुस्तानी किस मिट्टी से बनाते हैं अपने ये मन्दिर ?”

तभी मेहराज उसके निकट गया, “खबर मिली है, हुजूर। शुज्जा की फौजी टुकड़ी जंग में हार गयी, उसके साथ हमारे लगभग सात हजार सैनिक मारे गये और बाकि जंग के मैदान से भाग खड़े हुए।”

क्रोध से कासिम ने दांत पीस लिए, “अपने से आधी से भी कम फौज से हार गया शुज्जा? उस नौसिखिये पर भरोसा करना ही नहीं चाहिए था।”

“पर उनकी तादाद उतनी नहीं थी जितनी हमें खबर मिली थी। सीसम के पाँच हजार जाट भी उनकी मदद को आ गये थे।”

ये सुन कासिम के कान खड़े हो गये, “फिर तो वो फौज हम पर हमला करने भी जरूर आ रही होगी।” कासिम ने दूरबीन एक सैनिक के हाथ में देते हुए कहा, “मन्दिर के तबाह होने तक मंजनीकों को कुछ नहीं होना चाहिए। नहर के उस पार से तो वो हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, जाहिर है वो नदी के रास्ते से ही हमला करने के लिए आएंगे।” कहते हुए कासिम ने टीले के किनारे पर आकर अपने चहुं ओर की नदी की गहराई की ओर देखा, “तीरंदाजों से कहो वो अपने तीरों पर मिट्टी के तेल से सने कपड़े बांधे। साथ में मशालें भी तैयार करो। वो नावों में बैठकर आयेंगे और हम नहर में ही उन्हें खाक कर देंगे।”

******

जैसा कासिम का अनुमान था उग्र हुई जाटों और सिंधियों की छह हजार की सेना नौकाओं से आती दूर ही से दिख गयी। चंद्रमा के उज्ज्वल प्रकाश में छिपकर आना से असम्भव था, इसलिए निडर होकर मशालें लिए सिन्धी सेना आगे बढ़ रही थीं। लगभग पाँच सौ छोटी छोटी नावों में आते हुए अपने शत्रुओं को देख कासिम ने तत्काल ही उन पर आग में लिपटे तीरों की वर्षा करने का आदेश दे दिया। एक साथ लगभग एक हजार जलते हुए तीर उन नौकाओं की ओर बढे। सिंधियों ने स्वयं को ढाल से ढककर स्वयं की रक्षा की, किन्तु चार नौकाओं में आग लग ही गयी। इस पर सिन्धी सैनिकों ने नदी में कूदकर तैरना आरम्भ कर दिया। यह देख विचलित हुए कासिम ने गरजते हुए आदेश दिया, “दो मंजनीकों को नौकाओं की ओर घुमाओ।” 

उसके आदेश पर लगभग तीन सहस्त्र अरबी योद्धा दौड़े और अपनी पूरी शक्ति लगाकर दो मंजनीकों को नौकाओं की ओर घुमाने लगे। यह देख काम्हादेव और बाजवा का साहस तो नहीं टूटा, पर मोखा और रासल घबरा से गये।

मंजनीकों को तैयार होने का समय देने के लिए अरबी तीरंदाज शत्रुओं की नौकाओं के गति कम करने के लिए उन पर लगातार तीर बरसा रहे थे। मुख्यतः वो बार-बार नाव खेने वाले पर ही लक्ष्य साध रहे थे, ताकि उसके मारे जाने पर दूसरे सैनिक को उसका स्थान लेने में समय लगे।

शीघ्र ही अग्निगोले तैयार हुए और मंजनीकों से निकलकर वायु की गति से नौकाओं की ओर बढ़े। एक गोले ने तो साथ चलती तीन नौकाओं को ध्वस्त कर दसियों सैनिकों को हताहत कर दिया, वहीं दूसरा अग्निगोला सीधा काम्हादेव की नौका की ओर बढ़ा। काम्हा ने नदी में छलांग लगाई, दो नौकायें और ध्वस्त हुईं जिसमें दसियों योद्धा और हताहत हुए। काम्हा का कहीं पता नहीं चला, यह देख बाजवा समेत अन्य सिन्धी सैनिक भी विचलित हो गये।

वीर काम्हा को मृत जानकर पीछे की नौका में आ रहे मोखा और रासल अपनी नौकायें उलटी दिशा में खेने लगे। उनके साथ लगभग सौ और नौकायें भय के मारे पीछे जाने लगीं। ऐसी विकट स्थिति में मोखा और रासल का साथ छोड़ने पर बाजवा को बहुत क्रोध आया, उसने दाँत पीसते हुए गर्जना की, “बाणों की वर्षा आरम्भ करो।”

सर्वप्रथम काम्हादेव के सैनिकों ने बाण वर्षा करके तट पर खड़े तीरंदाजों पर प्रहार आरम्भ किया। उन्हें देख बचे हुए जाटों ने भी पुरजोर आक्रमण किया।

ऐसी स्थिति में भी सिंधियों का साहस देख कासिम का मुँह खुला रह गया, “यूँ ही नहीं उस जयशाह ने चार हजार की टुकड़ी लेकर बजील की फौज को हरा दिया था। गजब का जिगर है इन हिंदुस्तानियों में। मंजनीकों का एक और हमला करवाओ।”

तट पर खड़े अरबी तीरंदाजों और सिन्धी धनुर्धरों में बाणों का आदान प्रदान होता रहा। कासिम के आदेश पर कुछ ही समय में दो अग्नि के गोले आकाश में उड़े और दसियों सैनिकों को निगल गये। यह देख कुछ और सिन्धी सैनिकों के मन में भी पीछे हटने का विचार आने लगा, उनके बाणों की गति और प्रहार दुर्बल होने लगे। किन्तु तभी एक ऐसा चमत्कार हुआ जिसने पूरी सिन्धी सेना में नई प्राणवायु फूँक दी। नदी से निकले एक वीर ने तट के अरबी तीरंदाजों पर अकस्मात ही छलांग लगाई और एक साथ तीन अरबियों का मस्तक काट गिराया। उस वीर के मस्तक से बहते रक्त को देख बाजवा ने भी हुँकार भरी, “काम्हादेव जीवित हैं, आक्रमण करो।”

अपने नायक की वो वीरता देख तट के निकट पहुँचते सिन्धी योद्धाओं में अद्भुत ऊर्जा दौड़ गयी। लगभग ढाई हजार की सिन्धी सेना तट पर उतरकर बाजवा और काम्हा के नेतृत्व में अरबी योद्धाओं पर टूट पड़ी। किन्तु मोखा और रासल के साथ अब भी जाटों की लगभग सौ नौकायें पीछे की ओर ही जा रही थी।

उन सिंधियों ने तट पर भयंकर मार काट मचाई। भय के मारे अरबी तीरंदाज वहाँ से भागने लगे। तभी अरबियों के एक सहस्र घुड़सवारों की एक विशाल टुकड़ी एकत्र होकर पूरी गति से उन घायल पैदल सिन्धी सैनिकों की ओर बढ़ने लगी। काम्हा और बाजवा ने मुस्कुराते हुए एक-दूसरे की ओर देखा। फिर दोनों ने अपने कंधे उचकाये और अपने जीवन के संभावित अंतिम युद्ध करने को दौड़ पड़े।

घुड़सवारों की गति कहीं अधिक थी जिनका प्रभाव उनके शस्त्रों में भी था। फिर भी काम्हा और बाजवा ने उछल उछल कर कई घुड़सवारों के मस्तक उड़ा दिये, किन्तु घायल हुए सिन्धी सैनिकों को उनके घोड़ों की गति का सामना करने में बहुत कठिनाई हो रही थी। वो एक-एक करके गिरते चले जा रहे थे।

अंत में उन सात सौ घुड़सवारों को यमसदन पहुँचाने में ही सिंधियों की लगभग सारी सेना वीरगति को प्राप्त हो गयी। किन्तु दो सौ उग्र योद्धाओं के शस्त्रों का संताप देख अन्य बुरी तरह घायल हुए अरबी घुड़सवार भय के मारे पीछे भाग खड़े हुए। मध्यरात्रि का समय आ चुका था, लगभग दो सौ योद्धा काम्हा और बाजवा के नेतृत्व में कासिम और उसके सहस्त्रों पैदल सैनिकों की टुकड़ियों के सामने खड़े थे।

काम्हा और बाजवा ने दूर से ही उन तीनों मंजनीकों की ओर देखा जो अब मात्र दो सौ गज की दूरी पर ही थे। मेहराज और नईम सईद एक विशाल टुकड़ी लिए उनकी ओर दौड़ पड़े। बाजवा ने श्वास भरते हुए काम्हा की ओर देखा, “एक मंजनीक को तो ध्वस्त करके रहेंगे, मित्र। इनके मन में ये भय बैठ जाना चाहिए, कि यदि हम मुट्ठीभर सिन्धी इनके सामने से जाकर इनका महाअस्त्र जला सकते हैं, तो जब सम्पूर्ण सिंध की सेना आएगी तब इनकी क्या दशा होगी। हम इस सेना को रोक आपको मार्ग देते जायेंगे, उन्हें नष्ट करना आपका उत्तरदायित्व है।”

काम्हा ने सहमति में सिर हिलाकर कंधे उचकाते हुए मंजनीकों के निकट रखे मिट्टी के तेल के कनस्तरों की ओर देखा, “निराश नहीं करूँगा, मित्र।”

अगले ही क्षण बाजवा ने दो सौ योद्धाओं के साथ मिलकर सेना की दो सुईनुमा आकृति बनाई। सभी सैनिकों की ढालें और भाले बाहर थे। उसके भीतर काम्हादेव को एक रक्षा कवच में ढककर सिंधियों की वो अंतिम टुकड़ी युद्ध यज्ञ में आहुति देने दौड़ पड़ी।

वो वीर शत्रुओं के प्रहारों से घायल होते रहे, कईयों के शरीर तीरों से बिंध गये, बाजवा की छाती और उदर में भी सात तीर घुस गये, किन्तु फिर भी वो और उसकी आखिरी टुकड़ी दौड़ती रही। पहली मंजनीक के निकट आते ही काम्हादेव उस घेरे से बाहर निकलकर अलग हुए, उछलकर मंजनीक के निकट वाली भूमि पर आये और दो अरबी योद्धाओं का मस्तक उड़ाते हुए सीधा तेल के कनस्तर तक पहुँच गये।

“खत्म कर दो उस कमजर्फ को।” ऊँचे टीले पर खड़े कासिम के आदेश पर अनेकों तीर काम्हादेव की ओर बढ़े। शरीर भिदता रहा किन्तु उस मनों भारी तेल के कनस्तर को गिराने के लिए काम्हा ने अपना पूरा बल लगा दिया और सफल भी हो गया।

यह देख बाजवा ने भी बचे खुचे योद्धाओं के साथ खुलकर अरबियों पर आक्रमण कर दिया। तेल उस मंजनीक के चहुँ ओर फैलने लगा, किन्तु पचासों तीरों से भरा शरीर लिए काम्हा में आगे बढ़ने की शक्ति नहीं बची थी। वो घुटनों के बल आकर हताशा भरी दृष्टि से मंजनीक को देखने लगा। तीरों ने शरीर की नसों को ऐसा छेदा था कि कदाचित उसके कंधे तक को लकवा मार गया था। वीर काम्हा के लिए अब हाथ हिलाना भी असंभव प्रतीत हो रहा था।

काम्हा को विजय के इतने निकट उस दशा में देख बाजवा दो तलवारें लिए मंजनीक की ओर दौड़ा और तीन और अरबी योद्धाओं को घायल करता हुआ उसके निकट गया। उसने अपनी तलवारों को टकराकर चिंगारी उत्पन्न करने का प्रयास किया। तभी नईम सईद वहाँ आया और उसकी तलवार के भीषण वार से बाजवा की गर्दन उसके धड़ से कटकर अलग हो गयी। इसे अपनी जीत मान उस अरबी हाकिम ने हुँकार भरी। पर अगले ही क्षण उसे एक जोर का अट्टाहस सुनाई दिया। पलटकर देखा तो उसके नेत्र आश्चर्य से फटे रह गये।

शरीर पर मस्तक नहीं था, किन्तु बाजवा अपने अंतिम क्षणों में गिरकर तड़पने के स्थान पर अपनी तलवारें आपस में तीन बार लड़ाते हुए चिंगारी उत्पन्न करने में सफल हो गया। सईद ने देखा कि सुन्न हुए हाथों के साथ भी काम्हादेव हँसे जा रहा है। चिंगारी और तेल का संपर्क होते ही अग्नि भड़क उठी। बचने के लिए सईद पीछे हट गया।

अपने उद्देश्य में विजय प्राप्त करने का सन्देश देकर बाजवा का शरीर गिरकर उस अग्नि को समर्पित हो गया। तेल के कनस्तर के निकट बैठा काम्हा अब भी हँस रहा था। हँसते हुए उसने अकस्मात ही बायीं ओर देख हुँकार भरी, “इस यज्ञ में अभी और आहुतियाँ शेष हैं, वीरों।” उसकी हुँकार सुन बचे खुचे सिंधी वीर उसी की ओर दौड़े।

वहीं काम्हा पुनः नईम सईद की ओर देखता हुआ हँसने लगा। अग्नि की लपटों ने जब तक उसे घेरकर गिरा नहीं दिया, वो हँसी नईम सईद और निकट के अरबी सैनिकों के कानों में गूँजती रही। नीचे से लेकर ऊपर तक उस पूरे मंजनीक को अग्नि ने घेर लिया।

उस विशाल मंजनीक को अग्नि ने अपने आगोश में ले लिया। उसके लगभग तीस गज दूरी पर स्थापित हुए दूसरे मंजनीक की ओर देख झल्लाते हुए कासिम ने आदेश दिया, “दूसरी मंजनीक को दूर ले जाओ। आग उसके पास ना आये।”

कासिम के आदेश पर सैकड़ों और अरबी योद्धा दूसरी मंजनीक की ओर जाकर एकत्र होकर उसे धकेलने लगे। वहीं जलती हुयी मंजनीक में पड़ती दरारों के स्वर भयावह प्रतीत होने लगे, उससे कई जलते टुकड़े भी टूटकर गिर गये। दो सौ गज ऊँचे उस महाअस्त्र के गिरने की बढ़ती संभावना देख कासिम के भी रोयें खड़े हो गए, “हमारे पास सिर्फ चार बची हैं, बचाओ उस मंजनीक को।”

वहीं बचे खुचे पचास साठ सिन्धी योद्धा उस जलती हुयी मंजनीक के गिरे हुए जलते टुकड़े उठाकर दूसरी मंजनीक की ओर दौड़े। भूमि पर फैले तेल पर दौड़ने के कारण उन वीरों के शरीरों को भी शीघ्र ही अग्नि ने अपने आगोश में लेना आरम्भ किया।

अग्निस्नान किये उन वीरों को मशाल और नंगी तलवारें लिए अपने सैनिकों की ओर आता देख, कुछ क्षणों तक कासिम समेत मंजनीक को धकेलते उन अरबी सिपाहियों के हाथ सुन्न से हो गए। उन अग्निवीरों के प्रहार से आतंकित हुए कई सिपाही मंजनीक छोड़कर भागने लगे। कई सिन्धी सिपाही दूसरे मंजनीक को जलाने के उद्देश्य से अपने जलते हुए शरीर को लेकर उससे लिपट गए।

“छेद डालो इनके जिस्म।” कासिम को अकस्मात ही होश आया और उसके आदेश पर सैकड़ों तीर वायु में उड़कर उन सिन्धी वीरों को गिराने लगे। किन्तु शीघ्र ही नियति ने भी उन रणवीरों की आहुति का सम्मान किया। दो सौ गज ऊँची जलती हुयी पहली मंजनीक टूटकर उसी दिशा में गिरने लगी। भय के मारे अरबी सिपाही दूसरी मंजनीक को भी छोड़कर भागने लगे।

शीघ्र ही भयानक विस्फोट जैसा स्वर उत्पन्न करते हुए दोनों मंजनीकों का मिलन हुआ जो उन सिन्धी वीरों समेत कई अरबियों की भी चिता सजाने लगा। जीवित भस्म होते अरबियों की चीख पुकार वातावरण में गूँज उठी।

कुछ समय पश्चात कहने को रण में एक भी सिन्धी ना बचा था, पर सैकड़ों गज ऊँची अग्नि की उन लपटों ने अरबियों के ह्रदय को ऐसा आतंकित किया कि उनमें से कईयों के शरीर अब भी काँप रहे थे।

वो लपटें तो जैसे झुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। उस भयावह अग्नि के मध्य नईम सईद को बार बार काम्हा का वही अंतिम अट्टाहस दिखाई पड़ने लगा, जिसने उसके पूरे शरीर के हर रोयें को आतंकित कर रखा था।

दोनों मंजनीकों को जलते हुए देख कासिम भी कुछ क्षणों के लिए हताश हुआ बस देखता ही रह गया। दूर की नौकाओं से दो सौ गज ऊँची लपटों को मंजनीकों को जलाकर गिरता हुआ देख रासल का हृदय उसे धिक्कारने लगा, “हम इस सम्मान से वंचित रह गए, भैया।”

इस पर मोखा ने उसे टोका, “मूर्खतापूर्ण बातें मत करो, रासल। हमने पूरा प्रयास किया, किन्तु भविष्यवाणी को तो सच होना ही था। अब सिंध पर इस्लामी शासन स्थापित होना ही है, तो हम व्यर्थ में अपने प्राण क्यों गँवायें ? वैसे भी जिस राजा दाहिर ने हमारे पिता सामंत ‘बसाया’ की हत्या करवाई थी, हम उसके राज्य की रक्षा क्यों करें ? चलो यहाँ से।”

मोखा को तो उन वीरों के बलिदान का कोई मोह नहीं था, रासल भी नेत्रों में अश्रु लिए अपने भाई के साथ वहाँ से लौट गया। वहीं मुहम्मद बिन कासिम की अरबी सेना को विजय तो प्राप्त हो गयी, किन्तु उस युद्ध में उसके भी सात सौ घुड़सवार और तीरंदाजों समेत लगभग पंद्रह सहस्त्र और सैनिक अपने परवरदिगार को प्यारे हो गये थे। किन्तु जो भय और आतंक मुहम्मद बिन कासिम अपने हाकिमों और सेनानियों के नेत्रों में देख रहा था, उसी से ये सिद्ध हो गया कि वीर काम्हा और बाजवा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया।

शीघ्र ही सूर्य उदय होने को आया। अपनी सेना के बीच चलते हुए कासिम ने देखा कि उसके कई योद्धा और सिपहसलारों के नेत्रों में थकावट के साथ-साथ डर भी दिखाई दे रहा है। आगे बढ़ते हुए उसने अपनी तलवार उठाई और गुर्राते हुए एक बड़ी सी चट्टान छेद डाली। उस भयंकर स्वर ने सभी का ध्यान कासिम की ओर खींचा। अपनी सेना के अनेको नेत्रों को घूरते हुए कासिम ने कहना आरम्भ किया, “इसमें कोई शक नहीं कि इस बार हमारा सामना दुनिया के सबसे ताकतवर और बहादुर दुश्मनों से है। पर अल्लाह तालाह की रहमत से हम अपने मकसद से एक कदम दूर हैं। हमारी पाँच हजार की फौज देबल में है, आठ हजार जाँबाज यहाँ हैं। और अगर हमने उस मन्दिर को तबाह कर दिया, तो ना केवल मकरान के बादशाह मुहम्मद हारून और अब्दुल अस्मत की पचास हजार की फौज हमारे साथ होगी, बल्कि उस सिंधुराज के सारे सामंत भी उससे दगा करके हमसे हाथ मिलाना शुरू कर देंगे। हमारे आगे झुकने पर मजबूर हो जायेंगे।” अपनी सेना के मध्य घूमते हुए कासिम ने आगे कहा।

“याद रहे आज जो दुश्मन हमारे सामने आया, हमें उससे डरना नहीं है। उनसे सीख लेनी है कि कैसे वो अपने मुल्क और मजहब के लिए हँसते हँसते अपनी जान कुर्बान करने से पहले अनेकों दुश्मनों को हलाल कर देते हैं। यही मौका है, आगे कोई फौज हमें उस मन्दिर को तोड़ने से रोकने नहीं आ पायेगी। पर अगर हमने देरी की, तो ना जाने और ऐसे कितने बहादुर अपनी उस मजहबी इमारत की हिफाजत के लिए आ जायेंगे। अगर दिलों में डर बैठाओगे तो तुम्हारी आवाम तुम पर थूकेगी, और हिन्द के इन जाँबाजों की बहादुरी से सबक लोगे तो उम्मयद खिलाफत का परचम सारे जहाँ पर लहराएगा। इसलिए हथियार उठाओ और चलो मेरे साथ, अल्लाह हु अकबर।”

“अल्लाह हु अकबर।” कासिम के उन शब्दों ने भयभीत हुई उस अरबी सेना में भी थोड़े उत्साह का संचार कर दिया।

“तो फिर घुमाओं दोनों मंजनीकें।” कासिम ने महाविष्णु के मन्दिर की ओर संकेत कर कहा, “तबाह कर दो उस गुबन्द को, जो हमारी फतह में रोड़ा अटकाये बैठा है।”

******

मंजनीकों से पर्याप्त अग्निगोलक फेंकने के उपरान्त अरबी सेना की आठ हजार की टुकड़ी ने दोपहर तक श्री महाविष्णु के उस मन्दिर को चारों ओर से घेर लिया। तीन एकड़ के क्षेत्रफल में फैले उस मन्दिर के अधिकतर खंबे और दीवारें ढह गईं थीं। कुछ गऊ और ब्राह्मण तो भागने में सफल हो गए थे, किन्तु ब्राह्मण सुदेव लगभग बीस गायों के साथ अब भी मन्दिर की गौशाला में ही थे। टूटकर गिरे हुए मलबों ने उनके निकलने का मार्ग कदाचित बहुत पहले बंद कर दिया था। कासिम अपने कुछ सेनानियों को साथ लेकर, टूटे द्वार को पूरा तुड़वाकर मलबे को हटाते हुए आगे बढ़ा। अंदर प्रवेश करते हुए कासिम ने सिंध के ध्वज की ओर देखा जो अब भी वायु के प्रवाह में लहलहा रहा था। ये देख उससे रहा ना गया, “अंदर जो भी लोग हैं, उन्हें बेड़ियों में जकड़कर बाहर ले आओ। और जल्द से जल्द उस पताका को आग लगाओ।”

शीघ्र ही देबल का वो भगवा ध्वज धूं-धूं कर जल उठा। ब्राह्मण सुदेव को बेड़ियों से लादकर मन्दिर से बाहर लाया गया। बीस गायों को भी छड़ी मार मारकर अरबियों ने एक जगह इक्कठा करना आरम्भ किया। उन पशुओं का दर्द भरा रंभाना सुन सुदेव के नेत्रों से अश्रु बह उठे। कासिम ने उनमें से कई गायों के मस्तक पर टीका, और गले में फूलों का हार लटका हुआ देखा। सुदेव को अश्रु बहाते देख देख कासिम उनके निकट आया, “लगता है इन जानवरों की चीख से तुम्हारा दिल दर्द से भर गया है, पुजारी।” 

सुदेव ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की, “देबल के मन्दिर के साथ समस्त सिंध की आशा भी ध्वस्त हो चुकी है। भविष्यवाणी के अनुसार आप लोग बहुत शीघ्र ही पूरे सिंध पर अधिकार कर लेंगे। किन्तु कोई भी शासक बिना अपनी प्रजा पर दया दिखाए अधिक समय तक शासन नहीं कर सकता। मेरी आपसे विनती है कि इन पशुओं पर दया करें, ये हमारे लिए पूजनीय है। हमारी माता समान है।”

“माता सामान, पूजनीय।” कासिम हँस पड़ा, “बड़े भारी लफ्जों का इस्तेमाल करते हो, पुजारी। तुम मुशरीक सच में बहुत जाहिल हो, पत्थरों और जानवरों में अपने देवताओं को देखते हो।” कासिम ने पुनः श्रृंगार की हुई उन गायों की ओर देखा, “अच्छा बताओ मुझे, क्या है ऐसा इन जानवरों में जो इन्हें इतनी इज्जत बख्शते हो? सुना है अपनी इबादत में तुम इनके गोबरों का भी इस्तेमाल करते हो।”

“तर्क तो बहुत साधारण सा है। गौवंश के बिना पृथ्वी पर मानव जीवन का अस्तित्व लगभग असम्भव है।”

“अच्छा?” कासिम के साथ उसके अन्य सेनानी की भी हँसी छूट गयी। कासिम ने सुदेव पर कटाक्ष करते हुए कहा, “ये जानवर हैं, इनकी जिंदगी केवल हमारे हक की होती है। हममें ताकत है, तो हम इनसे जो मर्जी ले सकते हैं, चाहें वो माँस हो या फिर दूध।”

ब्राह्मण सुदेव मुस्कुराये, “और आपकी इसी सोच के कारण अरबियों के राज्य में वर्ष में चार माह से भी अधिक समय तक सूखा पड़ा रहता है। कितनी ही भूमि तो सदैव के लिए बंजर होकर रह गयी हैं, जिन पर कभी कोई फसल नहीं उग सकती। इसलिए आप हिन्द पर आक्रमण कर उसे लूटने का प्रयास करते हैं, ताकि अपने देश की भुखमरी दूर कर सकें। पर सिकंदर और ना जाने कितने ऐसे आक्रांता आये और अंततः लौटने पर विवश हो गये, जानते हैं क्यों? क्योंकि हिन्द की इस भूमि पर कभी अन्न की कमी नहीं पड़ी।” 

“जबान बंद कर, पुजारी।” मेहराज ने तलवार उठा ली, पर कासिम ने हाथ उठाकर उसे रुकने का संकेत देते हुए कहा, “फौज भी थक गयी है, तो चलो इस पुजारी का दिलचस्प किस्सा सुनकर ही थोड़ा वक्त काटते हैं। बोलते रहो, पुजारी महाराज। हम भी तो जानें हमारी सल्तनत में आये दिन पड़ने वाले सूखे की वजह क्या है?”

“कारण केवल एक ही है, और वो है गौवंश की कमी। हमारी संस्कृति में गाय को माता इसीलिए कहते हैं क्योंकि वो जब तक जीवित हैं, हम मानवों पर उपकार ही करती है। बैल खेती में हमारी सहायता करता है, गौ दूध से हमारे शरीर को पोषित करती है। और यदि वो दूध देना बंद भी कर दे, तो भी उसके किये गोबर से बनी खाद में सबसे अधिक जैविक तत्व पाया जाता है। किसी भी भूमि को उपजाऊ बनाए रखने के लिए उसमें एक सीमित मात्रा में जैविक तत्व होने आवश्यक हैं, अन्यथा धीरे-धीरे वो भूमि बंजर होना शुरू हो जाती है। और यदि एक बार कोई भूमि बंजर हो गयी तो अभी तक हमारे पास ऐसी कोई विद्या नहीं है जो उसे दोबारा उपजाऊ बना सकें। इसलिए हम उस जैविक तत्व से भरे गोबर से पूजा भी करते हैं, जो हमारे खेतों के लिए जीवनदायनी है। यदि अन्न की ही भारी कमी हो जाये, तो मानव केवल जीवित रहने की आकांक्षा में एक-दूसरे का रक्त बहाने पर विवश हो जायेगा। तो जिस गौवंश के बिना मानवजाति का अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा, उसकी पूजा हम क्यों ना करें ?”

कासिम ने दंभ भरकर सुदेव को देखा, “तुम्हारी बात में दम तो है, पुजारी। सच में यहाँ अनाज की कोई कमी नहीं, खासकर मसालों की। इसीलिए तरह-तरह के व्यापार के कारण भी हिन्द में जितनी दौलत है वो कहीं नहीं। और सही कहा, हम उसे लूटने ही आये हैं। पर क्या है ना, हमारा खुदा केवल एक है, और तुम्हारी तरह किसी बेगैरत जानवर में हम सिर्फ इसलिए खुदा नहीं देख सकते क्योंकि वो हमारे काम आता है।” उसने उन गायों के समूह की ओर देखा, “हमारी फौज थक चुकी है, और भूखी भी है। इसलिए इन जानवरों को तो कटना ही पड़ेगा। हमें इन पर रहम दिखाने का कोई शौक नहीं है। कौन सी यहाँ गायों की कमी है।”

कासिम को कुछ क्षण देख ब्राह्मण सुदेव के मुख पर मुस्कान छा गयी। यह देख कासिम को थोड़ा आश्चर्य हुआ, “इस मुस्कुराहट की वजह ?”

कासिम के माथे की ललाट की ओर देख सुदेव ने कहा, “मैं उसी ब्राह्मण समुदाय में से एक हूँ जिन्होंने ये भविष्यवाणी की थी कि जिस दिन देबल में श्री हरि का मन्दिर ढहा, सिंध पर इस्लामी शासन का आरम्भ होगा। किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता वो दिन देखने के लिए आप जीवित रहेंगे।”

कासिम ने भौहें सिकोड़ीं। नईम सईद ने सुदेव की गर्दन पर तलवार टिकाते हुए कहा, “ऐसा कौन पैदा हो गया हिन्द की फौज में जो हाकिमों के हाकिम मुहम्मद बिन कासिम की ओर आँख उठाकर देख सके?”

सुदेव ने हँसते हुए कासिम की ओर देखा, “हिन्द से कोई नहीं आएगा, तुम्हारे अपने ही तुम्हारी पीठ में छुरा घोंपेंगे, मुहम्मद बिन कासिम। मेरी इस बात को स्मरण रखना। और तुम्हारे जाने के बाद, सिंध का इस्लामिक शासन भी बहुत अधिक समय तक नहीं टिकेगा।”

इस पर मेहराज ने कासिम से कहा, “ये कमजर्फ हमारी फौज में फूट डालने का प्रयास कर रहा है, हुजूर। मैं तो कहता हूँ अभी के अभी इसका सर कलम कर देना चाहिए।”

“उसकी जरूरत नहीं है।” कासिम सुदेव के और निकट आया और उसकी आँखों में देख पूरे आत्मविश्वास से कहा, “मैं तुम्हारी इस बात को झूठा साबित करके दिखाऊँगा, पुजारी। इसे देबल के किले में ले जाकर कैद कर लो। ध्यान रहे जब तक हम सिंध को पूरी तरीके से जीत नहीं लेते, ये पुजारी मरना नहीं चाहिए। ले जाओ इसे।”

******

“श्री महाविष्णु का मन्दिर ध्वस्त हो गया?” ये सूचना सुन सिंहासन पर विराजे राजा दाहिर विचलित हो उठे। उनके माथे पर छाया पसीना स्पष्ट दर्शा रहा था कि ये संकट कितना बड़ा है।

“काम्हादेव और बाजवा भी वीरगति को प्राप्त हुए, पिताश्री।” सामने खड़े वेदान्त ने निराशाजनक स्वर में उत्तर दिया, “मोखा और रासल के साथ पंद्रह सौ अन्य सैनिक रणभूमि छोड़कर अपने सीसम के किले में लौट आये।”

जयशाह की मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गईं, “एक सप्ताह में इतना कुछ हो गया, और हमें अब सूचना मिल रही है। हमारी गुप्तचर मंडलियाँ क्या घोड़े बेचकर सोई हुई थीं?”

“देबल में जितने भी गुप्तचर थे उन सबके विषय में ज्ञानबुद्ध को ज्ञात था।”

“अर्थात? तुम कहना क्या चाहते हो?” जयशाह ने आश्चर्यभाव से प्रश्न किया।

“ये केवल संयोग नहीं है ज्येष्ठ, कि मुहम्मद बिन कासिम की सेना देबल के तट तक आ पहुँचे और हमें इसकी सूचना ही ना मिले। बंदरगाह के निकट की रणभूमि पर भी बीस सहस्त्र की सैन्य टुकड़ी का इतनी आसानी से हार जाना और ज्ञानबुद्ध का बंदी बन जाना स्पष्ट दर्शाता है, कि ज्ञानबुद्ध उन अरबियों से बहुत पहले ही संधि कर चुका था।” श्वास भरते हुए वेदान्त ने आगे कहा, “देबल में हमारे पच्चीस गुप्तचर कार्य करते थे, उनमें से एक का भी कहीं कोई पता नहीं है। निसन्देह ज्ञानबुद्ध ने उन सबको पहले ही ढूंढ ढूंढकर मरवा दिया था, ताकि हमें भनक भी ना लगे कि वहाँ देबल में क्या हो रहा है। मुझे तो ये सब तब ज्ञात हुआ जब दो दिवस पूर्व मुझे काम्हादेव का संदेश प्राप्त हुआ। और इससे पूर्व कि मैं सैनिक टुकड़ियों को उनकी सहायता के लिए कूच करने का आदेश देता, आज प्रातः काल ही काम्हा और बाजवा के वीरगति को प्राप्त होने का समाचार भी आ गया।”

दाहिर ने मुट्ठियाँ भींचते हुए अपनी भौहें सिकोड़ीं, “कितनी सेना है उनके पास?”

