अर्जुन ने नौ कठिनाइयों पर विजय पाई थी।
मोह, अकेलापन, क्रोध, प्रलोभन, आलस्य, भय, अहंकार और संशय—ये सब उसके सामने आए और उसने धैर्य, विश्वास और साधना से उन्हें हराया।
अब केवल अंतिम परीक्षा शेष थी।
गुरुजी ने एक दिन कहा –
“अर्जुन, तूने बहुत दूर तक सफर तय कर लिया है।
लेकिन ब्रह्मचर्य की पूर्णता तभी होगी, जब तू अंतिम परीक्षा पार करेगा।
यह परीक्षा बाहर नहीं, तेरे भीतर होगी।
यह तेरे इंद्रियों और मन के पूर्ण संयम की परीक्षा है।”
अर्जुन गंभीर हो गया।
उसे पता था कि यह परीक्षा अब तक की सबसे कठिन होगी।
परीक्षा की शुरुआत
गुरुजी ने उसे सात दिन का मौन और एकांत व्रत रखने का आदेश दिया।
अर्जुन को गहरे जंगल में भेजा गया, जहाँ कोई मनुष्य न था।
सिर्फ प्रकृति, जंगल की आवाज़ें और उसका अपना मन।
पहले दिन तो सब सहज रहा।
वह ध्यान करता, जप करता और नदी किनारे बैठकर आत्मचिंतन करता।
लेकिन दूसरे दिन से ही मन ने विद्रोह करना शुरू कर दिया।
कभी इंद्रियाँ पुरानी इच्छाओं की याद दिलातीं, कभी मन वासनाओं और प्रलोभनों की छवियाँ खींचता।
अर्जुन बेचैन हो जाता।
“मैंने तो सब कुछ त्याग दिया था… फिर ये विचार क्यों आ रहे हैं?”
वह खुद से सवाल करता।
भीतर का युद्ध
तीसरे दिन उसकी नींद टूटी तो उसे एक अजीब सपना याद आया—
सपने में वह पुराने मित्रों और सुख-सुविधाओं के बीच था।
मन ने फुसफुसाया –
“देख अर्जुन, यही असली जीवन है। तू क्यों खुद को कष्ट दे रहा है?
आनंद, भोजन, स्त्री, धन – यही तो इंसान के लिए है। साधना व्यर्थ है।”
अर्जुन का हृदय काँप उठा।
कुछ क्षणों के लिए उसे सचमुच लगा कि यह सब निरर्थक है।
वह उठा और जंगल से बाहर जाने ही वाला था कि अचानक उसे गुरुजी का वचन याद आया –
“याद रख अर्जुन, अंतिम क्षणों में मन तुझे भरसक भ्रमित करेगा।
अगर तू धैर्य रख सका, तो तुझे अमर प्रकाश मिलेगा।”
अर्जुन वहीं ठहर गया।
उसने आँखें बंद कीं और गहरी साँस ली।
साधना का उत्कर्ष
चौथे दिन से उसने कठोर संकल्प लिया।
“अब चाहे जो हो जाए, मैं हार नहीं मानूँगा।
मन अगर सौ बार टूटेगा, तो मैं उसे सौ बार जोड़ूँगा।”
उसने निरंतर ध्यान शुरू किया।
कभी सूरज की किरणों में बैठता, कभी रात के अंधेरे में ध्यान करता।
इंद्रियाँ बार-बार भटकातीं, लेकिन वह हर बार उन्हें साँस और मंत्र में बाँध देता।
धीरे-धीरे उसके भीतर एक शांति उतरने लगी।
मन के शोर कम होने लगे।
वह महसूस करने लगा कि उसके विचारों पर उसका नियंत्रण है।
सातवाँ दिन – अंतिम द्वार
सातवें दिन आधी रात को वह ध्यान में बैठा था।
अचानक उसे लगा जैसे उसके सामने उसका दूसरा रूप खड़ा हो गया है –
वह अर्जुन जो इच्छाओं, प्रलोभनों और वासनाओं में डूबा था।
वह रूप बोला –
“अर्जुन, तू मुझे क्यों मारना चाहता है?
मैं ही तेरी असली पहचान हूँ।
मुझे स्वीकार कर, तभी तू सुखी होगा।”
अर्जुन ने शांति से उत्तर दिया –
“नहीं, तू मेरा असली रूप नहीं।
तू केवल मेरे मन की परछाई है।
मेरा असली स्वरूप पवित्र, निर्मल और स्वतंत्र है।
तुझे जीतकर ही मैं अपने सत्य को पा सकूँगा।”
उसने मंत्र जप शुरू किया।
धीरे-धीरे वह अंधकारमय रूप धुँधला हुआ और अंततः विलीन हो गया।
उस क्षण अर्जुन के भीतर अद्भुत प्रकाश फूट पड़ा।
उसे लगा जैसे उसकी आत्मा और ब्रह्मांड एक हो गए हों।
मन की सारी इच्छाएँ, वासनाएँ और प्रलोभन राख की तरह उड़ गए।
ब्रह्मचर्य की पूर्णता
सुबह जब सूर्य निकला, तो अर्जुन अब वही साधारण युवक नहीं रहा था।
उसकी आँखों में एक दिव्य शांति थी।
उसका चेहरा तेज़ से दमक रहा था।
वह जंगल से लौटकर गुरुजी के चरणों में गिर पड़ा।
गुरुजी ने मुस्कुराकर कहा –
“अर्जुन, आज तूने अंतिम परीक्षा पार कर ली।
अब तू केवल नाम का ब्रह्मचारी नहीं, बल्कि आत्मा से ब्रह्मचारी है।
तेरे भीतर का संयम स्थायी हो गया है।
अब तेरा मन तुझे कभी बाँध नहीं सकेगा।”
गाँववाले उसे देखकर चकित रह गए।
वह पहले से भी अधिक शांत, विनम्र और तेजस्वी लग रहा था।
अर्जुन का आत्मबोध
उस रात अर्जुन ने अपनी डायरी में अंतिम पंक्तियाँ लिखीं
“आज मैं जान गया कि ब्रह्मचर्य केवल शरीर का संयम नहीं, बल्कि मन और आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता है।
यह भीतर की शक्ति है, जो अहंकार, वासना, भय और संशय सबको भस्म कर देती है।
अब मेरा जीवन सेवा और साधना को समर्पित है।
मैं अब अकेला नहीं हूँ – मैं उसी अनंत शक्ति का अंश हूँ, जिसे लोग परमात्मा कहते हैं।”
इस तरह अर्जुन ने अपनी अंतिम कठिनाई भी पार कर ली और ब्रह्मचर्य की पूर्णता प्राप्त की।
उसकी यात्रा एक साधारण युवक से आत्मिक विजेता बनने तक की थी।
अब उसकी कहानी केवल उसके लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन गई।