(सनी के बलिदान और निशा के कोमा में जाने के बाद परिवार बिखर जाता है। आद्या अपने पिता की मौत का बदला लेने का संकल्प लेती है। अतुल्य नागस्वरूप में लौटकर जिम्मेदारी उठाता है, लेकिन भीतर अपराधबोध लिए रहता है। अस्पताल और घर की खामोशी में आद्या सवालों से जूझती है—तांत्रिक का उनके परिवार से क्या संबंध है, और भैया को अपनी नागशक्ति की याद क्यों नहीं? नागलोक में गुरु और नागजन आद्या व सनी के बलिदान को श्रद्धांजलि देते हैं, जबकि नागरानी मन ही मन इस महिमा से विचलित होती है।)
अतुल्य हुआ गायब
तांत्रिक ने मंत्रोच्चारण से गरुड़ को लोहे की जंजीरों-सी ऊर्जा में बाँध दिया। उसकी आँखें खून की तरह लाल चमक रही थीं— "तेरी वजह से मैं हार गया… तेरी वजह से!"
गरुड़ दर्द से कराहते हुए बोला "स्वामी… मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की…"
तभी तांत्रिक ने काली भस्म उसकी ओर फेंकी। भस्म लगते ही गरुड़ मानव—शक्ल में आ गया।
वह तड़पते हुए बोला, "मैंने सालों तक उस नागरक्षिका पर नज़र रखी थी…जंगल में उसके आने की खबर भी मैंने ही दी थी!"
तांत्रिक ने आँखें तरेरीं, "तो क्या करूँ इसका? उसकी शक्तियाँ खोने के बाद भी हम उसे नहीं तोड़ पाए!"
गरुड़ फुसफुसाया, "लेकिन स्वामी… आपने तो कहा था कि आद्या की बलि दी जाएगी… और अतुल्य को गुलाम बनाया जाएगा…"
तांत्रिक गरजा—"चुप रह!" उसकी आवाज़ में बिजली-सी कड़क थी। फिर धीमे, मगर और भी खतरनाक स्वर में बोला— "आद्या… दुनिया की सबसे शक्तिशाली नागरक्षिका है।अगर वह मेरे वश में आ गई… तो पूरा नागलोक मेरे चरणों में होगा।"
गरुड़ का सिर और झुक गया। "स्वामी… मैंने सनी की माँ और बहन को बंदी बना लिया है।"
तांत्रिक की मुस्कान और चौड़ी हो गई। "अतुल्य नहीं… तो कोई और नागमानव! बलि किसी की भी हो सकती है… पर आद्या…" उसकी आँखों में पागलपन चमका, और काली गुफ़ा उसकी हंसी से गूंज उठी— "आद्या मेरे वश में होगी… नागरक्षिका की शक्तियाँ मेरी होंगी!"
....
अस्पताल का गलियारा चुप था। अंदर डॉक्टर निशा को देख रहे थे। बाहर कुर्सी पर बैठा अतुल्य,गहरी सांसों के साथ जैसे यादों में खोया हुआ था— “देखो बेटा,”
“ऐसा नहीं है कि हम उस तांत्रिक को पकड़ना नहीं चाहते,लेकिन ये कौन मानेगा कि वो आद्या की बलि देना चाहता था?”“और ये बात? कि निशा भाभी पर किसी भस्म का असर हुआ है?” “फाइल में कैसे लिखें इसे?”“तुम फॉरेस्ट अफसर के बच्चे हो…ऐसी बातें कागजों पर मज़ाक लगती हैं।” अपना पक्ष रख रहे हैं पुलिस वाले।
बस, यहीं पर खून खौल गया अतुल्य का। उसकी आँखें अंगारे जैसी जल उठीं— “सनी अंकल मारे गए हैं! ये तो मानते हो न? “घर के बाहर हर वक्त एक गार्ड तैनात रहता था —मौत वाली रात वो क्यों गायब था?”
“एक आदमी जिसने अपनी बेटी से ज़्यादा उस जंगल को प्यार किया, उसे समय दिया, सेवा दी… उसकी मौत पर तुम सब चुप क्यों हो?” “क्यों? जवाब दो!” अतुल्य गुर्राया।
भीतर से कोई जवाब नहीं आया। केवल कागज़ों की खामोशी कमरे में गूंज रही थी। उसी वक्त,बाहर खड़ी आद्या फूट-फूटकर रो रही थी।
अतुल्य उसकी ओर बढ़ा, उसके कांपते कंधे थामे, और जैसे खुद को शांत करते हुए कहा— "आद्या... चल यहां से।" "यहां कुछ नहीं होगा। कोई नहीं पकड़ेगा अंकल के हत्यारे को।" "हमें खुद खोजना होगा... अपने सवालों के जवाब।"
और वो दोनों... वन विभाग की उस चौकी से बाहर निकल गए
जहाँ कानून सिर्फ़ फाइलों में था और इंसाफ़ सिर्फ़ दिलों में जल रहा था।
...