“इस समय मुहम्मद बिन कासिम आठ हजार की टुकड़ी लिए देबल में ही विश्राम कर रहा है, पिताश्री। आगे वो क्या करने वाला है, किसकी सहायता लेने वाला है इसकी कोई सूचना अभी तक नहीं मिल पायी है। परंतु एक विकट समस्या और है।”

“और वो क्या है?” जयशाह ने प्रश्न किया। “आलोर, नेरुन और सीसम में दो महीनों से अरबी व्यापारी बहुत कम दाम में अरबी मेवों का व्यापार कर रहे थे। प्रजाजनों ने बड़े चाव से उन मेवों का सेवन किया। किन्तु पिछले एक सप्ताह से ही वो सारे व्यापारी ना जाने कहाँ लुप्त हो गये हैं। और जबसे प्रजा को वो मेवे मिलना बंद हुए हैं, उनकी तड़प बढ़ती जा रही है।”

“जैसे उन मेवों में कोई मादक पदार्थ रहा हो..?” जय ने अनुमान लगाया।

“निसन्देह, भ्राताश्री। कदाचित वो मुहम्मद बिन कासिम प्रजाजनों की इसी दुर्बलता का लाभ उठाकर उन्हें भड़काकर हमारे विरुद्ध विद्रोह करवाना चाहता है।”

यह सब सुन महाराज दाहिर ने भी कुछ क्षण विचार कर निर्णय लिया, “क्योंकि मन्दिर टूटने के उपरान्त इस बात की पूरी संभावना है कि मकरान से मुहम्मद हारून और अब्दुल अस्मत की विशाल सेना उस कासिम की सहायता के लिए आएगी। अभी उनकी संख्या हमसे बहुत कम है, इससे पूर्व वो अरबी सर्प आगे बढ़ें, हमें स्वयं जाकर उनका मस्तक कुचलना होगा।”

दाहिरसेन जयशाह की ओर मुड़े, “युवराज जयशाह, आप दस सहस्त्र घुड़सवारों को लेकर जितनी तीव्रगति से हो सके उतनी शीघ्र देबल पहुँचकर कासिम को आगे बढ़ने से रोकिये। पीछे से बीस सहस्त्र की एक पैदल सैनिकों की टुकड़ी भी आपके साथ आएगी और आवश्यकता पड़ने पर आपकी सहायता करेगी, किन्तु आपका वहाँ शीघ्र से शीघ्र पहुँचना आवश्यक है। यदि कोई विकट स्थिति उत्पन्न होती है तो आप उस स्थिति अनुसार ही निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं। ये तो निश्चित है कि ज्ञानबुद्ध हमसे द्रोह कर चुका है, और वो कासिम की सहायता करने भी आ सकता है। उसके पास हमारे सौ युद्धक हाथी भी हैं जो हमने पिछले ही वर्ष उसे भेंट दिये थे, किन्तु ये भी सत्य है कि उन हाथियों का प्रशिक्षण हमारे ही अखाड़े में हुआ है, जिसकी निगरानी आपने ही की थी, युवराज जयशाह। और आप भलीभाँति जानते हैं यदि वो हाथी मार्ग में आये तो उनसे कैसे निपटना है।”

“मै समझ गया, महाराज। आप चिंतित ना होईये।” जयशाह ने सहमति जताते हुए कहा।

तत्पश्चात दाहिरसेन वेदान्त की ओर मुड़े, “कन्नौज नरेश महाराज नागभट्ट और वीर कालभोज को सहायता का संदेश भिजवा दो, कि हमें उनकी आवश्यकता पड़ सकती है।”

“किन्तु कालभोज तो इस समय चालुक्यों को हमारे पक्ष में करने के लिए कांचीपुरम में पल्लवों से युद्ध करने गये हैं, पिता महाराज।” 

“अर्थात? हम समझे नहीं।” “जब उन्हें ये ज्ञात हुआ कि मेवाड़ की एक लाख की सेना ने सिंध का साथ छोड़ दिया है, तो उन्होंने चालुक्यों को हिन्द सेना में सम्मिलित करने का निर्णय लिया। और चालुक्यराज विजयादित्य की एक ही शर्त थी, कि उनके पिता के हत्यारे पल्लवराज परमेश्ववर्मन को बंदी बनाया जाये। इससे पल्लवों की शक्ति दुर्बल पड़ जायेगी, और अपनी आधी सेना सिंध भेजने के उपरान्त भी चालुक्यों का साम्राज्य असुरक्षित नहीं होगा। यदि वीर कालभोज इस उद्देश्य में सफल हो गये, तो समझ लीजिए चालुक्यसेना भी हिन्द सेना का भाग बन जायेगी।”

वेदान्त का कथन सुन दाहिरसेन के मुख पर मुस्कान आई, किन्तु साथ में चिंता की लकीरें भी थीं, “कालभोज को तो ज्ञात भी नहीं होगा कि संकट हमारे द्वार पर खड़ा है। ठीक है, उसे अपना कर्तव्य निभाने दो। तुम महाराज नागभट्ट को संदेश भिजवाओ। और साथ में अलाफ़ी कबीले में निवास कर रहे माविया बिन हारिस और मुहम्मद बिन हारिस को भी संदेश भिजवाओ, कि वो अपने कबीले के अरबी योद्धाओं के साथ हमारी सहायता के लिए आलोर पहुँचें। उन्हें शरण दी थी हमने, तो आशा करते हैं वो हमारी सहायता को भी वहाँ अवश्य पहुँचेंगे।”

“जो आज्ञा महाराज, किन्तु आलोर क्यों..?” वेदान्त को इस आदेश पर थोड़ी शंका हुयी।

“हाँ, पुत्र। मैं आलोर की ही बात कर रहा हूँ। ब्राह्मणाबाद हमारे पूर्वजों की भूमि रही है। महाराज राय चच ने यहीं से अपने शासन का आरम्भ किया था, इसलिए ये भूमि हमारे लिए बहुत सम्मानीय है, और यही कारण है कि अब तक ये हमारी राजधानी रही है। किन्तु विगत वर्षों में युवराज जयशाह की नीतियों और श्रम के कारण इस समय सिंध में यदि हमारा कोई सबसे शक्तिशाली नगर है, तो वो है आलोर। सिंधु नदी के निकट के पर्वतों पर निर्मित हुआ वो किला भूमि से सौ गज की ऊँचाई पर है, जहाँ की संकरीली चढ़ाई से होकर किले तक पहुँचना आसान कार्य नहीं है। उस किले के भीतर ही बहुत से अनाजों की फसल और फलों के वृक्ष भी उपलब्ध है, जिसके कारण हमारी शक्ति वहीं सबसे अधिक प्रबल होगी। इसलिए हम वो किला नहीं हार सकते। और आलोर के किले को पार किये बिना यदि अरबी सेना ने दूसरे मार्ग से ब्राह्मणाबाद की ओर बढ़ने का प्रयास किया तो उसे अत्यंत भयानक जंगलों और पहाड़ियों को पार करना होगा, जो अरबसेना की उस टुकड़ी के लिए असम्भव है, क्योंकि उस मार्ग पर जल की भी पर्याप्त मात्रा नहीं है। उसकी सेना मार्ग में ही प्यास से मर जायेगी। इसलिए हम स्वयं पाँच सौ हाथी और पंद्रह हजार की सैन्य टुकड़ी लेकर आलोर जा रहे हैं। यहाँ तक की पूरा रनिवास और उनके सारे रक्षक भी हमारे साथ चलेंगे। शेष पाँच हजार की सेना ब्राह्मणाबाद के किले की रक्षा करेगी।”

श्वास भरते हुए दाहिर सेन ने गर्जना करते हुए कहा, “भले ही हम श्री महाविष्णु के मन्दिर को ना बचा पाये। किन्तु हम उन अरबी शैतानों के आगे समर्पण नहीं करेंगे। सिंध से भारतीय संस्कृति का नाश नहीं होने देंगे। शीघ्र से शीघ्र तैयारियाँ करो, अगले चार दिन के अंदर अंदर हमारी, सैन्य टुकड़ी आलोर के लिए कूच कर जानी चाहिए।”

******

घायल अवस्था में शुज्जा किसी प्रकार चलते हुए अरबियों की छावनी के निकट आ रहा था। माथे, छाती और जांघों से बहा हुआ रक्त शरीर के उन भागों पर ही जमा हुआ प्रतीत हो रहा था। उतने बड़े शरीर को कोई भी दूर से ही देख सकता था। छावनी के निकट आते-आते शुज्जा के शरीर ने जवाब दे दिया, और वो ढिमलाकर भूमि पर गिर पड़ा। उसे देख अरबी सैनिक उसे संभालकर भीतर ले गए।

शीघ्र ही शिविर में लेटे शुज्जा से कासिम स्वयं मिलने आया। उसे देख शुज्जा के नेत्र ग्लानि से भर उठे, “माफी हुजूर, मैं कामयाब ना हो सका।”

कासिम मुस्कुराते हुए उसके निकट बैठा, “हमें मालूम हुआ कि कैसे जाटों की फौज भी वहाँ उन सिंधियों को मदद को आ गयी। वहाँ तुम्हारी हार लगभग तय थी, पर मुझे खुशी है कि तुम जिंदा हो।” कासिम ने अपने उस हब्शी का कंधा थपथपाया, “तुम्हारी हिम्मत काबिले तारीफ है, शुज्जा। और अब तुम्हारा यूँ जिंदा लौट आना ही हमारी फौज की हिम्मत को कई गुना बढ़ा देगा। अभी आराम करो, आगे की जंग आसान नहीं होने वाली।”

कासिम उठकर शिविर से बाहर आया और शीघ्र ही अपने पाँच हाकिमों मेहराज, नईम सईद, अबु फजह, मोहरिज बिन साबत और जैश बिन अकबी को इक्कठा कर उन्हें निर्देश दिया, “वक्त आ गया है, अलोर, नेरुन और सीसम में, जहाँ-जहाँ भी लोगों को हमारे अफीम की लत लगी है, वहाँ के किलेदारों को पैगाम भेजना शुरू करो। सुना है तलब से आवाम का एक बड़ा कुनबा तड़पने लगा है, और हम इसी का फायदा उठायेंगे। मेवों से भरे कनस्तरों को लेकर दो दो सौ की टुकड़ियों के साथ उन सभी शहरों में जाओ। और ये कहो..।”

हम देबल के मन्दिर से जुड़ी भविष्यवाणी के विषय में जानते हैं। जाहिर है, उसके तबाह होने के बाद आपको भी ये यकीन हो गया होगा कि अब सिंध पर उम्मयद खिलाफत का परचम लहराने से कोई नहीं रोक सकता। इसलिए बेहतर यही होगा कि आप राजा दाहिर का साथ छोड़कर खिलाफत की हुकूमत कबूल करें और हमारी फौजी टुकड़ियों को अपने किले की चाभी सौंप दें। बदले में हम आपसे वादा करते हैं कि आपको और आपकी आवाम को कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा। पर जो हमारे खिलाफ खड़ा हुआ उसे बख्शा नहीं जायेगा। अगर आपने सर नहीं झुकाया, तो बहुत जल्द मकरान से हजारों की फौज भी हमारी मदद को आ रही है। वो आपके किले को तबाह और आवाम को नेस्तनाबूद कर देगी। अगर आपको हमारा ये हुक्म कबूल है तो हमारे भेजे गये मेवों के कनस्तरों को कबूल कीजिए। वो क्या है कि हमारे भेजे मेवों का नशा ही कुछ ऐसा है, जो एक बार खा ले उसके नशे का गुलाम हो जाता है। ये तोहफा आपकी आवाम की बढ़ती तलब को शांत कर उन्हें राहत देगा। वर्ना क्या पता, नशे में पागल होकर आपकी आवाम ही आपसे बगावत कर दे। और हमारे व्यापारियों के बिना आपको ये मेवे मिलने नहीं वाले। तो बेहतर होगा इन सारी चीजों के बारे में सोच समझकर ही फैसला करें। — सिपहसालार मुहम्मद बिन कासिम अकील सकीफी (उम्मयद खिलाफत )

शीघ्र ही कासिम का ये संदेश आलोर में शमनी, सीसम में मोखा और रासल और नेरुन में काम्हादेव के भाई दारुण तक पहुँचा। उन सभी ने अपना उत्तर तैयार करवाना आरम्भ किया।

******

इधर जयशाह दस सहस्त्र अश्वारोहियों को लिए अभी देबल की सीमा से चालीस कोस की दूर पर ही पहुँचा था, कि अपने मार्ग में खुदी हुई अनेकों खाईयों को देख वो स्तब्ध सा रह गया। ये रणनीति कासिम की ही थी ताकि ब्राह्मणाबाद से कोई विशाल टुकड़ी उस मार्ग से देबल तक ना पहुँच पाये।

“अब क्या करें, महामहिम ?” जय के साथ खड़े एक योद्धा ने प्रश्न किया।

“यदि दूसरे मार्ग से गये तो वो लम्बा भी है, और जल की भी वहाँ इतनी कमी है कि ना हमारे अश्वों में शक्ति बचेगी ना हममें। पिता महाराज तक इस स्थिति का संदेश पहुँचाओं, तब तक हम आलोर की सीमा के उत्तर में पचास कोस दूर ही अपना पड़ाव डालेंगे। वो एक ऐसा सम्पन्न स्थान है ज़हाँ हमें खाद्य सामग्रियों और जल की कमी नहीं पड़ेगी। और महाराज के आदेश पर हम शीघ्र से शीघ्र आलोर या फिर कहीं भी तीव्रगति से कूच कर सकते हैं। और हाँ, पैदल सैनिकों की टुकड़ी को साथ आने का आदेश दो।

******

इधर आलोर, सीसम और नेरुन के सभी किलेदारों के उत्तर लेकर वहाँ के संदेशवाहक एक-एक करके कासिम के पास आये। पहला संदेशवाहक नेरुन से आया।

देबल का मन्दिर नष्ट हो चुका है, इसलिए हमें राजा दाहिर के इस युद्ध में भाग लेने में कोई रुचि नहीं है। हम आपके समक्ष समर्पण का प्रस्ताव रखते हैं, किन्तु हमारे लोग आपकी ओर से भी युद्ध में भाग नहीं ले पायेंगे। क्योंकि हर किसी का मन आपके प्रति समर्पण प्रदर्शित नहीं कर पायेगा। फिर भी यदि आपको रसद या आर्थिक सहायता की आवश्यकता हो तो वो हम अवश्य भिजवा सकते हैं। आशा करते हैं इसके एवज में आप हमें अभयदान देंगे।
—दारुण (नेरुन का किलेदार)

कुछ क्षण विचार कर कासिम ने उस संदेशवाहक से कहा, “उनसे कहो, हमें उनकी ये खिदमत कबूल है। मुहम्मद हारून और अब्दुल अस्मत की अगवुआई में पचास हजार का लश्कर भी आज शाम को ही नदी के रास्ते देबल में पहुँच जायेगा। हमें रसद और घोड़ों की जरूरत है, तो वो उसे जल्द से जल्द मुहैया करवायें। बदले में हम उनके किले पर हमला नहीं करेंगे।”

शीघ्र ही आलोर का संदेशवाहक भी कासिम के समक्ष उपस्थित हुआ।

मैं बौद्ध धर्म का अनुयायी हूँ, हिंसा में अधिक विश्वास नहीं रखता। और वैसे भी आलोर में अब कुछ भी मेरे हाथ में नहीं है, क्योंकि राजा दाहिर अपनी सेना के साथ इसी किले में आ रहे हैं। क्योंकि यहाँ उनकी शक्ति प्रबल है। किन्तु भविष्यवाणी के अनुसार विजयी तो आपको ही होना है। और हमारी ये इच्छा है कि आप विजय के उपरान्त हमें और हमारे बौद्ध सैनिकों को अभयदान दें। बदलें में हम जितनी हो सके हम आपकी ही सहायता करेंगे। और पहली सहायता ये सूचना है, कि आपको इस संदेश के प्राप्त होने के छठवें दिन राजा दाहिर अपनी सेना के साथ किले में प्रवेश करेंगे। यदि आप उन्हें मार्ग में ही रोक लें तो, बिना तैयारी वो उस मोर्चे पर दुर्बल पड़ सकते हैं। अगर वो सेना एक बार किले के भीतर प्रवेश कर गई, तो उसे पराजित करना लगभग असम्भव हो जाएगा। राजा दाहिर के यहाँ आने तक गुप्त रूप से हमारे बौद्ध सैनिक यथासम्भव आपकी सहायता करेंगे। —शमनी (आलोर का किलेदार)

यह सूचना सुन कासिम के चेहरे पर चिंता की लकीरें छा गईं, “उनसे कहो उनकी ये दरख्वास्त हमें कबूल है।” उसने अपने निकट बैठे मेहराज की ओर देखा, “तुम जल्द से जल्द अबु फजह के साथ जाओ और कल शाम तक इंतजाम करो कि हमारे और शमनी के जासूसों के बीच लगातार बातचीत और पैगामों का सिलसिला बना रहे।”

 “जो हुक्म, हुजूर।” मेहराज तत्काल ही छावनी से बाहर गया।

आधे प्रहर उपरान्त ही सीसम से आया मोखा का भेजा तीसरा संदेशवाहक भी कासिम के समक्ष उपस्थित हुआ।

राजा दाहिर के लिए हमारे प्रमुख किलेदार बाजवा वीरगति को प्राप्त हुए, किन्तु हमने हृदय से कभी राजा दाहिर का सम्मान नहीं किया, क्योंकि उन्होंने हमें अपने आधीन करने के लिए हमारे पिता राय बसाया को मारा था। अब नियति और शक्ति जब दोनों ही आपके पक्ष में है। तो यदि आप आज्ञा दें तो मैं और मेरा भाई रासल अपनी पंद्रह सौ अश्वारोही सेना के साथ इस युद्ध में आपकी सहायता करना चाहते हैं। —मोखा (सीसम का किलेदार) 

इस संदेश पर मानों कासिम की बाँछें खिल गयीं, “उनसे कहो कि हम उनके शुक्रगुजार हैं। उन्हें अपना लश्कर लेकर आलोर पहुँचने को कहो। मुहम्मद बिन कासिम पूरे दिल से इस फौज में उनकी इज्जत अफजाई करेगा।” 

******

इधर मुहम्मद हारून और अब्दुल अस्मत के नेतृत्व में पचास हजार की अरब सेना संध्या होने तक समुद्री मार्ग से ही नौकाओं से देबल के बंदरगाह तक आ पहुँचे। तब तक मुहम्मद बिन कासिम ने ज्ञानबुद्ध और उसके सैन्य अधिकारियों को मुक्त कर दिया था। उनके और अरब सेना की एक छोटी सी टुकड़ी के साथ कासिम ने उन दोनों हाकिमों का स्वागत किया।

मुहम्मद हारून तो इतना उत्सुक था कि उसने कासिम को गले ही लगा लिया, और गर्व से उसकी ओर देखा, “पूरे अरबिस्तान को आप पर फक्र है, अमीर मुहम्मद बिन कासिम। पाँच सालों तक पूरे हिन्द में घूमते हुए पसीना बहाकर आपने जो कामयाबी हासिल की है, उसके लिए मैं मुहम्मद हारून आपको सलाम करता हूँ।”

हारून के साथ अब्दुल अस्मत ने भी कासिम को सलाम किया। कासिम ने भी उन्हें सलाम करते हुए गंभीर स्वर में कहा, “यहाँ तक तो पहुँच गये, बिरादर। पर अगर कल सुबह ही यहाँ से नहीं निकले तो वक्त पर पहुँच नहीं पायेंगे। सिंध का बादशाह दाहिर अपनी फौजी टुकड़ी के साथ आलोर के किले की ओर बढ़ रहा है। याद है ना, पिछली बार साठ हजार की फौज ने उस किले को घेरा था, पर उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाये। इसलिए चाहें कुछ हो जाए हमें उस किले में घुसने से पहले ही दाहिरसेन को रोकना होगा। वर्ना पाँच साल की मेहनत मिट्टी में मिल जायेगी।”

“इस बार हम देरी नहीं करेंगे। हमारी पूरी फौज आपको अपना सिपाहसालार मान चुकी है, और हम सारे हाकिम आपकी सरपरस्ती में जंग लड़ने को बेताब हो रहे हैं।” हारून ने गर्व से छाती चौड़ी करते हुए कहा, “हमारे पास पंद्रह हजार घुड़सवार, उतने ही ऊँटसवार, और बीस हजार पैदल सैनिक हैं। बाकी की फौज कितनी है ?”

“दो हजार घुड़सवार और आठ हजार पैदल सैनिक अरब के हैं। वहीं सीसम से पंद्रह सौ घुड़सवारों का जत्था भी हमारे मदद को सीधा अलोर ही पहुँचेगा। और यहाँ ज्ञानबुद्ध के साथ पाँच हजार बौद्ध जाति के जाँबाज भी हमारी मदद को तैयार हैं। कल सुबह ही हम पूरी ताकत से अलोर के किले पर फतह हासिल करने के लिए कूच करेंगे। अभी के लिए आप लोग देबल के शाही मेहमान खाने में आराम फरमाई। फौज के जाने की तैयारियाँ हम देख लेंगे।”

कासिम के आग्रह पर हारून और अस्मत दोनों ज्ञानबुद्ध के साथ अतिथि गृह की ओर बढ़े। मेहराज ने कासिम के निकट आकर प्रश्न किया, “जिन बौद्ध सैनिकों ने जंग में हमारा साथ देने से इंकार कर दिया, उनका क्या करना है, हुजूर?”

“उन्हें अभी तो कैद करके ही रखना है, अभी ऐसा कुछ नहीं करना जिससे कहीं भी बगावत की गुंजाईश पैदा हो। एक बार उस दाहिरसेन का कटा सर इन सिंधियों के सामने आ गया, तो कोई हमारे खिलाफ खड़ा होने की हिमाकत नहीं कर पायेगा। और अगर ऐसा किया तो उसके अंजाम का जिम्मेदार वो खुद होगा।”

******

अलोर के किले तक पहुँचने से ठीक एक रात्रि पूर्व दाहिरसेन और उनकी सेना ने विश्राम की इच्छा से उपयुक्त स्थान देखकर पड़ाव डाल दिया। मध्यरात्रि में अग्नि के निकट बैठे दाहिर चिंता की मुद्रा में बैठे कदाचित किसी की प्रतीक्षा में थे। तभी कवच और शस्त्र धारण किये दो सुडौल योद्धा उनके निकट आये और उन्हें झुककर प्रणाम किया, “हारिस भाईयों का सलाम कबूल करें, आलमपनाह।”  

“कह दीजिए कि आप दोनों कोई सुखद समाचार लाये हैं। दाहिरसेन स्वयं भी बेचैन थे।”

“माफ कीजिए, हुजूर।” माविया बिन हारिस ने गंभीर स्वर में कहा, “पर खबर अच्छी नहीं है। कासिम को पता चल गया है कि आप अपनी फौज के साथ आलोर के किले की ओर बढ़ रहे हैं। इस्लामिक लश्कर में सत्रह हजार घुड़सवार, पंद्रह हजार ऊँट सवार, अट्ठाइस हजार पैदल फौज है। और साथ में देबल के बौद्धों की पाँच हजार, और सीसम के जाटों की पंद्रह सौ घुड़सवारों का जत्था भी उनकी मदद को साथ आ रहा है। खबर मिली है कि घुड़सवारों की टोली कल सुबह तक आपका रास्ता रोकने के लिए आलोर तक आ जायेगी।”

मुट्ठियाँ भींचते हुए दाहिरसेन ने क्षणभर को अपने नेत्र बंद किये और अपने मन को शांत करने का प्रयास किया, “बाजवा के जाने के बाद तो मोखा और रासल का द्रोह करना हमारे लिए बहुत विघातक सिद्ध हो सकता है। उन दोनों को ब्राह्मणाबाद और आलोर के बीच की चप्पे चप्पे की जानकारी है।”

निकट बैठे वेदान्त ने अपने पिता का कंधा पकड़ उन्हें ढाढ़स बँधाने का प्रयास किया, “जानता हूँ परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं हैं। पर आपको शीघ्र से शीघ्र निर्णय लेना होगा। चूंकि मोखा और रासल को सारे मार्गों का ज्ञान है, इसलिए यदि यहाँ से ब्राह्मणाबाद लौटने का प्रयास किया, तो भी चार दिनों की यात्रा के बीच भी कासिम की सेना हमें दो दिशाओं से घेर सकती हैं। ऐसे में हमारी सेना दोनों ओर से पिस जायेगी।”

साहस जुटाते हुए दाहिरसेन ने वेदान्त से प्रश्न किया, “महाराज नागभट्ट और काश्मीर के राजा दंतिपात्र का कोई उत्तर आया?”

“श्री महाविष्णु के मन्दिर के टूटने की सूचना ने महाराज दंतिपात्र का साहस भी तोड़ दिया है, पिताश्री। उन्होंने इस युद्ध में भाग लेने से स्पष्ट इंकार कर दिया है। महाराज नागभट्ट को भी संदेश भेजे हुए दो सप्ताह हो गए किन्तु वहाँ से कोई उत्तर नहीं आया। यहाँ तक की नेरुन के किलेदार दारुण ने भी भय के मारे कासिम से संधि कर ली है, और उसकी सेना के लिए रसद की सहायता भी उपलब्ध करवाई है।”

ये सारी बातें सुन दाहिरसेन ने बड़ी कठिनाई से स्वयं को हताश होने से बचाये रखा, “कदाचित श्री महाविष्णु के मन्दिर का ध्वस्त होना हमारे अधिकतर साथियों की दुर्बलता का कारण बन गया है। किन्तु हम उन आक्रान्ताओं के आगे शस्त्र नहीं डालेंगे। आज उन्होंने देबल का मन्दिर तोड़कर गौओं की हत्यायें की हैं, यदि सिंध पर उनका शासन हो गया तो आगे न जाने वो क्या करेंगे।” श्वास भरते हुए दाहिरसेन ने आगे कहा, “कदाचित कल प्रातः काल ही हमारा सामना अरब सेना से होने वाला है। तत्काल ही एक घुड़सवार को जय के पास भेजो, और उसे संदेश दो कि वो शीघ्र से शीघ्र अपने दस सहस्त्र अश्वारोही और बीस सहस्त्र पैदल सैनिकों को लेकर आलोर में हमारी सहायता करने आये।”

“जो आज्ञा, महाराज।” वेदान्त तत्काल ही उठकर चला गया।

इसके उपरान्त दाहिरसेन माविया और मुहम्मद हारिस की ओर मुड़े, “आप अपने साथ कितने लोग लेकर आये हैं?”

“अलाफ़ी कबीले के दो हजार जंगजू आपकी खिदमत में हाजिर हैं, हुजूर।” माविया ने दृढ़ता पूर्वक कहा।

कुछ क्षण विचार कर दाहिर ने कहा, “अब विश्राम करने का समय नहीं है हमारे पास। हमें अभी के अभी निकलना होगा। किन्तु उससे पूर्व हमें रनिवास और उनके एक सहस्त्र मुख्य सुरक्षाकर्मियों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। हमारे किले में पहुँचने से पूर्व उन लोगों का किले में प्रवेश करना आवश्यक है। और हमें रणनीति भी उसी अनुसार बनानी होगी। वेदांत एक टुकड़ी लेकर आपके साथ ही जायेगा। स्मरण रहे, जैसे ही हमारी घराने की स्त्रियाँ आलोर के किले में प्रवेश करें, आप लोग आलोर के किले की चोटी पर एक विशाल भगवा ध्वज लहरा देंगे, ताकि किसी संकट के आने पर हमें संतोष रहे कि हमारा परिवार सुरक्षित है।”

******

सुबह होने को थी। आलोर के किले से लगभग दस कोस दूर मुहम्मद बिन कासिम, नईम सईद, अबु फजह और मेहराज के साथ पंद्रह हजार घुड़सवारों के साथ कदाचित आगे की सूचना की प्रतीक्षा में था। तभी एक घुड़सवार उसके निकट आया, “सामंत शमनी ने आपके लिए संदेश भेजा है, महामहिम। माविया बिन हारिस और मुहम्मद बिन हारिस के साथ दो हजार अरब योद्धा और दाहिरसेन के तीन हजार घुड़सवार सिंध के रनिवास और उनके एक हजार सुरक्षा कर्मियों को सुरक्षित करने के उद्देश्य से आलोर के रावड़ किले की ओर बढ़े चले आ रहे हैं। वो लोग लगभग दस कोस की दूरी पर हैं, और उनके पीछे पाँच सौ हाथियों, दस हजार पैदल सैनिकों और दो हजार घुड़सवारों के साथ महाराज दाहिरसेन लगभग पच्चीस कोस की दूरी पर हैं। एक अनुमान ये भी है कि युवराज जयशाह भी अब तक अपने पिता की सहायता के लिए चल चुके होंगे। उनके पास भी दस हजार घुड़सवार और बीस हजार पैदल सैनिक हैं। पचास कोस की दूरी तय करने में अधिकतम उन्हें दोपहर तक का समय लगेगा।”

उस संदेशवाहक की सूचना सुन कासिम सोच में पड़ गया। नईम सईद ने सुझाव दिया, “मैं तो कहता हूँ सबसे पहले हमें घुड़सवारों की टोली लेकर रनिवास की हिफाजत करने वाली फौज पर हमला कर देना चाहिए। इससे हम माविया बिन हारिस और मुहम्मद बिन हारिस नाम के उन दोनों गद्दारों को भी दोजख पहुँचा देंगे, और दाहिरसेन के हरम की औरतों को भी कैद कर लेंगे। दाहिरसेन पागल होकर हमारी ओर खिंचा चला आएगा। वैसे भी खलीफा का हुक्म है कि जंग जीतकर दाहिरसेन की तीनों बेटियों को उनकी खिदमत में पेश किया जाए, और उन्हें कैद करने का ये बेहतरीन मौका है।”

कासिम ने संदेशवाहक को जाने का संकेत करते हुए कहा, “बेवकूफी की बातें मत करो, सईद। हिन्द की औरतों की इज्जत पर हाथ डालोगे, तो वो जंगजू दस गुना खूँखार होकर तुम पर हमला करेंगे। फिर मन्दिर से जुड़ी आसमानी बातें भी हमारी फौज को उनके कहर से बचा नहीं पायेगी। इसलिए अपने अंदर के शैतान को दबाकर रखो। अभी सबसे ज्यादा जरूरी इस जंग को जीतना है। एक बार हम दाहिरसेन की सल्तनत को तबाह करे दें, फिर वो तीनों शहजादियाँ भी हमारी कैद में होंगी, और तुम्हारी भी जो मर्जी आये करना। और वैसे भी, उन रानियों की हिफाजत करने के लिए जो एक हजार सिपाही हैं, उनमें तीन सौ लोग हमारे भी हैं जो पिछले पाँच सालों से हिन्द की सरजमीं के अलग-अलग शहरों से घूमते हुए सिंध में पहुँचे थे, और ज्ञानबुद्ध की मदद से वो रनिवास के हिफाजतगर्द बन पाये। दो साल से हमारे वो तीन सौ जाँबाज उन काफिरों के बीच रह रहे हैं, जिसका फायदा आखिर में हमें ही होगा।

“और उन लोहारों का क्या जिन्हें दुश्मन के हथियार कमजोर करने का हुक्म दिया गया था?”

“हमें तो ब्राह्मणाबाद पर हमला करना था, वो सारे पाँच सौ लोहार वहीं थे। पर जबसे ज्ञानबुद्ध खुलकर हमारी ओर आ चुका है, तो हमें उन लोहारों की खबर मिलना बंद सी हो गई है। अब मुझे कोई अंदाजा नहीं है कि वो कहाँ है और क्या कर रहे हैं। हम उस तरकीब के भरोसे नहीं बैठ सकते।”

“पंद्रह हजार ऊँटों की फौज लेकर आता हुआ शुज्जा भी हमारे बहुत पीछे नहीं है, हुजूर। आपका हुक्म क्या है?” 

