Khamosh jindagi ke bolate jajbat - 7 in Hindi Love Stories by Babul haq ansari books and stories PDF | खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 7

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खामोश ज़िंदगी के बोलते जज़्बात - 7

                     भाग:7

                छोटे से पुस्तकालय 
            रचना:बाबुल हक़ अंसारी

    कमरे में बैठकर आर्या ने अपनी पुरानी डायरी

निकाली।

पन्ना खोला और पढ़ने लगा—

 "वो जो नज़रों से उतर गया था,
आज भी दिल के क़रीब है।
वफ़ा की एक साँझ थी वो,
जो बिना नाम के भी मुकम्मल थी…"



अनया चौंकी —
"ये… तो वही पंक्तियाँ हैं! जो 'नीरव' जी के नाम से मशहूर हैं।"

आर्या ने सिर हिलाया,
"और रघुवीर त्रिपाठी जी को यही ग़लतफ़हमी हुई थी कि नीरव ने उनसे चुराई हैं। जबकि ये तो मेरी थीं… जिन्हें नीरव ने कभी पूरी मोहब्बत से छाप दिया था।"

अनया अब कुछ समझने लगी थी —
उसके भीतर की कठोरता थोड़ी नरम पड़ी।


रात आई…
आश्रम का मंच रोशनी से नहाया हुआ था।

लोग जमा थे।
कविता संध्या शुरू होने वाली थी।

पहले नीरव को आमंत्रित किया गया।

नीरव मंच पर आया — लेकिन उसकी आंखों में कोई जीत नहीं थी।
बस — स्वीकार था।

उसने माइक थामा और कहा —

"आज मैं किसी कविता से नहीं, एक सच्चाई से शुरुआत करना चाहता हूँ।

वो पंक्तियाँ जिनसे मेरा नाम जुड़ गया… कभी मेरी नहीं थीं।
वो उस लड़की की थीं, जिसने मुझे लिखना सिखाया —
आर्या।

मैंने उसे शब्द चुराकर नहीं, प्रेम में खोकर अपनाया था।
पर गलती यही थी — कि बिना उसकी इजाज़त के उन अल्फ़ाज़ों को अपना बना लिया।"

एक सन्नाटा… फिर धीमे-धीमे तालियाँ बजने लगीं।

आर्या की आँखें भर आईं।

अनया चुपचाप नीरव को देख रही थी —
पहली बार, बिना किसी पूर्वाग्रह के।

**

कार्यक्रम के अंत में आर्या ने स्टेज संभाला।

"जब अल्फ़ाज़ चुप हो जाएं, तो सच्चाई बोलती है।
आज, जो भी कहा गया — वो किसी को गिराने के लिए नहीं, बल्कि एक पीढ़ी को सच से जोड़ने के लिए था।"


विवेक मंच के पीछे खड़े थे। उनकी आँखों में संतोष का भाव था।

वो अब जान गए थे —
सच की जीत सिर्फ़ शब्दों में नहीं, नीयत में होती है।


अधूरी डायरी… अधूरा सच

सुबह का सूरज आश्रम की खिड़कियों से सुनहरी लकीरें डाल रहा था।
पिछली रात की कविता संध्या का असर अब भी सबके चेहरों पर था —
किसी के लिए वो एक साहित्यिक उत्सव था, तो किसी के लिए पुराने घावों पर खुला नमक।

अनया बरामदे में बैठी थी, हाथ में एक पुरानी चमड़े की जिल्द वाली डायरी।
उसके पन्ने हल्के पीले हो चुके थे।

"ये तुम्हारे लिए छोड़ी है," विवेक ने पिछली रात जाते-जाते कहा था।
"शायद इसमें वो जवाब हों, जो तुम मुझसे नहीं पूछ पाईं।"


डायरी खोलते ही शुरुआती पन्नों पर लिखा था —

 "अनया,
अगर ये शब्द कभी तुम्हारे हाथ लगे, तो जान लेना —
सच हमेशा काला-सफेद नहीं होता।
कभी-कभी वो राख की तरह होता है… जिसमें बुझी चिंगारियाँ भी होती हैं।"



अनया ने पन्ने पलटे।
हर पन्ने में रघुवीर त्रिपाठी के संघर्ष, उनके मंच, उनकी हार, और उनके भीतर का मौन दर्ज था।

एक जगह लिखा था —

> "नीरव ने मुझसे कुछ नहीं छीना…
मैंने ही अपने अहंकार को सच का रूप दे दिया।
हार कविता से नहीं हुई, हार मेरी अपनी जिद से हुई।"



अनया की आंखें धुंधली हो गईं।
पिता ने जो सच बाहर की दुनिया से छुपाया, वो अपनी बेटी के लिए इन पन्नों में छोड़ गए थे।


उसी दोपहर, आर्या पुस्तकालय में बैठी थी।
दरवाज़ा खटखटाकर अनया अंदर आई।

"ये डायरी पढ़ ली है मैंने," उसने कहा।
"अब मैं जानती हूँ कि सच में दोष किसका था… और किसका नहीं।"

आर्या ने उसकी आंखों में देखा —
"तो… क्या तुम हमें माफ़ कर पाओगी?"

अनया ने थोड़ी देर सोचा, फिर बोली —
"माफ़ करना आसान नहीं होता… लेकिन सच जान लेने के बाद, नफ़रत थामना और भी मुश्किल हो जाता है।
मैं बस इतना कह सकती हूँ कि — मैं कोशिश करूँगी।"

शाम को आश्रम के बरामदे में नीरव बैठा था, सामने काग़ज़ और कलम।
उसने लिखा —

 "कुछ अल्फ़ाज़,
अपनी जगह से भटके थे।
आज, उन्हें उनके असली घर पहुँचा आया हूँ।
और अब… मैं ख़ुद भी लौट रहा हूँ,
अपने असली रूप में।"


आर्या पास आई।
"नई कविता?" उसने पूछा।

नीरव मुस्कुराया —
"नहीं… नया मैं।"

(जारी रहेगा… )