अस्पताल की बेंच पर बैठा अतुल्य, एकटक देखे जा रहा था निशा की ओर— लेकिन आँखों में वह दृश्य नहीं था जो सामने था, वह सब कुछ घूम रहा था जो उसने देखा था, सहा था… और अब तक छिपाया था।
सनी अंकल का लहूलुहान चेहरा… उनकी तड़पती साँसें।
निशा आंटी का ज़मीन पर छटपटाना…जैसे हर नस में ज़हर दौड़ गया हो।
और आद्या—अपनी मां को फटी-फटी आंखों से सब देखती हुई…पर पूरी तरह टूट चुकी।
अतुल्य की साँसें तेज़ हो गईं। उसने सिर झटकने की कोशिश की, लेकिन अब यादें पीछा नहीं छोड़ रहीं थीं।
और फिर… वो एकदम से उठा, बिना किसी को देखे, बिना कुछ कहे —अस्पताल के बाहर की ओर दौड़ पड़ा।
दौड़ते हुए उसके क़दम लड़खड़ाए, फिर घुटनों पर गिरा,
और फिर रेंगने लगा… कपड़े मिट्टी में सनते गए,
हथेलियाँ छिलने लगीं…लेकिन वो बस भाग रहा था — अपने भीतर की सचाई की ओर।
और तभी…उसकी पीठ के बीचोंबीच
एक गर्म लकीर सी दौड़ी — जैसे किसी ने उसमें आग की नसें बुन दी हों।
उसका शरीर कांपने लगा —हड्डियाँ चटकने लगीं, आँखों की पुतलियाँ हरे रंग में बदलने लगीं। अब वह अतुल्य नहीं था। अब वह — नाग मानव बन चुका था।
धरती पर एक नया कंपन हुआ, जैसे वनधरा की मिट्टी भी उसकी इस जागृति को पहचान गई हो। थोड़ी देर पहले जो शरीर नाग में बदल गया था,
वही अब थका हुआ और शांत होकर घर लौटा। दरवाज़ा खोला तो देखा— आद्या सोफे पर बैठी है, छोटे से पॉलीबैग में रखे किसी पाउडर को ऐसे घूर रही थी जैसे वह कोई रहस्य नहीं, उसकी पूरी जिंदगी हो।
"यह क्या है, प्यारी बहना?" अतुल्य ने पूछा, और रसोई की ओर बढ़कर पानी का गिलास उठाया।
कोई जवाब नहीं। "मैंने सवाल किया है।" उसने एक बार फिर कहा।
"गरुड़ भस्म।" आद्या की आवाज़ सपाट थी। "यही तो था जो उस तांत्रिक ने मम्मी पर फेंका… और आप पर भी।"
अतुल्य की भौहें तन गईं।
"मुझ पर इसलिए असर हुआ क्योंकि मैं नाग हूं, लेकिन... निशा आंटी पर क्यों?"
"और मुझ पर इसका कोई असर क्यों नहीं?" आद्या की आँखें अब अतुल्य से टकरा गई थीं।
"तू कहां से लाई ये?" उसका स्वर अचानक कठोर हुआ।
"हमले के वक़्त कुछ कण मेरे पर्स में चले गए थे। डाॅक्टर को दिया… पर कुछ नहीं हो सका। पापा का कातिल खुला घूम रहा है।"
"तू बदला लेना चाहती है?" अतुल्य की आँखों में आग झलकी।
"नहीं…" एक लम्बी साँस ली आद्या ने। "बदला नहीं… न्याय। मैं उसे सलाखों के पीछे देखना चाहती हूं।"
"और मैं... उसे अपने हाथों से मिटा देना चाहता हूं।" ये बात अतुल्य ने अपने दिल में ही रखी।
फिर अचानक...वह ज़ोर से हँस पड़ा। "बहुत जोर की भूख लगी है! चल, खाना खाते हैं।"
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"छोटे सपनों की बड़ी बातें"
डाइनिंग टेबल पर भूख कम, चुप्पी ज़्यादा बैठी थी।
"मेरी बात हो गई है," अतुल्य ने प्लेट में परोसते हुए कहा,
"निशा आंटी का बड़े हॉस्पिटल में एडमिशन हो जाएगा। कल शहर चलेंगे। 24 घंटे की नर्स भी मिल जाएगी।"
आद्या चौक गई—"इतना सारा खर्चा...?!"