“दाहिरसेन के हरम की औरतों को अभी किले के अंदर जाने दो। हम सीधा दाहिरसेन के काफिले पे ही हमला करेंगे।”

“पर वहाँ सिर्फ दो हजार घोड़े और दस हजार पैदल सैनिक नहीं है, हुजूर। पाँच सौ जंगजू हाथी भी हैं, जिनका सामना करना हमारी तीस हजार की फौज के लिए भी आसान नहीं होगा।”

कासिम मुस्कुराया, “इस जंग में इतनी आसानी से जीत हासिल नहीं होगी, सईद। हमें आज के दिन दुश्मनों का ज्यादा से ज्यादा नुकसान करना है। दोपहर तक दाहिरसेन का बेटा जयशाह भी उसकी मदद को आ जायेगा, तब तक हमारी बाकी की फौज भी आ जायेगी, पर उससे पहले ही हमें जितना हो सके सिंध के बादशाह की उस टुकड़ी को नुकसान पहुँचाना है। अगर वक्त रहते दाहिरसेन मारा गया, तो जंग यही खत्म हो जायेगी, और हमारा नुकसान भी कम होगा। तैयार हो जाओ। हम उन्हें ऐसे रास्ते पर घेरेंगे जहाँ उनके हाथी ज्यादा काम नहीं आ पायेंगे।” 

******

सूर्योदय होते-होते संकरीले मार्ग से होकर दाहिरसेन की सैन्य टुकड़ी अपने गंतव्य की ओर बढ़ी चली जा रही थी। लगभग दो सौ गज चौड़े उस मार्ग के दोनों ओर मंद गति से बहता सिंधु नदी का जल आने वाले रक्तपात का साक्षी बनने को सज था। दो सौ गज चौड़े उस विशाल प्राकृतिक पुल पर एक पंक्ति में लगभग सौ अश्व ही चल सकते थे, इसी प्रकार तीन पंक्तियों में लगभग तीन सौ अश्व सबसे आगे थे, उसके ठीक पीछे अपने युद्धक हाथी पर सवार हुए महाराज दाहिरसेन चल रहे थे। उनके ठीक पीछे तीन पंक्तियों में बीस-बीस करके साठ और युद्धक हाथी चल रहे थे। थोड़ा और पीछे कई कोस लम्बे उस प्राकृतिक पुल जैसे दिखने वाली भूमि पर एक-एक पंक्तियाँ करके पंद्रह सौ अश्वारोही और बाकि के युद्धक हाथी चल रहे थे। उनके ठीक पीछे बाकि के पैदल सैनिक और उनके पीछे दो सौ अश्वारोही सशस्त्र होकर चल रहे थे।

किन्तु अब संकट दूर नहीं था। मुहम्मद बिन कासिम की विशाल सेना, जिसमें पंद्रह हजार घुड़सवार और लगभग पंद्रह हजार ऊँट सवार थे, उस प्राकृतिक पुल के अंतिम छोर के निकट आने लगी। दाहिरसेन ने अपनी सेना को रुकने का आदेश दिया और सामने आ रही शत्रु की टुकड़ियों को ध्यान से देखा। आगे के घुड़सवारों में नईम सईद और अबु फजह थे। उनके ठीक दो पंक्ति पीछे ऊँट के कूबड़ पर बैठा हब्शी शुज्जा अपने ऊँट सवारों की पंक्ति के साथ किसी भूखे शैतान जैसा प्रतीत हो रहा था। और उसके पीछे की खुले मैदान में खड़ी घुड़सवारों और ऊँट सवारों की टुकड़ी का नेतृत्व मेहराज के साथ कासिम स्वयं कर रहा था।

दाहिरसेन ने तीन हाथ लम्बी दूरबीन निकालकर कुछ कोस की दूरी पर स्थित आलोर के किले की ओर देखा। वेदान्त और हारिस भाईयों ने अभी तक किले पर पताका फहराकर रनिवास की सुरक्षा का संकेत नहीं दिया था। इसलिए दाहिरसेन को अपनी सेना के साथ आगे बढ़ना ही था, अन्यथा शत्रु के तीरों की वर्षा से उन्हीं के घुड़सवारों को अधिक क्षति पहुँचाती। और इस आशंका ने भी उन्हें विचलित कर दिया कि यदि वो आगे नहीं बढ़े तो रनिवास का क्या होगा। मुट्ठियाँ भींचते हुए उन्होंने अपना धनुष उठाया और उस पर एक ढाई हाथ लम्बा तीर चढ़ाकर प्रत्यंचा को जोर से खींचा। वायु से भी कहीं अधिक तीव्र गति से वो तीर सीधा अबु फ़जह की ओर बढ़ा, इस्लामिक लश्कर का वो हाकिम सर झुकाकर बचा, वो ढाई हाथ लम्बा तीर सीधे उसके पीछे खड़े घुड़सवार का शिरस्त्राण तोड़ता हुआ उसके मस्तक में जा घुसा।

इस्लामी सेना के पहले सिपाही के बहते हुए रक्त और बाहर निकलकर फैले हुए उसके मस्तिष्क के कुछ टुकड़ों ने युद्ध की घोषणा कर दी। दाहिरसेन ने स्वयं युद्ध का बिगुल बजाकर सेना का नेतृत्व संभालते हुए आक्रमण का आदेश देते हुए कहा, “घसीटते हुए खुले मैदान में ले जाओ इन्हें।”

दाहिरसेन की गर्जना पर आगे के अश्वारोही दल के तीन सौ योद्धाओं ने महज दस क्षणों में ही दौड़ दौड़कर त्रिकोण की आकृति बनाई और आगे के बीस हाथियों के लिए मार्ग बना दिया। यह देख कासिम ने भी अपनी सेना को तीर बरसाने का आदेश दिया। एक साथ सैकड़ों तीर आकाश में उड़े, पर उन हाथियों के मस्तक और सूंड से बंधे कवच इतने सुदृढ़ थे कि उन्हें सुई के चुभने जैसे घाव के अतिरिक्त और कोई क्षति नहीं पहुँची। कासिम समझ चुका था कि उन हाथियों को करीब जाकर भालों से ही छकाया जा सकता है, उसने अबु फजह को आदेश दिया, “आगे की टुकड़ी लेकर हाथियों पर हमला करो।”

सैकड़ों अरबी घुड़सवारों की टुकड़ी लिये अबु फजह सिन्धी हाथियों पर आक्रमण करने आगे बढ़ा। इतने में सैकड़ों सिन्धी अश्वारोही हाथियों की आड़ से निकलकर उस अरबी टुकड़ी पर टूट पड़े। हाथियों की टक्कर और सिंधियों की तलवारों का स्वाद चख अरबियों के छक्के छूट गये। अपने घुड़सवारों को लगातार मरता देख भी कासिम ने उन्हें पीछे हटने का आदेश नहीं दिया, बल्कि अपने एक और हाकिम नईम सईद को भी घुड़सवारों की एक और टोली लिए आगे लड़ने के लिए भेज दिया। आधी घड़ी में ही सैकड़ों अरबी घुड़सवार मारे गये, वहीं सिंधियों के केवल दो हाथी और मुट्ठीभर अश्वारोही ही हताहत हुए। किन्तु फिर भी कासिम के मुख पर कोई शिकन नहीं थी। कदाचित वो कुछ भी करके सिन्ध की उस सैन्य टुकड़ी को उस दो सौ गज चौड़े पुल से आगे नहीं बढ़ने देना चाहता था। उसकी ये रणनीति दाहिर सेन को तब समझ आई जब पुल के दोनों ओर से ही सैकड़ों नौकायें और उसमें हर एक में बैठे लगभग दस-दस अरबी तीरंदाज आते दिखाई दिये।

जैसे ही कासिम को ये दिखा कि उसके तीरंदाज करीब आ गये हैं, उसने गर्जना करते हुए अपनी सेना को आदेश दिया, “पीछे हट जाओ, उन्हें खुले मैदानों में आने की कोशिश करने दो।”

नईम सईद और अबु फजह अपनी टुकड़ियों को लेकर पीछे हटने लगे, और अगले ही क्षण पुल के दोनों ओर से नौकाओं में सवार लगभग दस हजार अरबी तीरंदाजों ने सिंध की सेना पर पुल के दोनों ओर से आक्रमण कर दिया। ढालें उठाने के उपरान्त भी कई सिन्धी अश्वारोही और पैदल सैनिक घायल होकर गिरने लगे। सिन्धी हाथी भी घायल होने लगे। क्षणभर को दाहिरसेन विचलित हो उठे, वो संशय में थे कि आगे बढ़ें या बाईं और दाईं ओर से प्रहार कर रहे तीरंदाजों पर आक्रमण करें। तीरों से सिन्धी सेना को बुरी तरह घायल कर अरबी तीरंदाज तट के निकट आये और तलवार और ढालें उठायें भूमि पर कूदकर घायल सिंधियों पर टूट पड़े। कुछ क्षणों के लिए सिन्धी सेना पिछड़ सी गयी। यह देख कासिम ने हुँकार भरते हुए मेहराज को आदेश दिया, “नये घुड़सवारों को लेकर आगे बढ़ो।”

दोनों ओर से घिरे अपने योद्धाओं को हताहत होते देख दाहिरसेन पहले ही विचलित थे, ऊपर से सामने से आती एक और अरबी घुड़सवारों की ताजी टुकड़ी यदि उनकी सेना तक पहुँच जाती तो पराजय लगभग सुनिश्चित हो जाती। नाना प्रकार के तनावों में घिरे दाहिरसेन ने पुनः दूरबीन उठाकर किले की ओर देखा। इस बार किले की चोटी पर लहराते भगवे को देख उनके हृदय को मानों शांति सी मिल गई, “रनिवास सुरक्षित है।”

तत्पश्चात सूर्य की किरणों की ओर देख दाहिरसेन ने क्षणभर विचार किया और ढाई हाथ लम्बा तीर निकालकर सीधा अपने सामने आ रही अरबी टुकड़ी का नेतृत्व करते हाकिम मेहराज के अश्व की ओर छोड़ा। वायु गति से उड़े राय दाहिरसेन के उस तीर ने मेहराज के अश्व का कण्ठ भेद डाला, असंतुलित हुआ वो अश्व भूमि पर गिर पड़ा।

“इस संगीन माहौल में भी अचूक निशाना? दाद देनी होगी सिंधुराज।” कासिम भी विस्मित रह गया।

 मेहराज बड़ी कठिनाई से स्वयं को संभालते हुए कूदकर भूमि पर खड़ा हुआ, पर उसके साथ दौड़ते अरबी घुड़सवारों की गति से वो स्वयं ही चोटिल होने लगा। घुड़सवारों की वो टोली अपने हाकिम की दशा देख कुछ क्षण रुक गयी।

सामने आ रहे शत्रु को कुछ क्षण संशय में देख दाहिरसेन ने हाथी के दाँत सा दिखने वाला एक बिगुल उठाया और उसे जोर से फूँका। उस गूंज को सुनते ही सिंध के पैदल सैनिक बाईं और दाईं ओर से आ रहे नौकाओं से निकले अरबी योद्धाओं की ओर बढ़े, और पंद्रह-पंद्रह हाथी पंक्ति बनाकर दाहिरसेन के पीछे आने लगे। तब तक मेहराज भी संभलकर एक और घोड़े पर बैठ गया और फिर से दाहिरसेन की सेना की ओर बढ़ चला।

दाहिरसेन ने तीरों से अपनी रक्षा के लिए बायें हाथ में एक लम्बी सी ढाल उठाई और दायें हाथ में भारी बेड़ियों से जुड़ी एक कंटीली गदा जो लगभग एक हाथ बड़ी थी। अपना वो विशेष शस्त्र किसी रस्सी के जैसे घुमाते हुए दाहिरसेन गरज पड़े, और उनके साथ ही सैकड़ों हाथियों का दल मेहराज की टुकड़ी की ओर दौड़ पड़ा।

अरबियों के अनेकों घुड़सवारों को अपनी सूँड के आक्रमण से गिराकर उनका मस्तक कुचलते हुए सिंध के सैकड़ों हाथियों के दल ने शत्रुदल में हड़कंप मचा दिया। वहीं दाहिरसेन की कंटीली गदा के एक-एक प्रहार में अपने सिपाहियों के सर के परखच्चे उड़ते देख, कासिम भी विचलित हो उठा। ढाल उठाकर सामने आ रहे तीरों से बचते हुए दाहिरसेन का अगला प्रहार निकट आ रहे घुड़सवार पर हुआ, जो कोई और नहीं हाकिम मेहराज था। छाती पर सिंधुराज की कंटीली गदा की चोट खाकर वो भूमि पर गिरा, और अगले ही क्षण उनके विशाल हाथी साक्याने उसका मस्तक किसी तरबूज की भाँति कुचल दिया।

मेहराज के गिरते ही दाहिरसेन ने हुँकार भरी और हाथियों की टोली और तेज गति से अरबी घुड़सवारों पर टूट पड़ी। अपने हाकिम को इतनी आसानी से मृत्यु के मुख में जाते हुए देखना, और हाथियों को अपने घुड़सवारों पर भारी पड़ते देख, नौकाओं से उतरे अरब सैनिकों का मनोबल भी टूटने लगा। सैकड़ों सिंधियों को गिरा चुके उन अरबी सैनिकों के प्रहार अब दुर्बल पड़ने लगे।

मुट्ठियाँ भींचता हुआ कासिम झल्लाहट में चीखा, “पीछे हटो, उन्हें खुले मैदान में आने दो।” अपनी सेना को आदेश देकर कासिम अपना घोड़ा लिए पीछे दौड़ा। दो सौ गज चौड़े पुल पर सिन्धी सेना से युद्ध कर रहे अरबियों के पैदल सैनिक भी वापस अपनी नौकाओं की ओर दौड़े। यह देख सिंधियों के सैकड़ों तीर आकाश में उड़े और उन सैनिकों के रक्त से नदी को लाल करने लगे। कुछ के शव वहीं नदी में गिरकर बह गये, कुछ नौकाओं में बैठकर सिंध के धनुर्धरों की भेदन सीमा से निकलने में सफल रहे।

शत्रु के घुड़सवारों को भागते देख दाहिरसेन हाथियों का दल लिए अरबियों की ओर बढ़ते चले गये। अरब सेना के निकट आते ही हाथियों की आड़ लिए कई घुड़सवार और पैदल सैनिक, सब एक साथ कासिम की सेना पर टूट पड़े। अपने उस भीषण आक्रमण से स्वयं से दुगनी सेना पर सिंध के योद्धा हावी होने लगे।

सिन्धी हाथियों की सूँडों पर चढ़े लौह से बने कंटीले शूलों की चोट खाकर अरब सेना का एक घुड़सवार गिरता, तो दूसरा भय से पीछे हट जाता, जो घबराकर सामने आता उसे सिन्धी घुड़सवार तलवारों से काट देते। अधिक होने के उपरान्त भी अरब सेना में भगदड़ सी मच गई। उस क्षण दाहिर सेन के हाथियों में हिंसकता इतनी अधिक बढ़ गयी, कि चार-चार घोड़े या ऊँट मिलकर भी एक हाथी को रोक नहीं पा रहे थे।

विचलित हुआ कासिम अपनी सेना को पीछे हटाते गया। कुछ क्षणों उपरान्त उसकी दृष्टि शुज्जा की ओर गयी, जिसने गंडासे के एक ही प्रहार से एक हाथी पर बंधे लौह कवच को तोड़ते हुए उसकी सूंड बीच से काट डाली, और उस हाथी के गिरते ही उसके महावत समेत सवार को भी चुटिकयों में यमसदन पहुँचा दिया। ऐसी विकट स्थिति में भी शुज्जा का साहस देख कासिम को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसके साथ उसके ऊँट सवार भी बड़े साहस के साथ सिन्धी सेना से लोहा ले रहे थे। वहीं नईम सईद और अबु फजह के भय के कारण उनकी टुकड़ियाँ तितर बीतर होने लगीं थीं।

शीघ्र ही कासिम ने शुज्जा और अबु फजह दोनों को अपने निकट बुलवाया और उन्हें आदेश किया, “इन हाथियों ने हमारी फौज को अंदर तक डरा दिया है। ये डर निकालना जरूरी है, इसलिए शुज्जा, तुम अपने ऊँट सवारों को लेकर जाओ, और एक-एक हाथी को तुम्हारे कम से कम छह जंगजू घेरेंगे और उन्हें चारों ओर से भालों से छेदने की कोशिश करेंगे।” इसके बाद वो अबु फजह की ओर मुड़ा, “तुम अपने घुड़सवारों को ले जाओगे और शुज्जा की टुकड़ी पर हमला करने वालों को रोकोगे। छोटे-छोटे गुच्छों में बँटकर जाओगे, तो कामयाब जरूर हो पाओगे। जल्दी करो।”

कासिम के आदेश का पालन करते हुए शुज्जा और अबु फजह अपनी-अपनी टुकड़ियों को लेकर हाथियों पर आक्रमण करने बढ़ चले। पहली घड़ी तक तो अरबियों के कई ऊँट सवार और घुड़सवार मारे गये, किन्तु शीघ्र ही परिदृश्य में परिवर्तन आया और अगली घड़ी में कासिम की वो रणनीति कारगर सिद्ध होना आरम्भ हो गयी। अगली एक घड़ी में लगभग सौ हाथी मारे गये, पर फिर भी अरबियों को बहुत भारी क्षति उठानी पड़ी, क्योंकि सौ हाथियों को मारने में ही लगभग पंद्रह सौ अरबी घुड़सवार और ऊँट सवार जमीन पर गिरकर तड़प रहे थे। उनके कुचले हुए शरीर देख कासिम का मन भी थोड़ा आतंकित सा हो गया, “इतने खतरनाक हाथी कहाँ से लाया है ये दाहिरसेन ?” अपने माथे का पसीना पोछते हुए उसने सूर्य की ओर देखा, “सूरज चढ़ने को है, वो जयशाह कभी भी यहाँ पहुँच सकता है। बस खुदा करे मोखा और रासल उस सिन्धी शहजादे के लश्कर को हमारी जीत तक रोकने में कामयाब रहें?”

अरबी सेना के घुड़सवार और ऊँट सवार तो लगतार गिर रहे थे। किन्तु एक-एक करके सिन्धी हाथियों की संख्या भी कम होती जा रही थी, जिसके कारण कम संख्या वाली राजा दाहिर की उस सेना की असुरक्षा भी बढ़ती चली जा रही थी। किन्तु शीघ्र ही ये कठिनाई और विकट होने वाली थी, क्योंकि नदी से बचकर भागे हुए आठ हजार पैदल सैनिक अरबी हाकिम मोहरिज बिन साबत के नेतृत्व में तरो ताजा हुई रण में आ रही थी।

लम्बे-लम्बे भाले लिए आते उस टुकड़ी को देख राजा दाहिर भी चिंतित अवस्था में तपते हुए सूर्य की ओर देख रहे थे, “जय को तो अब तक आ जाना चाहिए था।” 

******

जयशाह की सेना दाहिरसेन से लगभग सात कोस की दूरी पर पहुँची थी। तभी कासिम की योजना अनुसार पंद्रह सौ जाट घुड़सवारों सहित मोखा, रासल और अरबी हाकिम जैश बिन अकबी, बीस हजार की पैदल अरबी सेना लेकर जयशाह की सिन्धी सैन्य टुकड़ी का मार्ग रोकने आया। उसका साथ देने ज्ञानबुद्ध के साथ पाँच हजार बौद्ध सैनिक भी आये थे, जिनमें एक हजार घुड़सवार, सौ हाथियों समेत लगभग चार हजार पैदल सैनिक थे। शीघ्र ही जयशाह की दस सहस्त्र अश्वारोही और बीस सहस्त्र पैदल सैनिकों की विशाल टुकड़ी उनके सामने थी।

जयशाह ने दूरबीन उठाकर दूर से ही बीच में चलते एक हाथी पर सवार ज्ञानबुद्ध का ध्वज देखा। उस द्रोही को देख उसका नाखून से लेकर सर तक क्रोध से जलने लगा। किन्तु परिस्थितियों को देख उसने धीरज धारण करने का निश्चय किया, फिर अपने साथ अश्व पर बैठे एक योद्धा से कहा, “आपको पाँच हजार अश्वारोही और उतने ही पैदल सैनिकों को साथ लेकर यहाँ से निकलना होगा, स्याकर महोदय। पिताश्री तक शीघ्र से शीघ्र सहायता पहुँचाना आवश्यक है।”

स्याकर ने सामने खड़े अरब लश्कर की ओर देखा, “किन्तु सामने शत्रु की सेना तो दुर्ग बनाए खड़ी है। इसे पार कैसे किया जायेगा, युवराज? और सामने सौ हाथी भी हैं।” 

“आप अपनी टुकड़ी के साथ तीर की संरचना अर्थात शरव्यूह बनाकर तैयार रखिए, स्याकर। ज्ञानबुद्ध कदाचित भूल गया है कि जिन हाथियों को ये हमसे युद्ध करने लेकर आया है वो हमारे ही अखाड़े में प्रशिक्षित हुए हैं। और अब इन्हीं का लाभ उठाकर हम शत्रु की सेना में भगदड़ मचाकर उसे बिखेर देंगे, और शीघ्र से शीघ्र आपके लिए मार्ग बना देंगे। आप बस अपनी टुकड़ी लिए तैयार रहियेगा।” 

“जो आज्ञा, युवराज।” स्याकर ने सहमति जताई।

******

इधर सिंधियों के लगभग ढाई सौ से अधिक हाथियों के साथ अनेकों अश्वारोही और पैदल सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये। मोहरिज बिन साबत के साथ एक प्रहर का विश्राम करके आई नई और ताजी टुकड़ी ने दाहिरसेन की सेना की कमर तोड़कर रख दी थी। शवों से पटते हुए उस मोर्चे पर सिंध की पराजय सुनिश्चित सी दिखाई देने लगी। पाँच हजार की बची हुई सैन्य टुकड़ी और लगभग दो सौ हाथियों के साथ किसी तरह राजा दाहिर अपना संघर्ष जारी रखने का प्रयास कर रहे थे, इस आशा में कि उनका पुत्र जय जाने कब आ जाये। खुले मैदान में अट्ठाईस हजार का अरबी दल अब उन सिंधियों को चारों दिशाओं से घेरने की योजना बना रहा था। किन्तु नियति भी कदाचित इतनी शीघ्र अरबियों की विजय पर मुहर नहीं लगाने वाली थी।

रनिवास की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपरान्त पाँच सहस्त्र अश्वारोहियों की ताजी टुकड़ी को साथ लेकर वेदान्त, माविया बिन हारिस और मुहम्मद बिन हारिस किले की ओर से आये, और मुहम्मद बिन कासिम की दोपहर तक थकी हुई सैन्य टुकड़ी पर टूट पड़े। महज दस क्षणों में अरबियों की पीछे की पंक्ति में खड़े घोड़ों और ऊँटों को धकेलते हुए वो टुकड़ी भीतर घुस आयी। अपनी टुकड़ियों को यूँ धाराशायी होता देख कासिम भी विचलित हो उठा। अपनी सेना पर हावी होती उस टुकड़ी का सामना करने के लिए उसने शुज्जा को बुलाया और उसके ऊँट सवारों के साथ स्वयं ही उस टुकड़ी की ओर बढ़ चला।

दोनों ओर से कई हलाल हुए घोड़े, ऊँटों के कटे हुए मुंड और मनुष्यों के क्षत विक्षत शरीर रण के लहू की प्यास बुझाना आरम्भ कर चुके थे। सूर्य की चमकती रोशनी इतनी अधिक थी कि गर्म होती तलवारों के प्रहारों से जीवित शरीर से बहकर निकलते रक्त, क्षणिक अवधियों में सूखकर रणभूमि की उस माटी पर जमना आरम्भ हो गये, जैसे उस समरांगण का भाग बनकर उस महाविध्वंस का साक्ष्य बनना ही उनका प्रारब्ध था।

******

इधर पाँच सहस्त्र अश्वारोही और पंद्रह सहस्त्र पैदल सैनिकों की टुकड़ी लिए जयशाह मोखा और रासल की टुकड़ी पर टूट पड़ा। जब जाट घुड़सवारों की पंक्ति टूटकर बिखरी, तो ज्ञानबुद्ध सौ हाथियों को लेकर आगे बढ़ा, जिसके साथ अरबियों की पैदल सेना भी आगे बढ़ चली। कुछ क्षणों के लिए जयशाह ने रुककर हाथियों की उस टुकड़ी को ध्यान से देखा। फिर मिट्टी के तेल से भरी एक थैली निकाली और शीघ्र ही रेशम के कपड़े बांधकर एक जलता हुआ तीर तैयार किया। अपनी टुकड़ियों को अरबी सेना से लड़ता छोड़, वो अकेला ही अश्व दौड़ाता हुआ हाथी दल के निकट आया। ज्ञानबुद्ध को उसकी ये रणनीति तनिक भी समझ ना आयी। वहीं जयशाह ने उस दल से लगभग तीस गज की दूरी पर ही अपना अश्व रोका और अपने-सामने खड़े हाथियों के नेत्र में क्षणभर देखते हुए बाईं ओर आकाश में पूरे बल से तीर छोड़ा। जिन जिन हाथियों के नेत्रों में जय ने देखा था, उन्हें कदाचित अपने प्रशिक्षण का स्मरण हो आया।

सिंध के युवराज को अकेला देख कुछ पैदल अरबी सैनिक उस पर प्रहार करने दौड़े। लगभग दस हाथी घूमकर उस तीर की दिशा में ही मुड़ चले, और चलते हुए उन्होंने जय की ओर आते अपने पक्ष के कुछ सैनिकों को ही कुचल दिया। अगले ही क्षण जय ने एक और तीर दाईं ओर छोड़ा, जिससे दस हाथी लगभग बीस से पच्चीस अरबी सैनिकों को गिराते हुए अपने महावतों से विद्रोह कर उसके तीर की दिशा में दौड़ गये।

बौद्ध सेना के हाथियों का ये व्यवहार देख उनके बीचों बीच छिपे पैदल अरबी योद्धा तितर बीतर होकर भागने लगे। जयशाह पर हाथियों का प्रभाव देख रासल एक छोटी टुकड़ी लेकर अपना अश्व दौड़ाता हुआ उसकी ओर आने लगा। जय की सहायता के लिए भी लम्बे-लम्बे भाले लिए पैदल सैनिक उस टुकड़ी पर टूट पड़े। रासल तो सीधा द्वन्द की इच्छा लिये ही जयशाह की ओर बढ़ा। दोनों योद्धाओं की तलवारें टकराईं, और पहले ही प्रहार में जय की तलवार टूट गयी। अपने कण्ठ की ओर आते रासल के प्रहार से बचने के लिए जय अपने अश्व से भूमि पर कूदा। वो स्वयं भी अचम्भित था कि इतनी शीघ्र उसकी तलवार टूट कैसे गयी। रासल के अश्व ने उसकी छाती पर प्रहार करने का प्रयास किया, किन्तु जय चपलतापूर्वक उस प्रहार से बचा और दौड़कर किनारे हटा। तब उसकी दृष्टि कुछ दूरी पर आ रहे एक जाट घुड़सवार पर पड़ी, वो तत्काल ही उसकी ओर उछला और उसकी छाती पर मुक्का मारा उसे भूमि पर गिराया, और चंद क्षणों में ही उसके अश्व को नियंत्रित कर उस पर रखी तलवार उठाई और रासल की ओर बढ़ चला। इस बार जब दोनों योद्धाओं की तलवारें टकराईं, तो जय के बलिष्ठ प्रहार के आगे रासल निशस्त्र हो गया। बिना एक और क्षण विलंब किये जय की तलवार सीधा उसके कंधे की ओर बढ़ी और उसका मुंड रुंड से अलग कर दिया। रासल का तड़पता हुआ शरीर लिए उसका अश्व दौड़ता रहा, जिससे उसके साथ आयी टुकड़ी आतंकित होकर भागने लगी।

इधर पुराने खेल की स्मृति पाकर दो हाथी जय शाह का तीर उसके पास वापस ले आये। हाथियों को जय के आगे झुकते देख, ज्ञानबुद्ध ने अपने महावतों को आदेश दिया, “अंकुश मारकर नियंत्रित करो इन विद्रोहियों को।”

ज्ञानबुद्ध को विचलित हुआ देख जयशाह मुस्कुराया। वहीं मोखा को जब अपने भाई रासल की मृत्यु का समाचार मिला, तो वो क्रोध में अपनी टुकड़ी लिए जय की ओर आने लगा। इससे उसके साथ युद्ध कर रहे जैश बिन अकबी की टुकड़ी कमजोर पड़ गयी, क्योंकि सामने आ रहे सिन्धी योद्धाओं की संख्या यकायक ही बढ़ गयी। विवश होकर झल्लाते हुए वो अरबी हाकिम भी अपनी टुकड़ी लिए मोखा की ओर दौड़ा।

इधर अवसर पाकर जय बार-बार अग्नि की नोक वाले तीर चलाकर अधिकतर हाथियों को भटकाने लगा। वो ज्ञानबुद्ध के नियंत्रण से बाहर होकर अरब योद्धाओं को ही कुचलने लगे। पर्याप्त मात्रा में अरब सेना को हानि पहुँचाने के उपरान्त जय ने चहुं ओर दृष्टि घुमाई, और अपनी टुकड़ियों के मध्य जाकर शंख बजाते हुए आदेश दिया, “व्यूह रचना आरम्भ करो।”

जय के आदेश पर लगभग दो सहस्त्र सिन्धी सैनिक लम्बी-लम्बी ढालें और छह-छह हाथ ऊँचे भाले लिए एक लम्बी पंक्ति बनाये मार्ग घेरने लगे। उनके ठीक आगे सिन्धी धनुर्धर आकर खड़े हो गये, और सिन्धी अश्वारोही भयभीत और बिखरी हुई शत्रु सेना को उनके मार्ग से खदेड़ने लगे। कुछ ही समय में व्यूह बनकर तैयार हुआ। जब जय ने देखा कि अब इस दुर्ग को कोई भेद नहीं सकता, तो उसने अपने अश्व को दौड़ाते हुए ही आठ हाथ ऊँचे भाले में लगा हुआ एक नीला ध्वज लहराया। उसका वो संकेत पाकर पीछे खड़ा स्याकर पाँच सहस्त्र अश्वारोही और पाँच सहस्त्र पैदल सैनिकों के साथ दाहिरसेन की सहायता को चल पड़ा।

शत्रु की सफलता का यह दृश्य देख जैश बिन अकबी ने मोखा के पास आकर उसे फटकारा, “देखो तुम्हारी बदले की चाहत ने फौज का क्या हाल कर दिया। हजारों की वो टुकड़ी अब उस दाहिर की मदद को जा रही है। जिसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ तुम हो।”

मोखा ने भी थोड़ा धैर्य धारण करते हुए कहा, “अब जो भूल हो गई, उसे बदला तो नहीं जा सकता। पर लगता नहीं वो दाहरिसेन जीवित बचा होगा, तो युद्ध करते रहो।”

इधर ज्ञानबुद्ध ने पुनः लगभग सत्तर हाथियों को एकत्र किया और लेकर सिंधियों की एक पैदल सैनिकों की टुकड़ी पर टूट पड़ा। यह देख जय ने अपना अश्व संभाला और सैकड़ों अश्वारोहियों की टुकड़ी लेकर सीधा ज्ञानबुद्ध के दल की ओर बढ़ चला। अरबी तीरंदाजों ने सामने आकर सैकड़ों तीर बरसाये किन्तु दो सिन्धी अश्वारोहियों से अधिक को गिराने में सफल ना हो पाये। ढालों से स्वयं का सफलतापूर्वक रक्षण करते हुए वो टुकड़ी उन तीरंदाजों को पतझड़ के पत्तों के समान बिखेरकर बढ़ चली। उन सिन्धी अश्वों ने उनमें से किसी का शिरस्त्राण तोड़कर उनका मस्तक फोड़ा, कोई अपना टूटा और कुचला पैर पकड़कर कराहने लगा, तो किसी का कवच तोड़ कुचली हुयी छाती से फूटती हुई रक्त की धारा उस समरभूमि को तर करने में संलग्न थी।

अरबी तीरंदाजों की टुकड़ी को बिखेरकर जय सीधा ज्ञानबुद्ध की हाथियों की टोली की ओर बढ़ा और उन्हें निकट देख अपनी अश्वारोही टुकड़ी को रुकने का आदेश दिया। जय को अपने सामने देख कई हाथियों ने उसे पहचान लिया। अपने महावतों के संकेत और अंकुश मारने के उपरान्त भी उनमें से कई हाथी बिदकने लगे। जय ने अपना भाला संभाला और अकेले ही बिखरे हुए हाथियों की टोली के मध्य खड़े ज्ञानबुद्ध के हाथी की ओर बढ़ चला। निकट आते देख ज्ञानबुद्ध के पसीने छूट गये, उसने काँपते हाथों से अपना धनुष उठाकर जय पर प्रहार करने का प्रयास किया, किन्तु जय के फेंके हुए भाले ने उसके धनुष के दो टुकड़े कर दिये। उसे बिना कोई अवसर दिए जय ने उसकी ओर एक और भाला फेंका जिसकी चोट खाकर वो ज्ञानबुद्ध सीधा भूमि पर आ गया। किन्तु भूमि पर गिरते ही देबल का वो किलेदार तत्काल ही उठा और अपने शरीर पर लगे रक्त और मिट्टी को साफ किये बिना ही उलटी दिशा में भाग खड़ा हुआ। 

जय ने उसका पीछा करने में अपनी सेना को अकेला छोड़ना उचित नहीं समझा। ज्ञानबुद्ध के भागते ही अरबियों की ओर से युद्ध कर रहे बौद्ध सेना के हाथियों के सवार भी पीछे हटने लगे। जय हाथियों को छोड़ अपनी अधिकतर सेना को लेकर सीधा उस टुकड़ी की ओर बढ़ा जिसका नेतृत्व मोखा और जैश बिन अकबी कर रहे थे। रक्त की प्यासी दिख रही सिंध की उस भयानक टुकड़ी के सहस्त्रों अश्वों को अपनी ओर आता देख, मोखा और जैश, दोनों के पसीने छूट गये। उस टुकड़ी पर दाईं और बाईं ओर से होते प्रहारों को सिंध के पैदल सैनिकों ने भाला और ढाल लिए रोक रखा था। बिना हस्तक्षेप के बढ़ती जयशाह के अश्वारोहियों की गति और बल कई गुना बढ़ गयी।

