# अश्वेतों के बहाने
आज समाचार पत्र पढ़ते हुए एक न्यूज़ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया - "क्यों श्वेतों की तुलना में अश्वेत कम जीते हैं?" पढ़ने पर पता चला कि उसका कारण है 3 तरह के भेदभाव - रेसिज्म, सार्वजनिक स्थलों पर सम्मान की कमी एवं समाज के स्तर पर भेदभाव।
तभी अचानक मेरे दिमाग में आया कि इनसे बहुत ज्यादा भेदभाव क्या पूरी दुनिया की आधी आबादी नहीं झेल रही है प्रत्येक क्षण। बच्ची के जन्म होते ही घरवालों से ज्यादा तकलीफ समाज को होने लगती है। लोग ढंग से शुभकामना भी नहीं दे पाते हैं। अच्छे पढ़े लिखे लोगों से लेकर घर की मेड तक सांत्वना देती है कि कोई बात नहीं अगली संतान ' बच्चा' ही होगा। पता नहीं क्यों उन्हें ये समझ में ही नहीं आता कि परिवार बहुत ज्यादा खुश है। ऐसा करके वो एक व्यक्तित्व का अपमान कर रहे हैं।
दूसरा भेदभाव तब प्रारंभ होता है जब स्कूल में शिक्षित परंतु दिमागी तौर पर अर्द्ध विकसित शिक्षकों से उनका पाला पड़ता है जो अपनी लैंगिक धारणा उन पर थोपने का प्रयास करते हैं।
तीसरा भेदभाव तब होता है जब पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उन्हें सहारा लेना पड़ता है या कभी देर रात लौटना पड़ता है और रोड पर खड़े विकृत मानसिकता वाले व्यक्ति उनको अपना शिकार बनाने की सोचते हैं।
भेदभाव तो अनेकों हैं पर उनको जो जितना झेलती हैं, उतने ही चट्टान सदृश प्रत्येक महिला बनती जाती है। उनकी आयु बढ़ती जाती है, जिजीविषा बढ़ती जाती है और एक सशक्त स्त्री के रूप में खड़ी होती है।
उम्मीद करती हूं और विश्वास रखती हूं सारे अश्वेत स्त्रियों की तरह हो जाएं - चट्टान की तरह, भेदभाव से ऊपर उठे हुए और अपनी क्षमताओं पर विश्वास करते हुए अपनी जिजीविषा को संभाले। ईश्वर वह दिन जल्द लाएं।