अतुल्य मुस्कुराया,"बहुत अच्छा कमाता है तेरा भाई! और तेरी पढ़ाई भी तो रुक गई है। मेरी भी छुट्टियाँ बस खत्म होने वाली हैं।"
कुछ पल बाद, धीरे से आद्या बोली— "मम्मी-पापा चाहते थे कि मैं जंगल में न रहूं… चलो शहर ही चलते हैं भैया।" और फिर दोनों चुपचाप खाने लगे,
जैसे थाली में रोटियाँ नहीं, टूटे सपनों की शक्लें परोसी गई हों।
सुबह की हवा में एक अजीब सी बेचैनी थी।
जैसे पहाड़, पेड़ और पत्ते भी किसी खतरे की आहट सुन चुके हों।
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घर का सामान ट्रक पर लद चुका था। निशा एंबुलेंस में थी—ऑक्सीजन मास्क, सलाइन और एक सीनियर नर्स के साथ।सबसे पीछे थी अतुल्य की कार…
ड्राइविंग सीट पर बेचैन नागमानव, पीछे की सीट पर आंखें मूंदे शांत बैठी आद्या।
ट्रक आगे निकल चुका था। एंबुलेंस भी। और अब... पीछे छूट गया था रास्ता।
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बहुत देर बाद अतुल्य का मोबाइल बजा। उसने स्पीकर पर कॉल रिसीव किया। "हां यार, कहां रह गए? आंटी को एडमिट कर दिया है। सब ठीक है। नर्स भी बहुत प्रोफेशनल है। तुम निश्चिंत रहो।"
"थैंक्स गौरव। हम भी जस्ट पहुंचने वाले हैं। मिलते हैं।" फोन कटते ही अतुल्य ने खिड़की से बाहर देखा—कुछ अजीब था।
"आद्या!" उसने पुकारा।
"हूं? पहुंच गए क्या?" आद्या ने आंखें मलते हुए कहा।
"शायद... नहीं। शायद हम रास्ता भटक गए हैं।" अतुल्य कार से बाहर निकला।
आद्या भी बाहर आ गई। "पर भैया, इस रास्ते से तो आपका अक्सर आना-जाना होता है।"
अतुल्य ने आसमान की तरफ देखा, फिर पेड़ों की तरफ, फिर ज़मीन की नमी को महसूस किया।
और पलक झपकते ही वह आधा नाग बन चुका था।
"भ... भैया?" आद्या चौंक गई।
अतुल्य का ऊपरी शरीर अब फिर से मानव था—पर चेहरा नाग की फुंकार लिए।
"कार के अंदर जाओ!" उसका स्वर अब फुफकार था।
"क्या हुआ? क्या दिखा?" आद्या चौंकी
"अभी!" इस बार उसकी आवाज़ में ऐसा कुछ था कि आद्या डर के मारे भागकर कार की ओर दौड़ पड़ी।
अभी उसने दरवाज़ा बंद ही किया था कि…काले नागों का एक झुंड बिजली की रफ्तार से आया और अतुल्य को उठा ले गया।
"भैया!!" आद्या चीख उठी, दरवाज़ा खोल भागती हुई जंगल की ओर दौड़ी, लेकिन जो नाग उसे लेकर गए थे, वे आकाश और जंगल की सीमा से भी तेज थे।
"भैया!!!" उसकी आवाज़... पेड़ों से टकराई, पहाड़ों से गूंजी,
फिर… वापस लौट आई। खाली, थकी हुई।
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1. क्या अतुल्य का नागमानव रूप ही उसे तांत्रिक के जाल में खींच ले गया, या उसके गायब होने के पीछे कोई और रहस्य है?
2. आद्या, जिसके पास अब अपनी नागशक्ति नहीं है, अकेले इस खतरे का सामना कैसे करेगी?
3. तांत्रिक का असली इरादा अतुल्य की बलि लेना है या आद्या को अपने वश में करना—आख़िर सच्चाई क्या है?
क्या नागलोक का भविष्य अब आद्या के नन्हे कंधों पर है?आगे जानने के लिए पढ़ते रहिए "विषैला इश्क"।