शत्रु को निकट आते देख जैश और मोखा ने मुख पर भय लिए एक-दूसरे की ओर देखा। उनके नेत्रों के संकेत से यूँ लगा मानों उन्होंने भागने का निर्णय ले लिया हो। सूर्य भी अस्त होने को था। यह देख दोनों ने अपने-अपने अश्वों को पीछे मोड़ा और श्वेत ध्वज लहराते हुए पीछे भागने लगे।

लम्बे-लम्बे भालों से लगे उन श्वेत ध्वजों को देख, उस मोर्चे पर युद्ध कर रही समस्त अरबी सेना युद्ध छोड़कर पीछे भागने लगी। जय की सेना ने कुछ दूरी तक उनका पीछा किया, किन्तु शीघ्र ही वो अरब के योद्धा जंगलों में घुस गये। उन्हें वनों में घुसता देख जय ने अपनी सेना को रुकने का संकेत किया। फिर कुछ क्षणों के उपरांत सूर्य के चिन्ह में गुदा हुआ भगवा ध्वज लहराते हुए विजय की घोषणा की।

तत्पश्चात, अपना शिरस्त्राण उतारकर जय ने एक नारंगी रंग का बिगुल उठाया और उसे जोर से फूँका। सिंधियों के विजयनाद के उस स्वर के साथ हर हर महादेव का उद्घोष भी पर्वतों और टीलों से टकराकर गूँजता हुआ दूर दूसरे मोर्चे पर युद्ध कर रहे कासिम तक भी पहुँचा।

संकेत स्पष्ट था कि मोखा और रासल के साथ भेजी अरब सेना की टुकड़ी पराजित हो चुकी है। अपने माथे का पसीना पोछते कासिम ने एक छोटी टुकड़ी के साथ युद्ध कर रहे राजा दाहिर की ओर घूरकर देखा। फिर मन ही मन कुछ निर्णय कर एक अश्व को साधा और राजा दाहिर की ओर बढ़ चला। इधर अरबियों के शव गिराते हुए वेदान्त अपनी दाईं ओर मुड़ा, तो एक गंडासा उठाए शुज्जा को अपने समक्ष खड़ा देखा। उस दानव का कसा हुआ शरीर देख बड़े से बड़ा योद्धा थर्रा जाये, किन्तु अपनी तलवार और ढाल संभाले वेदान्त भी भूमि पर डटा खड़ा रहा और अवसर देखते ही शुज्जा की छाती की ओर वार किया। शुज्जा बचते हुए पीछे हटा और गुर्राते हुए अपना गंडासा वेदान्त के मस्तक की ओर चलाया। अपनी ढाल उठाकर वेदान्त ने स्वयं को बचा तो लिया, किन्तु गंडासे का प्रहार इतना शक्तिशाली था कि उस ढाल के टुकड़े हो गये। विचलित हुए वेदान्त की छाती पर लात मारकर शुज्जा ने उसे भूमि पर गिरा दिया, किन्तु इससे पूर्व वो उस पर कोई और प्रहार करता एक अश्व के खुरों से छाती पर चोट खाकर वो भूमि पर गिर पड़ा। उसका गंडासा भी उसके हाथ से छूट गया।

गुर्राता हुआ शुज्जा भूमि से उठा तो अश्व पर आरूढ़ हुए मुहम्मद बिन हारिस को तलवार उठाए अपनी ओर बढ़ता हुआ पाया। हारिस के अश्व ने शुज्जा के निकट जाकर पुनः अपने खुरों से वार करने का प्रयास किया, किन्तु इस बार शुज्जा सावधान था। उसने अश्व की टांगों को पकड़ा और उसका संतुलन बिगाड़कर मुहम्मद बिन हारिस को भूमि पर ला दिया। फिर उस अश्व को घसीटते हुए भूमि पर गिराकर शुज्जा ने एक कटार निकालकर सीधा उसकी गर्दन में घोंप दिया।

उस अश्व को तड़पते छोड़ शुज्जा हारिस की ओर मुड़ा। अपने दोनों हाथों में तलवार संभाले मुहम्मद बिन हारिस भी उसकी ओर दौड़ पड़ा। शुज्जा ने भूमि पर गिरा अपना गंडासा उठाया और कंधे उचकाये अपने प्रतिद्वंदी की ओर बढ़ा। हारिस ने अद्भुत चपलता के प्रयोग से अपनी ओर आते शुज्जा के गंडासे को अपनी दोनों तलवारों में फँसाकर उसके हाथ से छुड़ा दिया। निहत्था होते ही शुज्जा सजग होकर उसके प्रहारों से बचने लगा। किन्तु हारिस ने अद्भुत कला का प्रयोग करते हुए अपनी तलवार सीधा शुज्जा की गर्दन की ओर चलाई। किन्तु अगले ही क्षण हारिस स्तब्ध रह गया, क्योंकि शुज्जा की गर्दन पर बंधे लौह कवच से टकराते ही हारिस की एक तलवार के दो टुकड़े हो गये।

शुज्जा भी अपनी मृत्यु को सुनिश्चित मान बैठा था, दोनों योद्धा कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध खड़े एक-दूसरे को देखते रहे। उस तलवार के टूटने के साथ दूसरी तलवार के प्रति भी हारिस का आत्मविश्वास डोल गया। शुज्जा ने स्वयं को संभाला और उस अवसर का लाभ उठाते हुए, लात से उसकी छाती पर वार किया। हारिस के भूमि पर गिरते ही शुज्जा उसकी छाती पर चढ़ आया और उसके मुख पर मुक्के बरसाने आरम्भ कर दिये। उसके भीषण प्रहारों से पहले मुहम्मद बिन हारिस का शिरस्त्राण टूटा, फिर माथे की हड्डी अंदर से टूटी, और कुछ ही क्षणों में उसका माथा तरबूज की भाँति फट पड़ा।

उसे गिराते ही शुज्जा ने भयानक गर्जना की। घायल वेदान्त ने भी वो विभत्स दृश्य अपने नेत्रों से देखा, उसने शुज्जा का ही भूमि पर गिरा हुआ गंडासा उठाया और उसकी ओर दौड़ पड़ा।

इधर कासिम अपने घुड़सवारों के साथ दाहिरसेन के निकट पहुँचा और सिंधुराज के साथ युद्ध कर रही टुकड़ी पर आक्रमण कर दिया। अवसर पाकर उसने दाहिरसेन पर लक्ष्य साधने के लिए भाला संभाला, किन्तु उसी क्षण सिंधुराज के शाही हाथी साक्या ने उसे देख लिया। उसने आगे बढ़कर अपनी सूंड से निकट युद्ध कर रहे दो अरबी घुड़सवारों को गिराया, और सीधा कासिम की ओर ही बढ़ चला। कासिम ने भी अपना साहस बनाये रखा और भाला दाहिरसेन की ओर लक्ष्य कर चला दिया। किन्तु साक्या ने सूंड मारकर उस भाले को दूर हटाया, और उसकी अगली सूंड का प्रहार सीधा कासिम के अश्व पर हुआ। बचने के लिए कासिम अपने अश्व से कूदा। वहीं साक्या ने उसके अश्व को पकड़कर पहले घसीटा फिर उसका मस्तक बुरी तरह कुचल दिया।

दाहिरसेन ने अपना धनुष उठाकर कासिम की ओर कई तीर छोड़े। किन्तु कासिम उनसे बचता हुआ पीछे की ओर दौड़ा और एक सवार रहित अरबी अश्व को पकड़कर उस पर सवार हो गया। अगले ही क्षण युद्ध के बिगुल की एक ऊँची गर्जना सुनाई दी। कासिम ने दूर से ही देखा कि भगवा ध्वज लहराए एक विशाल टुकड़ी उसी ओर चली आ रही है।

“उतनी दूर से ये जयशाह अपनी फौज इकठ्ठी करके इतनी जल्दी कैसे पहुँच आया?” वो असल में स्याकर था जो अपनी दस सहस्त्र की टुकड़ी लिए आ रहा था, किन्तु उतनी दुर से कासिम को यही लगा कि वो जयशाह की ही सेना है।

चिंतित हुए कासिम ने अपनी सेना के बीच जाकर लम्बे भाले में उठाया पीला ध्वज लहराते हुए घोषणा की, “पीछे हटो, ढलान की ओर चलो। हमें नीचे उतरना होगा।”

कासिम के साथ उसके कई हाकिमों ने उस आदेश को दोहराया, ताकि संदेश पूरी सेना तक पहुँचे। वेदान्त से युद्ध करते शुज्जा को भी द्वन्द छोड़कर पीछे हटना पड़ा। उस मोर्चे पर युद्ध करती अरबियों की सैन्य टुकड़ी पीछे भागने पर विवश हो गयी। सिन्धी घुड़सवारों और सैनिकों ने उन्हें दौड़ाना आरम्भ किया।

अरबियों के कुछ कोस दूर भागने के उपरान्त शीघ्र ही ढलान वाला मार्ग आया, जिस पर उतरते हुए उन अरबियों की गति और तेज हो गयी। दाहिरसेन ने भी अस्त होते सूर्य को देख हुंकार भरके अपनी सेना को ढलान पर उतरने से पहले ही रोक दिया। मुहम्मद बिन कासिम की सेना रण छोड़कर भाग चुकी थी, और इसी के साथ उस दिन होने वाले सर्वनाश पर विराम लग गया।

******

पानी के घड़े को अपने मुक्के से तोड़ता हुआ कासिम अपनी झल्लाहट कम करने का प्रयास कर रहा था।

“माफ कीजिए, हुजूर। देबल के हाथी शहजादे जयशाह को पहचानकर बगावत पर उतर आये थे, यही वजह थी कि हम आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाये।” जैश बिन अकबी ने सहमते हुए कहा।

अपनी छावनी में खड़े विभिन्न सैन्यअधिपतियों में से एक ज्ञानबुद्ध को देख कासिम की मुट्ठियाँ भिंच गयीं, “तुम्हें तो मालूम था ना वो हाथियों को आलोर में ही जंग की तालीम दी गयी है ?”

“किन्तु ये अनुमान नहीं था हुजूर, कि उनमें से लगभग हर एक युवराज जयशाह को पहचानता होगा। हमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी।”

ज्ञानबुद्ध का मूर्खतापूर्ण तर्क सुन कासिम ने क्रोध में दांत पीस लिए, किन्तु उसके कुछ कहने से पूर्व ही निकट बैठे मुहम्मद हारून ने उसके कंधे पर हाथ रख उसे धीरज धारण करने का संकेत देते ही आँखों ही आँखों में मानों ये कहा कि अभी उन्हें बौद्धों की सेना की आवश्यकता है।

कासिम ने अपने नेत्र मूंदकर स्वयं को शांत करने का प्रयास किया, “एक दिन में हमारे दो हाकिम मेहराज और रासल सहित पंद्रह हजार जंगजू शहीद हो गये। और उसके बावजूद दाहिरसेन अपनी फौज के साथ किले में दाखिल होने में कामयाब हो गया। पाँच साल की जद्दोजहद नेस्तनाबूद होने के कगार पर आ गयी है।”

“पर एक अच्छी बात भी हुई है, हुजूर।” जैश बिन अकबी ने कासिम का साहस बढ़ाने का प्रयास करते हुए कहा, “जंग के मैदान के बीच शहजादे जयशाह की भी शमशीर टूट गयी थी। और जहाँ तक मुझे पता है अगर मुहम्मद बिन हारिस की शमशीर नहीं टूटती, तो आज हमारा सबसे काबिल जंगजू शुज्जा जंग के मैदान से वापस नहीं लौटता।”

“ये सब मुझे पता है।” झल्लाते हुए कासिम जैश बिन अकबी की ओर बढ़ा, “दाहिरसेन के रनिवास के हिफ़ाजतगर्दों में हमारे तीन सौ लोग हैं, तो हमारी ओर से कोई खबर ना मिलने पर शायद उन्होंने हथियारों में मिलावट की होगी। पर सच ये है कि ये कदम उठाने का ये सही वक्त नहीं था। जो उस हारिस के साथ हुआ, उसके बाद वो सिन्धी अपने सारे हथियारों की शिनाख्त जरूर करवायेंगे, और उसके बाद ही जंग के मैदान में आयेंगे। तो मुझे तो नहीं लगता इसका कोई फायदा हुआ है।”

इस पर जैश बिन अकबी ने टूटे हुए तलवार के दोनों भाग कासिम को दिखाते हुए कहा, “शमशीर के इन टुकड़ों पर गौर कीजिए, हुजूर। इन पर गूदे हुए दो निशानों को देखिए।”

कासिम ने अपने उस हाकिम से तलवार के टुकड़े लेकर उसे ध्यान से देखा, वास्तव में दोनों टुकड़ों में से एक में उर्दू में सात, आठ और दूसरे में छ का निशान बना हुआ था, मानों जो कोई बहुत ध्यान से देखे तो ही समझ पाये, क्योंकि उन चिन्हों का आकार एक कानी अंगुल के बराबर में भी नहीं था। यह देख कासिम की आँखें बड़ी हो गई, जैसे किसी संकट से सतर्क हो गया हो, “जल्द से जल्द शमनी के जासूस को ढूँढकर उसे पैगाम भेजो। अगर शिनाख्त करते हुए सिंधियों ने इन शमशीरों पर गौर कर लिया तो हमारे वो तीन सौ लोग पकड़े जा सकते हैं। अगर ऐसा हो गया, तो हम इस जंग में फतह पाने की आखिरी उम्मीद भी खो देंगे। जल्दी करो।”

“जो हुक्म, हुजूर।” जैश बिन अकबी दौड़ता हुआ शिविर के बाहर गया।

कासिम को विचलित हुआ देख मुहम्मद हारून उसके निकट आया, “आगे की जंग में मैं और अब्दुल अस्मत भी आपके साथ आना चाहते हैं, हुजूर।” 

“आप मकरान के बादशाह हैं, मुहम्मद हारून। एक बादशाह को अगर कुछ हो गया तो हमारी फौज के दिल में डर बैठ सकता है।”

“आप हमारे सिपहसालार हैं, मुहम्मद बिन कासिम। आपके रहते हमें क्या हो सकता है, पर हमारे और अब्दुल अस्मत के आने से फौज का हौसला अफजाई जरूर होगा।” 

कुछ क्षण विचार कर कासिम ने कहा, “आज जो हुआ, उसके बाद हौसले की जरूरत तो पड़ेगी। ठीक है, अगली जंग जिस दिन भी होगी, हम आप दोनों को साथ ले जायेंगे।” श्वास भरते हुए कासिम ज्ञानबुद्ध की ओर मुड़ा, “नेरुन से दारुण का भेजा हुआ रसद यहाँ कब तक पहुँचेगा?”

“परसों संध्या से पहले सम्भव नहीं है, हुजूर।”

“कोई बात नहीं। तुम्हारे सौ हाथियों ने गद्दारी की है, वो किस दिन काम आयेंगे? जंग में काम नहीं आ सकते तो अब वो एक-एक करके हमारी फौज का निवाला बनेंगे। कटवाओ सात आठ हाथियों को, कल दोपहर तक के खाने का इंतजाम हो जाएगा।”

इस पर अब्दुल अस्मत ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “पर अगर कल सुबह ही सिंधियों ने हमला बोल दिया तो?”

“खबर मिली है कि दुश्मन की भी दस हजार की फौज मारी जा चुकी है। और हमारे पास अब भी पचास हजार की फौज है, और साथ में तीन मंजनीक भी। वो ऐसी बेवकूफी नहीं करेंगे, और अगर की तो हमारी जीत पक्की है।”

******

इधर मध्यरात्रि में आलोर के किले में प्रवेश करते ही जयशाह अपनी सेना की एक टुकड़ी के साथ सीधा शस्त्रागार की ओर चल पड़ा और प्रवेश करते ही गरजते हुए आदेश दिया, “एक-एक तलवार, भाले, धनुष, चक्र, गदा, सबकी जाँच आरम्भ करो।”

उग्र हुए जय का आदेश सुन सैनिकों ने तत्काल जाँच आरम्भ की। उसी दौरान वहाँ खड़े एक सैनिक ने दूसरे से कहा, “कमजोर हथियार छुपा दिए?”

“तहखाने के ठीक पीछे वाले सूखे कुएँ में डालकर ढँक दिया। किसी को भनक भी नहीं लगेगी।” 

जय की जाँच क्रिया के दौरान वेदान्त और माविया बिन हारिस भी वहाँ आ पहुँचे। माविया को देख जय ने उसका कंधा पकड़ सांत्वना देने का प्रयास किया, “हमें बहुत खेद है।”

अपनी पीड़ा को छुपाने का प्रयास करते हुए माविया ने अपने मुख पर मुस्कान लाने का प्रयास किया, “कोई बात नहीं, हुजूर। हमें बस खुशी है कि आज हमारे भाई की कुर्बानी के कारण शहजादे वेदान्त की जान बच गयी। आपने पूरे अलाफ़ी कबीले को आसरा दिया, और हम शुक्रगुजार हैं कि हमें वो कर्ज उतारने का मौका मिला।”

जय कुछ क्षण मौन हुए उसे देखता रहा, “जीवन से बहुमूल्य कोई त्याग नहीं होता, मित्र। ऋणी तो हम आपके रहेंगे ही।” उसकी पीठ थपथपाकर जय वेदान्त की ओर मुड़ा, “युद्ध करते हुए मेरी भी एक तलवार टूट गयी थी, और युद्ध समाप्त होने के उपरान्त मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे बहुत से योद्धाओं की तलवारें यूँ ही रणभूमि में टूट गयी थी और यहाँ आकर ये ज्ञात हुआ कि मुहम्मद बिन हारिस की तलवार तो शत्रु की गर्दन पर लगे एक लौह कवच ने तोड़ डाली। तो निसन्देह ये षड्यन्त्र के अतिरिक्त और क्या हो सकता है?”

“किन्तु ऐसा षड्यन्त्र करेगा कौन? अधिकतम शस्त्र तो हम ब्राह्मणाबाद से ही लेकर आये थे।” वेदान्त को भी कुछ समझ नहीं आया।

“पहले सारे शस्त्रों की जाँच हो जाए, फिर हम उस षड्यन्त्रकारी का पता भी लगा लेंगे। तुम ये तो बताओ कि महाराज नागभट्ट का कोई संदेश आया?”

“नहीं, ज्येष्ठ। अब तक सेना नहीं, तो कोई न कोई संदेश तो आ ही जाना चाहिए था। कारण तो मुझे भी समझ में नहीं आ रहा।”

जयशाह चिंतित स्वर में बोला, “यदि महाराज नागभट्ट अपनी सेना के साथ यहाँ आ जाते तो हम सीधा अरब छावनी पर आक्रमण करके उसे जीत लेते। खैर, अपने गुप्तचरों को कहो कि अरबियों की एक-एक गतिविधि पर दृष्टि जमाये रखें।”

******

अगले दिन दोपहर तक शस्त्रों की जाँच होती रही, किन्तु शस्त्रागार के समस्त शस्त्र मजबूत निकले। किसी को षड्यन्त्र का कोई संकेत नहीं दिखा। इधर दस दिवस और बीत गये, कासिम आलोर के किले से पाँच कोस दूर सिंधु नदी के निकट अपनी छावनी लगाये बैठा था। छावनी के सामने कई गड्ढे खोदे गये थे, ताकि सिंध की सेना बड़ी संख्या में एक साथ छावनी के भीतर ना घुस पाये।

ग्यारवें दिन हाकिम मोहरिज बिन साबत भोजन करते हुए कासिम के निकट आया और उसे सूचित किया, “शमनी की मदद से किले में मौजूद हमारे तीन सौ अरबी साथियों को पहचान लिया गया है, हुजूर। दुश्मन को हमारे रखे गये कमजोर हथियारों की भनक भी नहीं लगी।”

माँस के टुकड़े को चबाते हुए कासिम के मुख पर मुस्कान खिल गयी, “वाकई बहुत लजीज होता है हाथी का माँस।” घड़े में रखे पात्र से जल पीकर वो उठकर मोहरिज के निकट आया और सामने खुदी हुई एक खाई की ओर संकेत करते हुए कहा, “इनमें मिट्टी डालकर भरना शुरू करो। और किले में मौजूद हमारे उन साथियों तक मेरा पैगाम पहुँचा दो।”

******

उस दिन रात्रि के समय महाराज दाहिरसेन अपने सिंहासन पर विचलित हुए बैठे थे। वेदान्त और जय के मुख पर भी निराशा का भाव था। कुछ समय उपरान्त एक गुप्तचर ने राजसभा में प्रवेश किया। उसकी ओर देख वेदान्त के मुख पर मुस्कान सी खिल गयी, “क्या हुआ, कन्नौज नरेश का कोई संदेश आया?”

“नहीं, महामहिम। हमारा कोई संदेशवाहक कन्नौज नरेश महाराज नागभट्ट तक पहुँच ही नहीं पाया।” 

उसकी बात सुन वेदान्त को ताव आ गया, “ये क्या मूर्खता पूर्ण प्रलाप कर रहे हो तुम?”

“यही सत्य है, राजकुमार। मेवाड़ नरेश मानमोरी को जब ज्ञात हुआ कि सिंध पर आक्रमण होने वाला है, तो उन्होंने विशेष रूप से कन्नौज की सीमाओं के साथ मेवाड़ सहित कश्मीर की सीमाओं के कई स्थानों पर अपने गुप्तचर योद्धा तैनात कर दिए। ताकि सिंध की सहायता की माँग का कोई संदेश महाराज नागभट्ट तक ना पहुँच पाये, और महाराज दाहिर इस संकट में अकेले पड़ जायें।”

उस गुप्तचर की बात सुन राजा दाहिर समेत समस्त सभासद स्तब्ध से रह गये। कुछ क्षणों के लिए सभी के मुख पर मौन सा छा गया। दाहिरसेन ने भौहें सिकोड़ते हुए दांत पीस लिए, “मानमोरी ने एक कन्या की वासना में पूरे भारतवर्ष के भविष्य को दांव पर लगा दिया? अच्छा किया जो हमने उसका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, क्षत्रिय कुल पर कलंक लगाने वाले उस नराधम को यदि हमने अपनी कन्या दे भी दी होती, तो स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर पाते।”

“चिंता मत करिए, पिताश्री। हमारे पास अब भी दो सौ हाथी, दस सहस्त्र अश्व और आलोर के महल रक्षकों को मिलाकर तीस सहस्त्र की पैदल सेना शेष है। गुप्तचरों से जो सूचना मिली है उसके अनुसार शत्रु के पास भी पचास सहस्त्र की सेना है, और ये अंतर इतना बड़ा नहीं है। इस युद्ध को जीता जा सकता है।”

इस पर दाहिरसेन ने क्षणभर विचार कर कहा, “किन्तु शत्रु के पास अब भी दस सहस्त्र अश्वारोही और बारह सहस्त्र ऊँट सवार भी हैं। उनकी गति हमारे पैदल सैनिकों पर भारी पड़ सकती है, इसलिए मुझे तो उनकी छावनी पर आक्रमण करने का विचार उचित नहीं लगता।”

“किन्तु अपने किले में हम कब तक कैद रहेंगे, पिता महाराज? सुना है अरबियों के मंजनीक बनाने का सामान देबल से यहाँ आलोर में पहुँचने ही वाला है। ऐसे में तो हमारा किला भी सुरक्षित नहीं रहेगा।”

जयशाह के विचार सुन महाराज दाहिरसेन भी सोच में पड़ गये कि क्या निर्णय लिया जाये। तभी एक सैनिक दौड़ता हुआ राजसभा में आया और हड़बड़ाते हुए सूचित किया, “हमारे अनाज के गोदामों में आग लग गयी है, महाराज।”

यह सुन समस्त सभाजन विचलित हो उठे। जयशाह और वेदान्त दौड़कर बाहर की ओर भागे, कई कोस के क्षेत्रफल में फैले उस किले से दूर-दूर तक अग्नि की लपटें दिखाई देने लगीं।

“हे ईश्वर, ये कैसी आपदा है ?” जय का मस्तिष्क कुछ क्षणों के लिये मंद सा पड़ गया। उसने भूमि पर बैठ अपना माथा पकड़ लिया। तभी वेदान्त की दृष्टि अग्नि की कुछ और लपटों पर पड़ी, “हमारी फसलें भी जल रही हैं, ज्येष्ठ।”

जय ने उठकर उन लपटों की ओर देखा। नेत्रों में अश्रु धारण किये जय के माथे से भी पसीना छूटना आरम्भ हो गया। उसकी बुद्धि ने मानों काम करना बंद सा कर दिया था, “कदाचित भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होने को है, अनुज।”

वेदान्त जय के निकट गया और उसे झटकारते हुए कहा, “होश में आईए, भ्राताश्री। ये कोई प्राकृतिक प्रकोप नहीं है, अपितु हमें तोड़ने के लिए रचा हुआ षड्यन्त्र है। आप इस प्रकार से झुक नहीं सकते, अन्यथा हमारी समस्त सेना का मनोबल टूट जाएगा। हर कोई इस भविष्यवाणी के आगे अपना साहस खो देगा। हम इस युद्ध में आरम्भ से पहले ही पराजित हो जायेंगे।”

वेदान्त के बार-बार टोकने पर जय की चेतना सहसा ही लौट आयी। उसने मुट्ठियाँ भींचते हुए साहस जुटाया, “जल के कनस्तर मँगवाओ, हाथियों को भिजवाओ, शीघ्र करो।” 

उसके आदेश पर सैनिकों की टुकड़ी अग्नि बुझाने दौड़ पड़ी।

******

दो प्रहर से भी अधिक समय लग गया उस अग्नि को बुझाने में। सुबह होने को थी। फसलों की राख के बीच खड़ा जय अपने घुटनों के बल आ गया। वेदान्त ने निकट आकर उसके कंधे पर हाथ रखा, “कोई प्राकृतिक आपदा नहीं थी, ज्येष्ठ। फसलों और गोदाम में आग लगाने वाले सौ षड्यन्त्रकारी पकड़े गये हैं।”

अकस्मात ही जय के नेत्रों में रक्त उतर आया, “कहाँ है वो सारे राक्षस?”

शीघ्र ही लगभग सौ बंदी बेड़ियों में जकड़े जय, वेदान्त और माविया बिन हारिस के सामने थे।

 “ये तो रनिवास के सुरक्षाकर्मी थे न?” जय ने अनुमान लगाने का प्रयास किया।

“हाँ, ज्येष्ठ। ये सब के सब पिछले कुछ वर्षों में ही हमारे महल में नियुक्त हुए थे।”

वेदान्त का कथन सुन, जय उन कैदियों को निकट जाकर ध्यान से देखने लगा और चलते हुए उनमें से एक से प्रश्न किया, “ऐसी क्या विवशता थी जो अपनी मातृभूमि से इतना बड़ा द्रोह किया तुम लोगों ने ?”

इस पर उस बंदी को हँसी आ गयी, “मातृभूमि..। हमारा मादरे वतन अरबिस्तान है, शहजादे जयशाह। बस हँसी इस बात पर आती है कि इतने सालों में तुममें से कोई हमें पहचान नहीं पाया।”

यह सुन जयशाह समेत वहाँ उपस्थित सभी लोग हैरत में पड़ गये। उस बंदी ने कटाक्ष करते हुए कहा, “हमने सालों तक हिन्द की सरजमीं पर रहकर यहाँ के तौर तरीकों की तालीम ली है, शहजादे। हममें से और ना जाने कितने लोग हैं जो तुम्हारी फौज में हो सकते हैं, जो तुम्हारी पीठ में छुरा घोंपने को तैयार बैठे हों। पर तुम उन्हें पहचान नहीं पाओगे, और वो अंदर से तुम्हारी फौज को खा जायेंगे। तुम्हारी रसद का गोदाम और फसलें तबाह करके हम अपने मकसद में कामयाब हो चुके हैं। अब इस्लामिक लश्कर की जीत पक्की है।”

 वेदान्त उस बंदी का मुँह पकड़के उसे घसीटते हुए सामने ले आया, “बता, कौन है तेरे साथी?”

जय ने अपने भाई का कंधा पकड़ उसे पीछे किया, “व्यर्थ का प्रयास मत करो, वेदान्त। इससे हमारी ही सेना में अविश्वास फैलेगा।” तत्पश्चात वो उस बड़बोले बंदी के निकट आया, “तुमने अपने अहंकार में आकर अपना सत्य प्रकट करके बहुत बड़ी भूल कर दी। अब चूंकि तुम सबके सब रनिवास के सुरक्षाकर्मी हो, जो पिछले कुछ वर्षों में चयनीत किये गये हो, तो तुम्हारे साथियों को खोजना इतना भी कठिन नहीं होने वाला। क्योंकि हमारी समस्त सेना अरबों के पिछले आक्रमण से यानि आज से छह वर्ष से भी पूर्व से हमारे साथ है, और तुम्हारी सिफारिश करने वाला तो वो द्रोही ज्ञानबुद्ध ही हैं ना?”

यह सुन वो बंदी भी अचम्भित रह गया। जय पीछे मुड़कर वेदान्त और माविया के निकट आया, “आप लोग इन सुरक्षाकर्मियों को अलग करके ये पड़ताल करिए कि पिछले पाँच वर्षों में कौन-कौन रनिवास की सुरक्षा करने के लिए नियुक्त हुआ है। उन सभी को बंदी बनाकर कारागार में डलवा दीजिए।”

माविया और वेदान्त जय के आदेश का पालन करने हेतु चल पड़े। फिर जय चलकर स्याकर के निकट आया, “कितनी क्षति पहुँची है ?”

“नब्बे प्रतिशत से अधिक अन्न भंडार नष्ट हो गये हैं, महामहिम। फसल भी बस कंदमूल की ही बची है। यदि पशुओं और सेना की बात की जाए, तो कल सुबह से अधिक ये अन्न भंडार नहीं टिकेगा।” 

 “और कहीं से भी किसी रसद की सहायता की आशा भी नहीं की जा सकती।” विचलित हुए जयशाह ने नम आँखों से उगते हुए सूर्य की ओर देख स्याकर से प्रश्न किया, “क्या लगता है आपको? क्या हमें संधि का प्रयास करना चाहिए?”

