बड़ी हिम्मत से बटोरकर टूटी उम्मीदें,,वापस आया था रोटी की तलाश में,,,,
खुद भूखा रहा,, भूखे बच्चों के पेट भर पाने की लड़खड़ाती धुंधली सी आस में,,,
फिर एक बार होकर बेबस ,, भूखे बच्चों को झूठी उम्मीद का कड़वा पानी पिला रहा है,,,,
वो देखो,,,,,
मेरा 'गाँव' सिर पर लाचारी की गठरी रखे,
,वापस आने को लौटकर इस दिखावे के शहर में,,
फिर एक बार पैदल ही अपने 'घर' जा रहा है,,,,
समाज के अविकसित विकास का चेहरा दिखा रहा है!!!
चांद को छूने वालों को जमीनी हकीकत बता रहा है!!!
हाँ,,,मेरा गाँव अपने घर जा रहा है!!!
khushboo,,,,,