काव्य श्रृंखला: "रात की रानी"
भाग 1: उसकी ख़ुशबू में बसी रात :
रात की बाँहों में लिपटी एक परछाई थी,
चाँदनी चुप थी, पर हवाओं में शहनाई थी।
हर पत्ती जैसे उसके क़दमों की सिसकी गा रही थी,
ओस की बूंद भी उस रूप को देखकर शर्माई थी।
ना देखा उसे, पर उसकी ख़ुशबू ने छू लिया,
मेरे ख्यालों की गलियों में जादू बिखर गया।
वो रात की रानी, बस एक फूल नहीं, कोई राज़ थी,
महकते अल्फ़ाज़ों की चुप किताब थी।
चुपचाप आई, चुपचाप चली गई — पर ख़ुशबू छोड़ गई,
दिल की वीरानी में एक मीठी आँच छोड़ गई।
जैसे कोई रूह मेरे सपनों में उतर आई हो,
या फिर वो दुआ, जो मेरे लबों से बिना बोले निकल आई हो।
हर लहर उस नाम का गीत गुनगुना रही थी,
मधुर अनुप्रासों में उसकी हँसी गूंज रही थी।
वो पास नहीं थी, फिर भी दिल के हर कोने में समा गई,
सिर्फ़ रात नहीं, मेरी साँसों में महक बनकर छा गई।
तेरी यादों से सजती है अब हर शाम की चौखट,
रात की रानी की खुशबू बन गई मेरी आदत।
पर क्या ये सिर्फ़ सुगंध थी या कोई अजनबी दस्तक?
या उस रूह की झलक, जो अब भी मुझे हर रात खींच लाती है?
अगले भाग का संकेत (भाग 2: “ख़ामोशी की दस्तक”)
"…लेकिन क्या वो सिर्फ़ एहसास था या कोई रूहानी इत्तिफ़ाक़? क्या उसकी खुशबू के पीछे कोई दास्तान छुपी है?"