“सेना के मन में भविष्यवाणी का भी भय है, युवराज। इस युद्ध में विजय प्राप्त करना बहुत कठिन है।” 

स्याकर के नेत्रों में निराशा का भाव देख जय उसका संकेत समझ गया, “तो फिर मैं महाराज से वार्ता करके मुहम्मद बिन कासिम को संधि का प्रस्ताव भेजता हूँ। यदि हमारे झुकने से प्रजा को नरसंहार से बचाया जा सकता है, तो हमें प्रयास अवश्य करना चाहिए।”

******

अरब सेनापति मुहम्मद बिन कासिम को मेरा प्रणाम। जैसा कि आप भी जानते हैं कि दोनों पक्ष अपने-अपने सहस्त्रों योद्धाओं के शव उठा चुके हैं। आपको बता दूँ कि आपके भेजे गये तीन सौ गुप्तचर जो पिछले तीन वर्षों से हमारे महल में रह रहे थे, वो सारे पकड़े जा चुके हैं। अब उचित यही होगा कि जो हुआ उसे भूलकर हम संधि और शांति का प्रयास करें, ताकि आने वाले विनाश से बचा जा सके। हम आपके सुल्तान अलहजाज बिन यूसुफ को वार्षिक कर देने का प्रस्ताव रखते हैं। आप चाहें तो उन करों की सुव्यवस्था सुनिश्चित करने के लिये सिंध में सैन्य चौकियाँ बनाने को स्वतंत्र हैं। आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी। —सिंधुराज दाहिरसेन

आलोर के किले से आये उस संदेशवाहक की बात सुन मुहम्मद बिन कासिम ठहाके लगाकर हँस पड़ा। उसके साथ खड़े शुज्जा और मोहरिज बिन साबत ने भी ठहाके लगाये। हँसते हँसते कासिम सिंध के संदेशवाहक के निकट गया और उसका कंधा थपथपाकर कहा, “तो आखिर वो दिन आ ही गया, हम्म? थोड़ी देर रुक जाओ। सिंध के बादशाह को अपनी तरफ से आखिरी पैगाम मैं खुद लिखकर दूँगा।”

सिंध के बादशाह दाहिरसेन। तुमने पिछली जंग में हमें हराने के बाद जो सुल्तान अलहजाज बिन यूसुफ को धमकी देकर उनकी शान में गुस्ताखी की थी, उससे उनके साथ साथ हमारे खलीफा अल वालिद बिन अब्दुल मलिक के दिल को भी बहुत ठेस पहुँची थी। इसीलिए उनकी शान में हुई गुस्ताखी का बदला लेने के लिए मुझे हुक्म दिया गया था, कि मैं सिंध की जंग जीतकर तुम्हारी तीनों बेटियों यानि सिंध की शहजादियों को खलीफा और सुल्तान की खिदमत में पेश करूँ। तो अगर तुम सालाना कर देने के साथ सिंध की तीनों शहजादियों को हमारे हवाले कर देते हो, तो हमारी, फौज यहीं से लौट जायेगी और तुम्हारे किले पर भी कोई हमला नहीं होगा। तुम्हारी बेटियों का इराक के शाही हरम में होना तुम्हें हमारी वफादारी निभाने पर मजबूर करेगा। तो अगर मंजूर हो, तो इस पैगाम का जवाब देना। वर्ना सीधा अपनी फौज लेकर मैदान में आ जाना। हम तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। —सिपहसालार मुहम्मद बिन कासिम अकील सकीफी (उम्मयद खिलाफत) 

उस संदेश को पढ़ते हुए अरबियों की छावनी से लौटे उस संदेशवाहक के नेत्रों में भी अश्रु आ गये। दाहिरसेन या उनके पुत्रों से पहले सिंध का सेनापति स्याकर क्रोध में उठकर बोल पड़ा, “आत्मसम्मान बेचकर यदि प्राण बच भी गये, तो ऐसे दस्यु समान जीवन का कोई मोल नहीं है, महाराज। अपनी शक्तिशाली सेना को पाकर वो कासिम अति आत्मविश्वासी हो गया है, और यही उसकी पराजय का कारण बनेगा। हमारे पास एक दिन का भोजन तो शेष है ही। आप आदेश दीजिए, हमारी सेना उन अरबियों के अहंकार को तोड़ने उठ खड़ी होगी।”

दाहिरसेन समेत जय और वेदान्त का रक्त भी खौल रहा था। राजसभा में उपस्थित व्यक्ति जो पहले चिंतित दिखाई दे रहे थे, उस संदेश को पढ़ने के उपरान्त उन सभी के मुख पर केवल क्रोध दिखाई दे रहा था।

जय ने भी पूरे उत्साह से स्याकर का समर्थन करते हुए कहा, “हमारे पास पूरे चालीस सहस्त्र योद्धा हैं, पिताश्री। शत्रु की संख्या इतनी अधिक नहीं है, कि हम उस पर हावी ना हो सकें।”

“किन्तु यदि ये युद्ध एक दिन में समाप्त नहीं हुआ, तो क्या करेंगे युवराज?” दाहिरसेन ने चिंताजनक स्वर में प्रश्न किया, “सूचना है कि अरबों की एक टुकड़ी ने गाँवों तक को घेर लिया है, ताकि हमें कहीं से कोई रसद की सहायता प्राप्त ना हो सके।”

कुछ क्षण विचार कर जय ने वेदान्त की ओर देखा, “इस पर तो मेरा एक ही सुझाव है महाराज। हम कल प्रातः काल ही कासिम की छावनी पर आक्रमण करेंगे। उसी दौरान पीछे के द्वार से राजकुमार वेदान्त एक सहस्त्र अश्वारोही और उतने ही पैदल सैनिकों की टुकड़ी लेकर गाँवों में जायेंगे और उस अरबी घेराबंदी पर प्रहार करेंगे जिन्होंने हमारे प्रजाजनों को घेर रखा है। हमारे मित्र शमनी भी कुमार वेदान्त की सहायता के लिए उनके साथ जायेंगे, ताकि ग्रामवासी रसद प्राप्त करने में हमारी सहायता कर सकें।”

दाहिरसेन को जय का सुझाव बहुत पसंद आया, “ठीक है, तो फिर आज समस्त सेनानियों से कहो कि वो भरपेट भोजन कर लें। दो सहस्त्र योद्धा राजकुमार वेदान्त की सहायता को जायेंगे, और एक सहस्त्र योद्धा किले में रहेंगे। कल प्रातः काल ही हम बाकि की सेना लेकर अरबियों की टुकड़ी पर आक्रमण करेंगे।

******

संध्या ढलने के उपरान्त रात्रि का दूसरा प्रहर आरम्भ हो चुका था। अपनी छावनी के निकट चक्कर लगाता कासिम बड़ी व्यग्रता से इस बात की प्रतीक्षा में था, कि दाहिरसेन का कोई संदेशवाहक या शमनी का गुप्तचर ही आ जाये जिससे वो आगे का निर्णय ले सके। संदेशवाहक तो नहीं आया किन्तु काली पगड़ी बांधे एक मनुष्य उसके समक्ष अवश्य आ खड़ा हुआ। गाल पर छोटे से मस्से, रौबीली आँखें, हल्की मूँछ, दाढ़ी के साथ शरीर पर अरबी सैनिकों की वेशभूषा थी। उसे देख कासिम ने क्षणभर के लिए उसे अपना ही सिपाही समझा। किन्तु उसे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए देख अनुमान लगाना कठिन नहीं था, “तुम शमनी के गुप्तचर हो?”

“नहीं, हुजूर। आज संध्याकाल से ही कई कोस दूर फैले आलोर के उस किले की चप्पे चप्पे की सुरक्षा इतनी बढ़ा दी गई है कि किसी भी गुप्तचर का बाहर आना सम्भव ही नहीं था। इसलिए मैं स्वयं ही आपके पास चला आया?”

“इसका मतलब तुम शमनी हो, जो अब तक हमारा साथ देते आये हो ?"

“मैं ही शमनी हूँ, हुजूर। और आपको कुछ महत्वपूर्ण सूचनायें देने आया हूँ।”

“ठीक है, पहले हमारे निजी छावनी के अंदर चलो। बाकि बातें वहीं होंगी।”

“तो जैसी उम्मीद थी, कल सुबह ही दाहिरसेन की फौज हम पर हमला करने वाली है, हम्म? पर ये खबर तो तुम हमें कैसे भी पहुँचा सकते थे। यहाँ आने का खतरा क्यों मोल लिया?”

“सूचना केवल इतनी नहीं है, हुजूर। कल सुबह एक ओर सिंध की सेना आपकी सैन्य टुकड़ी पर आक्रमण करने आयेगी, वहीं दो हजार की टुकड़ी लिए मैं और राजकुमार वेदान्त आपके उन योद्धाओं पर आक्रमण करेंगे जिन्होंने सिंध के ग्रामीणों को घेर रखा है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि यदि ये युद्ध अधिक दिन भी चले, तो सिंध की सेना के लिए ग्रामीणों से रसद की सहायता माँगी जा सके।”

यह सुन कासिम कुछ क्षण के लिए चिंतित हो उठा। शमनी ने उसे सांत्वना देने के लिए कहा, “कुमार वेदान्त के साथ मुझे ही जाना है, इसलिए कल के आक्रमण की तैयारी में मैं पूरे दिन उन्हीं के साथ रहा। किन्तु विश्राम के समय यहाँ आकर आपको ये सूचना देना आवश्यक था कि हमारे विश्वासपात्र बौद्ध सैनिकों ने सूखे कुएँ में छिपाये हुए कमजोर तलवारें और भाले पुनः सिंध की सेना के शस्त्रागार में मिला दिये हैं।”

यह सूचना सुन कासिम के मुख पर थोड़ी मुस्कान खिली और वो उठकर शमनी के निकट आया, “हम तुम्हारे शुक्रगुजार हैं, शमनी। अब बस एक काम करो, कल जब शहजादे वेदान्त के साथ गाँव में हमारी फौज पर हमला करो, तो मौका पाते ही उस सिन्धी शहजादे को खत्म कर देना। सिंध की फौज पीछे हटने पर मजबूर हो जायेगी, और गाँव वालों की हिम्मत भी टूट जायेगी।”

******

ब्रह्ममहूर्त आरम्भ हो चुका था। महारानी मैनाबाई, रानी लाडी के साथ राजकुमारी कमलदेवी आरती की थाल लिये राजा दाहिरसेन और सिंध के दोनों राजकुमारों के निकट आयीं और बारी-बारी से उनका तिलक किया। कुछ क्षणों के उपरान्त तलवार, कवच और शिरस्त्राण धारण किये राजकुमारी सूर्यदेवी और प्रीमल देवी भी वहाँ आयी। उन्हें उस वेशभूषा में देख उन तीनों को आश्चर्य हुआ।

सूर्य ने आगे बढ़कर कहा, “समय आ गया है पिताश्री, कि हम भी आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर युद्ध करें।”

प्रीमल ने भी अपनी बहन का समर्थन करते हुए कहा, “उस कासिम ने हमें एक वस्तु समझकर हमारी माँग कर सिंध के आत्मसम्मान को कलंकित करने का प्रयास किया था। मेरी तलवार उसका मस्तक काटने को लालायित हो रही है।”

दाहिरसेन ने अपनी दोनों पुत्रियों के नेत्रों में धधकती हुई अग्नि देख कहा, “युद्ध प्रतिशोध के लिए नहीं किया जाता, पुत्री। तुम दोनों का अनियंत्रित क्रोध ही इस बात का सूचक है कि तुम दोनों अभी खुले मैदान में सेना की रणनीति अनुसार युद्ध करने के लिए तैयार नहीं हो। उसके लिए अनुभव की आवश्यकता है, और तुम्हारा क्रोध वो अनुभव स्वीकार करने को सज नहीं दिख रहा, जिससे बीच रणभूमि में हमारी कठिनाई बढ़ जाएगी।”

“किन्तु..।”

सूर्य के हस्तक्षेप करने से पूर्व ही दाहिरसेन ने कठोर स्वर में कहा, “शस्त्रों का ज्ञान तुम्हारी माता मैनाबाई को भी है, और वो तुम दोनों से अधिक अनुभव भी रखती हैं। वो तो युद्ध करने का हठ नहीं कर रहीं। समझने का प्रयास करो, पुत्रियों। वो कासिम मुख्य रूप से तुम राजकुमारियों के लिए ही आ रहा है, तुम उसका प्रमुख लक्ष्य हो। और यदि तुम दोनों युद्ध में गयी, तो तुम्हारे अनुभवहीन होने के कारण पूरे युद्ध में हमें तुम्हारी ही चिंता लगी रहेगी, जो हमारी सेना के लिए उचित नहीं होगा।” 

दाहिर सेन का कटाक्ष सुन सूर्य और प्रीमल दोनों झेंप से गये। महारानी मैनाबाई ने आरती की थाल एक सैनिक के हाथ में दी और उन दोनों युवतियों के निकट आयीं, “केवल युद्ध ही एक संघर्ष नहीं होता, पुत्रियों। यहाँ भीतर रहकर किले में रह रही सहस्त्रों स्त्रियों का साहस बनाये रखना भी एक संघर्ष है, जिस पर विजय प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है। हमारी तरह वो सारी स्त्रियाँ शस्त्र उठाकर अपना रक्षण नहीं कर सकती। और रणभूमि में युद्ध कर रहे योद्धाओं का साहस बनाये रखने के लिए भी ये आवश्यक है कि उन्हें ज्ञात हो कि उनके परिवार सुरक्षित हैं। यहाँ किले के एक सहस्त्र सुरक्षाकर्मियों का नेतृत्व मैं कर रही हूँ, किन्तु यदि मुझे दो और उच्च कोटि के योद्धाओं का साथ मिल जाये तो मेरा साहस अवश्य बढ़ जायेगा।”

अपनी माता के नेत्रों में देख दोनों राजकुमारियों ने बेमन से ही सही किन्तु सहमति जता दी। दाहिरसेन ने भी मुस्कुराते हुए दोनों पुत्रियों के माथे पर हाथ रखा, “मुझे ज्ञात था तुम दोनों समझ जाओगी। और चिंता मत करो, आने वाले समय में युद्ध के और भी अवसर आयेंगे।”

सूर्य और प्रीमल ने मन मसोसकर सहमति में सिर हिलाया।

******

भगवान श्री सूर्य नारायण के उदय होने से पूर्व ही दाहिरसेन, जयशाह, स्याकर, माविया बिन हारिस जैसे प्रमुख सैन्य अधिकारी आठ सहस्त्र अश्वारोही, दो सौ बीस युद्धक हाथी, और उनत्तीस सहस्त्र पैदल सैनिकों को साथ लेकर मुहम्मद बिन कासिम की छावनी की ओर बढ़ चले। वहीं वेदान्त एक सहस्त्र अश्वारोही, और एक सहस्त्र पैदल सैनिकों को लेकर पीछे के मार्ग से गाँवों की ओर मुड़ा।

इधर कासिम अपनी समस्त सेना और प्रमुख हाकिमों मुहम्मद हारून और अब्दुल अस्मत के साथ अश्व पर सवार हुए शत्रु सेना की प्रतीक्षा कर रहा था। लगभग सौ गज की दूरी पर शुज्जा ऊँट सवारों की टुकड़ी का नेतृत्व कर रहा था। इसी प्रकार मोहरिज बिन साबत, जैश बिन अकबी, अबु फजह और नईम सईद अपनी-अपनी टुकड़ियों का नेतृत्व कर रहे थे।

सूर्य उदय होते ही हाथ में लाल ध्वज लिये एक सिन्धी अश्वारोही कासिम की सेना की ओर चला आ रहा था।

“शायद कोई राय दाहिर का पैगाम लिए आ रहा है।” कासिम ने धैर्यपूर्वक उसकी प्रतीक्षा करने का निश्चय किया।

सिंध का वो संदेशवाहक शीघ्र ही अपनी सेना के आगे खड़े कासिम के निकट आया, “महाराज दाहिरसेन ने आपके लिए संदेश भेजा है।”

कासिम ने हाथ उठाकर उसे संदेश सुनाने का संकेत दिया। संदेशवाहक ने बिना कोई पत्र खोले कहना आरम्भ किया, “हे अरब सेनापति मुहम्मद बिन कासिम, तुमने इस युद्ध को जीतने के लिये नाना प्रकार के षड्यन्त्र रचे। अब इस अंतिम युद्ध में हमें आशा है कि तुम मूल रुप से युद्ध नियमों का पालन करोगे, अर्थात सूर्योदय के साथ आरम्भ होने वाला युद्ध सूर्यास्त होते ही समाप्त हो जायेगा। और युद्ध समाप्ति के शंख के उपरान्त दोनों पक्षों से कोई एक दूसरे पर शस्त्र नहीं उठायेगा। संध्या होते ही तुम अपनी सेना के साथ छावनी में और हम अपने किले के भीतर लौट जायेंगे। अब चूंकि हमारी सेना के बीच की दूरी केवल दो कोस रह गयी है, तो इस रक्तपात के आरम्भ होने से तुम्हें एक और बात बता दूँ। देबल का मन्दिर तोड़कर, और हमारे अधिकतर साथियों को अपने साथ मिला लेने से तुम ये ना समझो कि हमारा मनोबल टूट गया है। भविष्यवाणी को लेकर हम सिन्धी कुछ समय के लिए हताश अवश्य हुए थे। किन्तु हमारी राजकुमारियों की माँग कर तुमने जो हमारे आत्मसम्मान को कलंकित करने का प्रयास किया है, उससे हमारी सेना की रगों में एक नई ऊर्जा दौड़ आयी है। अब इस युद्ध में हम रक्षण के लिए नहीं लड़ेंगे, अपितु हमारा हर एक सैनिक मरने और मारने के लिए अपने शस्त्र उठाएगा। तो सावधान रहना, क्योंकि बहुत शीघ्र ही इस रणभूमि के निकट बहती सिंधु नदी का जल तुम अरबियों के रक्त से लाल होने वाला है। तैयार रहो अपने विध्वंस के लिये।”

मौखिक संदेश सुनाते उस घुड़सवार के नेत्रों में छाए उन्माद को देख कुछ क्षणों के लिये मुहम्मद बिन कासिम भी विचलित सा हो गया। फिर भी अपने योद्धाओं का साहस बढ़ाने के लिये उसने उत्साह में भरकर उस संदेशवाहक से कहा, “मैं जो कह रहा हूँ उसे ध्यान से सुनो और बिल्कुल ऐसे ही अपने बादशाह को सुनाना। तुम्हारे और हमारे उसूल एक नहीं हैं, राय दाहिरसेन। तुम जिसे साजिश का नाम दे रहे हो, वो हमारी जंग जीतने की तरकीबों में से एक है। और हमारी तरकीब इसलिए कामयाब हुयी क्योंकि पिछली जंग में फतह हासिल कर तुम बेपरवाह हो गये। तुमने सालों पहले खलीफा से गद्दारी करने वाले मुहम्मद बिन हारिस अलाफ़ी और माविया बिन हारिस अलाफ़ी के साथ उसके कबीले को पनाह दी। सुल्तान की धमकी के बाद भी तुमने उन समुद्री लुटेरों से हमारे जहाज नहीं बचाए। तुम्हारी तरफ से वो दुश्मनी और जंग का एलान था और ये दुश्मनी तभी खत्म होगी, जब इस जंग में फतह हासिल करने के बाद मैं तुम्हारा सर काटकर खलीफा अल वालिद बिन अब्दुल मलिक के पास ले जाऊँगा। अगर तुम्हारा हर एक जंगजू मरने मारने को लड़ेगा, तो हमारी फौज भी पीछे नहीं रहेगी। पाँच सालों तक तुम्हारी इस सरजमीं पर रहकर हम तुमसे छुपे रहे और तुम कुछ नहीं कर पाये, तो तुम अपनी ताकत और काबिलियत का बखान करते हुए अच्छे नहीं लगते। तुम्हारी फौज के पास तो अब खाने को भी कुछ नहीं बचा, तो तुम क्या अगले दिन हमसे लड़ने आओगे। दोनों तरफ की फौज को दिनभर लड़ने के बाद आराम की जरूरत तो होती ही है, इसलिए तुम्हारी पहली शर्त हमें मंजूर है। शाम होते ही दिन की जंग खत्म हो जायेगी। हम बेसब्री से तुम्हारी फौज का इंतजार कर रहे हैं।”

******

सिंधु नदी के पास रक्त की गंगा बहने को तैयार थी। इधर सूर्य और प्रीमल अभ्यास के लिए शस्त्र चुनने अखाड़े की ओर बढ़ रहे थे। पीछे के मार्ग से जाते हुए अकस्मात ही उनकी दृष्टि एक पगड़ी पहने हुए सैनिक की ओर गयी जो सूखे कुँओ से बाहर निकल रहा था। बाहर निकलते हुए उसके हाथों में टूटे हुए भालों के कुछ टुकड़े भी थे। निकट खड़ा एक और सैनिक उसे सहारा देकर उठा रहा था।

“ये क्या कर रहे हो तुम लोग?” सूर्य के टोकते ही वो सैनिक हड़बड़ाकर कुँओ में गिर पड़ा। सामने खड़ा सैनिक भी सकते में आ गया। उनकी संशात्मक गतिविधि देख दोनों राजकुमारियाँ उनकी ओर बढ़ीं। ऊपर खड़े सैनिक ने कुएं में गिरे सैनिक को नेत्रों से धीरज धारण करने का संकेत दिया। राजकुमारियों के निकट आते ही कुँओ के ऊपर खड़ा सैनिक बोला, “वो बस कुछ नहीं राजकुमारी जी, कुछ शस्त्र कमजोर थे जो अभ्यास के दौरान टूट गये थे। बस उन्हें कुँओ से निकालकर उनकी जाँच करना चाहते थे।” उसने दूसरे सैनिक को बाहर आने का संकेत दिया।

टूटे हुए भाले लेकर उस सैनिक के बाहर आते ही प्रीमल ने उनमें से एक का भाला छीन लिया और उसे अलट पलट कर देखने लगी। अकस्मात ही उसकी दृष्टि उस भाले के एक टुकड़े पर गुदे सूक्ष्म चिन्ह पर पड़ गयी, अरबी में लिखे सात अंक को देख प्रीमल ने उन दोनों सैनिकों से प्रश्न किया, “ये विदेशी चिन्ह का भाला हमारे शस्त्रागार में कैसे आया?”

दोनों सैनिक एक-दूसरे की ओर देखने लगे। सूर्य ने अपनी म्यान से तलवार निकाल उनमें से एक सैनिक के कण्ठ पर रखी, “सत्य बताओ, अन्यथा यहीं तुम दोनों का मस्तक कटकर गिरा हुआ मिलेगा।”

अपना भेद खुलने के भय से दूसरे सैनिक ने म्यान से तलवार निकाल सूर्य की ओर चलाई। सूर्यदेवी झुककर बची, उस सैनिक के घुटने पर लात मार उसे झुकाया और अगले ही क्षण तलवार के तेज वार से उसकी हथेली काटकर उसके शरीर से अलग कर दी। तलवार पकड़ा हुआ उसका हाथ भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा, वहीं सूर्य की तलवार पुनः पहले सैनिक की गर्दन पर आ टिकी, “अब सत्य बताओ, अन्यथा अपने साथी की तरह तुम्हें भी मृत्यु से कहीं अधिक भयानक पीड़ा मिलेगी।”

भय के मारे उस सैनिक के पसीने छूट गये। वहीं प्रीमल ने आगे बढ़कर अपनी तलवार भूमि पर बैठे पीड़ा से तड़पते उस दूसरे सैनिक की जांघ में घुसा दी। सूर्य ने अपनी तलवार पहले सैनिक के कण्ठ के और निकट लायी, “बताते हो या यही दशा तुम्हारी भी करें?”

“ये सब हमने सामंत शमनी के कहने पर किया, राजकुमारी।” भय के मारे उस सैनिक ने उगल दिया।

“क्या..?” सूर्य और प्रीमल दोनों ही अचम्भित रह गयीं। प्रीमल ने उस सैनिक का जबड़ा कसकर पकड़ा और उसे पीछे धकेलते हुए घुटनों के बल ले आयी, “पूरी बात बताओ।”  

उस सैनिक ने कहना आरम्भ किया, “देबल के किलेदार ज्ञानबुद्ध ने वर्षों पूर्व ही अरबियों से संधि कर ली थी। और श्री महाविष्णु के मन्दिर के टूटने के बाद ज्ञानबुद्ध ने ही सामंत शमनी को मुहम्मद बिन कासिम का प्रस्ताव भेजा था। चूंकि शमनी भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं, और भविष्यवाणी का भय भी था, इसलिए उन्होंने मुहम्मद बिन कासिम से संधि कर ली और एक प्रकार से यहाँ रहकर वो उसी की सहायता कर रहे थे। उन्होंने हम जैसे मुट्ठीभर विश्वासपात्र योद्धाओं को जुटाया और हमें सिंधुराज से द्रोह करने के लिए मना लिया।”

“अर्थात द्रोही केवल वो तीन सौ अरबी नहीं, अपितु यहाँ इस महल में भी बहुत हैं।” प्रीमल ने टूटे हुए भाले को देखकर कहा, “तो क्या यही वो शस्त्र थे..?”

“ये शस्त्र ब्राह्मणाबाद से ही आये थे, वहाँ अभी भी सैकड़ों लोहार हैं जो असल में अरबी हैं पर दिखावा हिंदसेना के सहायक होने का करते हैं। जब युवराज जयशाह ने शस्त्रों की जाँच करवाई थी, तो हमने वो शस्त्र इसी कुएं में छिपा दिए थे, और कल रात्रि पुनः उन शस्त्रों में मिलावट करने के उपरान्त हमें ज्ञात हुआ कि साक्ष्य के रूप में दो तीन भाले जो केवल भार से ही टूट गये थे, वो इसी कुएं में रह गये हैं। पकड़े जाने के भय से हम बस वही साक्ष्य मिटाने आये थे।”

क्रोध में भरकर सूर्य ने उस सैनिक के मुख पर जोर का मुक्का मारा, “बताओ कितने लोग हैं हमारी सेना में जो शमनी के लिए कार्य करते हैं।”

मुख पे लगा रक्त पोछते हुए उस सैनिक ने कहा, “लगभग तीन सौ लोग हैं, राजकुमारी। पर उनमें से कोई युद्ध पर नहीं गया। वो महल के सुरक्षाकर्मियों में से ही एक हैं।”

मुट्ठियाँ भींचते हुए इस बार प्रीमल ने उसके मुख पर जोर का मुक्का मारा। उसे मूर्छित होकर गिरा देख सूर्य ने कहा, “हमें ये नहीं पता कि कौन-कौन उस शमनी के विश्वासपात्र हैं? हमारी सेना में? ये ज्ञात करने में बहुत समय व्यर्थ होगा। और इस समय वो शमनी भ्राता वेदान्त के साथ है, तो उनके प्राणों पर भी संकट मंडरा रहा है, हमें शीघ्र कोई निर्णय लेना होगा।”

प्रीमल ने अपनी तलवार पर कसाव बढ़ाते हुए कहा, “निर्णय हो गया। तुम माताश्री के पास जाकर सारी बातें बताओ, और कोई युक्ति लगाकर शमनी के समर्थकों को ढूँढो और अपनी निष्ठावान सेना को धीरे-धीरे उनसे अलग करो। मैं वहीं जा रही जहाँ भ्राता वेदान्त हैं, यदि शमनी ने उन्हें कोई क्षति पहुँचाने का प्रयास किया तो मैं उसे वहीं मार डालूँगी।”

दोनों बहने योजना सुनिश्चित कर अपने-अपने गंतव्य की ओर बढ़ चलीं।

******

इधर सिंधु नदी के निकट पथरीले मार्गों की समर भूमि में सिंध और इराक की विशाल सेनायें नगाड़ों की ध्वनि के साथ एक-दूसरे की ओर बढ़ी चली आ रही थीं। आकाश से उड़ते हुए गिद्ध और चील भोजन की आशा में उस रक्तपात में शवों के गिरने की प्रतीक्षा में चहुं ओर मंडराने लगे।

सबसे भीषण आक्रमण किया जयशाह की अश्वारोही टुकड़ी ने जो शर व्यूह बनाये सिंहनाद करते हुए, अरबियों पर यूँ बरसे मानों वायु का कोई प्रवाह पर्वतों की निश्चित की गई सीमा को अस्वीकार करता हुआ उन्हें पार कर, अपने गंतव्य की ओर जाने को आतुर हो।

दो सौ बीस हाथियों और छह-छह हाथ लम्बे-लम्बे भाले उठाये पैदल सैनिकों की टुकड़ी लिए राजा दाहिरसेन ने भी शुज्जा के नेतृत्व वाली ऊँट सवार की टुकड़ी पर भीषण आक्रमण किया। किन्तु सबसे अधिक विभत्स दृश्य कासिम ने तब देखा जब जयशाह सहित उसके दस अश्वारोहियों ने एक-एक करके अरबी घुड़सवारों के भालों से बचते हुए तलवारों से कुछ ही क्षणों में उन्हें यमसदन पहुँचाना आरम्भ किया। अरबियों के मस्तक पतझड़ के पत्तों की भाँति गिरकर अश्वों द्वारा कुचले जाने लगे। उसके उपरान्त जय ने अपने सामने आये तीन-तीन अरबी घुड़सवारों में बारी-बारी से एक का मस्तक उड़ाया, एक की कमर पर तलवार का ऐसा भीषण प्रहार किया कि उसका ऊपरी शरीर कटकर रक्त के फव्वारे छोड़ते हुए भूमि पर गिर आया, और तीसरे घुड़सवार के मस्तक पर तो जय ने दूर से ही बेड़ियों से जुड़ी अपनी कंटीली गदा चलाई जिससे उसका शिरस्त्राण सहित माथा तरबूजे की भाँति फूट गया। महज बीस क्षणों में तीन अरबी घुड़सवारों की ऐसी दुर्दशा देख सिंध के योद्धाओं का आत्मविश्वास कई गुना बढ़ गया।

विचलित हुए कासिम ने मोहरिज बिन साबत को अपने निकट बुलाकर आदेश दिया, “आज वो शहजादा कुछ ज्यादा ही जोश में है। हमारी फौज के अंदर तक चला आया है, उसे घेरकर खत्म करो।”

मोहरिज अपने घुड़सवारों की टुकड़ी एकत्र करने चल पड़ा। इधर राजा दाहिर और शुज्जा की सैन्य टुकड़ियों में भयानक भिड़ंत हुयी। सिंध के हर एक हाथी के साथ लम्बे-लम्बे भाले उठाए बीस पैदल सैनिक और दस धनुर्धर दौड़ रहे थे, दो सौ बीस हाथियों के साथ चल रही उन हर टोलियों के मध्य बस इतनी ही दूरी थी, कि एक बार में अधिक से अधिक पाँच ऊँट सवार हाथियों को पार करके उन सैनिकों तक पहुँच पाये। कोई ऊँट सवार हाथियों के निकट आकर प्रहार करने का प्रयास भी करता तो एक साथ अनेकों भालों और तीरों की चोट खाकर या तो मारा जाता या भागने पर विवश हो जाता। साथ ही सिंधु नदी के निकट उन संकरीले और पथरीले मार्गों पर दौड़कर युद्ध करने का जो अभ्यास सिंधियों को था, उतना अनुभव अरबियों की टुकड़ी को नहीं था।

अपने सौ से अधिक ऊँट सवारों को गिरता देख क्रोध में शुज्जा अपने ऊँट सवारों की टुकड़ी के साथ सुई की आकृति बनाकर एक ही दिशा में चल पड़ा। एक के बाद एक लगातार आते ऊँटों को संभालना दो हाथियों के मध्य दौड़ रहे मुट्ठीभर सैनिकों के लिए अत्यंत दुष्कर हो गया। सैकड़ों ऊँट हाथियों को पार कर भीतर घुस आये, और ढालों के प्रयोग से सिंधियों के तीर से बचते हुए उनके पैदल सैनिकों पर भीषण आक्रमण किया।

दाहिरसेन ने देखा कि उनके पैदल सैनिक बिखर रहे हैं। हालांकि गजसवार योद्धाओं के द्वारा चारों दिशाओं में जो तीर ऊँटों पर छोड़े जा रहे थे, उनकी संख्या कम थी, किन्तु फिर वो कुछ ऊँटों को घायल करने में सफल हो रहे थे। और उनके घायल होकर गिरते ही सिन्धी सैनिक भाले और तलवारों से उन्हें छेद रहे थे। किन्तु शुज्जा के ऊँटों का जत्था एक पंक्ति में ही आ रहा था, और उनका घनत्व लगातार बढ़ता चला जा रहा था। यह देख दाहिरसेन ने निश्चय किया कि वो स्वयं शुज्जा के निकट जाकर उसे मार्ग से हटायेंगे ताकि उसकी टुकड़ी का मनोबल टूट जाये। 

******

दूसरे मोर्चे अर्थात गाँव की घेराबंदी किये हुए अरब टुकड़ी पर वेदान्त ने अपनी दो सहस्त्र की सेना लिए आक्रमण किया। उस मोर्चे पर मोखा के नेतृत्व वाले जाट घुड़सवारों की संख्या लगभग बारह सौ थी और उनके साथ लगभग एक सहस्त्र अरबी सैनिक भी थे।

सिन्धी अश्वारोहियों की पहली टुकड़ी ने ही मोखा के जाट घुड़सवारों को आतंकित कर दिया। कितने ही सिंधियों ने जाट सवारों को अश्वों से गिरा गिराकर उन्हें घसीटना आरम्भ कर दिया। वहीं मोखा ने दूर खड़े शमनी को संकेत किया और स्वयं अपने अश्व की धुरा खींच वेदान्त की ओर बढ़ चला।

छह हाथ लम्बा भाला लिए पूरी गति से मोखा को अपनी ओर आता देख, वेदान्त भी अपनी तलवार संभाले उसकी ओर दौड़ पड़ा। निकट आते ही मोखा ने अपना भाला सीधे वेदान्त की छाती की ओर बढ़ाया, उस गतिमान भाले से बचने के लिये वेदान्त को अपने अश्व की दाईं ओर झुकना पड़ा। मोखा ने अपना भाला पीछे खींचा और अपना अश्व वापस मोड़ पुनः अपने प्रतिद्वंदी पर प्रहार किया, किन्तु इस बार उस भाले में इतनी गति नहीं थी। वेदान्त पुनः किनारे की ओर झुका और तलवार के एक ही वार से उसके भाले का ऊपरी सिरा काट दिया। हड़बड़ाहट में मोखा ने शमनी की ओर देखते हुए अपनी तलवार निकाली और वेदान्त से भिड़ गया।

वेदान्त को अपनी भेदन सीमा में देख शमनी ने अपने धनुष पर तीर चढ़ाया और सीधा वेदान्त की ओर छोड़ दिया। एक के बाद दूसरा तीर भी यकायक ही वेदान्त की पीठ और कंधे में आ धँसे। पलटकर तीर चलाने वाले शमनी को देख वो स्तब्ध सा रह गया। इतने में मोखा की तलवार वेदान्त के कण्ठ की ओर चली, उससे बचने के लिए वेदान्त को अपने अश्व से नीचे कूदना पड़ा। शमनी ने अपने धनुष पर एक और तीर चढ़ाया, किन्तु इससे पूर्व वो वेदान्त पर लक्ष्य साधाता, वायु गति से आता एक तीर उसका धनुष काट गया।

योद्धाओं की वेशभूषा धारण किये रणचंडी का रूप धरे राजकुमारी प्रीमल देवी अपने भाई के रक्षण के लिए वहाँ आ पहुँची थी। तीर चलाने के उपरान्त अपना धनुष छोड़, उसने भाला संभाल अपना अश्व दौड़ाया। शमनी अभी अपने अश्व को पलटकर अपना भाला संभालता, तब तक तेज गति से आते हुए प्रीमल के घोड़े ने उसके भाले की गति कई गुना बढ़ा दी थी। प्रीमल का भाला सीधा शमनी की छाती पर बंधे कवच को तोड़ते हुए उसकी पीठ से पार हुआ और उसे उसके अश्व से घसीटते हुए भूमि पर ले आया।

एक युवती का ऐसा शक्ति प्रदर्शन देख मोखा भी क्षणभर को अचम्भित रह गया। किन्तु शीघ्र ही उसने स्वयं को संभाला और भूमि पर खड़े वेदान्त को सरल आखेट समझकर उस पर प्रहार किया। मोखा के अश्व ने अपने खुरों से वेदान्त की छाती पर प्रहार करना चाहा, किन्तु समय रहते वेदान्त बचकर किनारे हटा। उस अश्व ने पुनः अपने खुरों से वेदान्त पर प्रहार करने का प्रयास किया, किन्तु इस बार वेदान्त ने बचते हुए अपनी तलवार जोर से चलाई, जिससे उस अश्व की सामने की दोनों टाँगे कटकर अलग हो गईं। वो अश्व अपना संतुलन खोकर नीचे फिसला और मोखा को झुकता देख वेदांत की तलवार उस पर चल गयी। उस प्रहार से घायल हुआ भूमि पर गिरा मोखा दांत पीसते हुए पुनः उठा और वेदान्त पर प्रहार करने के लिए अपना हाथ बढाने का प्रयास किया। किन्तु अगले ही क्षण अपने दायें कंधे की ओर देख वो स्तब्ध सा रह गया, तलवार थामा हुआ उसका हाथ कटकर भूमि पर गिरा पड़ा था और उसके कंधे से रक्त का झरना बहे जा रहा था। अपना हाथ खोकर क्रोध और पीड़ा से भरकर चीखते हुए मोखा वेदांत की ओर बढ़ने लगा। सिन्धी राजकुमार भी तलवार नचाते हुए शत्रु की ओर बढ़ा। किन्तु शीघ्र ही दो जाट योद्धा वहाँ आये और मोखा को अपने साथ पीछे की ओर ले गये।

किन्तु वेदान्त ने उस घायल योद्धा का पीछा नहीं किया। वो बस अपनी बहन की ओर देख विजय उन्माद में मुस्कुराया, फिर अपने अश्व को खोज उस पर आरूढ़ होते ही लंबे भाले में बंधा भगवा ध्वज लहराते हुए उद्घोष किया, “हर हर महादेव।”

अपने सेनापति के भागने की भनक पाकर अरबियों के पैदल सैनिकों की टुकड़ी वहाँ से भागने लगी। किन्तु जाट घुड़सवारों ने अपने शस्त्र थाम लिये और उनमें से कई वहीं रुके रहे, जिनको देख अन्य भागते हुए जाट भी वापस आने लगे। वेदान्त ने भी अपने योद्धाओं को रुकने का आदेश दिया। लगभग एक सहस्त्र जाट घुड़सवार अपने-अपने अश्वों से उतरकर वेदान्त की सेना के समक्ष समर्पण करने लगे। वेदान्त और प्रीमल ने उन सभी घुड़सवारों को एक स्थान पर एकत्र किया। इसके उपरान्त वेदान्त ने उन्हें संबोधित करना आरम्भ किया, “हम आप लोगों को ये बता देना चाहते हैं, कि हमारा आपसे कोई निजी वैमनस्य नहीं है। मोखा और रासल ने भय में आकर अपना पक्ष बदलकर अपने सम्पूर्ण जीवन को कलंकित कर लिया। ऐसे लोगों का नाम इतिहास में सदैव काले अक्षरों में लिखा जाता है। वहीं सीसम के जाट सामंत बाजवा ने सिंध के अस्तित्व के लिए अपना महाबलिदान देकर अपने लिए सुनहरे अक्षर सुनिश्चित कर लिये हैं। आप लोगों के पास तेज गति के घोड़े थे, आप चाहते तो यहाँ से भागकर अरबी सेना में वापस जा सकते थे। किन्तु आप लोगों ने समर्पण का निर्णय लिया। यही इस बात का साक्ष्य है कि आपका हृदय जानता है कि आपका उचित पक्ष कौन सा होना चाहिए।” श्वास भरते हुए वेदान्त ने घोषणा की, “कोई मोखा या फिर रासल जाटों की जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करता। हम अपनी संस्कृति की रक्षा करने के लिए अपने मस्तक कटाने को तैयार हैं। तो जो कोई जाट भाई हमारे साथ है, अपने शस्त्र उठाकर अपने अश्व पर सवार हों और हमारी ओर आ जाये। हम मिलकर उस विदेशी आक्रांता को अपनी मातृभूमि से खदेड़ेंगे।"

उन जाट सैनिकों को मानों वेदान्त की सहमति की ही प्रतीक्षा थी। एक-एक करके वो सभी योद्धा अपने-अपने शस्त्र उठाकर अपने अश्वों पर सवार हुए सिंधियों की ओर आने लगे। वेदान्त ने अपने शरीर में धँसे दोनों तीरो को निकाल नीचे फेंके। फिर रक्त से सना अपना शिरस्त्राण उतारकर मुस्कुराते हुए चढ़ते हुए सूर्य नारायण की ओर देखा।

उसके निकट आकर प्रीमल ने उत्साह में भरकर कहा, “अब हमारी विजयश्री निश्चित है।”

वेदान्त ने पुनः अपनी छाती पर लगे घाव की ओर देखा, “हाँ, कदाचित आज रक्त बहाना सफल हो गया। अब हमारी सेना को अन्न की कमी नहीं होगी।”

“और ना ही आज से हमारे शस्त्र दुर्बल पड़ेंगे।” 

“अर्थात? मैं समझा नहीं।” वेदान्त ने आश्चर्य में भरकर प्रश्न किया।

“हमारे साथ महल चलिये, समझाती हूँ। अभी तो हमें शमनी के प्रति निष्ठावान सैनिकों को भी दण्ड देना है।” 

******

सिंधु के तट के निकट मोहरिज बिन साबत अपने अरबी घुड़सवारों को लेकर जयशाह के चहुं ओर घेरा बनाने लगा। किन्तु उसकी ये रणनीति जय को पहले ही समझ आ गयी। उसने अपने दस सिन्धी अश्वारोहियों को संकेत दिया। उन दसों सिन्धी अश्वारोहियों ने ढाल ऊँची कर भाले सीधे किये और जय को दाईं और बायीं ओर से सुरक्षा दी। अपने दोनों ओर उस सुरक्षा दल को लेकर जय ने अपना अश्व सीधा मोहरिज की ओर दौड़ाया।

बहुत से अरबियों ने जय के सुरक्षा दल पर आक्रमण करने का प्रयास किया, किन्तु सिंध के अन्य अश्वारोही उस दल के रक्षण को प्रतिबद्ध थे। उन्होंने अपने प्रहारों से अरबी योद्धाओं को उस सुरक्षा दल से दूर रखा। कुछ भाले और तीर उस दल तक पहुँचे भी तो उन दसों अश्वारोहियों ने कुशलतापूर्वक उन्हें अपने ढाल पर झेल लिया।

मोहरिज ने अपना आठ हाथ लम्बा भाला सीधा किया और जय की ओर अपना अश्व दौड़ाया। निकट आते-आते जय के साथ सुरक्षा को आ रहे दसों अश्वारोही उसके दाईं और बायीं ओर आ रहे अरबी घुड़सवारों से भिड़ गये। मोहरिज के भाले के निकट आते-आते जय ने भी बेड़ियों से लटकती कंटीली गदा उठाई और अपने अश्व से बायीं ओर लटककर उस भाले से बचते हुए, उस गदा का प्रहार सीधा मोहरिज के घोड़े के सर पर किया। मोहरिज का घोड़ा चकराता हुआ दौड़ते हुए भूमि पर आया। जय ने पलटकर भूमि पर गिरे मोहरिज की ओर देख उसकी ओर दौड़ लगा दी। मोहरिज ने भी भूमि पर खड़े हुए ही अपनी तलवार उठाई, इतने में जय के अश्व के खुरों ने उसकी छाती पर भारी चोट कर उसे भूमि पर गिरा दिया। इससे पूर्व कि मोहरिज उठता बेड़ियों से जुड़ी जय की वो कंटीली गदा सीधा उसके माथे पर चली, और उसे गुबन्द की भाँति फोड़कर उसके रक्त से सिंधु नदी के तट का लाल रंग से अभिषेक किया।

मोहरिज के गिरते ही जयशाह को घेरती हुईं घुड़सवारों की टुकड़ी पीछे हटने लगी।

“बाणों से छलनी कर दो इन्हें।” जय के आदेश पर सैकड़ों तीर उन पीछे हटते अरबी घुड़सवारों की ओर चले और उन्हें एक-एक करके घायल करने लगे।

“मोहरिज मारा गया?” कासिम को पीछे हटते अरबी घुड़सवारों को देख उसका अर्थ समझने में विलंब नहीं हुआ, “वो भी मुट्ठीभर सिन्धी घुड़सवारों से हार गया।” उसके आश्चर्य का ठिकाना न था। मुट्ठियाँ भींचते हुए उसने मन ही मन निश्चय किया, “अब उस शहजादे से मुझे ही लोहा लेना पड़ेगा। वर्ना वो हमारी फौज को यूँ ही बिखेरता रहेगा।”

इधर शुज्जा के ऊँट को एक हाथी ने सूंड मारकर घायल कर दिया। क्रोधित शुज्जा अपना तीन हाथ लम्बा गंडासा लिये ऊँट से कूदकर दौड़ता हुआ उस हाथी के निकट गया और एक प्रहार से ही उसकी सूंड काट डाली। चिंघाड़ता हुआ वो हाथी अपने सवार को लेकर नीचे गिरा, और शुज्जा ने दौड़कर गंडासे के एक ही वार से उस सवार शरीर के दो टुकड़े कर दिए, और फिर पलटकर गुर्राया। शुज्जा का विभत्स रूप देखकर भी उस हाथी के निकट खड़े पैदल सैनिक थोड़े भी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने निकट आती ऊँटों की टुकड़ी पर पूरी शक्ति से भाले मारे, पर अकस्मात ही एक-एक करके उनके भाले टूटने लगे। यह देख राजा दाहिर भी स्तब्ध रह गये। ऊँटों की टुकड़ी शस्त्रहीन हुए सिन्धी सैनिकों को कुचलकर आगे बढ़ने लगी।

अपनी छाती ठोक शुज्जा गुर्राया और निकट आते एक और हाथी पर प्रहार कर उसकी सूंड काटकर अलग कर दी। इस पर दाहिरसेन ने अपने शाही हाथी की पीठ ठोकते हुए कहा, “बहुत उन्माद में है ये, साक्या। कुचल डालो इसे।”

राय दाहिर के आदेश पर साक्या चिंघाड़ते हुए दौड़ा। जो भी ऊँट सवार उसके निकट आया उसके सूंड की एक चोट न सहन कर पाया। शुज्जा भी दो हाथियों को गिराकर उन्माद में गंडासा लिए उसकी ओर दौड़ा चला जा रहा था। किन्तु उसने साक्या को आम युद्धक हाथी समझने की भूल कर दी थी। साक्या के निकट आकर उसने अपना गंडासा घुमाया। साक्या अपनी दोनों टाँगे और सूंड उठाकर उसके प्रहार से बचा और सूंड से उसके गाल पर भयानक थपेड़ा मारा।

शुज्जा लुढ़कर कई गज दूर जा गिरा। सूंड का प्रहार इतना शक्तिशाली था कि उसका शिरस्त्राण भी छटक कर उसके सिर से दूर निकल गया। संभलने का प्रयास करते हुए शुज्जा भूमि से उठा। कान से बहते रक्त को देख क्षणभर को वो विचलित सा हो गया। अभी उसने अपना गंडासा संभाला ही था कि साक्या ने सूंड मारकर उसे निशस्त्र भी किया, और अगला प्रहार सीधा उसकी छाती पर किया। सूंड पर लगे विभिन्न शूलों ने शुज्जा के कवच को छिन्न भिन्न करके उसे पुनः गिरा दिया। उसे कुचलने का मन्तव्य लिए साक्या आगे बढ़ा, किन्तु शुज्जा तत्काल ही उठकर पीछे भाग गया।

उसके आसपास युद्ध कर रहे अनेकों अरबी ऊँट भी पीछे हटने लगे। इसने सिन्धी योद्धाओं का साहस कई गुना बढ़ा दिया। जिन सिन्धी सैनिकों के शस्त्र टूटे, वो शत्रु से शस्त्र छीन छीनकर उन्हें हताहत करने लगे।

इधर जय से द्वन्द करते हुए उसकी मुट्ठी का भीषण प्रहार खाकर मुहम्मद बिन कासिम कुछ पग पीछे हटा। अपने मुँह पर लगे रक्त को पोछते हुए उसने अपनी तलवार और ढाल संभाली, और पुनः सिंध के उस युवराज पर आक्रमण किया। जय ने भी उसके अगले तीनों प्रहार रोके और ढाल से उसकी छाती पर वार करना चाहा, किन्तु कासिम सफलता पूर्वक किनारे हटा और अवसर पाकर अपनी ढाल जय की छाती पर दे मारी, और उछलकर तलवार की मुट्ठी से सीधा उसके सिर पर वार किया।

कासिम के उस प्रहार से महावीर जय भी घायल होकर भूमि पर गिर पड़ा, किन्तु वो इतना विचलित नहीं हुआ था कि अपने शत्रु की तलवार के अगले प्रहार से बायीं ओर हटकर बच ना सके। कासिम के तीन चार प्रहारों से लुढ़कर बचते हुए जय ने अपनी ऊर्जा एकत्र की, और उस अरबी हाकिम के पाँव पर लात मारकर उसे भूमि पर गिरा दिया। किन्तु जय के उठते ही कासिम भी उठ खड़ा हुआ। दोनों की तलवारें पुनः टकराईं और वो रणबांकुरे एक-दूसरे की आँखों में आँखें डाले अपने पराक्रम का दंभ भरने लगे। किन्तु कदाचित आज उस युद्ध का निर्णय होना नियति को स्वीकार नहीं था। ढलते हुए सूर्य के साथ बजते युद्ध समाप्ति के बिगुल ने ये घोषणा की कि उस दिन हुआ नरसंहार केवल एक झांकी मात्र है। कासिम और जय एक-दूसरे को घूरते हुए दूर हटे, मानों नेत्रों से ही संकेत कर रहे हों कि अगली बार यदि द्वन्द हुआ तो मानों एक-दूसरे को निगल ही जायेंगे।

अरब सेना अपने शिविर में लौट गयी और सिन्धी सेना आलोर के किले में।

******

सिंधु नदी के रक्तपात को दो और दिन बीत गये। तीसरे दिन संध्या को अपनी छावनी में आते ही कासिम ने झल्लाहट में सामने पड़े पानी के तीन हाथ बड़े घड़ों को लात मारकर गिरा दिया। क्रोध में वो छावनी के निकट जलती हुई अग्नि के आगे बैठ गया। किन्तु अगले ही क्षण अपनी जंघा पीटते हुए पुनः उठकर चहलकदमी करने लगा, “क्या करूँ, क्या करूँ मैं उस शहजादे जयशाह का ? उसने हमारी पूरी फौज की ईंट से ईंट बजा रखी है।” बुदबुदाते हुए कासिम की दृष्टि जैश बिन अकबी की ओर गयी, “रसद कितने दिन की बची है?”

“बस आज रातभर की, हुजूर। उसके बाद हमें कैद किये हाथियों के माँस से ही काम चलाना पड़ेगा। और केवल माँस खाना फौज की सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा।” 

जैश की बात सुन कासिम निराश होकर पुनः अग्नि के निकट बैठ गया, “पाँच सालों की मेहनत पर पानी फिरने की नौबत आ गयी है।” उसने जैश से पुनः प्रश्न किया, “हमारी और दुश्मन की फौज के नुकसान का ब्योरा दो।”

“हालत बद से बद्दतर हुई जा रही है, हुजूर। तीन दिन में हमारे आठ हजार घुड़सवार, पाँच हजार ऊँट सवार और दस हजार पैदल सैनिक शहीद हो गये। और खबर के मुताबिक दुश्मन के पास अब भी सात हजार घुड़सवार, लगभग डेढ़ सौ हाथी, और लगभग बीस हजार की पैदल फौज बाकी है। बस इतना ही नहीं हमारी ओर के घायलों की तादाद भी दुश्मन से अधिक है।”

“तो कुल मिलाके हमारे पास अब भी सात हजार घुड़सवार, बीस हजार पैदल सिपाही और पाँच हजार ऊँटों की फौज बाकी है।” झल्लाते हुए कासिम पुनः उठा, “अब उनकी और हमारी तादाद का अंतर ज्यादा नहीं रहा। और तो और ये सरजमीं भी उनकी है। अगर पहले दिन उनमें से कइयों के हथियार नहीं टूटते, तो ना जाने क्या अंजाम होता।”

“सही कहा, हुजूर। दूसरे दिन वो सारे मजबूत हथियारों के साथ आये, साथ में और भी अधिक हिंसक हो गये। फौज में हताशा आने लगी है, हुजूर। सुनने में आया है कई सिपाहियों का मन लौटने को कर रहा है।”

जैश के शब्द सुन कासिम ने क्षणभर उसकी ओर देखा, फिर निराश होकर चंद्रमा की टिमटिमाती रोशनी की ओर देखा, “शायद किस्मत ही हमारे खिलाफ है, कि देबल के उस मन्दिर के तबाह होने के बावजूद वो सिन्धी आज भी हमारी फौज के आगे डटकर खड़े हैं। उनका हौसला तो सच में बुलंदी पर है।”

विचलित हुआ कासिम पुनः अग्नि के निकट बैठ गया। कुछ ही क्षणों उपरान्त एक अरबी सैनिक दौड़ता हुआ वहाँ आया। उसके चेहरे का उत्साह देख कासिम को आश्चर्य हुआ, “क्या बात है, सिपाही?” 

“मदद आयी है, हुजूर। बहुत बड़ी मदद। हाकिम ‘सलीम बिन जैदी’ अपने साथ दस हजार घुड़सवार और बीस हजार पैदल सिपाही लिये हमारी छावनी की ओर ही आ रहे हैं।” 

उस अरबी के मुख से वो सूचना सुन कासिम के शरीर में मानों नई ऊर्जा आ गयी। वो दौड़ते हुए अपने अश्व पर आरूढ़ होकर छावनी से बाहर की ओर चल दिया।

******

अपना घोड़ा दौड़ाते हुए कासिम उस विशाल अरब टुकड़ी के निकट आया। उस टुकड़ी का नेतृत्व करते अश्व पर बैठे अँधेड़ उम्र के योद्धा को देख कासिम का मन प्रसन्न सा हो गया। अपनी मूँछ रहित दाढ़ी सहलाते हुए सुडौल शरीर वाले उस हाकिम ने अपना शिरस्त्राण उतारा और मुस्कुराते हुए अश्व से नीचे आकर कासिम की ओर बढ़ा। कासिम भी अपने अश्व से उतर उनके निकट आया। दोनों एक-दूसरे के हृदय से जा लगे।

“खुदा की मेहर है जनाब सलीम, जो आप हमारी मदद को यहाँ आये।” कासिम ने कृतज्ञता प्रकट की। 

मुस्कुराते हुए सलीम ने एक पत्र कासिम की ओर बढ़ाया, “सुल्तान का पैगाम, तुम्हारे लिये।” 

कासिम ने प्रसन्नचित होकर वो पत्र खोला।

देबल के मन्दिर के तबाह होने की खबर ने हमारा दिल खुश कर दिया था, कासिम। उसी वक्त हमें पता चल गया था कि तुम्हीं वो जाँबाज हो जो सिंध पर फतह हासिल कर सकता है। जैसे ही हमें ये खबर लगी, हमने अगले ही दिन हाकिम सलीम बिन जैदी के साथ तुम्हारी मदद के लिये फौज रवाना कर दी थी। सलीम ने तेरह साल पहले भी हाकिम ऊबेदुल्लाह के साथ सिंधियों से जंग की थी। उनका तजुर्बा तुम्हारे काम जरूर आयेगा। अल्लाह ताला की रहमत से फतह केवल तुम्हारी होगी, और उम्मयद खिलाफत का परचम सिंध की सरज़मीं पर लहराकर हम हिन्द को जीतने के अपने पहले कदम में कामयाब होंगे। सिंध पर पूरी तरह से फतह हासिल करने के बाद हमारी ये ख्वाहिश कि तुम हाकिम सलीम बिन जैदी को सिंध के सबसे खास शहर ब्राह्मणाबाद का तख़्त सौंप दो, ताकि वहाँ से वो सिंध पर हमारी ओर से हुकूमत कर सकें। तुम्हें तो अभी बहुत सी जंगे लड़कर अपने नाम को सुनहरे पन्नों में लिखवाना है, मुहम्मद बिन कासिम। हिन्द के बहुत से जंग के मैदान तुम्हारे इंतजार में हैं। फतह हासिल करने के बाद याद रहे, कि किसी भी दुश्मन पर थोड़ा भी रहम मत करना। पूरे सिंध में जिसकी आँखों तक में भी बगावत नजर आये, उसका सर कलम हो जाना चाहिए। उम्मीद है फतह हासिल करके सिन्ध की तीनों शहजादियों को तुम जल्द ही हमारे हवाले कर दोगे। अब अगला पैगाम फतह की खबर मिलने के बाद ही तुम तक पहुँचेगा। —सुल्तान अलहजाज बिन यूसुफ (उम्मयद खिलाफत)

मुस्कुराते हुए कासिम ने पत्र लपेटा, “सुल्तान के हुक्म की तामिल होगी। अब हमें फतह हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता।”

******

रात्रि के समय कासिम ने अपने शेष हाकिमों को एकत्र किया। मुहम्मद हारून, अब्दुल अस्मत, सलीम बिन जैदी, अबु फजह, जैश बिन अकबी, नईम सईद और शुज्जा उसके दोनों ओर पंक्ति बनाकर खड़े थे। चलते हुए कासिम ने उन्हें संबोधित करना आरम्भ किया, “जैसा कि आप सब जानते हैं कि दुश्मन की फौज में हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा सिंध का शहजादा जयशाह है। उसी की वजह से आज हमारी फौज की हिम्मत लगभग टूट गयी थी। पर आज हाकिम सलीम बिन जैदी जो फौजी मदद और रसद का सामान लेकर आये हैं, उसकी ताकत पर हम आगे और भी कई दिन तक ये जंग जारी रख सकते हैं, क्योंकि तब तक नेरुन के किलेदार दारुण का भेजा रसद भी हमारी मदद को आ जायेगा। पर ये सोचकर हमें अपने हथियारों को रोकना नहीं है। हमें कल के कल ये जंग खत्म करनी है और उसका केवल एक ही तरीका है और वो है जयशाह की मौत। आज जो तरोताजा फौज आयी है उसे लेकर शुज्जा, नईम सईद, जैश बिन अकबी सिर्फ और सिर्फ जयशाह के घुड़सवारों की टुकड़ी पर हमला करेंगे। उस शहजादे को मौत के घाट उतारे बिना ये टुकड़ी वापस नहीं लौटेगी। बाकि हाकिमों के साथ मैं खुद दाहिरसेन की बाकि फौज का सामना करूँगा। किसी को कोई सवाल करना है, तो वो अभी पूछ ले।”

इस पर सलीम बिन जैदी ने प्रश्न किया, “पर यहाँ आने से पहले तो मुझे ये बताया गया था कि अरबी फौज के लिए सबसे बड़ा खतरा कोई कालभोज नाम का जंगजू है। कालभोजादित्य रावल।”

“वो जंगजू मेवाड़ का है। और मेवाड़ की फौज तो कबकी सिंधियों का साथ छोड़ चुकी है। उसके बाद ही तो हम इस मुकाम तक पहुँचने में कामयाब हो पाये हैं। हो सकता है आगे चलकर उससे भी कभी सामना हो, पर अभी हमें उससे कोई खतरा नहीं है। अभी के लिए तो सिर्फ सिंध पर फतह ही हमारा मकसद है।”

******

अगले दिन सूर्योदय से कुछ समय पूर्व दाहिरसेन सहित जय, वेदान्त और सिंध के अन्य वीरों का तिलक किया गया। तभी एक सैनिक दाहिरसेन के पास आया और उन्हें प्रणाम कर सूचित किया, “एक और अरबी हाकिम सलीम बिन जैदी, दस सहस्त्र घुड़सवारों और बीस सहस्त्र पैदल सैनिकों की टुकड़ी लेकर कासिम की सहायता को आ पहुँचा है, महाराज। गुप्तचरों की सूचना के अनुसार उनका प्रमुख लक्ष्य युवराज जयशाह होंगे, वो इन्हें ही अपने मार्ग से हटाने में अपनी पूरी शक्ति लगा देंगे।”

“हे ईश्वर।” यह सुन दाहिरसेन विचलित से हो उठे। जय ने उनका कंधा पकड़ उन्हें ढाढ़स बँधाने का प्रयास किया, “आपका साहस टूटा, तो समस्त सेना टूट जायेगी, महाराज। शत्रु को बलवान ना बनाइये। आपका ये पुत्र अभी जीवित है। आज वो मुझे लक्ष्य करके युद्ध करने वाले हैं, यहीं उनकी सबसे बड़ी भूल सिद्ध होगी। मैं आज ही मुहम्मद बिन कासिम को ढूँढकर उसे यम के द्वार भेज दूँगा, और ये युद्ध आज ही समाप्त हो जायेगा।”

दाहिरसेन ने मुठ्ठियाँ भींचते हुए अपने साहस को संभाला और जय की ओर देख मुस्कुराने का प्रयास किया। फिर कुछ क्षण विचार कर श्वास भरते हुए, वो वेदान्त की ओर मुड़े, “मैं तुमसे एक वचन चाहता हूँ, पुत्र।

 “आप आदेश दीजिए, पिताश्री।” वेदान्त ने दृढ़ होकर कहा।

“हम और हमारे वीर सैनिक इस युद्ध में शत्रुओं के संहार के लिये युद्ध करेंगे। किन्तु मेरी इच्छा है कि तुम किले में रहकर ही महारानी मैनाबाई के साथ रह रहे सैनिकों के परिवारों का रक्षण करो। यहाँ एक सहस्त्र योद्धा तुम्हारे साथ रहेंगे।”

“ये कैसे सम्भव है पिताश्री? मैं एक प्रमुख योद्धा हूँ।” 

“और सिन्धी गुप्तचर दल के तीन प्रमुख नायकों में से एक भी हो। यदि भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई, और हमारी मातृभूमि अरबियों के हाथ पड़ गयी, तो तुम्हारे अतिरिक्त ऐसा कोई नहीं जो हमारे मित्र राज्यों से सहायता प्राप्त कर पुनः इसकी मुक्ति का मार्ग बना सके। किले की रक्षा का भार तुम्हारे हाथों में है और यदि हमारी पराजय हो जाये तो, तुम सीधा हरित ऋषि के पास सहायता के लिए जाना।”

 “किन्तु पिताश्री..सबको छोड़कर मैं कैसे?”

“तुमने पिताश्री का आदेश नहीं सुना?” जय के शब्दों में कठोरता आ गयी, “तुमने और हमारी बहनों ने मिलकर शमनी के विश्वासपात्रों समेत अनेकों विश्वाघातियों को हमारी सेना से अलग करने में जो चातुर्य दिखाया है, उसी कारण हम तुम पर विश्वास कर पा रहे हैं। क्या तुम ये चाहते हो कि हमारे परास्त होने पर वो कासिम हमारी बहनों तक पहुँच जाये ?”

जय के कटाक्ष पर वेदान्त मौन हो गया। सिंध के युवराज ने अपने भाई के निकट आकर उसका कंधा थपथपाते हुए सौम्य स्वर में कहा, “तुम पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सौंपा जा रहा है, राजकुमार वेदान्त। यदि चाहते हो कि हम अपनी पूरी शक्ति लगाकर पूरे मनोयोग से युद्ध कर पायें तो इस कर्तव्य का उत्तरदायित्व को स्वीकार करो।”

नेत्रों में नमी लिये वेदान्त ने सिर हिलाया, “आपको निराश नहीं करूँगा।”

******

19 जून 712 ई.
चौथे दिन के संग्राम के लिए एक बार फिर सिन्धी और अरबी सेना एक-दूसरे से एक कोस की दूरी पर सिंधु नदी के तट को पुनः लाल करने को तैयार खड़ी थी। कासिम ने दूर से देखा, तो पूरी सिन्धी सेना को एक पंक्ति में चलते हुए डेढ़ सौ हाथियों के कवच के रक्षण में आता हुआ पाया। कासिम ने दूरबीन उठाई, तो देखा कि एक-एक हाथी के ठीक पीछे दस सिन्धी अश्वारोही चले जा रहे थे। किन्तु उन्होंने अपनी शेष सेना को इस प्रकार ढक रखा था कि उसके पीछे देखना कासिम के लिए सम्भव ही नहीं हो पा रहा था।

“आज ये लोग जंग की नई तरकीब का इस्तेमाल करने वाले हैं। अभी पता नहीं चल रहा कि शहजादे जयशाह की टुकड़ी कहाँ से हमला करेगी, ना ही शहजादे की पताका कहीं दिखाई दे रही है।”

उसके साथ खड़े सलीम बिन जैदी ने सुझाव दिया, “मैं जाकर पश्चिम की ओर खड़े नईम सईद, शुज्जा और अब्बू फजह की टुकड़ी को सतर्क करता हूँ। जयशाह जहाँ से हमला करेगा, वो अपनी टुकड़ी वहीं की ओर मोड़ देंगे।”

“जी जरूर। यही अच्छा होगा।” सहमति जताते हुए कासिम सिन्धी सेना के निकट आने की प्रतीक्षा करने लगा। किन्तु तीन सौ गज की दूरी से भी कहीं जयशाह दिखाई नहीं दिया।

सिंधियों की निकट आती सेना को देख कासिम को अपनी सेना को आक्रमण का आदेश देना पड़ा। दोनों सेनायें पुनः रक्त की प्यास लिए टकरा गईं। इधर पश्चिम के ठीक उलटी दिशा अर्थात पूरब से बहती सिंधु नदी के जल में तैरती हुई एक नौका तट पर होते युद्ध की उस समरभूमि की ओर ही चली आ रही थी। अब इतने विकराल युद्ध में श्वेत रंग की चादर ओढ़े नाव खेते किसी व्यक्ति की ओर भला किसका ध्यान जाता। श्वेत चादर वाले उस व्यक्ति ने दो हाथ लम्बी दूरबीन निकाली, और नदी से ही रणभूमि की ओर देख ये ज्ञात करने का प्रयास करने लगा कि कौन सा अरबी योद्धा कहाँ युद्ध कर रहा है। कुछ दूरी पर युद्ध करते कासिम को देख वो व्यक्ति नाव खेते हुए तट के निकट आने लगा। उसी दिशा में युद्ध कर रही सिन्धी सेना के निकट के तट पर अपनी नाव रोक, वो व्यक्ति भूमि पर कूदा, और बिगुल निकालकर जोर से फूँका।

स्वयं से बस दो सौ गज की दूरी पर खड़े श्वेत चादर ओढ़े उस व्यक्ति की बिगुल की ध्वनि का अर्थ कासिम की समझ में नहीं आया। वो दूर अपने घोड़े पर बैठा संशय भाव से उसे देखने लगा। किन्तु परिणाम शीघ्र ही दिख गया। सहस्त्रों सिंधि अश्वारोहियों की टुकड़ी लिए स्याकर और माविया बिन हारिस अपनी सेना से अलग होकर उस श्वेत चादर वाले व्यक्ति की ओर बढ़े। कासिम को समझते देर नहीं लगी, “तो आज शहजादा छुपकर आया है?”

स्याकर के निकट आते ही जय ने अपने शरीर की ढकी चादर हटायी और उसके साथ उसी के अश्व पर सवार हो गया। अवसर पाकर स्याकर उस अश्व से कूदकर एक ओर हट गया, और जयशाह माविया बिन हारिस के साथ सहस्त्रों अश्वारोहियों की टुकड़ी लिए, शत्रु के विध्वंस का मन्तव्य लेकर अरबी सेना पर टूट पड़ा। 

“ये तो आप ही की ओर आ रहा है, हुजूर।” मुहम्मद हारून चिंतित सा हो गया।

“चालाक जंगजू है। शायद इसके जासूसों ने पहले ही इसे खबर दे दी होगी, कि हम इसे ही निशाना बनाने वाले हैं। इसने देखा होगा कि हमारी फौज की तादाद जंग के मैदान के इस हिस्से में थोड़ी कम है, यही सोचकर यहीं चला आ रहा है।” कासिम ने म्यान से अपनी तलवार खींच निकाली, “आप जाकर नईम सईद, अबु फजह, जैश बिन अकबी और शुज्जा को अपनी फौज लेकर यहाँ आने का पैगाम दीजिए। तब तक मैं इस शहजादे को रोकता हूँ।”

मुहम्मद हारून ने स्पष्ट मना कर दिया, “नहीं, हुजूर। आपकी ये बात मैं नहीं मान सकता। इस शहजादे को मैं और अब्दुल अस्मत रोक लेंगे, तब तक आप बाकि की फौज लेकर आईये।”

“आप मकरान के बादशाह हैं, मुहम्मद हारून..।”

“और आप इस फौज के सिपहसालार हैं, हुजूर। वो शहजादा आग का गोला बनकर आ रहा है, आपकी जान की कीमत हमसे कहीं ज्यादा है।”

कासिम को संशय में देख मुहम्मद हारून ने पुनः टोका, “सोचने का वक्त नहीं है हुजूर, वो अपनी फौज के साथ यहीं आ रहा है। जल्दी कीजिये।”

अपने साथी की सलाह मान कासिम ने अपना घोड़ा मोड़कर पीछे की ओर दौड़ाया। हारून के आदेश पर सैकड़ों अरबी पैदल सैनिक लम्बी लम्बी ढाल उठाये अपने भाले आगे करते हुए जयशाह की टुकड़ी के सामने आये। अगले सात क्षणों में ही जयशाह ने अपने अश्वारोहियों के साथ उस क्षेत्र में खड़ी अरबी सेना पर भीषण आक्रमण किया। शत्रुओं की ढालों पर चढ़कर उनके भालों को किसी सुई के समान चकमा देते हुए जय के अनेकों अश्वारोहियों ने अरबियों की बनाई उस ढाल की दीवारों को बड़ी सरलता से तोड़ दिया।

तब तक मुहम्मद हारून और अब्दुल अस्मत अपने घुड़सवारों की टुकड़ी को इक्कठा करके जय की सेना से जा भिड़े। उस भीषण रक्तपात में कब अश्वों के शव गिरते और कब कितने मनुष्य उनके नीचे कुचले जाते, ये अनुमान लगाना भी कठिन हो रहा था। किन्तु शवों के बीच से अपने अश्व को नियंत्रित कर जय की दृष्टि केवल पीछे की ओर भागते मुहम्मद बिन कासिम पर थी।

आवेश में जय अपने अश्व की धुरा खींचे उसी ओर बढ़ चला। इसे एक सुअवसर जान मुहम्मद हारून ने अरब घुड़सवारों को उसे घेरने का आदेश दिया। आगे बढ़ते हुए शीघ्र ही जय को अपने घेरे जाने का भान हुआ। परिस्थियों का आँकलन कर उसने अपना अश्व मोड़कर पीछे जाने का प्रयास किया, किन्तु तब तक उसे चहुं ओर से बीसियों अरबी अश्वों ने घेर लिया। अहंकार में भरकर मुहम्मद हारून अपने घोड़े पर सवार हुआ और उसके निकट आया। चारों दिशाओं से एक साथ चार तीर चले, जय ने दो को तो तलवारों से काट दिया, किन्तु दो तीर उसके कंधे और जांघ में घुस गये।

शत्रु को थोड़ा-सा घायल कर ही मुहम्मद हारून के मुख पर विजय का उन्माद दिखने लगा। किन्तु शीघ्र ही उस घेरे को तोड़ता हुआ माविया बिन हारिस सिन्धी अश्वारोहियों की टुकड़ी के लिये युवराज को घेरे अरबियों पर टूट पड़ा। मुहम्मद हारून की सहायता के लिए और भी अधिक अरबी घुड़सवार आ गये।

जय ने अपने शरीर में धँसे दोनों तीर निकाले। पर जब उसने देखा कि कासिम उसकी पहुँच से दूर निकल चुका है, तो उसने उसी मोर्चे पर खड़े होकर युद्ध करने का निर्णय लिया। दोनों गुटों में भयंकर संघर्ष आरम्भ हुआ। माविया बिन हारिस ने अब्दुल अस्मत को पाकर सीधा उसकी छाती पर भाले से चोट कर उसे उसके अश्व से गिरा दिया। अस्मत ने खड़े होकर अपनी ढाल से उसका भाला रोकने का प्रयास किया, किन्तु हारिस के अगले प्रहार ने उसे पूर्णतः निशस्त्र कर भूमिसत कर दिया। घबराया हुआ अस्मत उस मोर्चे को छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

दिन का दूसरा प्रहर आरम्भ होने को था। जय की उस अश्वारोही टुकड़ी ने उस स्थान पर युद्ध कर रहे अरबी घुड़सवारों में भयानक आतंक मचाया। मुहम्मद हारून दो बार जय से मात खाकर पीछे हट चुका था, किन्तु जब भी जय आगे बढ़ने का प्रयास करता, वो बार-बार उसके मार्ग में आ खड़ा होता। किन्तु हारून का तीसरा प्रयास निर्णायक सिद्ध हुआ। जय के निकट आते ही हारून ने उसकी छाती की ओर तलवार भांजी। जय ने अपने शरीर को मोड़ स्वयं को बचाया और अपनी तलवार हारून के अश्व के गले में घुसाकर छोड़ दी। हारून का अश्व ज़य की विपरीत दिशा में दौड़ता हुआ लंगड़ाकर गिरने को हुआ।

जय ने एक और तलवार निकालकर वापस अपना अश्व पलटा, और लड़खड़ाये हारून की ओर बढ़ चला। इस बार हारून के निकट पहुँचते ही जय के अश्व ने अपने खुरों में धँसी मजबूत नालों से सीधा उसके मस्तक पर प्रहार कर उसका शिरस्त्राण फोड़ डाला। रक्तरंजित हुआ माथा लिए हारून भूमि पर गिरकर अचेत सा होने लगा, फिर भी किसी प्रकार स्वयं को संभाल उसने अपनी ढाल और तलवार थामी और निकट आते जय के प्रहार को रोकने का प्रयास किया। किन्तु उस क्षण हारून के प्रहार में वो शक्ति बची ही नहीं थी, अश्व पर सवार जय की तलवार उसके कंधे पर चल गयी। मकरान के बादशाह मुहम्मद हारून का शीश उसके शरीर से अलग होकर छटकता हुआ पाँच गज दूर जा गिरा।

“हर हर महादेव।” जय ने अपनी रक्तरंजित तलवार ऊँची कर उद्घोष किया।

मकरान के बादशाह को मारा गया देख रण के उस भू भाग में युद्ध करते हुए घायल अरबी घुड़सवार भागने लगे। सिन्धी अश्वारोही उल्लास में हुँकार भरते हुए एकत्र होने लगे। किन्तु उनका ये उल्लास अधिक समय तक नहीं टिका। शीघ्र ही जयशाह की दृष्टि सामने आ रही अरबियों की टुकड़ी पर पड़ी।

हजारों की संख्या में तरोताजा घुड़सवार और पैदल सैनिक एकत्र होकर उसी दल की ओर बढ़े चले आ रहे थे। मुहम्मद बिन कासिम, जैश बिन अकबी, अबु फजह, अब्दुल अस्मत और शुज्जा सब एकत्र होकर उसी ओर आ रहे थे। माविया बिन हारिस अलाफ़ी भी अपना आठ हाथ लम्बा भाला लिए जय के निकट आया और नेत्रों के संकेत से उसका साहस बढ़ाने का प्रयास किया। मुस्कुराते हुए जय ने क्षणभर को श्वास भरते हुए चढ़ते हुए सूर्य की ओर देखा। फिर बेड़ियों से जुड़ी कँटीली गदा संभालते हुए अपने अश्व की धुरा पर कसाव बढ़ाकर कासिम की ओर देखा। उस क्षण कासिम के अतिरिक्त उसे और कोई दिखाई नहीं दे रहा था, “हे रणचंडी, रक्त मेरा हो या शत्रु का। उसकी भेंट को पाकर तुम्हें गौरव की अनुभूति ही होगी।”

 अपने अश्व की धुरा खींच जयशाह माविया बिन हारिस के साथ अपनी अश्वारोही टुकड़ी लिये, स्वयं से चार गुना भी अधिक तरोताजा अरबी योद्धाओं की ओर दौड़ पड़ा।

दूर से ही अपने पुत्र की ओर उस विशाल संकट को बढ़ता देख, दाहिरसेन ने भी हाथियों के दल के साथ शेष सेना को उसी दिशा में बढ़ने का आदेश दिया। सिन्धी अश्वारोहियों और लम्बे-लम्बे भाले लिये पैदल सैनिकों की टुकड़ी सामने आ रहे अरबी ऊँट सवारों की टुकड़ी से भिड़ गयी और हाथियों को आगे जाने का मार्ग दिया।

अरबियों को क्रूरतापूर्वक कुचलते हुए हाथियों का दल निष्प्राण और तड़पते शरीरों का अंबार लगाते हुए आगे बढ़ने लगा। किन्तु शीघ्र ही सलीम बिन जैदी और नईम सईद पूरे एक सहस्त्र ऊँट सवार की टुकड़ी लिए उन डेढ़ सौ हाथियों को घेरने लगे।

कासिम की टुकड़ी से टकराते ही जयशाह ने दस हाथ लम्बी बेड़ियों से जुड़ी शूलों से भरी उस गदा को घुमाते हुए अरबियों के मस्तक फोड़ने आरम्भ किये। उसके प्रहारों से बचते हुए बार-बार अरबी घुड़सवार उसे घेरने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु विद्युत गति से किसी चक्र की भाँति घूमती उसकी गदा उन्हें हर बार पीछे हटने पर विवश कर दे रही थी।

दसियों अरबी घुड़सवारों का मस्तक फोड़ने के उपरान्त अंततः अबु फजह के धनुष से छूटे दो तीर सीधा जय के दायें कंधे में आ घुसे, जिससे उसकी गदा की गति कुछ क्षणों के लिये मंद पड़ गयी। इसे एक सुअवसर मान शुज्जा ढाल और गंडासा उठाये जय की ओर दौड़ा। किन्तु जय ने तत्काल ही उन दोनों तीरों को अपने शरीर से निकाला, और निकट आते शुज्जा पर भी गदा का भीषण वार किया। शुज्जा जैसे हब्शी के हाथ में पकड़ी वो लम्बी सी ढाल भी टूट गयी, और जय के अश्व के खुरों से बचने के दौरान वो फिसलकर भूमि पर भी गिर पड़ा। अबु फजह ने दूर से ही जय पर और तीर बरसाने का प्रयास किया। जय उसकी ओर मुड़ा और चोट खाये नाग की भांति फुंफकारा, फिर अबू फजह के तीरों से बचकर उसकी ओर बढ़ते हुए शूलगदा को चक्र की भांति घुमाते हुए सामने आये दो और अरबी घुड़सवारों के मस्तक फोड़ डाले। किन्तु तब तक अबु फजह के तीरों ने जयशाह के अश्व की आँखें ही फोड़ दीं, और दो तीर उसके गले में भी आ लगे। पीड़ा से हिनहिनाता वो अश्व दौड़ते हुए भूमि पर गिरने को हुआ, जय ने बचने के लिए छलांग लगाई और उसी दौरान गदा घुमाते हुए अबु फजह की छाती की ओर वार किया। उस भयानक वज्र समान अस्त्र की चोट खाकर वो अरबी हाकिम स्वयं को संभाल ना पाया और अपने अश्व से भूमि पर आ गिरा। 

दौड़ते हुए जय ने भूमि से तीन हाथ ऊपर छलांग लगाई और किसी अगाध वन के वनराज की भांति गुर्राते हुए अबु फजह के मस्तक पर भीषण प्रहार किया। उसका मस्तक किसी तरबूज की भांति फट पड़ा, और फूटे शिरस्त्राण और मस्तिष्क से बहता हुआ रक्त भूमि पर फ़ैल गया। उसे देख जय ने कुछ क्षण श्वास भरी, फिर अपने माथे का स्वेद पोछ वो पलटा ही था कि शुज्जा का गंडासा उसकी ओर चला। जय ने हटकर प्रहार करने का प्रयास किया, किन्त शुज्जा के गंडासे ने जय की गदा से जुड़ी बेड़ियाँ तोड़ डालीं और वो शूलों से भरी गदा सिंध के युवराज से दूर हो गयी। जय ने तत्काल ही दौड़कर भूमि पर गिरी एक तलवार उठाई और शुज्जा के भयानक प्रहारों से बचते हुए उससे युद्द करने लगा।

इधर दूर खड़े जैश बिन अकबी ने जय को पीछे से तीर मारने का प्रयास किया, तभी माविया बिन हारिस ने घुमाते हुए एक कटार चलाई और उसके धनुष की प्रत्यंचा काट डाली। इससे पूर्व जैश उस अकस्मात हुए आक्रमण से संभलकर अपनी तलवार निकालता, हारिस की तलवार ने अपना काम कर दिया। गतिमान अश्व को दौड़ाते हुए हारिस ने अपनी तलवार जैश की गर्दन में घुसाकर छोड़ दी, और आगे बढ़ गया। तड़पता हुआ जैश का शरीर भूमि पर आ गया। उसके उपरान्त अब्दुल अस्मत की ओर बढ़ते हारिस के समक्ष अपना भाला संभाले स्वयं मुहम्मद बिन कासिम आ गया।

कासिम के भाले की चोट को अपनी ढाल पर संभालते हुए हारिस अपने अश्व से गिर पड़ा। उसके उठते ही कासिम के घोड़े ने हारिस की छाती पर पुनः वार कर उसे भूमि पर गिरा दिया। कासिम ने अपना भाला हारिस की ओर बढ़ाया, लुढ़कर बचते हुए हारिस ने तलवार संभाली और कासिम के घोड़े की एक टांग काट दी। किन्तु घोड़े के संतुलन खोने से पूर्व ही कासिम कूदा और पलटकर अपना भाला सीधा मुहम्मद बिन हारिस की छाती में घुसा दिया।

मुख से रक्त उगलते हुए हारिस घुटनों के बल आ गया। कासिम ने अपना भाला उसकी छाती के और अंदर घुसाया और तब तक घुमाता रहा जब तक उसके प्रतिद्वंदी का मुख से लेकर गला उसके उगले हुए रक्त से लाल ना हो गया और वो प्राण छोड़े भूमि पर ना गिर गया।

इधर हाथी पर बैठे दाहिरसेन ने अपने धनुष पर एक के बाद एक लम्बे तीर चढ़ाये और सीधा नईम सईद की ओर छोड़ा। दो तीर सीधे उसकी ऊँट की गर्दन में घुस आये, और जैसे ही सईद का संतुलन थोड़ा बिगड़ा अगला तीर सीधे उसके कण्ठ के लौह को कवच को तोड़ते हुए प्राणघातक सिद्ध हुआ।

नईम सईद के गिरते ही अपने प्राणों पर आया संकट देख, सलीम बिन जैदी पीछे की ओर भागा। उसे भागता देख उस मोर्चे पर युद्ध कर रहे अरबी ऊँट भी भागने लगे। गर्जना करते हुए लगभग एक सौ तीस जीवित बचे हाथियों को लेकर दाहिरसेन अरबी सेना को कुचलते हुए आगे बढ़े।

दूसरी ओर जय ने अद्भुत चपलता का प्रयोग करते हुए शुज्जा के गंडासे पर वार कर उसके दो टुकड़े कर दिये । किन्तु इससे पूर्व वो कोई और प्रहार करता, अब्दुल अस्मत के चलाये तीन बाण एक के बाद एक उसकी कमर, पीठ और दायें कंधे में आ धँसे। क्षणभर को विचलित हुए जय को देख शुज्जा ने तनिक भी विलंब नहीं किया और भूमि पर गिरे एक टूटे हुए भाले का टुकड़ा उठाये, सीधा उसके उदर में घोंप दिया। मुख से रक्त उगलते हुए जय ने उस अरबी दानव शुज़्ज़ा की ओर घूरकर देखा, और उसकी छाती पर मुक्का मार उसे दो गज पीछे हटाया। पीठ के पार हो चुके उस भाले के टुकड़े को शरीर से निकालना असम्भव था। अपने मुख पर लगा रक्त पोछ जय ने पुनः अपनी तलवार संभाली और निकट आते शुज्जा की छाती पर वार किया। विद्युत गति से चली उस तलवार के प्रहार ने शुज्जा के कवच में दरार उत्पन्न करते हुए उसके शरीर पर गहरा घाव किया। भयभीत हुआ शुज्जा कुछ पग पीछे हटा किन्तु इससे पूर्व जय आगे बढ़कर उस पर कोई और प्रहार करता, अब्दुल अस्मत और अन्य अरबियों के चलाये दस और तीर उसकी पीठ में आ धँसे। उन घावों से पीड़ित हुआ सिंध का युवराज जयशाह घुटनों के बल आ गया। इस अवसर का लाभ उठाये शुज्जा उसकी ओर दौड़ा। जय ने पुनः उठने का प्रयास किया, किन्तु इस बार शुज्जा ने उसकी तलवार को थामा, उसकी छाती पर पंजा मार उसे भूमि पर पुनः गिरा दिया। बिना एक और क्षण विलंब किये, शुज्जा ने भूमि पर लेटे जय को उठाकर उसे घसीटते हुए उसका मस्तक सीधे रण के उस भाग में स्थित एक पत्थर के भारी टीले की ओर जोर से दे मारा।

शिरस्त्राण फूटते ही जय का पूरा सिर रक्तरंजित सा हो गया। शुज्जा ने उसे पीछे खींचकर घसीटा और पुनः उसका सर उस भारी टीले पर दे मारा। अपनी चेतना खो रहे जय को शुज्जा ने ऊपर उठाया और उसका बायाँ हाथ मरोड़ते हुए उसकी गर्दन पर शिकंजा कस लिया। इस बार उस हब्शी ने अपने बल का ऐसा प्रयोग किया, कि उसके दबाव से जय की गर्दन पर बंधा लौह कवच तक टूटकर उसकी अंदरूनी श्वासनली में धँसने लगा। तब तक अपने हाथी साक्या को लिये राजा दाहिरसेन भी वहाँ पहुँच आये।

शुज्जा की जकड़ में अपने पुत्र को रक्त उगलते देख दाहिरसेन भी क्षणभर को स्तब्ध रह गये। अगाध पीड़ा में भी जय बारी-बारी से साक्या और दाहिरसेन के नेत्रों में दृढ़ता से देखता रहा। किन्तु कुछ ही क्षणों में उसकी दृष्टि स्थिर हो गयी। शुज्जा ने गुर्राते हुए सिंध के उस महावीर के शरीर को भूमि पर पटक दिया और उसकी छाती पर लात रख दाहिरसेन की ओर कटाक्षमय दृष्टि से देखा।

शुज्जा की वो धृष्टता देख दाहिरसेन के नेत्रों में अंगार उतर आया, किन्तु उनसे पूर्व उनके हाथी साक्या की प्रतिक्रिया देखने को मिली। पचास गज की दूरी से चिंघाड़ता हुआ वो युद्धक हाथी शुज्जा की ओर दौड़ा। उस हाथी को क्रोध में देख शुज्जा को पिछली बार हुई अपनी दुर्दशा स्मरण हो आयी। उसने जय के शरीर से पैर हटाया, और निकट खड़े अश्व पर बैठकर भागने का प्रयास किया। किन्तु तब तक साक्या उसके निकट आ चुका था, उसकी सूंड की भयानक चोट खाकर शुज्जा भूमि पर गिर पड़ा। अभी वो उठकर संभला ही था कि बेड़ियों से जुड़ी दाहिरसेन की शूलगदा का प्रहार सीधा उसकी छाती पर हुआ जो उसके कवच को ध्वस्त कर उसे गहरा घाव दे गयी। इस बार शुज्जा को उठने का भी अवसर नहीं मिला। भय के मारे नेत्र बंद होने से पूर्व उसने बस साक्या के शूलों से भरे शीशकवच को देखा जो उसकी छाती के निकट आ चुका था। अगले ही क्षण जो विभत्स दृश्य की श्रृंखला आरम्भ हुयी वो संसार के बड़े से बड़े वीर की आत्मा को झकझोरकर उसके रोयें तक तो थर्रा देने का सामर्थ्य रखती थी। क्रोध से पागल हुआ साक्या सीधा अपना माथा लिये उसकी छाती पर चढ़ आया और उसे बुरी तरह रगड़ने लगा। उसके मस्तक पर चढ़े कवच के शूलों ने शुज्जा के कई अंगों को भेद डाला। पीड़ा से चीखते हुए हब्शी शुज्जा की भयानक दुर्दशा देख आसपास खड़े अरबियों के शस्त्र थम गये। जीवित शुज्जा को टुकड़ों में बँटते देख अरबी योद्धाओं के मानों प्राण ही सूख गए। उसका हाथ और सिर अलग होकर छटपटा रहा था, किन्तु साक्या उसके बचे हुए शरीर को तब तक रगड़ता रहा जब तक उसकी छटपटाहट पूरी तरह शांत ना हो गयी।

शुज्जा के हाथ पैर सहित कई अंदरूनी अंग भूमि पर छितरा गये, उसे देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वो किसी पर्वत के नीचे आ गया हो। शुज्जा के रक्त में नहाया साक्या साक्षात इन्द्र के ऐरावत की भाँति चिंघाड़कर पूरी अरब सेना में आतंक का पर्याय बन गया। उसके सर पर लगे शुज्जा के माँस के लोथड़ों से उस क्षेत्र में युद्ध कर रहे अरबी योद्धाओं का हृदय थर्रा गया। उस मोर्चे पर युद्ध कर रही सिंधियों की टुकड़ी पीछे की ओर जाने लगी। कासिम भी उस युद्धक हाथी के पागलपन को देख कुछ क्षणों के लिये आँखें फैलाये मौन हुआ अपने अश्व पर ही बैठा रह गया। फिर एक सौ तीस सिन्धी हाथियों ने एकत्र होकर दौड़ते हुए अरबियों को कुचलना आरम्भ किया। तीस क्षणों में ही उन पर्वत समान हाथियों ने भयभीत हुए एक सहस्त्र से अधिक अरबियों को कुचल दिया। उनमें से किसी हाथी की कोई निश्चित दिशा प्रतीत नहीं हो रही थी, सब मतवाले होकर अरबियों पर प्रहार करने लगे।

अपने योद्धाओं को इस प्रकार कीटों की भाँति गिरता देख कासिम की बुद्धि कुछ क्षणों के लिये मंद सी पड़ गयी। राजा दाहिरसेन ने महावतों को निर्देश देकर कुछ ही समय में हाथियों की दिशा को पुनः संतुलित कर आगे बढ़ने का आदेश दिया। साक्या को छोड़ बाकि हाथियों का दल आगे बढ़ गया, और इस अवसर का लाभ उठाये सेनापति स्याकर सिंधियों की एक विशाल टुकड़ी एकत्र किये उस क्षेत्र में युद्ध कर रहे घायल और हताश अरबियों पर टूट पड़ा। भय से राक्षस के आधीन हुए अरबी योद्धा एक-एक करके सिंधियों की तलवारों का ग्रास बनने लगे।

सैकड़ों अरबियों को अकेले कुचलने वाले साक्या की दृष्टि अकस्मात ही एक पत्थर के सहारे लेटे हुए जय के शव पर पड़ी। शस्त्रों से बींधा हुआ अपने बचपन के मित्र का निष्प्राण शरीर देख वो उसके निकट गया। साक्या जय के मुख पर सूंड से सहलाकर उसमें जीवन के चिन्ह ढूँढने का प्रयास करने लगा। अपने पुत्र के शव को देख दाहिरसेन के नेत्रों में भी नमी आ गयी, किन्तु स्वयं की भावनाओं को नियंत्रित कर उन्होंने साक्या की पीठ सहलाते हुए उसे सांत्वना देने का प्रयास किया।

अपने मित्र के शरीर में जीवन के सभी लक्षण समाप्त हुए देख साक्या के नेत्रों में पानी भर आया। अगले ही क्षण वो चिंघाड़ते हुए गोल-गोल घूमने लगा। अपने हाथी को अनियंत्रित होता देख कुछ क्षणों के लिये दाहिरसेन भी विचलित हो उठे। मतवाला हुआ साक्या बिना किसी निर्देश के बाईं ओर दौड़ पड़ा, कदाचित उसे स्वयं अनुमान नहीं था कि वो कहाँ जा रहा है।

उस मतवाले हाथी को ठीक अपने सामने से आते देख अकस्मात ही मुहम्मद बिन कासिम के मंद पड़े मस्तिष्क की चेतना लौट सी आयी। निकट आये साक्या से बचने के लिये वो अपने अश्व से कूदकर भूमि पर गिर पड़ा, वहीं वो मतवाला हाथी उसके घोड़े को कुचलता हुआ आगे बढ़ गया। उसे रणभूमि से बाहर की ओर जाते देख कासिम एक और अश्व लिए उस पर चढ़ा और चीखकर अपनी सेना को आदेश दिया, “कोई उस हाथी का रास्ता मत रोकना।”

साक्या अनियंत्रित हुआ बढ़ा चला जा रहा था, महावत ने बार-बार अंकुश मारकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया। इस पर वो मतवाला हाथी अपने ही महावत को सूंड से पकड़के सामने लाया और उसे कुचलते हुए आगे बढ़ गया। कोई और मार्ग ना देख दाहिरसेन ने मिट्टी के तेल की थैली और रेशम के वस्त्र निकाले और एक जलता हुआ तीर साक्या की बायीं ओर छोड़ा। साक्या ने क्षणभर को रुककर उस तीर की ओर देखा, यह देख दाहिरसेन ने एक और अग्नि की नोक वाले तीर को पीछे की ओर छोड़ा, जिसे देख साक्या वापस रणभूमि में आ सके।

किन्तु कदाचित आज साक्या के हृदय पर हावी हुआ दुख उस प्रशिक्षण को भूल सा गया था, जो सिंधियों के लिए दुर्भाग्य का संकेत लेकर आने वाला था। उन तीरों से मुँह फेरते हुए साक्या पुनः नाक की सीधे में ही दौड़ पड़ा। दाहिरसेन के अथक प्रयासों के उपरान्त भी साक्या कई कोस तक दौड़ता रहा और अंततः तट के निकट आकर सिंधु नदी के जल में प्रवेश कर गया।

नदी के जल की शीतलता ने कुछ सीमा तक साक्या के हृदय और मस्तिष्क पर चढ़ी वेदना को शांत किया। वो कुछ समय तक जल में ही बैठा रहा और सूंड से जल भरकर अपने शरीर पर फेंकता रहा। तब तक मुहम्मद बिन कासिम, सलीम बिन जैदी के साथ तीन सौ अरबी घुड़सवार नदी के निकट आ पहुँचे और सामने दाहिरसेन को घेर लिया।

अपने चहुं ओर आते मृत्यु के सूचकों को देख दाहिरसेन ने मुस्कुराते हुए दोपहर के प्रहर की समाप्ति का संकेत देते हुए सूर्य की ओर देखा, फिर साक्या का मस्तक सहलाते हुए कहा, “कोई बात नहीं, साक्या। रणभूमि में ना सही, किन्तु इस अंतिम युद्ध में मेरे साथ खड़े रहने के लिये मैं तुम्हारा आभारी हूँ।”

साक्या ने पुनः चिंघाड़ते हुए अरबी योद्धाओं की ओर देखा, जो उसके निकट जाने से अब भी घबरा रहे थे। साक्या के मस्तक पर लगा शुज्जा के माँस के लोथड़ों और रक्त का अंश अब भी उसे किसी यमदूत से कहीं अधिक भयानक प्रदर्शित कर रहा था।

इधर रणभूमि में दाहिरसेन का ध्वज दूर-दूर तक कहीं नजर ना आने पर सिंधियों की सेना में भ्रांति फैल गयी कि राजा दाहिर वीरगति को प्राप्त हो गये। स्याकर के नेतृत्व वाले मुट्ठीभर घुड़सवारों को छोड़ समस्त सिन्धी सेना में अफरा तफरी मच गयी। कई मोर्चों पर सिन्धी योद्धा रण छोड़कर पीछे हटने लगे और अरबियों के तीरों और भालों का आखेट बनने लगे। बाकि सेना को पीछे हटते देख हाकिम अब्दुल अस्मत के आदेश पर स्याकर के साथ युद्ध कर रहे लगभग सौ अश्वारोहियों को चारों दिशाओं से घेर लिया गया। उस मोर्चे पर भी युद्ध कर रहे सिन्धी अश्वारोही एक-एक करके गिरने लगे।
इधर नदी से बाहर आये दाहिरसेन के हाथी साक्या ने चिंघाड़ते हुए सामने आये दस से अधिक घुड़सवारों को सूंड के प्रहार से घायल किया और वापस रणभूमि की ओर दौड़ पड़ा। कासिम और सलीम को भी उसके सामने से हटना पड़ा।

“तीरों से छेद डालो इस हाथी को।” कासिम के आदेश पर घुड़सवार तीरंदाजों की टुकड़ी साक्या की ओर दौड़ी और पीछे से ही उसे तीरों से छलनी करने लगी। किन्तु दाहिरसेन उसे सामने की ओर ही दौड़ाते रहे।

शरीर में सैकड़ों तीर धँसे होने के उपरांत भी साक्या दौड़ता रहा, साथ में मार्ग में आये अनेकों भालों के प्रहारों ने भी उसकी सूंड सहित गले पर भी गहरे घाव किये। अंतत वो उसी चट्टान के पास लौटा जिसे सिंध का युवराज जयशाह अपनी वीरगति का स्मारक बना गया था। अपने मित्र का शव देख अंततः साक्या की शारीरिक शक्ति ने उसका साथ छोड़ना आरम्भ कर दिया।

लड़खड़ाते हुए साक्या की पीठ पर बैठे सिंधुराज दाहिरसेन ने चहुँ ओर दृष्टि घुमाकर देखा, शवों से पटी रणभूमि के उस भाग में अब कोई किसी पर प्रहार नहीं कर रहा था। सिंधियों की सेना पराजित होकर पीछे हट चुकी थी। चारों दिशाओं से आ रहे अरबी योद्धों ने राय दाहिर को घेरना आरम्भ कर दिया था। अकेले खड़े दाहिरसेन ने निराशा में भरकर अपना सबसे लम्बा भाला लिया और उस पर काले रंग का ध्वज बांधकर आकाश में लहराया।

आलोर के किले की द्वार की छत पर खड़े वेदान्त ने दूरबीन से उस ध्वज को देखा। पराजय के उस स्पष्ट संकेत का अर्थ समझ वेदान्त का गला भर आया। वो दौड़ता हुआ किले की छत से नीचे गया।

इधर दाहिरसेन का हाथी साक्या अंततः भूमि पर बैठ गया। उसका माथा सहलाते हुए दाहिरसेन ने सामने की ओर देखा तो अब्दुल अस्मत को एक पैदल अरबी सेना के साथ स्वयं के निकट आता पाया। पीछे की ओर पलटने पर कासिम और सलीम बिन जैदी को भी एक टुकड़ी के साथ निकट आते देखा। साक्या के मस्तक पर हाथ फेरते हुए दाहिरसेन ने अपनी दाढ़ी सहलाई और मूंछों पर ताव देते हुए मुहम्मद बिन कासिम की ओर देखा। तत्पश्चात उन्होंने अपने सबसे प्रमुख शस्त्र अर्थात बेड़ियों से जुड़ी दो शूलगदाओं को दोनों हाथों में उठाया और साक्या की पीठ से उतरकर पलटते हुए निकट आ चुके अब्दुल अस्मत की टुकड़ी पर प्रहार किया।

वहीं भूमि पर बैठे साक्या ने कासिम और सलीम को राजा दाहिर की ओर बढ़ते देखा। उस मृत समान घायल युद्धक हाथी ने अपनी शक्ति जुटाई, और चिंघाड़ते हुए उठकर शत्रु सेना की ओर दौड़ पड़ा।

“या खुदा, ये किस नस्ल का शैतान है ?” साक्या को वापस उठते देख कासिम अवाक रह गया।

“उस युद्धवीर गज ने कुछ ही क्षणों में पांच और अरबी घुड़सवारों के प्राण ले लिये वहीं सलीम बिन जैदी ने अपना आठ हाथ लंबा उठाकर उस गज के कंठ पर लक्ष्य साधा। साक्या ने अद्भुत चपलता का प्रयोग कर उस भाले को सूंड में पकड़कर वापस उस अरबी हाकिम की ओर फेंका जिसकी चोट खाकर जैदी अपने अश्व से गिर पड़ा। उसे कुचलने के उद्देश्य से साक्या उसकी ओर दौड़ा। किन्तु सिंध के होने वाले शासक की रक्षा को प्रतिबद्ध मुहम्मद बिन कासिम ने अपना अश्व दौड़ाया और छलांग लगाकर अपना भाला साक्या की गर्दन में घुसाते हुए वो उस हाथी के नीचे दौड़ गया। पीड़ा से चिंघाड़ते हुए साक्या ने कासिम को सूंड मारकर भूमिसत कर दिया। अगले ही क्षण सैकड़ों अरबी तीर साक्या को गिराने के उद्देश्य से उस पर बरस पड़े। 

कासिम को घूरते हुए साक्या के पाँव काँपने लगे मानों अब विश्राम को इच्छुक हों, पर उसके नेत्रों की ज्वाला अब भी उस अरबी सिपहसलार के रक्त की प्यासी दिख रही थी। पर एक और प्रहार उसे भूमि पर गिराने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ। सलीम बिन जैदी ने अपना भाला उसके दायें कान के ठीक नीचे घुसा दिया। शरीर से रक्त के झरने बहाता हुआ वो युद्धवीर अपनी शक्ति खोकर भूमि पर गिर पड़ा।

वहीं अस्मत पीछे हटकर किसी प्रकार राजा दाहिर के प्रहार से बचा। कासिम के निकट आते आते दाहिरसेन ने उन गदाओं को चक्र की भांति घुमाते हुए लगभग पन्द्रह अरबियों के मस्तक फोड़ डाले।

“छेद डालों इसे तीरों से।” निकट आते ही कासिम ने अपने तीरंदाजों को आदेश दिया।

शेष अरबी सैनिक पीछे हटे और अनेकों तीरंदाजों ने दाहिरसेन पर प्रहार किया। कई तीर शूलगदा से टकराकर टूटे, और अनेकों तीर सिंधुराज के कवच को तोड़ते हुए उनके शरीर को छेद गये।

मुहम्मद बिन कासिम ने अपने तीरंदाजों को रुकने का संकेत दिया। किन्तु तब तक हाथों, जाँघों और छाती में घुसे तीरों ने अंततः दाहिरसेन को उनके घुटनों पर ला दिया। दोनों शूलगदायें हाथ से छूट गयीं। कासिम ने श्वास भरते हुए अपना शिरस्त्राण उतारा और भाला संभाले दाहिरसेन के निकट आने लगा। दाहिरसेन ने भूमि पर गिरे साक्या की ओर देखा, अपनी अंतिम श्वास भरते हुए वो युद्धक हाथी कदाचित अंत समय में दाहिरसेन की दशा देखते हुए ग्लानि के अश्रु बहा रहा था। तीरों से भरा अपना हाथ लिए दाहिरसेन घिसटते हुए उसके निकट गये और अपने रक्तरंजित हाथ से उसके माथे को सहलाते हुए बोले, “ये बस दुर्भाग्य था, साक्या। ह्रदय पर कोई बोझ मत रखना।”

इतने में मुहम्मद बिन कासिम राजा दाहिर के निकट आया और पूरे बल से अपना भाला सिंधुराज की छाती में गाड़ दिया, “तुम और तुम्हारा खून आने वाली नस्लों को बहादुरी की मिसाल देता रहेगा, राय दाहिरसेन। पर मैंने भी सुल्तान और खलीफा को जबान दी है कि तुम्हारा सर उन्हें तोहफे में देखकर रहूँगा। तो अब पीछे हटने का सवाल ही पैदा नहीं होता।”

मुस्कुराते हुए दाहिरसेन ने पत्थर के निकट लेटे अपने पुत्र वीर जयशाह के शव की ओर देखा। अपने मुखमंडल पर गर्व का भाव लिए दाहिरसेन कासिम की और मुड़े ही थे कि उस अरबी सेनापति की तलवार चल गयी। कदाचित वो गर्व से भरी आँखें देखना भी कासिम को गँवारा नहीं था। सिन्धुदेश की भूमि का गौरव रहे वीर राय दाहिरसेन का मस्तक उनके पार्थिव शरीर से अलग होकर सिन्धु नदी के उस तट को सदा सदा के लिए अपने रक्तरंजित संघर्ष का साक्षी बन गया।

मुहम्मद बिन कासिम ने राहत की सांस भरते हुए ढलते हुए सूर्य की ओर देखा और अब्दुल अस्मत को अपने निकट बुलाकर आदेश दिया, “हमारे पास अब भी तीन मंजनीकें हैं। आलोर के रावड़ किले को चार अलग अलग ओर से घेरो। तीन जगह मंजनीकें लगाओ और चौथी जगह हमारी फ़ौज की तादाद ज्यादा होनी चाहिए। सिंध की वो शहजादियाँ हमारे हाथों से निकलनी नहीं चाहिए।”

“जी हुजुर।” अस्मत सारी व्यवस्था करने के लिये वहाँ से प्रस्थान कर गया।

पूरे दिन के युद्ध की थकावट से भरा कासिम कुछ क्षण विश्राम के लिए एक टीले पर बैठा। उसकी दृष्टि साक्या पर पड़ी। उस हाथी के शरीर से बहता हुआ अधिकतम रक्त भूमि पर फैला हुआ था, पर प्राण अब भी नहीं छूटे थे। सूंड हिलाता हुआ वो अब भी आँसू बहाते हुए राय दाहिर और जय के पार्थिव शरीरों की ओर ही देख रहा था। अपने राजा के प्रति उसकी निष्ठा को देख कासिम भी अचंभित सा रह गया और धीरे धीरे सूर्यास्त के साथ साक्या के शरीर से उसके प्राण छूटने तक उस पर अपनी दृष्टि बनाये रहा।

******

“तो भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुयी?” अपने नेत्रों से बहने वाले अश्रुओं को नियंत्रित कर महारानी मैनाबाई ने अपना मन कठोर कर प्रश्न किया।

वेदान्त ने सहमति में सिर हिलाया, “हमें निकलना होगा, माताश्री।” कहते हुए उसका भी गला भर आया, “शत्रुओं ने हमें घेरना आरम्भ कर दिया है।”

अगले ही क्षण एक उड़ता हुआ अग्निगोलक सीधे आलोर के रावड़ किले के मुख्य द्वार से टकराया। उस भयानक विस्फोट का स्वर सुन महल में उपस्थित सभी सिन्धी वीर सतर्क हो गये।

परिस्थितियों को अपने हाथ से निकलता देख महारानी मैनाबाई ने वेदान्त को देख कहा, “किले का द्वार दो प्रहर से अधिक समय तक नहीं टिक पायेगा। इसलिए ध्यान से सुनो वेदान्त, तुम्हारा सबसे बड़ा कर्तव्य है कमल को कालभोज तक पहुँचाना।”

“ये आप क्या कह रही हैं, माताश्री ?” कमल आपत्ति जताते हुए आगे आयी, “एक मेरी सुरक्षा समस्त परिवार की सुरक्षा से बढ़कर कैसे हो गयी?”

“समझने का प्रयास करो पुत्री, हरित ऋषि का वो शिष्य ही हमारी अंतिम आशा है। हमें विश्वास है यदि तुम उसके साथ रही तो वो सिंधियों की स्वतंत्रता के लिये युद्ध करने अवश्य आयेगा।”

“यदि वो न्याय के उपासक होंगे तो भी सिंधियों की स्वतंत्रता के लिए संग्राम अवश्य छेड़ेंगे, चाहें फिर मैं उनके साथ रहूँ या ना रहूँ।” कमल मैनाबाई के निकट आयी और उनका हाथ थाम उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, “विश्वास रखिए, माताश्री। मैंने उनके चरित्र को परखा है, वो अवश्य आयेंगे। किन्तु उसके लिए समस्त परिवार के ऊपर मुझे प्राथमिकता देने की आवश्यकता नहीं है।”

कमल के तर्क के आगे मैनाबाई को मौन देख वेदान्त ने आगे बढ़कर कहा, “आवश्यकता है, राजकुमारी कमलदेवी। और केवल तुम्हें ही नहीं हमारी तीनों बहनों को समस्त परिवार के आगे प्राथमिकता दी जायेगी। वो कासिम इन्हीं तीनों को पाना चाहता है, और हम ऐसा होने नहीं दे सकते।” वेदान्त मैनाबाई की ओर मुड़ा, “पश्चिमी द्वार पर एक मंजनीक के साथ लगभग दो हजार की अरबी टुकड़ी है, माताश्री और उनमें से अधिकतर मँजनीकों के संचालन में ही व्यस्त रहेगी। हमारे पास अब भी एक सहस्त्र योद्धा हैं। रात्रि के इस अंधकार का लाभ उठाकर हम उस दल को पराजित करके निकल सकते हैं। आप बस आदेश दीजिए। हम समस्त परिवारों को साथ लेकर यहाँ से निकल जायेंगे।”

मैनाबाई ने मुस्कुराते हुए अपने पुत्र के मस्तक पर हाथ फेरा, “किले में हजारों स्त्रियाँ है, पुत्र। उस द्वार से हम सबको लेकर नहीं निकल सकते। और मैं उन स्त्रियों को यहाँ छोड़कर 'तुम चारों के साथ नहीं आ सकती।” 

“ये..ये आप क्या कह रही हैं, माता?” प्रीमल ने आगे बढ़कर मैनाबाई से आश्चर्यभाव से प्रश्न किया। बाकि तीनों भी स्तब्ध रह गये।

महारानी लाडी ने अपनी उस पुत्री के कंधे पर हाथ रख उसे समझाने का प्रयास किया, “हमने अपना जीवन जी लिया, पुत्री। अब तुम लोगों को अपने अस्तित्व के लिये लड़ना होगा। इसलिये तुम चारों सेना लेकर जाओ और उन अरबियों को चकमा देकर यहाँ से निकल जाओ।”

“ये सम्भव नहीं है, माताश्री।” वेदान्त पुनः मैनाबाई की ओर मुड़ा और उनके नेत्रों में देखते हुए व्यग्र सा हो गया, “ऐसा कोई निर्णय मत लीजिए, माताश्री। आपको यहाँ छोड़कर..।”

“अभी तुमने ही कहा था कि हमारे आगे तुम अपनी तीनों बहनों को प्राथमिकता दोगे। तो अपने वचन पर कायम रहो, राजकुमार। यदि मैंने बाकि स्त्रियों को यहाँ छोड़ दिया, तो मेरा महारानी होने का क्या अर्थ है? मैं ये कलंक स्वयं पर नहीं लगा सकती।” महारानी मैनाबाई ने पुनः वेदान्त का कंधा झटकारते हुए कहा, “जाओ पुत्र, मेरा आदेश अब भी वही है। यदि सम्भव हो तो कमल को कालभोज तक पहुँचाओ।”

“किन्तु आप बिना सैनिकों के अपना रक्षण कैसे करेंगी?” वेदान्त अब भी विचलित था।

“किसका रक्षण, कैसा रक्षण?” महारानी मैनाबाई के मुख पर मुस्कान खिल गयी, “दो सौ योद्धा यहाँ रहकर उन आक्रान्ताओं के प्रवेश को रोके रखेंगे।” इतना कहकर वो महारानी लाडी की ओर मुड़ीं, “जौहर कुण्ड तैयार है, लाडी?”

“निसन्देह। किले में उपस्थित समस्त स्त्रियाँ सहमत हैं।” महारानी लाडी ने भी दृढ़तापूर्वक कहा।

“जौहर कुंड?” वेदान्त अवाक सा रह गया।

“तो तुम्हें क्या लगा, हम स्वयं को उन विदेशी आक्रान्ताओं को समर्पित कर देंगे?” मैनाबाई ने अश्रु बहाते अपने पुत्र के गाल पर हाथ फेरते हुए कहा, “अब तुम्हीं हमारी अंतिम आशा हो, पुत्र। मुझे तो अब महाराज को समर्पित होना है, किन्तु तुम्हारा कर्तव्य रक्षण का है।”

श्वास भरते हुए वेदान्त ने क्षणभर अपनी माता की ओर देखा और उनके हृदय से जा लगा। तभी अरबियों की मंजनीक से छूटा एक और गोला महल के पश्चिमी द्वार की ओर लगा। एक और विस्फोट का स्वर सुन सिंध का राजपरिवार सतर्क हो गया।

तीनों राजकुमारियों ने भी अपनी-अपनी माताओं को गले लगाया और अंत में जाते समय मैनाबाई ने दृढ़ होकर वेदान्त से कहा, “चाहें कुछ भी हो जाये। तुममें से कोई पीछे मुड़कर मत देखना।”

भारी मन से सहमति जताते हुए वो चारों दक्षिण के द्वार की ओर चल पड़े। उनके जाने के उपरान्त महारानी मैनाबाई रानी लाडी के निकट आयी, “सारी नारियों को एकत्र कीजिये।”

******

इधर द्वार की ओर बढ़ने के लिए प्रीमल और सूर्य ने सेना को एकत्र किया। आठ सौ घोड़ों पे सवार योद्धा दक्षिणी छोर के तीस गज ऊँचे द्वार की ओर देख रहे थे। उनमें से चार सौ के हाथों में जलती हुयी मशालें और तलवारें थी और बाकियों के दोनों हाथ शस्त्रों से लैस थे। वेदान्त के साथ कमल भी योद्धाओं की वेशभूषा अर्थात कवच, शिरस्त्राण और शस्त्र धारण किये अश्व पर सवार हुयी आयी।

प्रीमल और सूर्य को थोड़ा आश्चर्य हुआ। किन्तु वेदान्त ने उनका संशय मिटाने के लिये कहा, “ऐसा इसलिए ताकि वो अरब कमल को दुर्बल समझकर सीधा उसकी ओर ना आयें।”

“हम्म, योजना तो उत्तम है।” संकट समय में भी मुस्कुराते हुए प्रीमल ने आँखों ही आँखों में सूर्य को संकेत किया। दोनों बहने अपना अश्व लिए वेदान्त की ओर आयीं।

“तुम दोनों कुछ कहना चाहती हो?”वेदांत ने अनुमान लगाने का प्रयास किया।

इस पर सूर्य ने कहा, “हाँ, भ्राताश्री। आपने कहा था कि आपकी प्राथमिकता हम तीनों बहनों की सुरक्षा है। किन्तु हम अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकते हैं। इसलिए हमारी ये इच्छा है कि आप अपने पूर्ण सामर्थ्य का उपयोग कर कमल दीदी की रक्षा करें।”

“तुम दोनों आखिर कहना क्या चाह रही हो?” कमल का मन भी शंकित हो उठा।

इस पर प्रीमल ने सूर्य का समर्थन करते हुए कहा, “यही कि ये सिंध हमारी मातृभूमि है। यदि कोई विषम परिस्थिति उत्पन्न हुई और हम तीनों साथ भागने में सफल नहीं हो पाए, तो हम दोनों बहने इस नगर के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं। हम कभी भी रण छोड़कर पूरे नगर में कहीं भी जाकर छिप सकते हैं और वो कासिम अपना पूरा जोर लगाकर भी हमें ढूँढ नहीं पायेगा। किन्तु उसके लिए हमारा आश्वस्त होना आवश्यक है कि आप भ्राता वेदान्त के साथ सुरक्षित हैं।”

वेदान्त और कमल ने क्षणभर को संशय में भरकर एक दूसरे को देखा। फिर परिस्थितियों का आंकलन कर वेदान्त ने सहमति जताते हुए कहा “एक-दूसरे का कवच बनकर रहना, और ऐसी कोई स्थिति उत्पन्न हुयी तो दूर से ही नीले रंग का ध्वज लहरा देना।”

सूर्य और प्रीमल ने मुस्कुराते हुए सहमति जताई। तभी दक्षिण द्वार पर एक और मंजनीक से चला हुआ अग्नि गोलक उस द्वार से टकराया। रात्रि के अंधकार में उस विस्फोट ने द्वार पर एक ओर दरार डालते हुए वहाँ खड़े सिन्धी योद्धाओं का हृदय और दृढ़ कर दिया।

“अगला गोला चलाने में उनमें कम से कम तीन सौ क्षण लगेंगे।” हाथ में मशाल धारण किये वेदान्त अपने साथ खड़ी कमल की ओर मुड़ा, “चाहें कुछ हो जाये, मेरे साथ रहना। हमारे चारों ओर दस योद्धा घेरा बनाकर रहेंगे।”

कमल ने नेत्रों के संकेत से सहमति जताई। वेदान्त ने गर्जना करते हुए आदेश दिया “खोल दो द्वार।”

दो सैनिकों ने मिलकर उस विशालद्वार को खोला और सिंधियों की वो अंतिम टुकड़ी शत्रु का दंभ नष्ट करने चल पडी। इतने सारे अश्वारोहियों को अपनी ओर आता देख तलवार और भाले लिये सैकड़ों अरब योद्धा सतर्क होकर उनका सामना करने को सज हुए। किन्तु सिंध की उस आखिरी टुकड़ी के गतिमान अश्वों में वो आंधी थी जो पतझड़ की भाँति उन अरबियों को उड़ाती गयी, उन्हें ऐसे प्रतिरोध की आशा जो नहीं थी।

अश्वों की नालों के प्रहार से शिरस्त्राण और मस्तक फूटने लगे। अरबियों के मुंड रुंड से अलग होकर सिंधियों के हृदय में धधक रही प्रतिशोध की अग्नि के साक्षी बनने लगे। अरबी सेना को कुचलते हुए उस सिन्धी अश्वारोही टुकड़ी ने कई मशालों के प्रयोग से वहाँ स्थापित हुए मंजनीक सहित मिट्टी के तेल में सने दो गोलों को भी अग्नि के सुपुर्द कर दिया।

मंजनीकों के जलने के साथ-साथ रावड़ के किले से भी एक धुआँ उठा। अकस्मात ही सिंध के महल के जौहरकुंड से उठती हुई कई गज ऊँची लपटों ने वेदान्त और उसकी बहनों का ध्यान खींच लिया।

स्त्रियों की चीख पुकारों ने उन चारों को क्षणभर के लिए स्थिर सा कर दिया। स्वयं पर अपना नियंत्रण खोकर सूर्यदेवी ने अपने अश्व की धुरा खींची और वापस महल की ओर बढ़ चली। उसे रोकने के लिये प्रीमल ने भी अपना अश्व उसकी ओर दौड़ाया।

भावनाओं में अनियंत्रित हुई सूर्यदेवी किले की ओर बढ़ती चली गयी। प्रीमल ने उसके निकट आकर अपने अश्व से छलांग लगाई, और उसे रोकने के लिये उसके अश्व पर कूदकर उसे लुढ़काते हुए भूमि पर ले आयी। हाथों और कंधों पर घाव लिये प्रीमल ने सूर्य को फटकारते हुए कहा, “पागल हो गयी हो? तुम्हारे कारण हमारा पूरा कारवां संकट में पड़ सकता है।”

चेहरे पर सनी मिट्टी के कारण सूर्य के नेत्रों से निकले अश्रु उसके गालों तक पहुँचने में ही सूखे जा रहे थे। भूमि पर बैठे हुए ही हाथों से महल की ओर संकेत करते हुए वो चीख पड़ी, “माता..।”

भावुक होकर प्रीमल ने भी उसे अपने हृदय से लगा लिया। महल के जौहरकुंड से उठती हुई लपटों को देख और चीखों को सुन उसका हृदय भी छलनी हुआ जा रहा था।

किन्तु दुर्भाग्य कदाचित आज पूरी तरह से सिंध को घेरने को आतुर था। सूर्य को संभालकर उठाते हुए प्रीमल की दृष्टि बायीं ओर से आ रही अरबियों की एक विशाल टुकड़ी पर पड़ी, जिनका नेतृत्व अब्दुल अस्मत कर रहा था।

सूर्यदेवी को मानों अकस्मात ही होश सा आ गया, “ये मुझसे क्या हो गया ?”

“कोई बात नहीं, सूर्य। ये लोग अब भी हमें नहीं पकड़ पायेंगे।” प्रीमल दौड़ते हुए अपने अश्व पर आरूढ़ हुई, जिसका अनुसरण सूर्यदेवी ने भी किया।

वेदान्त ने भी अस्मत की निकट आती सेना को देख प्रीमल और सूर्य को ढूँढने का प्रयास किया। तभी अग्नि की लपटों के प्रकाश में प्रीमल का लहराता हुआ नीले रंग का ध्वज देख वेदान्त को उसका संकेत समझते देर नहीं लगी। उसने अपने साथ खड़ी कमल के निकट आकर कहा, “चलने का समय हो गया, कमल।”

“किन्तु प्रीमल और सूर्य.. ?” कमल ने इधर-उधर दृष्टि घुमाते हुए उन्हें ढूँढने का प्रयास किया।

वेदान्त ने लहराते हुए नीले ध्वज की ओर संकेत करते हुए कहा, “वो दोनों अपना मार्ग ढूँढ लेंगी। अगर उन्हें सुरक्षित देखना चाहती हो, तो मेरे साथ चलो।”

सिन्धी अश्वारोहियों की टुकड़ी ने दुर्ग बनाया। वहीं एक-दूसरे को संकेत कर वेदान्त और कमल एक ओर और सूर्यदेवी और प्रीमल दूसरी ओर भागे।

दूर से ही दोनों को दो दिशा में भागते देख अस्मत ने अपनी सैन्य टुकड़ी लेकर सिन्धी अश्वारोहियों पर भीषण आक्रमण किया। अवसर पाते ही उसने बीस घुड़सवारों को प्रीमल और सूर्य की ओर भेजा, वहीं वो स्वयं बीस और घुड़सवारों के साथ वन की ओर जाते हुए वेदान्त और कमल के पीछे दौड़ा।

लगातार बीसियों अरबी घुड़सवारों को अपने पीछे आते देख वेदान्त और कमल अपना अश्व दौड़ाते रहे। अकस्मात ही कमल के अश्व के सामने एक भयंकर विषधर आ गया।
कमल का घोड़ा बिदक गया और वो अपने अश्व से नीचे गिर गयी। उठते हुए उसने अरबी घुड़सवारों को अपने निकट आते देखा। अपना शिरस्त्राण ठीक कर कमल ने अपनी चेतना संभालने का प्रयास किया। शत्रुओं को निकट आते देख जो तलवार कभी जीवन में ना चलाई उसे म्यान से निकालकर राजकुमारी कमलदेवी अपने नेत्रों में अदम्य साहस लिये उन अरबी योद्धाओं की प्रतीक्षा करने लगी।

किन्तु वो अरबी घुड़सवार कमल के निकट आते इससे पूर्व ही अनेकों वृक्षों से उन अरबियों पर कई बाण बरस पड़े। वेदान्त कमल के अश्व को नियंत्रित कर उसके पास लाया, “शीघ्र करो, तुम्हारा अश्व अब नियंत्रण में है।”

उस अश्व पर चढ़ते हुए कमल ने प्रश्न किया, “क्या ये लोग..?”

“हमारे विशेष गुप्तचर दल के योद्धा हैं। ये अरबी उन्हें वृक्षों के मध्य नहीं ढूंढ पायेंगे, और ना ही ये लोग यहाँ से उन्हें आगे बढ़ने देंगे।” वेदान्त ने अपना अश्व आगे बढ़ाया। कमल भी उसके साथ चल पड़ी।

******

सूर्योदय होते होते वेदान्त और कमल अस्मत की फौज से बहुत दूर आ चुके थे। अपना अश्व रोक दोनों एक छोटे से तालाब के पास रुके।

अपने अश्व की पीठ सहलाते हुए वेदान्त ने कहा, “हमारे अश्व थक चुके हैं, थोड़े समय का विश्राम और घास इन्हें राहत देगा।”

कमल भी सहमति जताते हुए अश्व से उतरी। दोनों भाई बहनों ने भी जल से स्वयं को स्वच्छ किया। तभी अकस्मात ही अनेकों अश्वों के टापों का स्वर सुनाई दिया। वेदान्त ने पलटकर देखा, तीन दिशाओं से सैकड़ों अरबी घुड़सवार उनकी ओर बढ़े चले जा रहे थे। मुहम्मद बिन कासिम स्वयं उस दल का नेतृत्व कर रहा था। उस टुकड़ी को देख कमल के नेत्र आश्चर्य से फैल गये, “ये कैसे सम्भव है ? इन्हें कैसे ज्ञात हुआ कि हम मेवाड़ के मार्ग पर हैं?” 

“सम्भवतः किसी और ने भी द्रोह कर दिया।” वेदान्त ने अश्व की पीठ से अपनी दो तलवारें उठाकर अपनी पीठ पर बांधी, “तालाब में कूदो कमल, शीघ्र करो।”

कमल ने बिना कोई और विचार किये सीधे तालाब में छलांग लगा दी। वेदान्त भी उस तीन हाथ गहरी तालाब में छलांग लगाकर तैरकर दूसरी ओर जाने लगा।

“इन्हें लगता है इस छोटे से तालाब को पार करके ये बच जायेंगे। उस पार से भी घेरो उन्हें। ये लोग हमारी नजर से दूर नहीं होने चाहिए।” आदेश देकर कासिम स्वयं अपने अश्व से उतरा और उनका पीछा करने तालाब में कूदा। उसके सैकड़ों योद्धाओं ने भी उसका अनुसरण किया।

तैरकर तालाब पार करते हुए वेदान्त और कमल शीघ्र ही निकट के तट पर पहुँचे और दोनों दाईं ओर भागे, किन्तु कुछ दूरी पर जाकर उस ओर से भी दसियों अरबी योद्धा आते दिखाई दिये। पलटकर दोनों ने बायीं ओर भागने का प्रयास किया, किन्तु कासिम ने उस ओर से भी अपने कुछ योद्धाओं को भेज रखा था। मुट्ठियाँ भींचते हुए वेदान्त ने कमल का हाथ पकड़ा और सामने की ओर दौड़ा।

कुछ समय तक बिना सोचे लगातार झाड़ियों के बीच से दौड़ने के उपरान्त वो दोनों एक ऊँचे टीले की चोटी पर पहुँचे। नीचे बहते हुए झरने के आगे अब भागने का और कोई मार्ग नहीं था। दोनों ने एक-दूसरे को हताशा भरी दृष्टि से देखा, फिर पीछे पलटे। तीनों दिशाओं से तीन तीन सौ गज की दूरी से सैकड़ों अरबी योद्धा अपनी तलवारों से झाड़ियाँ काटते हुए उन्हीं की ओर चले आ रहे थे। वेदान्त ने मुठ्ठियाँ भींचते हुए उन्हें घूरा, फिर अपनी पीठ पर टँगी दोनों तलवारें निकालीं और उन पर कसाव बढ़ाते हुए शत्रु की प्रतीक्षा करने लगा। 

कमल ने उसका हाथ थामते हुए कहा, “आप चले जाईये, भ्राताश्री। ये आत्महत्या का मार्ग है।”

वेदान्त ने मुस्कुराते हुए अपनी बहन की ओर देखा, “तुम्हें लगता है मैं अपनी बहन को इन हैवानों के मध्य अकेला छोड़कर चला जाऊँगा?”

“यदि आप लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त भी हो गये, तो क्या मेरा रक्षण हो जायेगा?”

अपने उस तर्क के आगे वेदान्त को मौन देख कमलदेवी अपने भाई के निकट आयी और उसका हाथ थामते हुए उसे आश्वस्त करने का प्रयास किया, “मैं जानती हूँ, आप अपने गुप्तचर दल के योद्धाओं की भाँति वृक्षों से होकर यहाँ से भाग सकते हैं। बालपन में कई बार मैंने आपको इसका अभ्यास करते देखा है।”

“एक भाई के कर्तव्य से विमुख होकर जाना मेरे लिये सम्भव नहीं है, कमल। मुझे विवश मत करो।”

“जाना तो आपको होगा ही, भ्राता श्री।” नेत्रों में धधकती हुयी अग्नि लिये कमल ने अपने कदम पीछे की ओर बढ़ाये, “वीरवर कालभोज से कहियेगा कि मेरे अस्तित्व पर केवल और केवल उन्हीं का अधिकार था, है और रहेगा।”

कमल को चोटी के किनारे जाते देख वेदान्त के नेत्र होने वाले अनिष्ट की आशंका से फैल से गये, “ये क्या कर रही हो, कमल?” अपनी बहन की मंशा जान, वो तीव्रगति से उसकी ओर दौड़ पड़ा।

“उन्हें पूरे युद्ध का वृतांत सुनाईयेगा, भ्राताश्री। वो इन अरबी शैतानों का विध्वंस करने अवश्य आयेंगे।” कहते हुए कमल ने अपनी बाहें फैलाते हुए सूर्य नारायण की ओर देखते हुए शिव शंभू को स्मरण किया, “हर हर महादेव।” फिर स्वयं को ढीला छोड़ बाकि का कार्य किनारे की चट्टानों से टूटते हुए पत्थरों पर छोड़ दिया, जो उसे नीचे ले गए।

दौड़ता हुआ वेदान्त भी उस किनारे पर आया। अकस्मात ही पत्थर से टकराते हुए उसका पाँव फिसला, उसके हाथ में थमी तलवारें भी छूट गयीं, सर भी एक पत्थर से टकराया और उसका शिरस्त्राण भी निकल कर खाई के नीचे गिर गया। कमर के सहारे किनारे पर लटकते वेदान्त ने अपनी बहन को मृत्यु की जलधारा की ओर जाते हुए देखा।

जलदेवी का ग्रास बनते हुए कमल के मुख पर छाई सौम्यता देख वेदान्त की मन की वेदना उस क्षण को विलुप्त सी हो गयी। वो लेश मात्र भी भय से नहीं चीखी। वेदान्त के लिये माथे से बहते हुए रक्त की पीड़ा से अधिक मूल्यवान वो सुख था, जो उस धारा का ग्रास बनती हुयी कमल के मुख पर छाये संतोष को देख उसे मिल रहा था।

बहती धारा में समाकर कमल ने सूर्य से निकलती पारदर्शी किरणों को जल के भीतर आते देखा। उस अंतिम ममतामयी किरण का स्पर्श पाकर उसके मुख पर मुस्कान खिल गयी। निकट आती हुई धाराओं की गति का आभास कर कमल ने अपने नेत्र मूँदे तथा स्वयं के अस्तित्व को उस धारा को समर्पित कर दिया, जो उसे बहाते उसके प्रारब्ध की ओर ले गयी।

अपनी बहन को सुखपूर्वक मृत्यु का आलिंगन किये देख, अपने माथे का रक्त पोछने का प्रयास करते हुए वेदान्त उठकर पलटा। मुहम्मद बिन कासिम अपनी टुकड़ी के साथ उसके निकट आ चुका था।

अपने अश्व से उतरकर कासिम ने वेदान्त के निकट आकर उसकी छाती पर जोर से लात मारी। निशस्त्र वेदान्त भूमि पर गिर पड़ा। किन्तु पीड़ा से भरी चीख के स्थान पर उसके मुख पर केवल मुस्कान थी। झल्लाते हुए कासिम ने वेदान्त का जबड़ा पकड़ उसे ऊपर उठाया, “एक बहन मरी है तेरी। पर बाकि दो बहुत जल्द पकड़ी जायेंगी।”

उसके उपरान्त भी उसे मुस्कुराता देख कासिम ने उसे पीछे धकेला, “तुम सिंधियों के शाही खानदान का जज्बा तो वाकई कमाल का है पर अफसोस की बात है कि तुम अपने लोगों में वफादारी नहीं भर पाये। तुम्हारे सिपहसालार स्याकर और उसके बेटे को कैद कर बस थोड़ा जोर लगाया, और अपने बेटे को बचाने के लिये स्याकर ने हमसे समझौता कर लिया। और हमें पता चल गया कि तुम अपनी बहन को लेकर कहाँ जा रहे थे। तो मुझे तो नहीं लगता कि तुम लोगों के पास फक्र करने जैसा कुछ बचा है, जो तुम मुस्कुरा रहे हो।”

“विजय के उपरान्त भी इतना कटाक्ष करते हुए भी तुम्हारी ये झल्लाहट..।” वेदान्त ने अपने कदम पीछे हटाते हुए अपनी पतली मूँछों पर ताव दिया, “इतना पर्याप्त है स्वयं पर गर्व करने के लिये।”

कासिम की मुट्ठियाँ क्रोध से भिंच गईं, “तुम्हें बहुत बुरी मौत मिलेगी, शहजादे।” उसने अपने साथ खड़े अरबी योद्धाओं को आदेश दिया, “घेरकर कैद कर लो इसे।”

किन्तु कासिम को वेदान्त की विशेष विद्या का तनिक भी अनुमान नहीं था। अगले ही क्षण वो पीछे की ओर दौड़ गया, अरबी योद्धाओं ने उसका पीछा किया। दौड़ते हुए वेदान्त खाई की ओर देखता रहा, जैसे ही उसे पर्वतों के मार्ग से जुड़ी एक वृक्ष की डाली दिखी, वो सीधा नीचे कूद गया। यह देख कासिम भी उसी ओर दौड़ा और वहाँ पहुँचकर उसने खाई के नीचे देखा।

गिरते हुए मध्य मार्ग में ही वेदान्त ने वृक्ष की एक डाली को थाम लिया था, और अब भी उससे लटका हुआ था। उस डाली से लटकते हुए कूदकर वेदान्त थोड़ा और नीचे कूदा और गिरते हुए एक और संकरीले पत्थर से लटक गया। फिर इसी प्रकार छलांग लगाते हुए वो धीरे-धीरे करके आगे बढ़ने लगा और शीघ्र ही जलधारा के तट के निकट आ गया।

“तीर से हमले करो।” कासिम गुस्से में चीख पड़ा। 

अरबियों के सैकड़ों तीर चलें और उनमें से दो वेदान्त के शरीर में आ धँसे। घायल हुई जंघा और कंधा लिये वो दौड़ता रहा। शीघ्र ही वो अरबी तीरंदाजों की भेदन सीमा से बाहर निकल आया।

पलटकर उसने अपने शरीर में धँसे दोनों तीर निकाले और मुख पर विजयी मुस्कान लिये अपनी असफलता पर झल्लाये हुए कासिम की ओर देखा। उसके उपरान्त अपने माथे पर लगे रक्त को पोछ उसकी दृष्टि बहते हुए जल की ओर गयी। उन धाराओं में अपनी बहन के अंश का आभास कर उसके नेत्रों में नमी सी आ गयी, “वचन देता हूँ कमल, मैं कालभोज को लेकर आऊँगा। हमारी मातृभूमि इन विदेशी आक्रान्ताओ से मुक्त होकर रहेगी।”

अरबियों की टुकड़ी धीरे-धीरे दूसरे मार्ग से नीचे उतर रही थी। किन्तु अब वेदान्त के पीछे अनेकों वृक्षों का समूह था, तो भला उसे कौन रोक सकता था।